दुर्वासा

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दुर्वासा सतयुग, त्रेता एवं द्वापर तीनों युगों के एक प्रसिद्ध सिद्ध योगी और महान् महर्षि थे। वे अपने क्रोध के लिए जाने जाते थे। छोटी-सी त्रुटि हो जाने पर ही वे शाप दे देते थे। महर्षि दुर्वासा महादेव शंकर के अंश से आविर्भूत हुए थे।

जन्म

ब्रह्मा के पुत्र अत्रि ने सौ वर्ष तक ऋष्यमूक पर्वत पर अपनी पत्नी अनुसूया सहित तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने उन्हें एक-एक पुत्र प्रदान किया। ब्रह्मा के अंश से विधु, विष्णु के अंश से दत्त तथा शिव के अंश से दुर्वासा का जन्म हुआ।

पौराणिक कथाएँ

दुर्वासा और राजा अम्बरीष

दुर्वासा जी कुछ बड़े हुए तो माता-पिता से आदेश लेकर वे अन्न, जल का त्याग कर कठोर तपस्या करने लगे। विशेषत: यम-नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान-धारणा आदि अष्टांग योग का अवलम्बन कर वे ऐसी सिद्ध अवस्था में पहुंचे कि उनको बहुत सी योग-सिद्धियां प्राप्त हो गई। अब वे सिद्ध योगी के रूप में विख्यात हो गए। तत्पश्चात् यमुना किनारे एक स्थल पर उन्होंने एक आश्रम का निर्माण किया और यहीं पर रहकर आवश्यकता के अनुसार बीच-बीच में भ्रमण भी किया। दुर्वासा आश्रम के निकट ही यमुना के दूसरे किनारे पर महाराज अम्बरीष का एक बहुत ही सुन्दर राजभवन था। एक बार राजा निर्जला एकादशी एवं जागरण के उपरांत द्वादशी व्रत पालन में थे। समस्त क्रियाएं सम्पन्न कर संत-विप्र आदि भोज के पश्चात् भगवत प्रसाद से पारण करने को थे कि महर्षि दुर्वासा आ गए। महर्षि को देख राजा ने प्रसाद ग्रहण करने का निवेदन किया, पर ऋषि यमुना स्नान कर आने की बात कहकर चले गए। पारण काल निकलने जा रहा था। धर्मज्ञ ब्राह्मणों के परामर्श पर श्री चरणामृत ग्रहण कर राजा का पारण करना ही था कि ऋषि उपस्थित हो गए तथा क्रोधित होकर कहने लगे कि तुमने पहले पारण कर मेरा अपमान किया है। भक्त अम्बरीश को जलाने के लिए महर्षि ने अपनी जटा निचोड़ कृत्या राक्षसी उत्पन्न की, परन्तु प्रभु भक्त अम्बरीश अडिग खडे रहे। भगवान ने भक्त रक्षार्थ चक्र सुदर्शन प्रकट किया और राक्षसी भस्म हुई। दुर्वासा जी चौदह लोकों में रक्षार्थ दौड़ते फिरे। शिव की चरण में पहुंचे। शिव ने विष्णु के पास भेजा। विष्णु जी ने कहा आपने भक्त का अपराध किया है। अत: यदि आप अपना कल्याण चाहते हैं, तो भक्त अम्बरीश के निकट ही क्षमा प्रार्थना करें।

जब से दुर्वासा जी अपने प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे, तब से महाराज अम्बरीश ने भोजन नहीं किया था। उन्होंने दुर्वासा जी के चरण पकड़ लिए और बडे़ प्रेम से भोजन कराया। दुर्वासा जी भोजन करके तृप्त हुए और आदर पूर्वक राजा से भोजन करने का आग्रह किया। दुर्वासा ने संतुष्ट होकर महाराज अम्बरीश के गुणों की प्रशंसा की और आश्रम लौट आए। महाराज अम्बरीश के संसर्ग से महर्षि दुर्वासा का चरित्र बदल गया। ब्रज मण्डल के अंतर्गत प्रमुख बारह वनों में से लोहवन के अंतर्गत यमुना के किनारे मथुरा में दुर्वासा का अत्यन्त प्राचीन आश्रम है। यह महर्षि दुर्वासा की सिद्ध तपस्या स्थली एवं तीनों युगों का प्रसिद्ध आश्रम है। भारत के समस्त भागों से लोग इस आश्रम का दर्शन करने और तरह-तरह की लौकिक कामनाओं की पूर्ति करने के लिए आते हैं।

