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'डाकिया' भारतीय सामाजिक जीवन की एक आधारभूत कड़ी है। डाकिया द्वारा डाक लाना, पत्रों का बेसब्री से इंतज़ार, डाकिया से ही पत्र पढ़वाकर उसका जवाब लिखवाना इत्यादि तमाम महत्वपूर्ण पहलू हैं, जिन्हें नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। उसके परिचित सभी तबके के लोग हैं। कभी-कभी जो काम बड़े अधिकारी भी नहीं करा पाते वह डाकिया चंद मिनटों में करा देता है। कारण डाक विभाग का वह सबसे मुखर चेहरा है। जहाँ कई अन्य देशों ने होम-टू-होम डिलीवरी को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ाये हैं, या इसे सुविधा-शुल्क से जोड़ दिया है, वहीं भारतीय डाकिया आज भी देश के हर होने में स्थित गाँव में निःशुल्क अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। जैसे-जैसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता व भावनात्मकता कम होती गयी, वैसे-वैसे ही डाकिया का दृष्टिकोण भी भावनात्मक की बजाय व्यवसायिक होता गया। <ref>{{cite web |url=http://www.sahityashilpi.com/2011/10/9.html |title=डाकिया: बदलते हुए रूप |accessmonthday=27 दिसम्बर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=साहित्य शिल्पी |language=हिंदी}}</ref>
 
'डाकिया' भारतीय सामाजिक जीवन की एक आधारभूत कड़ी है। डाकिया द्वारा डाक लाना, पत्रों का बेसब्री से इंतज़ार, डाकिया से ही पत्र पढ़वाकर उसका जवाब लिखवाना इत्यादि तमाम महत्वपूर्ण पहलू हैं, जिन्हें नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। उसके परिचित सभी तबके के लोग हैं। कभी-कभी जो काम बड़े अधिकारी भी नहीं करा पाते वह डाकिया चंद मिनटों में करा देता है। कारण डाक विभाग का वह सबसे मुखर चेहरा है। जहाँ कई अन्य देशों ने होम-टू-होम डिलीवरी को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ाये हैं, या इसे सुविधा-शुल्क से जोड़ दिया है, वहीं भारतीय डाकिया आज भी देश के हर होने में स्थित गाँव में निःशुल्क अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। जैसे-जैसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता व भावनात्मकता कम होती गयी, वैसे-वैसे ही डाकिया का दृष्टिकोण भी भावनात्मक की बजाय व्यवसायिक होता गया। <ref>{{cite web |url=http://www.sahityashilpi.com/2011/10/9.html |title=डाकिया: बदलते हुए रूप |accessmonthday=27 दिसम्बर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=साहित्य शिल्पी |language=हिंदी}}</ref>
 
