पर्यावरण सम्मेलन क्योटो

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

कार्बन डाई ऑक्साइड के वातावरण में उत्सर्जन के फलस्वरूप भू-मंडल के तापमान में निरंतर वृद्धि हो रही है। इसी भू-मंडलीय तापमान में वृद्धि खतरों पर जापान के क्योटो शहर में 1 दिसम्बर से 10 दिसम्बर, 1997 तक जलवायु परिवर्तन पर एक अन्तराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ, जिसमें 160 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। भारत का प्रतिनिधित्व टाटा ऊर्जा शोध संस्थान के निदेशक डॉ. आर.के. चौधरी ने किया। सम्मेलन की अध्यक्षता राउल एस्ट्रेड ने की थी।

उपलब्धि

सम्मेलन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि पृथ्वी के वातावरणीय ताप में निरंतर हो रही वृद्धि जलवायु में हो रहे परिवर्तन पर रोक के लिए एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर करना था। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से जलवायु में हो रहे परिवर्तन पर ये तीसरा सम्मेलन था। इसके पहले भी दो सम्मेलन- पहला, 1995 में बर्लिन में तथा दूसरा 1996 में जिनेवा में आयोजित हुए थे, लेकिन इसमें उत्सर्जन की मात्रा पर रोक के लिए किसी ठोस नतीजे पर सहमति नहीं हो सकी थी। जलवायु परिवर्तन कन्वेंशन के इस सम्मेलन का लक्ष्य जलवायु परिवर्तन के ज़िम्मेदार कारकों पर नियंत्रण कर विश्व के पर्यावरण में गुणात्मक सुधार लाना था। इस सम्मेलन में काफ़ी मतभेदों के बावजूद औद्योगिक देश अन्ततः ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर 5 प्रतिशत से 2 प्रतिशत तक कमी लाने पर सहमत हो गये। क्योटों समझौते के तहत ग्रीन हाउस गैसों के विस्तार में यूरोपीय संघों 8 प्रतिशत, अमेरिका 7 प्रतिशत, जापान 6 प्रतिशत, कनाडा 3 प्रतिशत कटौती करने पर सहमत हुए। 20 अन्य औद्योगिक देशों ने भी कटौती करने की सहमति व्यक्त की है। अनेक अन्तर्विरोधी एवं मतभेदों के बावजूद सम्मेलन का एक समझौते पर पहुंचना महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रही। 11 दिसम्बर, 1997 को क्योटों समझौते पर हस्ताक्षर हुए। समझौते में ग्रीन हाउस प्रभाव के लिए नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोफ्लोरो कार्बन, परफ्लोरो कार्बन एवं सल्फर हेक्सा फलोराइड का ज़िम्मेदार माना गया है।

समझौते में विकासाशील देशों पर कोई उत्सर्जन प्रतिबन्ध लागू नहीं किया गया। समझौते के दौरान ग्रीन हाउस प्रभाव से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले राष्ट्र मारीशस, मालदीव, हवाई द्वीप, आदि सन 2005 तक उत्सर्जन स्तर में 20 प्रतिशत की कटौती की मांग कर रहे थे। समझौते में यह व्यवस्था की गई जो देश समझौते का उल्लंघन करेंगे वे जुर्माने से दण्डित होंगे तथा जुर्माने की राशि स्वच्छ विकास कोष में जमा की जाएगी। इस कोष की स्थापना का प्रस्ताव ब्राजील ने किया था।

क्योटो प्रोटोकॉल

क्योटो प्रोटोकॉल संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण बदलाव पर एक अंतराष्ट्रीय संधि है। इस संधि पर दिसम्बर, 1997 में क्योटो सम्मेलन के दौरान हस्ताक्षर किये गये। यह एक क़ानूनी एवं बाध्यकारी संधि हैं। इसके तहत संधि में शामिल सभी 38 विकसित देशों द्वारा सामूहिक रूप से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को 1990 के स्तर पर लाने के लिए 2012 तक 5.2 प्रतिशत कटौती करने का संकल्प व्यक्त किया गया है। इसका लक्ष्य ग्रीन हाउस गैसों, यथा-कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, सल्फर क्लोराइड, हाइड्रो क्लोरो कार्बन और क्लोरो-फ्लोरा कार्बन के उत्सर्जन में वर्ष 2008 से 2012 तक प्रभावी कमी करना है। प्रोटोकॉल में स्पष्ट से रूप से उल्लेख किया गया है कि समझौते को लागू करने हेतु सम्मेलन में शामिल सभी 55 देशों, जिनमें 38 विकसित देश भी शामिल है, द्वारा पुष्टि होनी चाहिए एवं इन देशों का उत्सर्जन स्तर कुल ग्रीन हाउस उत्सर्जन का 55 प्रतिशत हो। इन दो शर्तो में से प्रथम शर्त जिसमें 55 देशों के हस्ताक्षर की बात कही गई है। 23 मई, 2004 को ही पूरा हो गया था, परन्तु 55 प्रतिशत ग्रीन हाउस उत्सर्जन से संबंधित शर्त को पूरा करने हेतु संयुक्त राज्य अमरीका की पुष्टि आवश्यक है, क्योंकि ग्रीन हाउस गैसों का सर्वाधिक उत्सर्जन (24 प्रतिशत) वहीं करता है। पर विडवना है कि वर्ष 2001 में अमेरिका ने इस संधि को मानने से इंकार कर दिया। इस स्थिति में यूरापीय संघ के प्रयासों से रूस एवं जापान को क्योटो प्रोटोकॉल की पुष्टि के लिए सहमत किया गया। इस प्रकार रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन द्वारा 4 नवम्बर, 2004 को इस संधि पर हस्ताक्षर करने तथा 18 नवंबर, 2004 को संधि की पुष्टि करने के बाद 16 फरवरी, 2005 को क्योटो प्रोटोकॉल प्रभावी हो गया।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख