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'''महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती''' (जन्म- 1824 ई., [[गुजरात]], [[भारत]]; मृत्यु- 1883 ई.) [[आर्य समाज]] के प्रवर्तक और प्रखर सुधारवादी सन्यासी थे। जिस समय केशवचन्द्र सेन [[ब्रह्मसमाज]] के प्रचार में संलग्न थे लगभग उसी समय दण्डी स्वामी विरजानन्द की [[मथुरा]] पुरी स्थित कुटी से प्रचण्ड अग्निशिखा के समान तपोबल से प्रज्वलित, वेदविद्यानिधान एक सन्यासी निकला, जिसने पहले-पहल संस्कृतज्ञ विद्वात्संसार को वेदार्थ और शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। यह सन्यासी स्वामी दयानन्द सरस्वती थे।
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|चित्र=Dayanand-Saraswati.jpg
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|चित्र का नाम=दयानंद सरस्वती
प्राचीन ऋषियों के वैदिक सिद्धांतों की पक्षपाती प्रसिद्ध संस्था, जिसके प्रतिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के एक गाँव में सन 1824 ई. में हुआ था। इनका प्रारंभिक नाम मूलशंकर तथा पिता का नाम अम्बाशंकर था। स्वामी दयानन्द बाल्यकाल में [[शंकर]] के भक्त थे। यह बड़े मेधावी और होनहार थे। ब्रह्मचर्यकाल में ही ये भारतोद्धार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े। इनके जीवन को मोटे तौर से तीन भागों में बाँट सकते हैं:  
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|पूरा नाम=स्वामी दयानन्द सरस्वती  
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|गुरु=स्वामी विरजानन्द
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|कर्म-क्षेत्र=
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|मुख्य रचनाएँ=[[सत्यार्थ प्रकाश]], आर्योद्देश्यरत्नमाला, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु, स्वीकारपत्र आदि।
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|संबंधित लेख=[[दयानंद सरस्वती के प्रेरक प्रसंग]]
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'''महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती''' (जन्म- [[12 फरवरी]], 1824 - [[गुजरात]], [[भारत]]; मृत्यु- [[30 अक्टूबर]], [[1883]] [[अजमेर]], [[राजस्थान]]) [[आर्य समाज]] के प्रवर्तक और प्रखर सुधारवादी संन्यासी थे। जिस समय [[केशवचन्द्र सेन]] [[ब्रह्मसमाज]] के प्रचार में संलग्न थे लगभग उसी समय दण्डी स्वामी विरजानन्द की [[मथुरा|मथुरा पुरी]] स्थित कुटी से प्रचण्ड अग्निशिखा के समान तपोबल से प्रज्वलित, वेदविद्यानिधान एक संन्यासी निकला, जिसने पहले-पहल संस्कृतज्ञ विद्वात्संसार को वेदार्थ और शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। यह संन्यासी स्वामी दयानन्द सरस्वती थे।
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====परिचय====
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प्राचीन ऋषियों के वैदिक सिद्धांतों की पक्षपाती प्रसिद्ध संस्था, जिसके प्रतिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म [[गुजरात]] की छोटी-सी रियासत मोरवी के टंकारा नामक गाँव में हुआ था। [[मूल नक्षत्र]] में पैदा होने के कारण [[पुत्र]] का नाम मूलशंकर रखा गया। मूलशंकर की बुद्धि बहुत ही तेज़ थी। 14 [[वर्ष]] की उम्र तक उन्हें रुद्री आदि के साथ-साथ [[यजुर्वेद]] तथा अन्य [[वेद|वेदों]] के भी कुछ अंश कंठस्थ हो गए थे। [[व्याकरण]] के भी वे अच्छे ज्ञाता थे।  इनके [[पिता]] का नाम 'अम्बाशंकर' था। स्वामी दयानन्द बाल्यकाल में [[शंकर]] के भक्त थे। यह बड़े मेधावी और होनहार थे। शिवभक्त पिता के कहने पर मूलशंकर ने भी एक बार [[शिवरात्रि]] का व्रत रखा था। लेकिन जब उन्होंने देखा कि एक चुहिया [[शिवलिंग]] पर चढ़कर [[नैवेद्य]] खा रही है, तो उन्हें आश्चर्य हुआ और धक्का भी लगा। उसी क्षण से उनका मूर्तिपूजा पर से विश्वास उठ गया। पुत्र के विचारों में परिवर्तन होता देखकर पिता उनके [[विवाह]] की तैयारी करने लगे। ज्यों ही मूलशंकर को इसकी भनक लगी, वे घर से भाग निकले। उन्होंने सिर मुंडा लिया और गेरुए वस्त्र धारण कर लिए। [[ब्रह्मचर्य|ब्रह्मचर्यकाल]] में ही ये भारतोद्धार का [[व्रत]] लेकर घर से निकल पड़े। इनके जीवन को मोटे तौर से तीन भागों में बाँट सकते हैं:  
 