==विभिन्न नाम==
 
==विभिन्न नाम==
डाकिया भैया, पोस्टमैन, चिट्ठीरसा और जाने कितने नाम से डाकिया को जाना जाता है। भारतीय समाज में उसकी एक अलग हैसियत और पहचान है। भीड़ में हमेशा उसे अलग से ही पहचाना जा सकता है। अपने इलाके में वह [[परिवार]] के सदस्य से कम नहीं माना जाता। इसी नाते डाक प्रणाली में सबसे ज्यादा लोक गीत और साहित्य डाकिया या पोस्टमैन पर लिखे गए हैं। तमाम गीतों में डाकिया के लंबे जीवन की कामना की गयी है। सरकारी अमले में पोस्टमैन ही ऐसा है जिसकी देहात में ख़ास तौर पर सबसे ज्यादा गुडविल है। बाकी सरकारी कर्मचारी अगर गांव-गिरांव में आते हैं और किसी का नाम अगर सूखा राहत देने के लिए भी बुलाते है तो एक बारगी लोग सहम जाते है,पर डाकिया किसी का नाम बुलाए तो उसके चेहरे पर अपने आप खुशी तैर आती है। भले ही डाकिया के थैले से कोई बुरी ख़बर क्यों न निकले । भारत ही नहीं दुनिया की क़रीब सभी डाक प्रणालियों की रीढ़ डाकिया या पोस्टमैन ही माना जाता है। ज़मीनी स्तर पर पोस्टमैन ही डाक विभाग का वास्तविक प्रतिनिधि होता है। भारतीय समाज में डाकिया को सबसे सम्मान का दर्जा मिला है। सरकार और जनता के बीच संवाद की वह सबसे मजबूत कड़ी है। यही नहीं एक डाकिया अपने इलाके के समाज और भूगोल की जितनी गहरी समझ रखता है, उतनी किसी और को नहीं होती। पुलिस तथा राजस्व विभाग भी दुर्गम देहात तक यूँ अपनी मौजूदगी रखते हैं। पर इन विभागों के प्रतिनिधि सिपाही, चौकीदार या पटवारी की विश्वसनीयता और गुडविल कभी भी डाकिया जैसी नहीं बन सकी। सदियों में भारतीय समाज में डाकिया वह घर-घर की खबर रखता है। देहात हो या शहर सभी उसे अपना शुभचिंतक और हितैषी मानते हैं। वह अपने इलाके का मानव कमप्यूटर है, जिसे किसी का पता न मिल रहा हो, किसी बाहर गए हुए आदमी का ठिकाना जानना हो,तो वह डाकिया से बेहतर कोई नहीं बता सकता। डाकिया केवल पत्र बांटते ही नहीं अशिक्षित गरीबों को उसे बांच कर सुनाते भी हैं। इन चिट्ठियों में बहुत सी बातें होती हैं पर वे किसी की पारिवारिक प्रतिष्ठा को सड़क पर लाकर नही खड़ा करते। अपने इलाके में डाकिया कमोवेश सबको जानता-पहचानता है और हर गली-कूचा संचार क्रांति के बावजूद उसका बेसब्री से इंतजार करता नजर आता है। एक -एक घर से वह इतना क़रीब से जुड़ा है कि उसके पहुंचने पर सर्वत्र स्वागत ही होता है।<ref name="भारतीय डाक">{{cite web |url=http://bhartiyadaak.blogspot.in/2008/08/blog-post_19.html|title=भारतीय पोस्टमैन|accessmonthday=27 दिसम्बर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय डाक (ब्लॉग) |language=हिंदी}}</ref>
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डाकिया भैया, पोस्टमैन, चिट्ठीरसा और जाने कितने नाम से डाकिया को जाना जाता है। भारतीय समाज में उसकी एक अलग हैसियत और पहचान है। भीड़ में हमेशा उसे अलग से ही पहचाना जा सकता है। अपने इलाके में वह [[परिवार]] के सदस्य से कम नहीं माना जाता। इसी नाते डाक प्रणाली में सबसे ज्यादा लोक गीत और साहित्य डाकिया या पोस्टमैन पर लिखे गए हैं। तमाम गीतों में डाकिया के लंबे जीवन की कामना की गयी है। सरकारी अमले में पोस्टमैन ही ऐसा है जिसकी देहात में ख़ास तौर पर सबसे ज्यादा गुडविल है। बाकी सरकारी कर्मचारी अगर गांव-गिरांव में आते हैं और किसी का नाम अगर सूखा राहत देने के लिए भी बुलाते है तो एक बारगी लोग सहम जाते है,पर डाकिया किसी का नाम बुलाए तो उसके चेहरे पर अपने आप खुशी तैर आती है। भले ही डाकिया के थैले से कोई बुरी ख़बर क्यों न निकले । भारत ही नहीं दुनिया की क़रीब सभी डाक प्रणालियों की रीढ़ डाकिया या पोस्टमैन ही माना जाता है। ज़मीनी स्तर पर पोस्टमैन ही डाक विभाग का वास्तविक प्रतिनिधि होता है। भारतीय समाज में डाकिया को सबसे सम्मान का दर्जा मिला है। सरकार और जनता के बीच संवाद की वह सबसे मजबूत कड़ी है। यही नहीं एक डाकिया अपने इलाके के समाज और भूगोल की जितनी गहरी समझ रखता है, उतनी किसी और को नहीं होती। पुलिस तथा राजस्व विभाग भी दुर्गम देहात तक यूँ अपनी मौजूदगी रखते हैं। पर इन विभागों के प्रतिनिधि सिपाही, चौकीदार या पटवारी की विश्वसनीयता और गुडविल कभी भी डाकिया जैसी नहीं बन सकी। सदियों में भारतीय समाज में डाकिया वह घर-घर की खबर रखता है। देहात हो या शहर सभी उसे अपना शुभचिंतक और हितैषी मानते हैं। वह अपने इलाके का मानव कमप्यूटर है, जिसे किसी का पता न मिल रहा हो, किसी बाहर गए हुए आदमी का ठिकाना जानना हो,तो वह डाकिया से बेहतर कोई नहीं बता सकता। डाकिया केवल पत्र बांटते ही नहीं अशिक्षित ग़रीबों को उसे बांच कर सुनाते भी हैं। इन चिट्ठियों में बहुत सी बातें होती हैं पर वे किसी की पारिवारिक प्रतिष्ठा को सड़क पर लाकर नही खड़ा करते। अपने इलाके में डाकिया कमोवेश सबको जानता-पहचानता है और हर गली-कूचा संचार क्रांति के बावजूद उसका बेसब्री से इंतजार करता नजर आता है। एक -एक घर से वह इतना क़रीब से जुड़ा है कि उसके पहुंचने पर सर्वत्र स्वागत ही होता है।<ref name="भारतीय डाक">{{cite web |url=http://bhartiyadaak.blogspot.in/2008/08/blog-post_19.html|title=भारतीय पोस्टमैन|accessmonthday=27 दिसम्बर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय डाक (ब्लॉग) |language=हिंदी}}</ref>
 
