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अंग्रेज़ों की अनेक नीतियाँ तथा कार्य ऐसे थे, जिनसे भारतीयों में असन्तोष की भावना जन्म लेने लगी थी। अंग्रेज़ों को अपनी 'श्वेत चमड़ी' पर बड़ा नाज था और वे भारतीयों को 'काली चमड़ी' कहकर उनका उपहास किया करते थे। विलियम बैंटिक ने अपने शासनकाल में [[सती प्रथा]], बाल हत्या, नर हत्या आदि पर प्रतिबन्ध लगाकर तथा डलहौज़ी ने विधवा विवाह को मान्यता देकर रूढ़िवादी भारतीयों में असन्तोष भर दिया। अंग्रेज़ों द्वारा रेल, डाक एवं तार क्षेत्र में किये गये कार्यों को भारतीयों में मात्र ईसाई धर्म के प्रचार का माध्यम बनाने के कारण [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के प्रति उनके मन में विद्रोही भावना भड़क उठी। शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेज़ों ने पाश्चात्य सभ्यता, [[संस्कृति]], [[भाषा]] एवं [[साहित्य]] के विकास पर अधिक ध्यान दिया। ऐसे समय में भारतीय सभ्यता, संस्कृति, भाषा एवं साहित्य के विकास के क्षेत्र में कम्पनी द्वारा कोई विशेष परिवर्तन न किये जाने के कारण भारतीय बौद्धिक वर्ग अंग्रेज़ों के विरुद्ध हो गया। अंग्रेज़ों द्वारा लगान वसूली एवं विद्रोह को कुचलने के समय भारतीयों को कठोर शारीरिक दण्ड एवं यातनायें दी गईं, जिससे उनके अन्दर ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ घृणा एवं द्वेष की भावना भर गई।
 
अंग्रेज़ों की अनेक नीतियाँ तथा कार्य ऐसे थे, जिनसे भारतीयों में असन्तोष की भावना जन्म लेने लगी थी। अंग्रेज़ों को अपनी 'श्वेत चमड़ी' पर बड़ा नाज था और वे भारतीयों को 'काली चमड़ी' कहकर उनका उपहास किया करते थे। विलियम बैंटिक ने अपने शासनकाल में [[सती प्रथा]], बाल हत्या, नर हत्या आदि पर प्रतिबन्ध लगाकर तथा डलहौज़ी ने विधवा विवाह को मान्यता देकर रूढ़िवादी भारतीयों में असन्तोष भर दिया। अंग्रेज़ों द्वारा रेल, डाक एवं तार क्षेत्र में किये गये कार्यों को भारतीयों में मात्र ईसाई धर्म के प्रचार का माध्यम बनाने के कारण [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के प्रति उनके मन में विद्रोही भावना भड़क उठी। शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेज़ों ने पाश्चात्य सभ्यता, [[संस्कृति]], [[भाषा]] एवं [[साहित्य]] के विकास पर अधिक ध्यान दिया। ऐसे समय में भारतीय सभ्यता, संस्कृति, भाषा एवं साहित्य के विकास के क्षेत्र में कम्पनी द्वारा कोई विशेष परिवर्तन न किये जाने के कारण भारतीय बौद्धिक वर्ग अंग्रेज़ों के विरुद्ध हो गया। अंग्रेज़ों द्वारा लगान वसूली एवं विद्रोह को कुचलने के समय भारतीयों को कठोर शारीरिक दण्ड एवं यातनायें दी गईं, जिससे उनके अन्दर ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ घृणा एवं द्वेष की भावना भर गई।
 