दुर्वासा और दुर्योधन

दुर्वासा ने जीवन-भर भक्तों की परीक्षा ली। एक बार दुर्वासा मुनि अपने दस हज़ार शिष्यों के साथ दुर्योधन के यहाँ पहुंचे। दुर्योधन ने उन्हें आतिथ्य से प्रसन्न करके वरदान मांगा कि वे अपने शिष्यों सहित वनवासी युधिष्ठिर का आतिथ्य ग्रहण करें। दुर्योधन ने उनसे यह कामना प्रकट की कि वे उनके पास तब जायें, जब द्रौपदी भोजन कर चुकी हो। दुर्योधन को पता था कि द्रौपदी के भोजन कर लेने के उपरांत बटलोई में कुछ भी शेष नहीं होगा और दुर्वासा उसे शाप दे देंगे। दुर्वासा ऐसे ही अवसर पर शिष्यों सहित पांडवों के पास पहुंचे तथा उन्हें रसोई बनाने का आदेश देकर स्नान करने चले गये। धर्म संकट में पड़कर द्रौपदी ने कृष्ण का स्मरण किया। कृष्ण ने उसकी बटलोई में लगे हुए साग के एक पत्ते को खा लिया तथा कहा- "इस साग से संपूर्ण विश्व के आत्मा, यज्ञभोक्ता सर्वेश्वर भगवान श्रीहरि तृप्त तथा संतुष्ट हो जाएँ।" उनके ऐसा करते ही दुर्वासा को अपने शिष्यों सहित तृप्ति के डकार आने लगे। वे लोग यह सोचकर कि पांडवगण अपनी बनाई रसोई को व्यर्थ जाता देख रुष्ट होंगे, दूर भाग गये।"

दुर्वासा और श्रीकृष्ण

एक बार दुर्वासा यह कहकर कि वे अत्यंत क्रोधी हैं, कौन उनका आतिथ्य करेगा, नगर में चक्कर लगा रहे थे। उनके वस्त्र फटे हुए थे। श्रीकृष्ण ने उन्हें अतिथि-रूप में आमन्त्रित किया। उन्होंने अनेक प्रकार से कृष्ण के स्वभाव की परीक्षा ली। दुर्वासा कभी शैया, आभूषित कुमारी इत्यादि समस्त वस्तुओं को भस्म कर देते, कभी दस हज़ार लोगों के बराबर खाते, कभी कुछ भी न खाते। एक दिन खीर जूठी करके उन्होंने कृष्ण को आदेश दिया कि वे अपने और रुक्मिणी के अंगों पर लेप कर दें। फिर रुक्मिणी को रथ में जोतकर चाबुक मारते हुए बाहर निकले। थोड़ी दूर चलकर रुक्मिणी लड़खड़ाकर गिर गयीं। दुर्वासा क्रोध से पागल दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। कृष्ण ने उनके पीछे-पीछे जाकर उन्हें रोकने का प्रयास किया तो दुर्वासा प्रसन्न हो गये तथा कृष्ण को क्रोधविहीन जानकर उन्होंने कहा- "सृष्टि का जब तक और जितना अनुराग अन्न में रहेगा, उतना ही तुममें भी रहेगा। तुम्हारी जितनी वस्तुएं मैंने तोड़ीं या जलायी हैं, सभी तुम्हें पूर्ववत मिल जायेंगी।"[1]

दुर्वासा और द्रौपदी
  • एक बार द्रौपदी नदी में स्नान कर रही थी। कुछ दूर पर दुर्वासा भी स्नान कर रहे थे। दुर्वासा का अधोवस्त्र जल में बह गया। वे बाहर नहीं निकल पा रहे थे। द्रौपदी ने अपनी साड़ी में से थोड़ा-सा भाग फाड़कर उनको दिया। फलस्वरूप उन्होंने द्रौपदी को वर दिया कि उसकी लज्जा पर कभी आंच नहीं आयेगी।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, वनपर्व, अध्याय 262 से 263 तक, दान धर्मपर्व, अध्याय 159
  2. शिव पुराण, 7 । 25-26 ।-

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