==साहित्य में उल्लेख==
 
==साहित्य में उल्लेख==
 
पोस्टमैनों को भारतीय कथा - कहानियों, लोक गीतों और फ़िल्मों में बहुत सम्मानजनक जगह मिली है। डाकियों की समाज में रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका के आलोक में ही तमाम गीत-लोक गीत और फ़िल्में बनी हैं। भारतीय डाक प्रणाली की गुडविल बनाने में उनका सर्वाधिक योगदान माना जाता है। गांवों के लोग तो डाकिए की भूमिका की सराहना करते हुए तमाम गीतों में उनके लंबे जीवन की कामना करते हैं। 'युग युग जियो डाकिया भैया' नाम से [[1956]] में प्रकाशित 'अनिल मोहन' की यह कविता इस संदर्भ में उल्लेखनीय है-  
 
पोस्टमैनों को भारतीय कथा - कहानियों, लोक गीतों और फ़िल्मों में बहुत सम्मानजनक जगह मिली है। डाकियों की समाज में रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका के आलोक में ही तमाम गीत-लोक गीत और फ़िल्में बनी हैं। भारतीय डाक प्रणाली की गुडविल बनाने में उनका सर्वाधिक योगदान माना जाता है। गांवों के लोग तो डाकिए की भूमिका की सराहना करते हुए तमाम गीतों में उनके लंबे जीवन की कामना करते हैं। 'युग युग जियो डाकिया भैया' नाम से [[1956]] में प्रकाशित 'अनिल मोहन' की यह कविता इस संदर्भ में उल्लेखनीय है-  
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नयन जुड़ात डाकिया भैया
 
