चंद्रशेखर वेंकट रामन

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चंद्रशेखर वेंकट रामन / C. V. Raman

परिचय

चंद्रशेखर वेंकट रामन का जन्म तिरुचिरापल्ली शहर में 7 नवम्बर 1888 को हुआ था, जो कि कावेरी नदी के किनारे स्थित है। इनके पिता चंद्रशेखर अय्यर एक स्कूल में पढ़ाते थे। वह भौतिकी और गणित के विद्वान और संगीत प्रेमी थे। चंद्रशेखर वेंकट रामन की माँ पार्वती अम्माल थीं।

शिक्षा

रामन संगीत, संस्कृत और विज्ञान के वातावरण में बड़े हुए। वह हर कक्षा में प्रथम आते थे। रामन ने 'प्रेसीडेंसी कॉलेज' में बी. ए. में प्रवेश लिया। 1905 में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वह अकेले छात्र थे और उन्हें उस वर्ष का 'स्वर्ण पदक' भी प्राप्त हुआ। उन्होंने 'प्रेसीडेंसी कॉलेज' से ही एम. ए. में प्रवेश लिया और मुख्य विषय के रूप में भौतिक शास्त्र को लिया। विज्ञान के प्रति प्रेम और कार्य के प्रति उत्साह और नई चीजों को सीखने की का उत्साह उनके स्वभाव में था। इनकी प्रतिभा से इनके अध्यापक तक अभिभूत थे। श्री रामन के बड़े भाई 'भारतीय लेखा सेवा' (IAAS) में कार्यरत थे। रामन भी इसी विभाग में काम करना चाहते थे इसलिये वे प्रतियोगी परीक्षा में सम्मिलित हुए। इस परीक्षा से एक दिन पहले एम. ए. का परिणाम घोषित हुआ जिसमें उन्होंने 'मद्रास विश्वविद्यालय' के इतिहास में सर्वाधिक अंक अर्जित किए और IAAS की परीक्षा में भी प्रथम स्थान प्राप्त किया। 6 मई 1907 को कृष्णस्वामी अय्यर की सुपुत्री 'त्रिलोकसुंदरी' से रामन का विवाह हुआ।

सरकारी नौकरी

रामन कोलकाता में सहायक महालेखापाल के पद पर नियुक्त थे, किंतु रामन का मन बहुत ही अशांत था क्योंकि वह विज्ञान में अनुसंधान कार्य करना चाहते थे। एक दिन दफ्तर से घर लौटते समय उन्हें 'इण्डियन एसोशिएशन फॉर कल्टिवेशन आफ साइंस' का बोर्ड दिखा और अगले ही पल वो परिषद के अंदर जा पहुँचे। उस समय वहाँ परिषद की बैठक चल रही थी। बैठक में सर आशुतोष मुखर्जी जैसे विद्वान उपस्थित थे। इसके पश्चात रामन 'भारतीय विज्ञान परिषद' की प्रयोगशाला में अनुसंधान करने लगे। दिन भर दफ्तर में और सुबह शाम प्रयोगशाला में काम करना रामन की दिनचर्या हो गयी थी। परंतु कुछ दिनों के पश्चात रामन का तबादला बर्मा के रंगून शहर में हो गया। रंगून में श्री रामन मन नहीं लगता था क्योंकि ‌वहां प्रयोग और अनुसंधान करने की सुविधा नहीं थी। इसी समय रामन के पिता की मृत्यु हो गई। रामन छह महीनों की छुट्टी लेकर मद्रास आ गए। छुट्टियाँ पूरी हुईं तो रामन का तबादला नागपुर हो गया।

कोलकाता के लिए स्थानांतरण

सन 1911 ई. में श्री रामन को 'एकाउंटेंट जरनल' के पद पर नियुक्त करके पुनः कलकत्ता भेज दिया गया। इससे रामन बड़े प्रसन्न थे क्योंकि उन्हें परिषद की प्रयोगशाला में पुनः अनुसंधान करने का अवसर मिल गया था। अगले सात वर्षों तक रामन इस प्रयोगशाला मे शोधकार्य करते रहे। सर तारक नाथ पालित, डॉ. रासबिहारी घोष और सर आशुतोष मुखर्जी के प्रयत्नों से कोलकाता में एक साइंस कॉलेज खोला गया। रामन की विज्ञान के प्रति समर्पण की भावना इस बात से लगता है कि उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर कम वेतन वाले प्राध्यापक पद पर आना पसंद किया। सन 1917 में रामन कोलकाता विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक नियुक्त हुए। भारतीय संस्कृति से रामन का हमेशा ही लगाव रहा। उन्होंने अपनी भारतीय पहचान को हमेशा बनाए रखा। वे देश में वैज्ञानिक दृष्टि और चिंतन के विकास के प्रति समर्पित थे।

विश्वविद्यालयों का सम्मेलन

सन 1917 में लंदन में ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के विश्वविद्यालयों का सम्मेलन था। रामन ने उस सम्मेलन में कोलकाता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। यह रामन की पहली विदेश यात्रा थी। 

विदेश में श्री रामन

वेंकटरामन ब्रिटेन के प्रतिष्ठित कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की 'एम॰ आर॰ सी॰ लेबोरेट्रीज़ ऑफ़ म्यलूकुलर बायोलोजी' के स्ट्रकचरल स्टडीज़ विभाग के प्रमुख वैज्ञानिक थे। वे 1971 में बड़ौदा विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद अमेरिका चले गए। बाद में वेंकटरामन ने काम करने के लिए ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय को चुना। जबकि 'राइबोसोम' पर अध्ययन की शुरूआत उन्होंने ने 1978 में की। उनके साथ इस शोध में 'येले यूनिवर्सिटी' के वैज्ञानिक 'थॉमस स्टीज़' और इज़राइल के 'विजमैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस' से 'अदा योनोथ' भी शामिल रहे।

रामन प्रभाव

इस विदेश यात्रा के समय उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण घटना घटित हुई। पानी के जहाज से उन्होंने भू-मध्य सागर के गहरे नीले पानी को देखा। इस नीले पानी को देखकर श्री रामन के मन में विचार आया कि यह नीला रंग पानी का है या नीले आकाश का सिर्फ परावर्तन। बाद में रामन ने इस घटना को अपनी खोज द्वारा समझाया कि यह नीला रंग न पानी का है न ही आकाश का। यह नीला रंग तो पानी तथा हवा के कणों द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन से उत्पन्न होता है क्योंकि प्रकीर्णन की घटना में सूर्य के प्रकाश के सभी अवयवी रंग अवशोषित कर ऊर्जा में परिवर्तित हो जाते हैं, परंतु नीले प्रकाश को वापस परावर्तित कर दिया जाता है। सात साल की कड़ी महनत के बाद रामन ने इस रहस्य के कारणों को खोजा था। उनकी यह खोज 'रामन प्रभाव' के नाम से प्रसिद्ध है।

राष्ट्रीय विज्ञान दिवस

'रामन प्रभाव' की खोज 28 फरवरी 1928 को हुई थी। इस महान खोज की याद में 28 फरवरी का दिन हम 'राष्ट्रीय विज्ञान दिवस' के रूप में मनाते हैं।

नोबेल पुरस्कार

इस महान खोज 'रामन प्रभाव' के लिये 1930 में श्री रामन को 'भौतिकी का नोबेल पुरस्कार' प्रदान किया गया और रामन भौतिक विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले एशिया के पहले व्यक्ति बने। रामन की खोज की वजह से पदार्थों में अणुओं और परमाणुओं की आंतरिक संरचना का अध्ययन सहज हो गया। पुरस्कार की घोषणा के बाद वेंकटरामन ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि 'मीडिया का ज़्यादा ध्यान वैज्ञानिकों के काम पर तब जाता है जब उन्हें पश्चिम में बड़े सम्मान या पुरस्कार मिलने लगते हैं। ये तरीका गलत है, बल्कि होना ये चाहिए कि हम अपने यहां काम कर रहे वैज्ञानिकों, उनके काम को जानें और उसके बारे में लोगों को बताएं। उन्होंने कहा कि भारत में कई वैज्ञानिक अच्छे काम कर रहे हैं, मीडिया को चाहिए कि उनसे मिले और उनके काम को सराहे साथ ही लोगों तक भी पहुंचाए।'