*घर का जीवन(1824-1845),  
 
*घर का जीवन(1824-1845),  
*भ्रमण तथा अध्ययन (1845-1863) एवं  
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*भ्रमण तथा अध्ययन (1845-[[1863]]) एवं  
*प्रचार तथा सार्वजनिक सेवा। (1863-1883)
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*प्रचार तथा सार्वजनिक सेवा। (1863-[[1883]])
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====महत्त्वपूर्ण घटनाएँ====
 
स्वामी दयानन्द जी के प्रारम्भिक घरेलू जीवन की तीन घटनाएँ धार्मिक महत्त्व की हैं :
 
स्वामी दयानन्द जी के प्रारम्भिक घरेलू जीवन की तीन घटनाएँ धार्मिक महत्त्व की हैं :
#चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह (जब शिवचतुर्दशी की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा),
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#चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह (जब [[शिवचतुर्दशी |शिवचतुर्दशी]] की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा),
#अपनी बहिन की मृत्यु से अत्यन्त दु:खी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय और
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#अपनी बहिन की मृत्यु से अत्यन्त दु:खी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय।
#इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से भागना। घर त्यागने के पश्चात 18 वर्ष तक इन्होंने सन्यासी का जीवन बिताया। इन्होंने बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।
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#इक्कीस [[वर्ष]] की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से भागना। घर त्यागने के पश्चात् 18 वर्ष तक इन्होंने संन्यासी का जीवन बिताया। इन्होंने बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।
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====शिक्षा====
बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए इन्होंने कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। प्रथमत: वेदान्त के प्रभाव में आये तथा आत्मा एवं ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया।  ये अद्वैत मत में दीक्षित हुए एवं इनका नाम 'शुद्ध चैतन्य"  पड़ा। पश्चात ये संन्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए एवं यहाँ इनकी प्रचलित उपाधि दयानन्द सरस्वती हुई। [[चित्र:Dayanand-Sarasvati.jpg|thumb|250px|left|दयानन्द सरस्वती<br />Dayanand Saraswati]] फिर इन्होंने योग को अपनाते हुए वेदान्त के सभी सिद्धान्तों को छोड़ दिया।  दयानन्द सरस्वती के मध्य जीवन काल में जिस महापुरुष ने सबसे बड़ा धार्मिक प्रभाव डाला, वे थे मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान थे।  उन्होंने इन्हें वेद पढ़ाया । वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द  को छुट्टी दी "मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओं और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।" संक्षेप में इनके जीवन को हम पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला [[वैदिक धर्म]] तक पहुँचता हुआ पाते हैं। इन्होंने [[शैवमत]] एवं वेदान्त का परित्याग किया, सांख्ययोग को अपनाया जो उनका दार्शनिक लक्ष्य था और इसी दार्शनिक माध्यम से वेद की भी व्याख्या की।  जीवन के अन्तिम बीस वर्ष इन्होंने जनता को अपना संदेश सुनाने में लगाये।  दक्षिण में बम्बई से पूरा, उत्तर में कलकत्ता से लाहौर तक इन्होंने अपनी शिक्षाएँ घूम-घूम कर दीं।  पण्डितों, मौलवियों एवं पादरियों से इन्होंने शास्त्रार्थ किया, जिसमें काशी का शास्त्रार्थ महत्त्वपूर्ण था।  इस बीच इन्होंने साहित्यकार्य भी किये।  चार वर्ष की उपदेश यात्रा के पश्चात ये गंगातट पर स्वास्थ्य सुधारने के लिए फिर बैठ गये। ढाई वर्ष के बाद पुन: जनसेवा का कार्य आरम्भ किया।  
