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पण्डित मुखराम शर्मा

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पण्डित मुखराम शर्मा
पण्डित मुखराम शर्मा
पूरा नाम पण्डित मुखराम शर्मा
जन्म 30 मई, 1909
जन्म भूमि मेरठ, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 25 अप्रैल, 2000
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र कथा, पटकथा और संवाद लेखक
मुख्य फ़िल्में 'वचन', 'घराना', 'धूल का फूल', 'दादी माँ', 'मैं सुन्दर हूँ', 'संतान', 'पतंगा', 'दो कलियाँ', 'राजा और रंक', 'एक ही रास्ता' आदि।
पुरस्कार-उपाधि 'फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार' (तीन बार), 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' (1961), 'मेरठ रत्न पुरस्कार', 'ज़ी लाइफ़टाइम अचीवमेंट पुरस्कार' (2000)
प्रसिद्धि पटकथा लेखक
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी आपने पाँच हज़ार रुपये की वह धनराशि, जो 'साधना' फ़िल्म के लिए 'फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार' द्वारा प्राप्त की थी, एक कन्या पाठशाला को दान कर दी थी।

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पण्डित मुखराम शर्मा (अंग्रेज़ी: Mukhram Sharma; जन्म- 30 मई, 1909, मेरठ, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 25 अप्रैल, 2000) 'भारतीय सिनेमा' में अपने समय के ख्यातिप्राप्त पटकथा लेखक थे। वे मेरठ से साधारण शख्स के तौर पर मायानगरी मुंबई पहुँचे थे और फ़िल्मी दुनिया में कथा, पटकथा और संवाद लेखक के तौर पर एक महान् हस्ति का दर्जा पाया था। पूरे भारत से फ़िल्म वितरक मुखराम शर्मा को फ़ोन करके पूछा करते थे कि उनकी अगली फ़िल्म कौन-सी है और किसके साथ है। उस समय मुखरामजी का जवाब किसी फ़िल्म के सभी अधिकार रातों-रात बिकवाने की गारंटी हुआ करता था। वे जो लिख रहे होते थे, उसका ट्रैक रखने के लिए वितरक और निर्माता उनके घर के नियमित चक्कर लगाते रहते थे। उनके पास अपनी पसंद के निर्माता और निर्देशकों को अपनी कहानियाँ को बेचने का विशेष अधिकार प्राप्त था।

जीवन परिचय

पंडित मुखराम शर्मा का जन्म 30 मई, 1909 में मेरठ के क़िला परीक्षितगढ़ क्षेत्र के एक गाँव पूठी में हुआ था। उन्होंने अपने व्यावसायिक जीवन की शुरुआत हिन्दी और संस्कृत के शिक्षक के रूप में की थी। मुखरामजी मेरठ में ही शिक्षक के पद पर नियुक्त हुए थे, लेकिन शिक्षण कार्य से प्यार करने के बावजूद भी वे अपने भीतर एक कमी महसूस करते थे। उन्होंने महसूस किया कि शिक्षण उनका असली व्यवसाय नहीं था।[1]

मुम्बई आगमन

फ़िल्में देखना मुखराम शर्मा जी बहुत पसंद करते थे और "प्रभात फ़िल्म कंपनी" और "न्यू थियेटर" द्वारा बनाई गई फ़िल्मों के बड़े शौकीन तथा प्रशंसक थे। पत्रिकाओं के लिए लघु कहानियाँ और कविताएँ लिखने वाले मुखराम शर्मा ने निश्चय किया कि अब वे फ़िल्मों के लिए भी लिखना शुरू करेंगे। वह मेरठ में अपने एक मित्र के पास गए, जो हिन्दी फ़िल्म उद्योग के साथ जुड़ा हुआ था और मुम्बई आता-जाता रहता था। उन्होंने उसे अपनी एक कहानी सुनाई। दोस्त उनसे इतना प्रभावित हुआ कि उसने मुखरामजी से अपने साथ मुम्बई आने को कहा। इस प्रकार वर्ष 1939 में मुखराम शर्मा सपनों के शहर मुम्बई आ गये।

प्रारंभिक निराशा

शुरुआत में मुखराम शर्मा जी को सफलता प्राप्त नहीं हुई। फ़िल्म निर्माताओं ने इस प्रतिभाशाली लेखक का स्वागत नहीं किया और मुखराम बहुत ही हताशा और निराशा में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ, जो उनके साथ ही मुंबई रहने आ गये थे, पुणे चले गए। वे 'प्रभात फ़िल्म्स', जिसे वी. शांताराम चला रहे थे, पहुँचे और वहाँ चालीस रुपया प्रति माह पर कलाकारो को मराठी सिखाने की जिम्मेदारी स्वीकार कर ली।