====सैनिक असन्तोष====
 
====सैनिक असन्तोष====
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1857 ई. की क्रान्ति में सैन्य असन्तोष की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। सेना में प्रथम धार्मिक विरोध 1806 ई. में [[वेल्लोर]] में तब हुआ था, जब [[लॉर्ड विलियम बैंटिक]] द्वारा माथे पर तिलक लगाने और पकड़ी पहनने पर रोक लगायी गई। [[लॉर्ड डलहौज़ी]] के समय सैनिक विद्रोह हो चुके थे। 1849 ई. में 22वें एन. आई का विद्रोह, 1850 ई. में 66वें एन.आई. का विद्रोह और 1852 ई. में 38 वें एन.आई. का विद्रोह प्रमुख थे। [[मौलाना अबुल कलाम आज़ाद]] के अनुसार, "[[अवध]] के विलय ने सेना में साधारणतः और [[बंगाल]] सेना में विशेषतः विद्रोही भावना का संचार किया"। 1824 ई. में [[बैरकपुर]] में सैनिकों ने समुद्र पार जाने से इनकार कर दिया, जिसके कारण बर्मा रेजीमेण्ट को भंग कर दिया गया था। 1857 ई. में [[लॉर्ड कैनिंग]] द्वारा पारित 'सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम' के अंतर्गत सैनिकों को सरकार जहाँ चाहे वहीं कार्य करवा सकती थी। 1854 ई. के 'डाकघर अधिनियम' में सैनिकों की निःशुल्क डाक सुविधा समाप्त हो गयी। सैन्य असंतोष के इसी वातावरण में चर्बीयुक्त एनफ़ील्ड राइफ़लों के प्रयोग के आदेश ने [[आग]] में [[घी]] का कार्य किया और ये सैनिकों के विद्रोह के लिए तात्कालिक कारण सिद्ध हुआ।
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==मंगल पाण्डे==
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29 मार्च, 1857 ई. को [[मंगल पाण्डे]] नामक एक सैनिक ने 'बैरकपुर छावनी' में अपने अफ़सरों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, लेकिन ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने इस सैनिक विद्रोह को सरलता से नियंत्रित कर लिया और साथ ही उसकी बटालियम '34 एन.आई.' को भंग कर दिया। 24 अप्रैल को 3 एल.सी. परेड [[मेरठ]] में 90 घुड़सवारों में से 85 सैनिकों ने नये कारतूस लेने से इंकार कर दिया। आज्ञा की अवहेलना के कारण इन 85 घुडसवारों को कोर्ट मार्शल द्वारा 5 वर्ष का कारावास दिया गया। 'खुला विद्रोह' 10 मई, दिन रविवार को सांयकाल 5 व 6 बजे के मध्य प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम पैदल टुकड़ी '20 एन.आई.' में विद्रोह की शुरुआत हुई, तत्पश्चात '3 एल.सी.' में भी विद्रोह फैल गया। इन विद्रोहियों ने अपने अधिकारियों के ऊपर गोलियाँ चलाई। मंगल पाण्डे ने 'हियरसे' को गोली मारी थी, जबकि 'अफ़सर बाग' की हत्या कर दी गई थी।
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==विद्रोह का प्रसार==
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11 मई को मेरठ के क्रान्तिकारी सैनिकों ने [[दिल्ली]] पहुँचकर, 12 मई को दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इन सैनिकों ने [[मुग़ल]] सम्राट [[बहादुरशाह द्वितीय]] को दिल्ली का सम्राट घोषित कर दिया। शीघ्र ही विद्रोह [[लखनऊ]], [[इलाहाबाद]], [[कानपुर]], [[बरेली]], [[बनारस]], [[बिहार]] तथा [[झांसी]] में भी फैल गया। [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] ने [[पंजाब]] से सेना बुलाकर सबसे पहले दिल्ली पर अधिकार किया। 21 सितम्बर, 1857 ई. को दिल्ली पर अंग्रेज़ों ने पुनः अधिकार कर लिया, परन्तु संघर्ष में 'जॉन निकोलसन' मारा गया और लेफ्टिनेंट 'हडसन' ने धोखे से बहादुरशाह द्वितीय के दो पुत्रों 'मिर्ज़ा मुग़ल' और 'मिर्ज़ा ख्वाज़ा सुल्तान' एवं एक पोते 'मिर्ज़ा अबूबक्र' को गोली मरवा दी। लखनऊ में विद्रोह की शुरुआत 4 जून, 1857 ई. को हुई। यहाँ के क्रान्तिकारी सैनिकों द्वारा ब्रिटिश रेजीडेन्सी के घेराव के उपरान्त ब्रिटिश रेजिडेंट 'हेनरी लॉरेन्स' की मृत्यु हो गई। हैवलॉक और आउट्रम ने लखनऊ को दबाने का भरकस प्रयत्न किया, परन्तु वे असफल रहे। अन्ततः कॉलिन कैम्पवेल' ने [[गोरखा]] रेजिमेंट के सहयोग से मार्च, 1858 ई. में शहर पर अधिकार कर लिया। वैसे यहाँ क्रान्ति का प्रभाव सितम्बर तक रहा।
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==लक्ष्मीबाई==
  
1857 ई. की क्रान्ति में सैन्य असन्तोष की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। सेना में प्रथम धार्मिक विरोध 1806 ई. में [[वेल्लोर]] में तब हुआ था, जब [[लॉर्ड विलियम बैंटिक]] द्वारा माथे पर तिलक लगाने और पकड़ी पहनने पर रोक लगायी गई। [[लॉर्ड डलहौज़ी]] के समय सैनिक विद्रोह हो चुके थे। 1849 ई. में 22वें एन. आई का विद्रोह, 1850 ई. में 66वें एन.आई. का विद्रोह और 1852 ई. में 38 वें एन.आई. का विद्रोह प्रमुख थे। [[मौलाना अबुल कलाम आज़ाद]] के अनुसार, "[[अवध]] के विलय ने सेना में साधारणतः और [[बंगाल]] सेना में विशेषतः विद्रोही भावना का संचार किया"। 1824 ई. में [[बैरकपुर]] में सैनिकों ने समुद्र पार जाने से इनकार कर दिया, जिसके कारण बर्मा रेजीमेण्ट को भंग कर दिया गया था। 1857 ई. में [[लॉर्ड कैनिंग]] द्वारा पारित 'सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम' के अंतर्गत सैनिकों को सरकार जहाँ चाहे वहीं कार्य करवा सकती थी। 1854 ई. के 'डाकघर अधिनियम' में सैनिकों की निःशुल्क डाक सुविधा समाप्त हो गयी। सैन्य असंतोष के इसी वातावरण में चर्बीयुक्त एनफ़ील्ड राइफ़लों के प्रयोग के आदेश ने [[आग]] में [[घी]] का कार्य किया और ये सैनिकों के विद्रोह के लिए तात्कालिक कारण सिद्ध हुआ।
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{{main|रानी लक्ष्मीबाई}}
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5 जून, 1857 ई. को क्रान्तिकारियों ने कानपुर को अंग्रेज़ों से छीन लिया। [[नाना साहब]] को [[पेशवा]] घोषित किया गया, जिनका वास्तविक नाम 'धोंदू पन्त' था। [[तात्या टोपे]] ने इनका सहयोग किया। यहाँ पर विद्रोह का प्रभाव 6 सितम्बर तक ही रहा। कॉलिन कैम्पवेल के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना ने 6 सितम्बर, 1857 ई. को कानपुर को पुनः अपने क़ब्ज़े में कर लिया। तात्या टोपे कानपुर से फरार होकर झांसी पहुँच गये। [[रानी लक्ष्मीबाई]], जो [[गंगाधर राव]] की विधवा थीं, वे भी अपने दत्तक पुत्र [[दामोदर राव]] को झांसी की गद्दी न दिए जाने के कारण अंग्रेज़ों से नाराज़ थीं। तात्या टोपे के सहयोग से रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज़ों को नाकों चने चबवाये। इन दोनों ने [[ग्वालियर]] पर भी क्रान्ति का झण्डा फहराया और वहाँ के तत्कालीन शासक सिंधिया द्वारा विद्रोह में भाग लेने पर रानी ने नाना साहब को पेशवा घोषित किया, परन्तु शीघ्र ही अंग्रेज़ों ने जून, 1858 ई. में ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। झांसी पर अंग्रेज़ी सेना ने ह्यूरोज के नेतृत्व में 3 अप्रैल, 1858 ई. को अधिकार कर लिया। ह्यूरोज ने रानी लक्ष्मीबाई की वीरता से प्रभावित होकर कहा कि, '''भारतीय क्रांतिकारियों में यह अकेली मर्द है'''। बरेली में 'ख़ान बहादुर ख़ाँ' ने स्वयं को नवाब घोषित किया। [[बिहार]] में जगदीशपुर के ज़मींदार 'कुंअर सिंह' ने बिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ विद्रोह का झण्डा फहराया। [[बनारस]] में हुए विद्रोह को कर्नल नील ने दबाया। जगदीशपुर के विद्रोह को [[अंग्रेज़]] अधिकारी विलियम टेलर एवं मेजर विंसेट आयर ने दबाया।
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====बहादुरशाह द्वितीय की गिरफ्तारी====
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जुलाई, 1858 ई. तक क्रान्ति के सभी स्थानों पर विद्रोह को दबा दिया गया। [[रानी लक्ष्मीबाई]] एवं तात्या टोपे ने विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। इलाहाबाद की कमान 'मौलवी लियाकत अली' ने सम्भाली थी। कर्नल नील ने यहाँ के विद्रोह को समाप्त कर दिया। 20 सितम्बर, 1857 ई. को [[हुमायूँ का मक़बरा|हुमायुँ के मक़बरे]] में शरण लिए हुए [[बहादुरशाह द्वितीय]] को पकड़ लिया गया। उन पर मुकदमा चला तथा उन्हें [[बर्मा]] ([[रंगून]]) निर्वासित कर दिया गया।
  