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बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए इन्होंने कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। प्रथमत: [[वेदान्त]] के प्रभाव में आये तथा [[आत्मा]] एवं ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया।  ये [[अद्वैतवाद|अद्वैत मत]] में दीक्षित हुए एवं इनका नाम 'शुद्ध चैतन्य"  पड़ा। पश्चात् ये सन्न्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए एवं यहाँ इनकी प्रचलित उपाधि '''दयानन्द सरस्वती''' हुई। [[चित्र:Dayanand-Sarasvati.jpg|thumb|200px|left|दयानन्द सरस्वती<br />Dayanand Saraswati]] फिर इन्होंने योग को अपनाते हुए वेदान्त के सभी सिद्धान्तों को छोड़ दिया।   
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==स्वामी विरजानन्द के शिष्य==
1863 से 1875 ई. तक स्वामी जी देश का भ्रमण करके अपने विचारों का प्रचार करते रहें। उन्होंने वेदों के प्रचार का वीणा उठाया और इस काम को पूरा करने के लिए 7 अप्रैल 1875 ई. को 'आर्य समाज' नामक संस्था की स्थापना की। शीघ्र ही इसकी शाखाएं देश-भर में फैल गई।  देश के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण में आर्य समाज की बहुत बड़ी देन रही है। हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला।  स्वामी जी [[एकेश्वरवाद]] में विश्वास करते थे।  उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया।  उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।
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सच्चे ज्ञान की खोज में इधर-उधर घूमने के बाद मूलशंकर , जो कि अब स्वामी दयानन्द सरस्वती बन चुके थे, [[मथुरा]] में [[वेद|वेदों]] के प्रकाण्ड विद्वान् प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द के पास पहुँचे। दयानन्द ने उनसे शिक्षा ग्रहण की। [[मथुरा]] के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, जो [[वैदिक साहित्य]] के माने हुए विद्वान् थे।  उन्होंने इन्हें वेद पढ़ाया । वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द  को छुट्टी दी "मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओं और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।" संक्षेप में इनके जीवन को हम पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला [[वैदिक धर्म]] तक पहुँचता हुआ पाते हैं।  
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==हरिद्वार में==
स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिन्दी भाषा को अपनाया।  उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' मूल रूप में हिन्दी भाषा में लिखा गया।  उनका कहना था-"मेरी आंख तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही है। जब [[कश्मीर]] से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा बोलने और समझने लग जाएंगे।" स्वामी जी धार्मिक संकीर्णता और पाखंड के विरोधी थे।  अत: कुछ लोग उनसे शत्रुता भी करने लगे।  इन्हीं में से किसी ने 1883 ई. में दूध में कांच पीसकर पिला दिया जिससे आपका देहांत हो गया। आज भी उनके अनुयायी देश में शिक्षा आदि का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।
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गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करके महर्षि स्वामी दयानन्द ने अपना शेष जीवन इसी कार्य में लगा दिया। [[हरिद्वार]] जाकर उन्होंने ‘पाखण्डखण्डिनी पताका’ फहराई और मूर्ति पूजा का विरोध किया। उनका कहना था कि यदि [[गंगा]] नहाने, सिर मुंडाने और भभूत मलने से स्वर्ग मिलता, तो [[मछली]], भेड़ और गधा स्वर्ग के पहले अधिकारी होते। बुजुर्गों का अपमान करके मृत्यु के बाद उनका [[श्राद्ध]] करना वे निरा ढोंग मानते थे। छूत का उन्होंने ज़ोरदार खण्डन किया। दूसरे धर्म वालों के लिए [[हिन्दू धर्म]] के द्वार खोले। महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयत्न किए। मिथ्याडंबर और असमानता के समर्थकों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। अपने मत के प्रचार के लिए स्वामी जी 1863 से [[1875]] तक देश का भ्रमण करते रहे। 1875 में आपने [[मुम्बई]] में ‘[[आर्यसमाज]]’ की स्थापना की और देखते ही देखते देशभर में इसकी शाखाएँ खुल गईं। आर्यसमाज वेदों को ही प्रमाण और अपौरुषेय मानता है।
{{प्रचार}}
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;हिन्दी में ग्रन्थ रचना
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आर्यसमाज की स्थापना के साथ ही स्वामी जी ने [[हिन्दी]] में [[ग्रन्थ]] रचना आरम्भ की। साथ ही पहले के [[संस्कृत]] में लिखित ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया। ‘ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका’ उनकी असाधारण योग्यता का परिचायक ग्रन्थ है। ‘सत्यार्थप्रकाश’ सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है। अहिन्दी भाषी होते हुए भी स्वामी जी हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। उनके शब्द थे - ‘मेरी [[आँख|आँखें]] तो उस दिन को देखने के लिए तरस रहीं हैं, जब [[कश्मीर]] से [[कन्याकुमारी]] तक सब भारतीय एक [[भाषा]] को बोलने और समझने लग जायेंगे।’ अपने विचारों के कारण स्वामी जी को प्रबल विरोध का भी सामना करना पड़ा। उन पर पत्थर मारे गए, विष देने के प्रयत्न भी हुए, डुबाने की चेष्टा की गई, पर वे पाखण्ड के विरोध और वेदों के प्रचार के अपने कार्य पर अडिग रहे।
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इन्होंने [[शैवमत]] एवं वेदान्त का परित्याग किया, सांख्ययोग को अपनाया जो उनका दार्शनिक लक्ष्य था और इसी दार्शनिक माध्यम से वेद की भी व्याख्या की।  जीवन के अन्तिम बीस वर्ष इन्होंने जनता को अपना संदेश सुनाने में लगाये।  दक्षिण में [[बम्बई]] से पूरा [[दक्षिण भारत |दक्षिण भारत]], उत्तर में [[कलकत्ता]] से [[लाहौर]] तक इन्होंने अपनी शिक्षाएँ घूम-घूम कर दीं।  पण्डितों, मौलवियों एवं पादरियों से इन्होंने शास्त्रार्थ किया, जिसमें [[काशी]] का शास्त्रार्थ महत्त्वपूर्ण था।  इस बीच इन्होंने साहित्य कार्य भी किये।  चार [[वर्ष]] की उपदेश यात्रा के पश्चात् ये गंगातट पर स्वास्थ्य सुधारने के लिए फिर बैठ गये। ढाई वर्ष के बाद पुन: जनसेवा का कार्य आरम्भ किया।
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====आर्य समाज की स्थापना====
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[[1863]] से [[1875]] ई. तक स्वामी जी देश का भ्रमण करके अपने विचारों का प्रचार करते रहें। उन्होंने वेदों के प्रचार का बीडा उठाया और इस काम को पूरा करने के लिए संभवत: 7 या 10 अप्रैल 1875 ई. को 'आर्य समाज' नामक संस्था की स्थापना की<ref>वर्ष 1875 निश्चित है परन्तु तिथि के संबंध में सभी विश्वसनीय स्रोत कोई जानकारी नहीं देते। इस संबंध में [[सत्यार्थ प्रकाश]], इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका आदि सभी भारतकोश द्वारा देखे गये</ref>। शीघ्र ही इसकी शाखाएं देश-भर में फैल गई।  देश के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण में आर्य समाज की बहुत बड़ी देन रही है। हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला।  स्वामी जी [[एकेश्वरवाद]] में विश्वास करते थे।  उन्होंने जातिवाद और [[बाल विवाह|बाल-विवाह]] का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा [[विधवा विवाह]] को प्रोत्साहित किया।  उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को [[हिन्दू धर्म]] में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।
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====हिन्दी भाषा का प्रचार====
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स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों के प्रचार के लिए [[हिन्दी भाषा]] को अपनाया।  उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' मूल रूप में हिन्दी भाषा में लिखा गया।  उनका कहना था - "मेरी आंख तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही है। जब [[कश्मीर]] से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक [[भाषा]] बोलने और समझने लग जाएंगे।" स्वामी जी धार्मिक संकीर्णता और पाखंड के विरोधी थे।  अत: कुछ लोग उनसे शत्रुता भी करने लगे।  इन्हीं में से किसी ने 1883 ई. में [[दूध]] में कांच पीसकर पिला दिया जिससे आपका देहांत हो गया। आज भी उनके अनुयायी देश में शिक्षा आदि का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।
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==अन्य रचनाएँ==
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स्वामी दयानन्द द्वारा लिखी गयी महत्त्वपूर्ण रचनाएं - सत्यार्थप्रकाश ([[1874]] संस्कृत), पाखण्ड खण्डन ([[1866]]), वेद भाष्य भूमिका ([[1876]]), ऋग्वेद भाष्य ([[1877]]), अद्वैतमत का खण्डन ([[1873]]), पंचमहायज्ञ विधि ([[1875]]), वल्लभाचार्य मत का खण्डन ([[1875]]) आदि।
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==महापुरुषों के विचार==
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स्वामी दयानन्द सरस्वती के योगदान और उनके विषय में विद्वानों के अनेकों मत थे-
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#डॉ. भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानन्द हिन्दू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।
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#[[एनी बेसेन्ट|श्रीमती एनी बेसेन्ट]] का कहना था कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'आर्यावर्त ([[भारत]]) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए' की घोषणा की।
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#[[सरदार पटेल]] के अनुसार भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।
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#[[पट्टाभि सीतारमैया]] का विचार था कि गाँधी जी राष्ट्रपिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्र–पितामह हैं।
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#फ्रेञ्च लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रुप देने में प्रयत्नशील थे।
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==निधन==
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स्वामी दयानन्द सरस्वती का निधन एक वेश्या के कुचक्र से हुआ। [[जोधपुर]] की एक वेश्या ने, जिसे स्वामी जी की शिक्षाओं से प्रभावित होकर राजा ने त्याग दिया था, स्वामी जी के रसोइये को अपनी ओर मिला लिया और विष मिला दूध स्वामी जी को पिला दिया। इसी षड्यंत्र के कारण [[30 अक्टूबर]] [[1883]] ई. को [[दीपावली]] के दिन स्वामी जी का भौतिक शरीर समाप्त हो गया। लेकिन उनकी शिक्षाएँ और संदेश उनका ‘आर्यसमाज’ आन्दोलन बीसवीं सदी के भारतीय इतिहास में एक ज्वलंत अध्याय लिख गए, जिसकी अनुगूँज आज तक सुनी जाती है।<ref name="bb"/>
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==बाहरी कड़ियाँ==
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{{cite web |url= http://www.culturalindia.net/reformers/swami-dayanand-saraswati.html |title=Swami Dayanand Saraswati |accessmonthday=25 सितंबर |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=culturalindia |language=अंग्रेज़ी }}
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{भारत के संत}}
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[[Category:दार्शनिक]]
 