नयन जुड़ात डाकिया भैया
 
युग-युग जियो डाकिया भैया</poem>
 
युग-युग जियो डाकिया भैया</poem>
चाहे वह [[रेगिस्तान]] की तपन हो या बर्फबारी और [[बाढ़]] के बीच में काम कर रहे डाकिए हों या फिर दंगे फसाद के बीच जान हथेली पर रख कर लोगों के बीच खड़े डाकिए, इन सबने समाज में अपनी एक अलग साख बनायी। लोक गीतों से लेकर स्कूली क़िताबों तक का हिस्सा बन गए डाकिए ही वह सबसे मजबूत कड़ी है जिसके नाते डाक विभाग (तार विभाग भी) को देश के सबसे विश्वसनीय विभागों में माना गया। उनकी ही गुडविल के नाते लोग आज तमाम विकल्पों के बाद भी गरीब लोग डाक घरों में ही [[रुपया]] जमा करना पसंद करते हैं। अपनी लंबी चौडी़ सेवाओं के बदले डाकिया किसी से कुछ नहीं मांगता।<ref name="भारतीय डाक"/>
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चाहे वह [[रेगिस्तान]] की तपन हो या बर्फबारी और [[बाढ़]] के बीच में काम कर रहे डाकिए हों या फिर दंगे फसाद के बीच जान हथेली पर रख कर लोगों के बीच खड़े डाकिए, इन सबने समाज में अपनी एक अलग साख बनायी। लोक गीतों से लेकर स्कूली क़िताबों तक का हिस्सा बन गए डाकिए ही वह सबसे मजबूत कड़ी है जिसके नाते डाक विभाग (तार विभाग भी) को देश के सबसे विश्वसनीय विभागों में माना गया। उनकी ही गुडविल के नाते लोग आज तमाम विकल्पों के बाद भी ग़रीब लोग डाक घरों में ही [[रुपया]] जमा करना पसंद करते हैं। अपनी लंबी चौडी़ सेवाओं के बदले डाकिया किसी से कुछ नहीं मांगता।<ref name="भारतीय डाक"/>
 
==सिनेमा में योगदान==
 
==सिनेमा में योगदान==
 
[[कहानी]], [[कविता]] या लोकगीत ही नहीं, [[सिनेमा]] ने भी डाकिया की साख को भुनाने का प्रयास किया। कुछ फ़िल्मों में उनको विलेन की भूमिका में भी रखा गया पर वे बहुत कम हैं। शुरू में तो डाकिए या डाक बाबू की मौजूदगी क़रीब हर फ़िल्म मे देखने को मिलती थी, पर धीरे-धीरे उनका स्थान टेलीफोन ने और अब मोबाइल फोन ने ले लिया है। कुछ साल पहले एक चीनी फ़िल्म पोस्टमैन दुनिया भर में चर्चा में रही। इसी तरह पोस्टमैनों को केंद्रित कर अंग्रेज़ी में कई फ़िल्में बनीं। संचार क्रांति के पहले डाकिए ही असली स्टार रहे और उनकी परदे पर चरित्र अभिनेता के रूप में मानवीय मौजूदगी देखी जाती रही। जासूसी सिनेमा में 'पोस्ट बाक्स नंबर 999' और 'पोस्ट बाक्स नंबर 27' बनी। पोस्ट बाक्स नंबर की सुविधा डाक विभाग ने ख़ास उपभोक्ताओं को दी थी। 1964 में कन्नड़ फ़िल्म 'पोस्टमास्टर' में डाकिए को देहात में अहम भूमिका में रखा। [[हिंदी]] में डाक घर, गमन, दुश्मन, स्वदेश जैसी फ़िल्मों में भी डाकिया बहुत अहम भूमिका में रहा। फ़िल्म स्टार [[राजेश खन्ना]] तो अपनी शानदार डाकिए की भूमिका और 'डाकिया डाक लाया' गाने से काफ़ी चर्चा में रहे। हिदीं फ़िल्मों में डाकिया तमाम मौकों पर दिखता रहा है। 'डाक हरकारा' फ़िल्म में भी डाकिए को बहुत अहम भूमिका में रखा गया।<ref name="भारतीय डाक"/>
 
[[कहानी]], [[कविता]] या लोकगीत ही नहीं, [[सिनेमा]] ने भी डाकिया की साख को भुनाने का प्रयास किया। कुछ फ़िल्मों में उनको विलेन की भूमिका में भी रखा गया पर वे बहुत कम हैं। शुरू में तो डाकिए या डाक बाबू की मौजूदगी क़रीब हर फ़िल्म मे देखने को मिलती थी, पर धीरे-धीरे उनका स्थान टेलीफोन ने और अब मोबाइल फोन ने ले लिया है। कुछ साल पहले एक चीनी फ़िल्म पोस्टमैन दुनिया भर में चर्चा में रही। इसी तरह पोस्टमैनों को केंद्रित कर अंग्रेज़ी में कई फ़िल्में बनीं। संचार क्रांति के पहले डाकिए ही असली स्टार रहे और उनकी परदे पर चरित्र अभिनेता के रूप में मानवीय मौजूदगी देखी जाती रही। जासूसी सिनेमा में 'पोस्ट बाक्स नंबर 999' और 'पोस्ट बाक्स नंबर 27' बनी। पोस्ट बाक्स नंबर की सुविधा डाक विभाग ने ख़ास उपभोक्ताओं को दी थी। 1964 में कन्नड़ फ़िल्म 'पोस्टमास्टर' में डाकिए को देहात में अहम भूमिका में रखा। [[हिंदी]] में डाक घर, गमन, दुश्मन, स्वदेश जैसी फ़िल्मों में भी डाकिया बहुत अहम भूमिका में रहा। फ़िल्म स्टार [[राजेश खन्ना]] तो अपनी शानदार डाकिए की भूमिका और 'डाकिया डाक लाया' गाने से काफ़ी चर्चा में रहे। हिदीं फ़िल्मों में डाकिया तमाम मौकों पर दिखता रहा है। 'डाक हरकारा' फ़िल्म में भी डाकिए को बहुत अहम भूमिका में रखा गया।<ref name="भारतीय डाक"/>

09:18, 12 अप्रैल 2018 का अवतरण

डाकिया
डाकिया
विवरण 'डाकिया' खाकी पैंट और खाकी कमीज़ पहने, कंधे पर खाकी झोला लटकाए एक व्यक्ति होता है।
अन्य नाम डाक बाबू, डाकिया भैया, पोस्टमैन, चिट्ठीरसा
महत्त्व ज़मीनी स्तर पर डाकिया ही डाक विभाग का वास्तविक प्रतिनिधि होता है। भारतीय समाज में डाकिया को सबसे सम्मान का दर्जा मिला है। सरकार और जनता के बीच संवाद की वह सबसे मजबूत कड़ी है।
वर्तमान में जैसे-जैसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता व भावनात्मकता कम होती गयी, वैसे-वैसे ही डाकिया का दृष्टिकोण भी भावनात्मक की बजाय व्यवसायिक होता गया।
संबंधित लेख भारतीय डाक, डाक संचार, डाक टिकट, डाकघर, तार, पोस्टकार्ड
अन्य जानकारी डाकिया कम वेतन पाकर भी अपना काम अत्यन्त परिश्रम और लगन के साथ सम्प्पन्न करता है। गर्मी, सर्दी और बरसात का सामना करते हुए वह समाज की सेवा करता है।

डाकिया खाकी पैंट और खाकी कमीज़ पहने, कंधे पर खाकी झोला लटकाए एक व्यक्ति होता है। हमारे जीवन में डाकिए की भूमिका अत्यन्त महत्तपूर्ण है। भले ही अब कंप्यूटर और ई-मेल का ज़माना आ गया है पर, डाकिया का महत्व अभी भी उतना ही बना हुआ है जितना पहले था। डाकिया ग्रामीण जन-जीवन का एक सम्मानित सदस्य माना जाता है। डाकिया केवल संदेश-दाता नहीं, अर्थ दाता भी है। डाकिया का कार्य बड़ा कठिन होता है। वह सुबह से शाम तक चलता ही रहता है। डाकिया कम वेतन पाकर भी अपना काम अत्यन्त परिश्रम और लगन के साथ सम्प्पन्न करता है। गर्मी, सर्दी और बरसात का सामना करते हुए वह समाज की सेवा करता है। डाकिया एक सुपरिचित व्यक्ति है। उससे हमारा व्यक्तिगत संपर्क होता है। [1]