सफलता की प्राप्ति

वर्ष 1942 में उन्हें राजा नेने द्वारा निर्देशित फ़िल्म "दस बजे" के गीत लिखने का मौका मिला, जिसमें उर्मिला और परेश बनर्जी अदाकारी कर रहे थे। फ़िल्म 'दस बजे' एक सुपर हिट साबित हुई। इस प्रारंभिक सफलता के चलते मुखराम शर्मा को राजा हरिश्चंद्र और तारामती की प्रेम कहानी पर आधारित शोभना समर्थ अभिनीत राजा नेने की अगली फ़िल्म "तारामती" लिखने का अवसर मिला। यह फ़िल्म न सिर्फ़ एक बड़ी हिट सबित हुई बल्कि मुखरामजी द्वारा इसके तुरंत बाद लिखी गईं अगली दो फ़िल्मों 'विष्णु भगवान' और 'नल दमयंती' को भी सफ़लता मिली। किंतु अब मुखराम शर्मा एक बदलाव चाहते थे और उनकी कामना सामाजिक समस्याओं के विषयों पर भी कहानी लिखने की थी।[1]

यह अवसर भी मुखराम शर्मा को जल्द ही मिल गया। उन्हें यह मौका तब मिला, जब राजा नेने ने अज्ञात मराठी अभिनेताओ के साथ उनकी एक शुरूआती कहानी पर फ़िल्म बनायी। लेकिन यह फ़िल्म असफल रही। इसके बाद उनकी अगली मराठी फ़िल्म "स्त्री जन्मा तुझी कहानी" को भारी सफ़लता मिली। यह फ़िल्म निर्देशक दत्ता धर्माधिकारी के साथ थी, जिन्होंने मुखरामजी की एक लघु कथा को मराठी में बना डाला था। इस फ़िल्म की सफलता यादगार रही और बाद में इसे "औरत तेरी यही कहानी" फ़िल्म के रूप में हिन्दी में पुनर्निर्मित भी किया गया। इसके बाद हालाँकि उनके पुणे स्थित घर में निर्माताओं का तांता बंध गया था, किंतु मुखरामजी उसकी अनदेखी करके मुंबई लौट आए। अब सफलता उनके क़दम चूम रही थी।

प्रमुख फ़िल्में

पंडित मुखराम शर्मा की मुम्बई में फ़िल्म 'औलाद' थी। जब वर्ष 1954 में यह फ़िल्म परदे पर आई तो इसकी सफलता के बाद मुखरामजी ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1955 में अपनी कहानी के लिए पहला 'फ़िल्म फेयर पुरस्कार' लेने के बाद उन्होंने निम्नलिखित सफल फ़िल्में लिखीं-

मुखराम शर्मा द्वारा लिखित प्रमुख फ़िल्में
क्र. सं. फ़िल्म क्र. सं. फ़िल्म
1. वचन 2. एक ही रास्ता
3. दुश्मन 4. साधना
5. संतान 6. बहनें
7. तलाक़ 8. धूल का फूल
9. समाधि 10. हमजोली
11. वचन 12. स्वप्न सुहाने
13. पतंगा 14. दादी माँ
15. जीने की राह 16. मैं सुन्दर हूँ
17. राजा और रंक 18. दो कलियाँ
19. घराना 20. गृहस्थी
21. प्यार किया तो डरना क्या 22. हमजोली
23. नौकर 24. सौ दिन सास के

मुखराम शर्मा जी ने वर्ष 1958 में एक निर्माता के तौर पर 'तलाक़' और 'संतान' सहित आधा दर्जन फ़िल्में बनाई थीं। सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डालने और अपनी कहानियों के द्वारा उनका हल ढूँढने में उनकी रुचि ने उनके लेखन के पीछे की असली ताकत के रूप में काम किया। उनकी लगभग सभी फ़िल्में अपनी सामाजिक टिप्पणी और सुधार की दिशा में दिए गए सुझावों के कारण पसंद की जाती थीं। फ़िल्म 'एक ही रास्ता' विधवाओं की समस्याओं पर आधारित थी। 'वचन' एक अविवाहित बेटी की कहानी थी, जो अपने परिवार का लालन-पालन करती है। फ़िल्म 'स्वप्न सुहाने' भाइयों और उनके पारस्परिक संबंधों की कहानी थी, जबकि 'पतंगा' में मालिक और नौकर के बीच के संवेदनशील रिश्ते को प्रमुखता के साथ प्रस्तुत किया गया था।[1]

'साधना' फ़िल्म

मुखरामजी की सबसे मशहूर फ़िल्मों में से एक 'साधना' गहरी अंतर्दृष्टि के साथ एक वेश्या के जीवन पर प्रकाश डालती है। यह वकालत करती है कि वेश्यावृत्ति एक ऐसी सामाजिक प्रथा है, जहाँ पुरुष भी समान रूप से ज़िम्मेदार है और कोई भी वेश्या सबसे पहले एक स्त्री है फिर कुछ और। अपनी इस फ़िल्म के माध्यम से मुखरामजी जी ने समाज के समक्ष यह बात रखी कि एक वेश्या को समाज द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए। उन्होंने फ़िल्म के माध्यम से दर्शकों को विश्वास दिलाया कि यह न सिर्फ़ संभव है बल्कि सही भी है। बॉक्स-ऑफिस पर 'साधना' फ़िल्म की सफलता ने यह साबित कर दिखाया कि मुखरामजी समय के साथ थे और उन्हें अपने दर्शकों की नब्ज़ की पूरी तरह समझ थी।

रोचक प्रसंग

फ़िल्म 'साधना' के निर्माण के बारे में एक दिलचस्प क़िस्सा भी है। इस फ़िल्म की कहानी को पूरा करने के बाद मुखरामजी बिमल रॉय के पास गये और उनसे इसका निर्देशन करने के लिए आग्रह किया। बिमल रॉय ने 'मोहन स्टूडियो' में मिलने का सुझाव दिया और कार यात्रा के दौरान मुखरामजी से 'साधना' की कहानी सुनाने को कहा। कहानी सुनते ही बिमल रॉय इसके बोल्ड विषय से प्रभावित होकर तुरंत इसे बनाने पर सहमत हो गये। लेकिन वे एक उलझन में थे कि इस कहानी को दर्शकों द्वारा स्वीकार किया जाएगा या नहीं। उन्होंने फ़िल्म का अंत बदलने के लिए एक सुझाव दिया। उनका दावा था कि 'रजिनी' (उर्फ़ चम्पाबाई, अभिनेत्री वैजयंती माला द्वारा निभाया गया चरित्र) चूँकि एक बदनाम औरत है, लोग उसे बहू के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए कहानी को उसकी मौत के साथ समाप्त करना बेहतर होगा। मुखरामजी ने बिमल दा को सुना और ड्राइवर से गाड़ी रोकने को कहा। वे कार से बाहर आ गये, बिमल दा को लगा कि मुखरामजी शंका निवारण अथवा किसी और आवश्यक कार्य हेतु उतरे हैं, परन्तु उनके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा, जब मुखरामजी वहाँ से चल दिए। उन्होंने एक टैक्सी ली और सीधे बी. आर. चोपड़ा के पास पहुँचे, जो कहानी को जस का तस फ़िल्माने के लिए राज़ी थे।[1]

पण्डित मुखराम शर्मा और बी. आर. चोपड़ा ने लम्बे अरसे तक एक साथ काम किया। बी. आर. चोपड़ा उनके अंतिम दिनों तक गहरे दोस्त भी बने रहे। चोपड़ा ने हमेशा अपनी फ़िल्मों में मुखरामजी के योगदान को भरपूर सराहा तथा उन्हें हमारी सफलता का लेखक (ऑथर ऑफ़ ऑवर सक्सेस) कह कर उनका सम्मान किया।

दक्षिण की ओर प्रस्थान

पण्डित मुखराम शर्मा ने आने वाले वर्षों में एक शानदार सितारे का दर्ज़ा हासिल किया और उनका महत्व इस बात से पता चलता है कि वे अपनी लिखी फ़िल्म में कहानी, पटकथा और संवाद के लिए अलग-अलग क्रेडिट्स लिया करते थे। बाद में वे नायडू की फ़िल्म 'देवता' लिखने के लिए दक्षिण भारत की ओर चले गए। फिर एक के बाद एक एल. वी. प्रसाद की 'दादी माँ', 'जीने की राह', 'मैं सुंदर हूँ', 'राजा और रंक'; एवीएम स्टूडियो की 'दो कलियाँ'; जैमिनी फ़िल्म्स की 'घराना, 'गृहस्थी' तथा अन्य निर्माताओं के लिए 'प्यार किया तो डरना क्या' और 'हमजोली' जैसी अनेकों फ़िल्में लिखते चले गये। ये सभी फ़िल्में उस समय की बड़ी हिट्स थीं। प्रसिद्धि और सौभाग्य की वर्षा से बिना डिगे पण्डित मुखराम शर्मा ने 70 वर्ष की उम्र में एक लम्बी फ़िल्मी पारी खेलने के बाद लेखन कार्य से सेवानिवृत्त होने का फैसला कर लिया। वर्ष 1980 में फ़िल्म 'नौकर' और 'सौ दिन सास के' प्रदर्शित होने के बाद वे मेरठ वापस लौट आए।