[[Category:हिन्दू धर्म प्रवर्तक और संत]]
 
[[Category:हिन्दू धर्म प्रवर्तक और संत]]
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[[Category:हिन्दू_धर्म_कोश]]
 
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[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]]
 
[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]]
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[[Category:दयानंद सरस्वती]]
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__NOTOC__

11:45, 3 अगस्त 2017 के समय का अवतरण

दयानंद सरस्वती
दयानंद सरस्वती
पूरा नाम स्वामी दयानन्द सरस्वती
जन्म 12 फरवरी, 1824
जन्म भूमि मोरबी, गुजरात
मृत्यु 30 अक्टूबर, 1883 [1]
मृत्यु स्थान अजमेर, राजस्थान
अभिभावक अम्बाशंकर
गुरु स्वामी विरजानन्द
मुख्य रचनाएँ सत्यार्थ प्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु, स्वीकारपत्र आदि।
भाषा हिन्दी
पुरस्कार-उपाधि महर्षि
विशेष योगदान आर्य समाज की स्थापना
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख दयानंद सरस्वती के प्रेरक प्रसंग
अन्य जानकारी दयानन्द सरस्वती के जन्म का नाम 'मूलशंकर तिवारी' था।
अद्यतन‎

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती (जन्म- 12 फरवरी, 1824 - गुजरात, भारत; मृत्यु- 30 अक्टूबर, 1883 अजमेर, राजस्थान) आर्य समाज के प्रवर्तक और प्रखर सुधारवादी संन्यासी थे। जिस समय केशवचन्द्र सेन ब्रह्मसमाज के प्रचार में संलग्न थे लगभग उसी समय दण्डी स्वामी विरजानन्द की मथुरा पुरी स्थित कुटी से प्रचण्ड अग्निशिखा के समान तपोबल से प्रज्वलित, वेदविद्यानिधान एक संन्यासी निकला, जिसने पहले-पहल संस्कृतज्ञ विद्वात्संसार को वेदार्थ और शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। यह संन्यासी स्वामी दयानन्द सरस्वती थे।

परिचय

प्राचीन ऋषियों के वैदिक सिद्धांतों की पक्षपाती प्रसिद्ध संस्था, जिसके प्रतिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात की छोटी-सी रियासत मोरवी के टंकारा नामक गाँव में हुआ था। मूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण पुत्र का नाम मूलशंकर रखा गया। मूलशंकर की बुद्धि बहुत ही तेज़ थी। 14 वर्ष की उम्र तक उन्हें रुद्री आदि के साथ-साथ यजुर्वेद तथा अन्य वेदों के भी कुछ अंश कंठस्थ हो गए थे। व्याकरण के भी वे अच्छे ज्ञाता थे। इनके पिता का नाम 'अम्बाशंकर' था। स्वामी दयानन्द बाल्यकाल में शंकर के भक्त थे। यह बड़े मेधावी और होनहार थे। शिवभक्त पिता के कहने पर मूलशंकर ने भी एक बार शिवरात्रि का व्रत रखा था। लेकिन जब उन्होंने देखा कि एक चुहिया शिवलिंग पर चढ़कर नैवेद्य खा रही है, तो उन्हें आश्चर्य हुआ और धक्का भी लगा। उसी क्षण से उनका मूर्तिपूजा पर से विश्वास उठ गया। पुत्र के विचारों में परिवर्तन होता देखकर पिता उनके विवाह की तैयारी करने लगे। ज्यों ही मूलशंकर को इसकी भनक लगी, वे घर से भाग निकले। उन्होंने सिर मुंडा लिया और गेरुए वस्त्र धारण कर लिए। ब्रह्मचर्यकाल में ही ये भारतोद्धार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े। इनके जीवन को मोटे तौर से तीन भागों में बाँट सकते हैं:

  • घर का जीवन(1824-1845),
  • भ्रमण तथा अध्ययन (1845-1863) एवं
  • प्रचार तथा सार्वजनिक सेवा। (1863-1883)

महत्त्वपूर्ण घटनाएँ

स्वामी दयानन्द जी के प्रारम्भिक घरेलू जीवन की तीन घटनाएँ धार्मिक महत्त्व की हैं :

  1. चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह (जब शिवचतुर्दशी की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा),
  2. अपनी बहिन की मृत्यु से अत्यन्त दु:खी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय।
  3. इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से भागना। घर त्यागने के पश्चात् 18 वर्ष तक इन्होंने संन्यासी का जीवन बिताया। इन्होंने बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।