सामाजिक जीवन की एक आधारभूत कड़ी

'डाकिया' भारतीय सामाजिक जीवन की एक आधारभूत कड़ी है। डाकिया द्वारा डाक लाना, पत्रों का बेसब्री से इंतज़ार, डाकिया से ही पत्र पढ़वाकर उसका जवाब लिखवाना इत्यादि तमाम महत्वपूर्ण पहलू हैं, जिन्हें नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। उसके परिचित सभी तबके के लोग हैं। कभी-कभी जो काम बड़े अधिकारी भी नहीं करा पाते वह डाकिया चंद मिनटों में करा देता है। कारण डाक विभाग का वह सबसे मुखर चेहरा है। जहाँ कई अन्य देशों ने होम-टू-होम डिलीवरी को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ाये हैं, या इसे सुविधा-शुल्क से जोड़ दिया है, वहीं भारतीय डाकिया आज भी देश के हर होने में स्थित गाँव में निःशुल्क अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। जैसे-जैसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता व भावनात्मकता कम होती गयी, वैसे-वैसे ही डाकिया का दृष्टिकोण भी भावनात्मक की बजाय व्यवसायिक होता गया। [2]

विभिन्न नाम

डाकिया भैया, पोस्टमैन, चिट्ठीरसा और जाने कितने नाम से डाकिया को जाना जाता है। भारतीय समाज में उसकी एक अलग हैसियत और पहचान है। भीड़ में हमेशा उसे अलग से ही पहचाना जा सकता है। अपने इलाके में वह परिवार के सदस्य से कम नहीं माना जाता। इसी नाते डाक प्रणाली में सबसे ज्यादा लोक गीत और साहित्य डाकिया या पोस्टमैन पर लिखे गए हैं। तमाम गीतों में डाकिया के लंबे जीवन की कामना की गयी है। सरकारी अमले में पोस्टमैन ही ऐसा है जिसकी देहात में ख़ास तौर पर सबसे ज्यादा गुडविल है। बाकी सरकारी कर्मचारी अगर गांव-गिरांव में आते हैं और किसी का नाम अगर सूखा राहत देने के लिए भी बुलाते है तो एक बारगी लोग सहम जाते है,पर डाकिया किसी का नाम बुलाए तो उसके चेहरे पर अपने आप खुशी तैर आती है। भले ही डाकिया के थैले से कोई बुरी ख़बर क्यों न निकले । भारत ही नहीं दुनिया की क़रीब सभी डाक प्रणालियों की रीढ़ डाकिया या पोस्टमैन ही माना जाता है। ज़मीनी स्तर पर पोस्टमैन ही डाक विभाग का वास्तविक प्रतिनिधि होता है। भारतीय समाज में डाकिया को सबसे सम्मान का दर्जा मिला है। सरकार और जनता के बीच संवाद की वह सबसे मजबूत कड़ी है। यही नहीं एक डाकिया अपने इलाके के समाज और भूगोल की जितनी गहरी समझ रखता है, उतनी किसी और को नहीं होती। पुलिस तथा राजस्व विभाग भी दुर्गम देहात तक यूँ अपनी मौजूदगी रखते हैं। पर इन विभागों के प्रतिनिधि सिपाही, चौकीदार या पटवारी की विश्वसनीयता और गुडविल कभी भी डाकिया जैसी नहीं बन सकी। सदियों में भारतीय समाज में डाकिया वह घर-घर की खबर रखता है। देहात हो या शहर सभी उसे अपना शुभचिंतक और हितैषी मानते हैं। वह अपने इलाके का मानव कमप्यूटर है, जिसे किसी का पता न मिल रहा हो, किसी बाहर गए हुए आदमी का ठिकाना जानना हो,तो वह डाकिया से बेहतर कोई नहीं बता सकता। डाकिया केवल पत्र बांटते ही नहीं अशिक्षित ग़रीबों को उसे बांच कर सुनाते भी हैं। इन चिट्ठियों में बहुत सी बातें होती हैं पर वे किसी की पारिवारिक प्रतिष्ठा को सड़क पर लाकर नही खड़ा करते। अपने इलाके में डाकिया कमोवेश सबको जानता-पहचानता है और हर गली-कूचा संचार क्रांति के बावजूद उसका बेसब्री से इंतजार करता नजर आता है। एक -एक घर से वह इतना क़रीब से जुड़ा है कि उसके पहुंचने पर सर्वत्र स्वागत ही होता है।[3]

साहित्य में उल्लेख

पोस्टमैनों को भारतीय कथा - कहानियों, लोक गीतों और फ़िल्मों में बहुत सम्मानजनक जगह मिली है। डाकियों की समाज में रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका के आलोक में ही तमाम गीत-लोक गीत और फ़िल्में बनी हैं। भारतीय डाक प्रणाली की गुडविल बनाने में उनका सर्वाधिक योगदान माना जाता है। गांवों के लोग तो डाकिए की भूमिका की सराहना करते हुए तमाम गीतों में उनके लंबे जीवन की कामना करते हैं। 'युग युग जियो डाकिया भैया' नाम से 1956 में प्रकाशित 'अनिल मोहन' की यह कविता इस संदर्भ में उल्लेखनीय है-

युग-युग जियो डाकिया भैया,
सांझ सबेरे इहै मनाइत है..
हम गंवई के रहवैयापाग लपेटे,
छतरी ताने, काँधे पर चमरौधा झोला,
लिए हाथ मा कलम दवाती,
मेघदूत पर मानस चोला
सावन हरे न सूखे काति,
एकै धुन से सदा चलैया....
शादी, गमी, मनौती, मेला,
बारहमासी रेला पेलापूत
कमासुत की गठरी के बल पर,
फैला जाल अकेला गांव
सहर के बीच तुहीं एक डोर,
तुंही मरजाद रखवैया
थानेदार, तिलंगा, चौकी दार, सिपाही
तहसीलन केकरु·अमीन गिरदावर आवत,
लोटत नागिन छातिन पैतुहैं देख के फूलत छाती,
नयन जुड़ात डाकिया भैया
युग-युग जियो डाकिया भैया

चाहे वह रेगिस्तान की तपन हो या बर्फबारी और बाढ़ के बीच में काम कर रहे डाकिए हों या फिर दंगे फसाद के बीच जान हथेली पर रख कर लोगों के बीच खड़े डाकिए, इन सबने समाज में अपनी एक अलग साख बनायी। लोक गीतों से लेकर स्कूली क़िताबों तक का हिस्सा बन गए डाकिए ही वह सबसे मजबूत कड़ी है जिसके नाते डाक विभाग (तार विभाग भी) को देश के सबसे विश्वसनीय विभागों में माना गया। उनकी ही गुडविल के नाते लोग आज तमाम विकल्पों के बाद भी ग़रीब लोग डाक घरों में ही रुपया जमा करना पसंद करते हैं। अपनी लंबी चौडी़ सेवाओं के बदले डाकिया किसी से कुछ नहीं मांगता।[3]