सरल स्वभाव के रामन

श्री वेंकटरामन के विषय में ख़ास बात है कि वे बहुत ही साधारण और सरल तरीके से रहते थे। वहर प्रकृति प्रेमी भी थे। वे अक्सर अपने घर से ऑफिस साइकिल से आया जाया करते थे। वे दोस्तों के बीच 'वैंकी' नाम से प्रसिद्ध थे। उनके माता-पिता दोनों वैज्ञानिक रहे हैं। एक साक्षात्कार में वेंकटरामन के पिता श्री 'सी॰ वी॰ रामकृष्णन' ने बताया कि 'नोबल पुरस्कार समिति' के सचिव ने लंदन में जब वेंकटरामन को फोन कर नोबल पुरस्कार देने की बात कही तो पहले तो उन्हें यकीन ही नहीं हुआ। वेंकट ने उनसे कहा कि 'क्या आप मुझे मूर्ख बना रहे हैं?' क्योंकि नोबेल पुरस्कार मिलने से पहले अक्सर वेंकटरामन के मित्र फोन कर उन्हें नोबेल मिलने की झूठी ख़बर देकर चिढ़ाया करते थे।'

स्वतंत्र संस्थान की स्थापना

सन 1933 में डॉ. रामन को बंगलुरु में स्थापित 'इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज़' के संचालन का भार सौंपा गया। वहाँ उन्होंने 1948 तक कार्य किया। बाद में डॉ.रामन ने बेंगलूर में अपने लिए एक स्वतंत्र संस्थान की स्थापना की। इसके लिए उन्होंने कोई भी सरकारी सहायता नहीं ली। उन्होंने बैंगलोर में एक अत्यंत उन्नत प्रयोगशाला और शोध-संस्थान ‘रामन रिसर्च इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की। रामन वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि की साक्षात प्रतिमूर्त्ति थे। उन्होंने हमेशा प्राकृतिक घटनाओं की छानबीन वैज्ञानिक दृष्टि से करने का संदेश दिया। डॉ.रामन अपने संस्थान में जीवन के अंतिम दिनों तक शोधकार्य करते रहे।

संगीत वाद्य यंत्र और अनुसंधान

डॉ.रामन की संगीत में भी गहरी रूचि थी। उन्होंने संगीत का भी गहरा अध्ययन किया था। संगीत वाद्य यंत्रों की ध्वनियों के बारे में डॉ. रामन ने अनुसंधान किया, जिसका एक लेख जर्मनी के एक 'विश्वकोश' में भी प्रकाशित हुआ था। वे बहू बाज़ार स्थित प्रयोगशाला में कामचलाऊ उपकरणों का इस्तेमाल करके शोध कार्य करते थे। फिर उन्होंने अनेक वाद्य यंत्रों का अध्ययन किया और वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर पश्चिम देशों की इस भ्रांति को तोड़ने का प्रयास किया कि भारतीय वाद्य यंत्र विदेशी वाद्यों की तुलना में घटिया हैं।

भारत रत्न की उपाधि

डॉ.रामन का देश-विदेश की प्रख्यात वैज्ञानिक संस्थाओं ने सम्मान किया। भारत सरकार ने 'भारत रत्न' की सर्वोच्च उपाधि देकर सम्मानित किया।

लेनिन पुरस्कार

सोवियत रूस ने उन्हें 1958 में 'लेनिन पुरस्कार' प्रदान किया।

निधन

21 नवम्बर 1970 को 82 वर्ष की आयु में वैज्ञानिक डॉ. रामन की मृत्यु हुई।