शिक्षा

बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए इन्होंने कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। प्रथमत: वेदान्त के प्रभाव में आये तथा आत्मा एवं ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया। ये अद्वैत मत में दीक्षित हुए एवं इनका नाम 'शुद्ध चैतन्य" पड़ा। पश्चात् ये सन्न्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए एवं यहाँ इनकी प्रचलित उपाधि दयानन्द सरस्वती हुई।

दयानन्द सरस्वती
Dayanand Saraswati

फिर इन्होंने योग को अपनाते हुए वेदान्त के सभी सिद्धान्तों को छोड़ दिया।

स्वामी विरजानन्द के शिष्य

सच्चे ज्ञान की खोज में इधर-उधर घूमने के बाद मूलशंकर , जो कि अब स्वामी दयानन्द सरस्वती बन चुके थे, मथुरा में वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द के पास पहुँचे। दयानन्द ने उनसे शिक्षा ग्रहण की। मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान् थे। उन्होंने इन्हें वेद पढ़ाया । वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी "मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओं और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।" संक्षेप में इनके जीवन को हम पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला वैदिक धर्म तक पहुँचता हुआ पाते हैं।

हरिद्वार में

गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करके महर्षि स्वामी दयानन्द ने अपना शेष जीवन इसी कार्य में लगा दिया। हरिद्वार जाकर उन्होंने ‘पाखण्डखण्डिनी पताका’ फहराई और मूर्ति पूजा का विरोध किया। उनका कहना था कि यदि गंगा नहाने, सिर मुंडाने और भभूत मलने से स्वर्ग मिलता, तो मछली, भेड़ और गधा स्वर्ग के पहले अधिकारी होते। बुजुर्गों का अपमान करके मृत्यु के बाद उनका श्राद्ध करना वे निरा ढोंग मानते थे। छूत का उन्होंने ज़ोरदार खण्डन किया। दूसरे धर्म वालों के लिए हिन्दू धर्म के द्वार खोले। महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयत्न किए। मिथ्याडंबर और असमानता के समर्थकों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। अपने मत के प्रचार के लिए स्वामी जी 1863 से 1875 तक देश का भ्रमण करते रहे। 1875 में आपने मुम्बई में ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की और देखते ही देखते देशभर में इसकी शाखाएँ खुल गईं। आर्यसमाज वेदों को ही प्रमाण और अपौरुषेय मानता है।

हिन्दी में ग्रन्थ रचना

आर्यसमाज की स्थापना के साथ ही स्वामी जी ने हिन्दी में ग्रन्थ रचना आरम्भ की। साथ ही पहले के संस्कृत में लिखित ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया। ‘ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका’ उनकी असाधारण योग्यता का परिचायक ग्रन्थ है। ‘सत्यार्थप्रकाश’ सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है। अहिन्दी भाषी होते हुए भी स्वामी जी हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। उनके शब्द थे - ‘मेरी आँखें तो उस दिन को देखने के लिए तरस रहीं हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा को बोलने और समझने लग जायेंगे।’ अपने विचारों के कारण स्वामी जी को प्रबल विरोध का भी सामना करना पड़ा। उन पर पत्थर मारे गए, विष देने के प्रयत्न भी हुए, डुबाने की चेष्टा की गई, पर वे पाखण्ड के विरोध और वेदों के प्रचार के अपने कार्य पर अडिग रहे।

इन्होंने शैवमत एवं वेदान्त का परित्याग किया, सांख्ययोग को अपनाया जो उनका दार्शनिक लक्ष्य था और इसी दार्शनिक माध्यम से वेद की भी व्याख्या की। जीवन के अन्तिम बीस वर्ष इन्होंने जनता को अपना संदेश सुनाने में लगाये। दक्षिण में बम्बई से पूरा दक्षिण भारत, उत्तर में कलकत्ता से लाहौर तक इन्होंने अपनी शिक्षाएँ घूम-घूम कर दीं। पण्डितों, मौलवियों एवं पादरियों से इन्होंने शास्त्रार्थ किया, जिसमें काशी का शास्त्रार्थ महत्त्वपूर्ण था। इस बीच इन्होंने साहित्य कार्य भी किये। चार वर्ष की उपदेश यात्रा के पश्चात् ये गंगातट पर स्वास्थ्य सुधारने के लिए फिर बैठ गये। ढाई वर्ष के बाद पुन: जनसेवा का कार्य आरम्भ किया।