सिनेमा में योगदान

कहानी, कविता या लोकगीत ही नहीं, सिनेमा ने भी डाकिया की साख को भुनाने का प्रयास किया। कुछ फ़िल्मों में उनको विलेन की भूमिका में भी रखा गया पर वे बहुत कम हैं। शुरू में तो डाकिए या डाक बाबू की मौजूदगी क़रीब हर फ़िल्म मे देखने को मिलती थी, पर धीरे-धीरे उनका स्थान टेलीफोन ने और अब मोबाइल फोन ने ले लिया है। कुछ साल पहले एक चीनी फ़िल्म पोस्टमैन दुनिया भर में चर्चा में रही। इसी तरह पोस्टमैनों को केंद्रित कर अंग्रेज़ी में कई फ़िल्में बनीं। संचार क्रांति के पहले डाकिए ही असली स्टार रहे और उनकी परदे पर चरित्र अभिनेता के रूप में मानवीय मौजूदगी देखी जाती रही। जासूसी सिनेमा में 'पोस्ट बाक्स नंबर 999' और 'पोस्ट बाक्स नंबर 27' बनी। पोस्ट बाक्स नंबर की सुविधा डाक विभाग ने ख़ास उपभोक्ताओं को दी थी। 1964 में कन्नड़ फ़िल्म 'पोस्टमास्टर' में डाकिए को देहात में अहम भूमिका में रखा। हिंदी में डाक घर, गमन, दुश्मन, स्वदेश जैसी फ़िल्मों में भी डाकिया बहुत अहम भूमिका में रहा। फ़िल्म स्टार राजेश खन्ना तो अपनी शानदार डाकिए की भूमिका और 'डाकिया डाक लाया' गाने से काफ़ी चर्चा में रहे। हिदीं फ़िल्मों में डाकिया तमाम मौकों पर दिखता रहा है। 'डाक हरकारा' फ़िल्म में भी डाकिए को बहुत अहम भूमिका में रखा गया।[3]

महत्त्व

हरेक पारंपरिक समुदाय के लोक साहित्य में डाकिये का स्थान काफ़ी ऊंचा है। भारत में प्रायः सभी क्षेत्रीय भाषाओं में डाकिए की कहानियां और कविताएं मिल जाएंगी। पुराने जमाने में हरेक डाकिए को ढोल बजाने वाला मिलता था जो जंगली रास्तों से गुजरते समय डाकिए की सहायता करता था। रात घिरने के बाद खतरनाक रास्तों से गुजरते समय डाकिए के साथ दो मशालची और दो तीरंदाज़ भी चलते थे। ऐसे कई किस्से मिलते हैं जिनमें डाकिए को शेर उठा ले गया या वह उफनती नदी में डूब गया या उसे जहरीले सांप ने काट लिया या वह चटटान फिसलने या मिट्टी गिरने से दब गया या चोरों ने उसकी हत्या कर दी । भारत सरकार के जन सूचना निदेशक ने 1923 में संसद को बताया था कि वर्ष 1921-22 के दौरान राहजनी करने वाले चोरों द्वारा डाक लूटने की 57 घटनाएं हुई थीं, जबकि इसके पिछले साल ऐसे 36 मामले हुए थे । 457 मामलों में से सात मामलों में लोगों की जानें गई थीं, 13 मामलों में डाकिये घायल हो गए थे। हमारे समाज में कभी डाकिए का स्थान हर परिवार में एक सदस्य की तरह ही होता था। हर खुशी और दु:ख में डाकिया ही खबरें पहुंचाता था। बरसात हो या ठंड यह शख्स अपनी सेवाएं कभी नहीं रोकते थे।[4] निदा फाजली के ये शब्द घर घर जाकर चिट्ठियां बांटने वाले डाकिये की पूरी कहानी बयां करते हैं और उसके महत्व को दर्शाते हैं -

सीधा सादा डाकिया जादू करे महान,
एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान [5]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवान के डाकिए (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।
  2. डाकिया: बदलते हुए रूप (हिंदी) साहित्य शिल्पी। अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।
  3. 3.0 3.1 3.2 भारतीय पोस्टमैन (हिंदी) भारतीय डाक (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।
  4. World Post Day: कहीं खो तो नहीं जाएगा डाकिया (हिंदी) जागरण जंक्शन। अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।
  5. अब नहीं रहता डाकिये का इंतज़ार (हिंदी) समय लाइव। अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख