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कानन-कुसुम -
 
कानन-कुसुम -
 
 
पुन्य औ पाप न जान्यो जात।
 
पुन्य औ पाप न जान्यो जात।
 
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सब तेरे ही काज करत हैं और न उन्हे सिरात ॥
सब तेरे ही काज करत है और न उन्हे सिरात ॥
 
 
 
 
सखा होय सुभ सीख देत कोउ काहू को मन लाय।
 
सखा होय सुभ सीख देत कोउ काहू को मन लाय।
 
 
सो तुमरोही काज सँवारत ताकों बड़ो बनाय॥
 
सो तुमरोही काज सँवारत ताकों बड़ो बनाय॥
 
 
भारत सिंह शिकारी बन-बन मृगया को आमोद।
 
भारत सिंह शिकारी बन-बन मृगया को आमोद।
 
 
सरल जीव की रक्षा तिनसे होत तिहारे गोद॥
 
सरल जीव की रक्षा तिनसे होत तिहारे गोद॥
 
 
स्वारथ औ परमारथ सबही तेरी स्वारथ मीत।
 
स्वारथ औ परमारथ सबही तेरी स्वारथ मीत।
 
 
तब इतनी टेढी भृकुटी क्यों? देहु चरण में प्रीत॥
 
तब इतनी टेढी भृकुटी क्यों? देहु चरण में प्रीत॥
  
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छिपी के झगड़ा क्यों फैलायो?
 
छिपी के झगड़ा क्यों फैलायो?
 
 
मन्दिर मसजिद गिरजा सब में खोजत सब भरमायो॥
 
मन्दिर मसजिद गिरजा सब में खोजत सब भरमायो॥
 
 
अम्बर अवनि अनिल अनलादिक कौन भूमि नहि भायो।
 
अम्बर अवनि अनिल अनलादिक कौन भूमि नहि भायो।
 
 
कढ़ि पाहनहूँ ते पुकार बस सबसों भेद छिपायो॥
 
कढ़ि पाहनहूँ ते पुकार बस सबसों भेद छिपायो॥
 
 
कूवाँ ही से प्यास बुझत जो, सागर खोजन जावै-
 
कूवाँ ही से प्यास बुझत जो, सागर खोजन जावै-
 
 
ऐसो को है याते सबही निज निज मति गुन गावै॥
 
ऐसो को है याते सबही निज निज मति गुन गावै॥
 
 
लीलामय सब ठौर अहो तुम, हमको यहै प्रतीत।
 
लीलामय सब ठौर अहो तुम, हमको यहै प्रतीत।
 
 
अहो प्राणधन, मीत हमारे, देहु चरण में प्रीत॥
 
अहो प्राणधन, मीत हमारे, देहु चरण में प्रीत॥
  
  
 
ऐसो ब्रह्म लेइ का करिहैं?
 
ऐसो ब्रह्म लेइ का करिहैं?
 
 
जो नहि करत, सुनत नहि जो कुछ जो जन पीर न हरिहै॥
 
जो नहि करत, सुनत नहि जो कुछ जो जन पीर न हरिहै॥
 
 
होय जो ऐसो ध्यान तुम्हारो ताहि दिखावो मुनि को।
 
होय जो ऐसो ध्यान तुम्हारो ताहि दिखावो मुनि को।
 
 
हमरी मति तो, इन झगड़न को समुझि सकत नहि तनिको॥
 
हमरी मति तो, इन झगड़न को समुझि सकत नहि तनिको॥
 
 
परम स्वारथी तिनको अपनो आनंद रूप दिखायो।
 
परम स्वारथी तिनको अपनो आनंद रूप दिखायो।
 
 
उनको दुख, अपनो आश्वासन, मनते सुनौ सुनाओ॥
 
उनको दुख, अपनो आश्वासन, मनते सुनौ सुनाओ॥
 
 
करत सुनत फल देत लेत सब तुमही, यहै प्रतीत।
 
करत सुनत फल देत लेत सब तुमही, यहै प्रतीत।
 
 
बढ़ै हमारे हृदय सदा ही, देहु चरण में प्रीत॥
 
बढ़ै हमारे हृदय सदा ही, देहु चरण में प्रीत॥
  
  
 
और जब कहिहै तब का रहिहै।
 
और जब कहिहै तब का रहिहै।
 
 
हमरे लिए प्रान प्रिय तुम सों, यह हम कैसे सहिहै॥
 
हमरे लिए प्रान प्रिय तुम सों, यह हम कैसे सहिहै॥
 
 
तव दरबारहू लगत सिपारत यह अचरज प्रिय कैसो?
 
