जे. कृष्णमूर्ति

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जे. कृष्णमूर्ति
जे. कृष्णमूर्ति
पूरा नाम जिद्दू कृष्णमूर्ति
जन्म 12 मई, 1895 ई.
जन्म भूमि तमिलनाडु
मृत्यु 17 फ़रवरी, 1986 ई.
कर्म भूमि भारत और इंग्लैंड
भाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी
पुरस्कार-उपाधि विश्वगुरु
नागरिकता भारतीय

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जे. कृष्णमूर्ति या 'जिद्दू कृष्णमूर्ति' (जन्म- 12 मई, 1895 ई. तमिलनाडु तथा मृत्यु- 17 फ़रवरी, 1986 ई.) एक दार्शनिक तथा आध्यात्मिक विषयों के बड़े ही कुशल एवं परिपक्व लेखक थे। इन्हें प्रवचनकर्ता के रूप में भी ख्याति प्राप्त थी। जे. कृष्णमूर्ति मानसिक क्रान्ति, बुद्धि की प्रकृति, ध्यान और समाज में सकारात्मक परिवर्तन किस प्रकार लाया जा सकता है, इन विषयों आदि के बहुत ही गहरे विशेषज्ञ थे।

परिचय

जे. कृष्णमूर्ति का जन्म तमिलनाडु के एक छोटे-से नगर में निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता 'जिद्दू नारायनिया' ब्रिटिश प्रशासन में सरकारी कर्मचारी थे। जब कृष्णमूर्ति केवल दस साल के ही थे, तभी इनकी माता 'संजीवामा' का निधन हो गया। बचपन से ही इनमें कुछ असाधारणता थी। थियोसोफ़िकल सोसाइटी के सदस्य पहले ही किसी विश्वगुरु के आगमन की भविष्यवाणी कर चुके थे। श्रीमती एनी बेसेंट और थियोसोफ़िकल सोसाइटी के प्रमुखों को जे. कृष्णमूर्ति में वह विशिष्ट लक्षण दिखाई दिये, जो कि एक विश्वगुरु में होते हैं। एनी बेसेंट ने जे. कृष्णमूर्ति की किशोरावस्था में ही उन्हें गोद ले लिया और उनकी परवरिश पूर्णतया धर्म और आध्यात्म से ओत-प्रोत वातावरण में हुई।

शिक्षा

थियोसोफ़िकल सोसाइटी के प्रमुख को लगा कि जे. कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्तित्व का धनी ही विश्व का शिक्षक बन सकता है। एनी बेसेंट ने भी इस विचार का समर्थन किया और जिद्दू कृष्णमूर्ति को वे अपने छोटे भाई की तरह मानने लगीं। 1912 में उन्हें शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेजा गया और 1921 तक वे वहाँ रहे। इसके बाद विभिन्न देशों में थियोसोफ़िकल पर भाषण देने का क्रम चलता रहा। जे. कृष्णमूर्ति ने सदैव ही इस बात पर बल दिया था कि प्रत्येक मनुष्य को मानसिक क्रान्ति की आवश्यकता है और उनका यह भी मत था कि इस तरह की क्रान्ति किन्हीं बाह्य कारक से सम्भव नहीं है। चाहे वह धार्मिक, राजनैतिक या सामाजिक किसी भी प्रकार की हो।

स्वतंत्र विचार

1927 में एनी बेसेंट ने उन्हें 'विश्व गुरु' घोषित किया। किन्तु दो वर्ष बाद ही कृष्णमूर्ति ने थियोसोफ़िकल विचारधारा से नाता तोड़कर अपने नये दृष्टिकोण का प्रतिपादन आरम्भ कर दिया। अब उन्होंने अपने स्वतंत्र विचार देने शुरू कर दिये। उनका कहना था कि व्यक्तित्व के पूर्ण रूपान्तरण से ही विश्व से संघर्ष और पीड़ा को मिटाया जा सकता है। हम अन्दर से अतीत का बोझ और भविष्य का भय हटा दें और अपने मस्तिष्क को मुक्त रखें। उन्होंने 'आर्डर ऑफ़ दि स्टार' को भंग करते हुए कहा कि 'अब से कृपा करके याद रखें कि मेरा कोई शिष्य नहीं हैं, क्योंकि गुरु तो सच को दबाते हैं। सच तो स्वयं तुम्हारे भीतर है।...सच को ढूँढने के लिए मनुष्य को सभी बंधनों से स्वतंत्र होना आवश्यक है।'

कृष्णमूर्ति ने बड़ी ही फुर्ती और जीवटता से लगातार दुनिया के अनेकों भागों में भ्रमण किया और लोगों को शिक्षा दी और लोगों से शिक्षा ली। उन्होंने पूरा जीवन एक शिक्षक और छात्र की तरह बिताया। मनुष्य के सर्वप्रथम मनुष्य होने से ही मुक्ति की शुरुआत होती है, किंतु आज का मानव हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, मुस्लिम, अमेरिकी या अरबी है। उन्होंने कहा था कि संसार विनाश की राह पर आ चुका है और इसका हल तथाकथित धार्मिकों और राजनीतिज्ञों के पास नहीं है।

निधन

जिद्दू कृष्णमूर्ति की इस नई विचारधारा की ओर समाज का बौद्धिक वर्ग आकृष्ट हुआ और लोग पथ-प्रदर्शन के लिए उनके पास आने लगे थे। उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की, जिनमें दक्षिण भारत का 'ऋषिवैली' स्कूल विशेष उल्लेखनीय है। भारत के इस महान व्यक्तित्व की 91 वर्ष की आयु में 17 फ़रवरी, 1986 ई. में मृत्यु हो गई।  

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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