पुरस्कार तथा सम्मान

पंडित मुखराम शर्मा ने अपने बेहतरीन काम के लिए कई पुरस्कार भी जीते। वर्ष 1950 से 1970 तक उनके उल्लेखनीय पुरस्कारों में तीन 'फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार' भी थे, जो उन्हें फ़िल्म 'औलाद', 'वचन' और 'साधना' के लिए मिले थे। वर्ष 1961 में उन्हें प्रतिष्ठित 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' भी मिला, जिसे उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से ग्रहण किया था। मुखरामजी 'मेरठ रत्न पुरस्कार' से भी नवाज़े गये, जो उन्हें मेरठ को दिए गये अपने उत्कृष्ट योगदान के लिए प्रदान किया गया था। फ़िल्मों में उनके योगदान के लिए उन्हें "इम्पा"[2] और 'टीवी कलाकार एसोसिएशन' से भी सम्मान हासिल हुए। फ़रवरी 2000 में उनके निधन से थोड़ा पहले उन्हें 'ज़ी लाइफ़टाइम अचीवमेंट पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया था।[1]

व्यक्तित्व

पण्डित मुखराम शर्मा हमेशा ज़मीन से जुड़े व्यक्ति रहे। वे कड़ी मेहनत की सराहना करते थे और समय के महत्व को भली-भाँति समझते थे। उन्हें नयी कारों का शौक़ था और उन दिनों में उन्होंने एम्बैसैडर कार का नवीनतम मॉडल भी अपने लिए ख़रीदा था, किंतु सफ़लता ने इस साधारण आदमी को नहीं बदला। हालाँकि वे मुंबई फ़िल्म सर्किट की बड़ी से बड़ी हस्ती के साथ उठते-बैठते थे, लेकिन उन्होंने इसकी ख़ुमारी को कभी अपने पर हावी नहीं होने दिया। उनकी दुनिया उनके कमरे तक ही सीमित थी, जो उनका ऑफ़िस भी था। वे अपनी प्रेरणा ढूँढने के लिए होटल या शहर के बाहर जाना पसंद नहीं करते थे। अपने कमरे में अपने दीर्घकालिक सहयोगी विष्णु मेहरोत्रा के साथ बैठ कर, मुखरामजी रोज़ सवेरे नियमित तौर पर लेखन करते थे। दोपहर के भोजन बाद वे निर्माताओं से मिलना पसंद करते थे। सफलता ने उन्हें और अधिक विनम्र बनाने और अपनी जड़ों से बांधे रखने में ही सहयोग दिया। 5000 रुपये की वह धनराशि, जो उन्होंने 'साधना' फ़िल्म के लिए 'फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार' द्वारा प्राप्त की थी, पूथी ​​की कन्या पाठशाला को दान कर दिये थे।

निधन

अपनी बढ़ती हुई उम्र में भी मुखरामजी ने लिखने का सिलसिला जारी रखा और कई कहानियाँ तथा आधा दर्जन से भी अधिक उपन्यास प्रकाशित करवाये। अपने बाद के वर्षों में मुखरामजी, जिनका नाम दर्शक फ़िल्म के पोस्टर्स पर देखने के मुरीद थे, प्रसिद्धि और पैसे की तरफ़ मुड़ने में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं रखता था। उन्होंने अपने प्रियजनों के बीच अपने शहर में 25 अप्रैल, 2000 को मेरठ में अपनी अंतिम साँस ली। यद्यपि उनके बेटे रामशरण ने 'स्वप्न सुहाने', 'देवर भाभी', 'बहनें' और 'पतंगा' जैसी फ़िल्मों के निर्माण के ज़रिये अपने पिता के पदचिह्नों पर चलने का प्रयास किया, पर मुखरामजी अपने बच्चों को फ़िल्म उद्योग में लाने के लिए उत्सुक नहीं थे। इसका मुख्य कारण था- उनका अपना प्रारंभिक वर्षों का कठिनतम संघर्ष।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 अतीत का झरोखा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 2 मार्च, 2013।
  2. (आई.एम.पी.ऐ.ऐ.)

बाहरी कड़ियाँ

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