आर्य समाज की स्थापना

1863 से 1875 ई. तक स्वामी जी देश का भ्रमण करके अपने विचारों का प्रचार करते रहें। उन्होंने वेदों के प्रचार का बीडा उठाया और इस काम को पूरा करने के लिए संभवत: 7 या 10 अप्रैल 1875 ई. को 'आर्य समाज' नामक संस्था की स्थापना की[2]। शीघ्र ही इसकी शाखाएं देश-भर में फैल गई। देश के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण में आर्य समाज की बहुत बड़ी देन रही है। हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला। स्वामी जी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।

हिन्दी भाषा का प्रचार

स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिन्दी भाषा को अपनाया। उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' मूल रूप में हिन्दी भाषा में लिखा गया। उनका कहना था - "मेरी आंख तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही है। जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा बोलने और समझने लग जाएंगे।" स्वामी जी धार्मिक संकीर्णता और पाखंड के विरोधी थे। अत: कुछ लोग उनसे शत्रुता भी करने लगे। इन्हीं में से किसी ने 1883 ई. में दूध में कांच पीसकर पिला दिया जिससे आपका देहांत हो गया। आज भी उनके अनुयायी देश में शिक्षा आदि का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।

अन्य रचनाएँ

स्वामी दयानन्द द्वारा लिखी गयी महत्त्वपूर्ण रचनाएं - सत्यार्थप्रकाश (1874 संस्कृत), पाखण्ड खण्डन (1866), वेद भाष्य भूमिका (1876), ऋग्वेद भाष्य (1877), अद्वैतमत का खण्डन (1873), पंचमहायज्ञ विधि (1875), वल्लभाचार्य मत का खण्डन (1875) आदि।

महापुरुषों के विचार

स्वामी दयानन्द सरस्वती के योगदान और उनके विषय में विद्वानों के अनेकों मत थे-

  1. डॉ. भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानन्द हिन्दू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।
  2. श्रीमती एनी बेसेन्ट का कहना था कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए' की घोषणा की।
  3. सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।
  4. पट्टाभि सीतारमैया का विचार था कि गाँधी जी राष्ट्रपिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्र–पितामह हैं।
  5. फ्रेञ्च लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रुप देने में प्रयत्नशील थे।

निधन

स्वामी दयानन्द सरस्वती का निधन एक वेश्या के कुचक्र से हुआ। जोधपुर की एक वेश्या ने, जिसे स्वामी जी की शिक्षाओं से प्रभावित होकर राजा ने त्याग दिया था, स्वामी जी के रसोइये को अपनी ओर मिला लिया और विष मिला दूध स्वामी जी को पिला दिया। इसी षड्यंत्र के कारण 30 अक्टूबर 1883 ई. को दीपावली के दिन स्वामी जी का भौतिक शरीर समाप्त हो गया। लेकिन उनकी शिक्षाएँ और संदेश उनका ‘आर्यसमाज’ आन्दोलन बीसवीं सदी के भारतीय इतिहास में एक ज्वलंत अध्याय लिख गए, जिसकी अनुगूँज आज तक सुनी जाती है।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 शर्मा 'पर्वतीय', लीलाधर भारतीय चरित कोश, 2011 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: शिक्षा भारती, दिल्ली, पृष्ठ सं 371।
  2. वर्ष 1875 निश्चित है परन्तु तिथि के संबंध में सभी विश्वसनीय स्रोत कोई जानकारी नहीं देते। इस संबंध में सत्यार्थ प्रकाश, इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका आदि सभी भारतकोश द्वारा देखे गये

बाहरी कड़ियाँ

Swami Dayanand Saraswati (अंग्रेज़ी) culturalindia। अभिगमन तिथि: 25 सितंबर, 2011।

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