तव दरबारहू लगत सिपारत यह अचरज प्रिय कैसो?
 
 
कान फुकावै कौन, हम कि तुम! रुचे करो तुम तैसो॥
 
कान फुकावै कौन, हम कि तुम! रुचे करो तुम तैसो॥
 
 
ये मन्त्री हमरो तुम्हरो कछु भेद न जानन पावें।
 
ये मन्त्री हमरो तुम्हरो कछु भेद न जानन पावें।
 
 
लहि 'प्रसाद' तुम्हरो जग में, प्रिय जूठ खान को जावें॥  
 
लहि 'प्रसाद' तुम्हरो जग में, प्रिय जूठ खान को जावें॥  
 
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07:00, 20 अगस्त 2011 का अवतरण

चित्राधार -जयशंकर प्रसाद
जयशंकर प्रसाद
कवि जयशंकर प्रसाद
जन्म 30 जनवरी, 1889
जन्म स्थान वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 15 नवम्बर, सन 1937
मुख्य रचनाएँ चित्राधार, कामायनी, आँसू, लहर, झरना, एक घूँट, विशाख, अजातशत्रु
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ

कानन-कुसुम -
पुन्य औ पाप न जान्यो जात।
सब तेरे ही काज करत हैं और न उन्हे सिरात ॥
सखा होय सुभ सीख देत कोउ काहू को मन लाय।
सो तुमरोही काज सँवारत ताकों बड़ो बनाय॥
भारत सिंह शिकारी बन-बन मृगया को आमोद।
सरल जीव की रक्षा तिनसे होत तिहारे गोद॥
स्वारथ औ परमारथ सबही तेरी स्वारथ मीत।
तब इतनी टेढी भृकुटी क्यों? देहु चरण में प्रीत॥



छिपी के झगड़ा क्यों फैलायो?
मन्दिर मसजिद गिरजा सब में खोजत सब भरमायो॥
अम्बर अवनि अनिल अनलादिक कौन भूमि नहि भायो।
कढ़ि पाहनहूँ ते पुकार बस सबसों भेद छिपायो॥
कूवाँ ही से प्यास बुझत जो, सागर खोजन जावै-
ऐसो को है याते सबही निज निज मति गुन गावै॥
लीलामय सब ठौर अहो तुम, हमको यहै प्रतीत।
अहो प्राणधन, मीत हमारे, देहु चरण में प्रीत॥


ऐसो ब्रह्म लेइ का करिहैं?
जो नहि करत, सुनत नहि जो कुछ जो जन पीर न हरिहै॥
होय जो ऐसो ध्यान तुम्हारो ताहि दिखावो मुनि को।
हमरी मति तो, इन झगड़न को समुझि सकत नहि तनिको॥
परम स्वारथी तिनको अपनो आनंद रूप दिखायो।
उनको दुख, अपनो आश्वासन, मनते सुनौ सुनाओ॥
करत सुनत फल देत लेत सब तुमही, यहै प्रतीत।
बढ़ै हमारे हृदय सदा ही, देहु चरण में प्रीत॥


और जब कहिहै तब का रहिहै।
हमरे लिए प्रान प्रिय तुम सों, यह हम कैसे सहिहै॥
तव दरबारहू लगत सिपारत यह अचरज प्रिय कैसो?
कान फुकावै कौन, हम कि तुम! रुचे करो तुम तैसो॥
ये मन्त्री हमरो तुम्हरो कछु भेद न जानन पावें।
लहि 'प्रसाद' तुम्हरो जग में, प्रिय जूठ खान को जावें॥