29 मार्च, 1857 ई. को [[मंगल पाण्डे]] नामक एक सैनिक ने 'बैरकपुर छावनी' में अपने अफ़सरों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, लेकिन ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने इस सैनिक विद्रोह को सरलता से नियंत्रित कर लिया और साथ ही उसकी बटालियम '34 एन.आई.' को भंग कर दिया। 24 अप्रैल को 3 एल.सी. परेड [[मेरठ]] में 90 घुड़सवारों में से 85 सैनिकों ने नये कारतूस लेने से इंकार कर दिया। आज्ञा की अवहेलना के कारण इन 85 घुडसवारों को कोर्ट मार्शल द्वारा 5 वर्ष का कारावास दिया गया। 'खुला विद्रोह' 10 मई, दिन रविवार को सांयकाल 5 व 6 बजे के मध्य प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम पैदल टुकड़ी '20 एन.आई.' में विद्रोह की शुरुआत हुई, तत्पश्चात '3 एल.सी.' में भी विद्रोह फैल गया। इन विद्रोहियों ने अपने अधिकारियों के ऊपर गोलियाँ चलाई। मंगल पाण्डे ने 'हियरसे' को गोली मारी थी, जबकि 'अफ़सर बाग' की हत्या कर दी गई थी।
 
  
 
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10:08, 30 जुलाई 2011 का अवतरण

लॉर्ड कैनिंग के गवर्नर-जनरल के रूप में शासन करने के दौरान ही 1857 ई. की महान क्रान्ति हुई। इस क्रान्ति का आरम्भ 10 मई, 1857 ई. को मेरठ से हुआ, जो धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली, अवध आदि स्थानों पर फैल गया। इस क्रान्ति की शुरुआत तो एक सैन्य विद्रोह के रूप में हुई, परन्तु कालान्तर में उसका स्वरूप बदल कर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक जनव्यापी विद्रोह के रूप में हो गया, जिसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया।

विद्वान मतभेद

1857 ई. की इस महान क्रान्ति के स्वरूप को लेकर विद्धान एक मत नहीं है। इस बारे में विद्वानों ने अपने अलग-अलग मत प्रतिपादित किये हैं, जो इस प्रकार हैं-'सिपाही विद्रोह', 'स्वतन्त्रता संग्राम', 'सामन्तवादी प्रतिक्रिया', 'जनक्रान्ति', 'राष्ट्रीय विद्रोह', 'मुस्लिम षडयंत्र', 'ईसाई धर्म के विरुद्ध एक धर्म युद्ध' और 'सभ्यता एवं बर्बरता का संघर्ष'।

क्रान्ति के कारण

1857 ई. की क्रान्ति कोई अचानक भड़का हुआ विद्रोह नहीं था, वरन इसके साथ अनेक आधारभूत कारण थे, जो निम्नलिखित हैं-

  1. राजनैतिक कारण
  2. आर्थिक कारण
  3. धार्मिक कारण
  4. सामाजिक कारण
  5. सैनिक असन्तोष

राजनैतिक कारण

राजनैतिक कारणों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण के रूप में लॉर्ड डलहौज़ी की 'गोद निषेध प्रथा' या 'हड़प नीति' को माना जाता है। डलहौज़ी ने अपनी इस नीति के अन्तर्गत सतारा, नागपुर, सम्भलपुर, झांसी तथा बरार आदि राज्यों पर अधिकार कर लिया था, जिसके परिणामस्वरूप इन राजवंशों में अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ असन्तोष व्याप्त हो गया। कुशासन के आधार पर डलहौज़ी ने हैदराबाद तथा अवध को अंग्रेज़ी साम्राज्य के अधीन कर लिया, जबकि इन स्थानों पर कुशासन फैलाने के ज़िम्मेदार स्वयं अंग्रेज़ ही थे। अवध के अधिग्रहण की ज़बरदस्त प्रतिक्रिया हुई। उस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी में अवध के 7500 सिपाही थे। अवध को एक चीफ़ कमिश्नर का क्षेत्र बना दिया गया। हेनरी लॉरेन्स पहला चीफ़ कमीश्नर नियुक्त हुआ था। पंजाब और सिंध का विलय भी अंग्रेज़ी हुकूमत ने कूटनीति के द्वारा अंग्रेज़ी साम्राज्य में कर लिया, जो कालान्तर में विद्रोह का एक कारण बना। पेंशनों एवं पदों की समाप्ति से भी अनेक राजाओं में असन्तोष व्याप्त था। उदाहरणार्थ- नाना साहब को मिलने वाली पेंशन को डलहौज़ी ने अपनी नवीन नीति के द्वारा बन्द करवा दिया। मुग़ल सम्राट को 'राजा' माना जाएगा तथा उन्हें लाल क़िला छोड़कर कुतुबमीनार के समीप किसी अन्य क़िले में स्थान्तरित होना पड़ेगा। इसके अलावा सिक्कों से बहादुर शाह ज़फ़र का नाम हटा दिया गया, जिससे जनता क्षुब्ध हो गई।

कुलीनवर्गीय भारतीय तथा ज़मींदारों के साथ अंग्रेज़ों ने बुरा व्यवहार किया और उन्हें मिले समस्त विशेषाधिकारों को कम्पनी की सत्ता ने छीन लिया। ऐसी परिस्थिति में इस वर्ग के लोगों के असन्तोष का सामना भी ब्रिटिश सत्ता को करना पड़ा। भारतीय सरकारी कर्मचारियों ने अंग्रेज़ों द्वारा सरकारी नौकरियों में अपनायी जाने वाली भेदभावपूर्ण नीति का विरोध करते हुए विद्रोह में सिरकत की। कुल मिलाकर भारतीय जनता अंग्रेज़ों के बर्बर प्रशासन से तंग आकर उनकी दासता से मुक्त होना चाहती थी, इसलिए 1857 की क्रांति हुई।

आर्थिक कारण

1857 ई. की क्रान्ति के लिए ज़िम्मेदार आर्थिक कारण इस प्रकार हैं- भारतीयों के धन का निष्कासन तीव्र गति से इंग्लैण्ड की ओर हुआ। मुक्त व्यापार तथा अंग्रेज़ी वस्त्रों के भारत के बाज़ारों में अधिक मात्रा में आ जाने के कारण उसका प्रत्यक्ष प्रभाव यहाँ के कुटीर उद्योगों पर पड़ा, जिस कारण से यहाँ के कुटीर एवं लघु उद्योग नष्ट हो गये। लाखों व्यक्ति बेरोजगार हो गए। 1834-1835 ई. में स्वयं गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने लिखा था कि, 'व्यापार के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा कष्टप्रद उदाहरण नहीं। भारत का मैदान सूती कपड़ा बुनने वालों के अस्थि पंजरों से भरा हुआ है'। लॉर्ड विलियम बैंटिक ने अपने शासनकाल में बहुत-सी 'माफी' (दान की हुई भूमि) तथा 'इनाम की भूमि' को छीन लिया, जिसका प्रभाव यह हुआ कि, अनेक भारतीय ज़मींदार दरिद्र एवं कंगाल हो गए और इस तरह इन ज़मींदारों में अंग्रेज़ी सत्ता के ख़िलाफ़ असन्तोष व्याप्त हो गया। कृषि के क्षेत्र में अंग्रेज़ों की ग़लत नीति के कारण भारतीय किसानों की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई। अंग्रेज़ों द्वारा स्थापित स्थाई बंदोबस्त, रैय्यतवाड़ी व्यवस्था के लिए प्रतिकूल साबित हुआ।

धार्मिक कारण

कहने के लिए तो ब्रिटिश सत्ता धर्म के मामले में तटस्थ थी, पर उसने ईसाई धर्म के प्रचार में अपना पूर्ण सहयोग दिया। ईसाई मिशनरियों का दृष्टिकोण भारत के प्रति बड़ा तिरस्कारपूर्ण था। उसका एक मात्र उद्देश्य भारत में अपनी सर्वोच्चता प्रदर्शित करना था। अंग्रेज़ अपनी नीति के अनुसार अधिकांश भारतीयों को ईसाई बनाकर भारत में अपने साम्राज्य को सुदृढ़ करना चाहते थे। यह तथ्य कम्पनी के अध्यक्ष 'मैगल्ज' के 'हाउस ऑफ़ कॉमन्स' में दिये गये एक भाषण से स्पष्ट होता है। उसने कहा था कि, "देवयोग से भारत का विस्तृत साम्राज्य ब्रिटेन को मिला है, ताकि ईसाई धर्म की पताका एक छोर से दूसरे छोर तक फहरा सके। प्रत्येक व्यक्ति को शीघ्र-अतिशीघ्र समस्त भारतीयों को ईसाई बनाने के महान कार्य को पूर्णतया सम्पन्न करने में अपनी समस्त शक्ति लगा देनी चहिए।" वे ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों को सरकारी नौकरी, उच्च पद एवं अनेक सुविधाएँ प्रदान करते थे। 1813 ई के कम्पनी के आदेश पत्र द्वारा ईसाई पादरियों को आज्ञा प्राप्त करके भारत आने की सुविधा प्राप्त हो गयी। परिणामतः बड़ी संख्या में ईसाई पादरी भारत आए, जिनका मुख्य उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार करना था। परिणामतः 1850 ई. में पास किये गये 'धार्मिक नियोग्यता अधिनियम' द्वारा हिन्दू रीति-रिवाजों में परिवर्तन लाया गया, अर्थात धार्मिक परिवर्तन से पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता था। इस क़ानून का मुख्य लाभ ईसाई बनने वालों का था। अंग्रेज़ों की इस नीति ने हिन्दू और मुसलमान दोनों में कम्पनी के प्रति संदेह उत्पन्न कर दिया।

सामाजिक कारण

अंग्रेज़ों की अनेक नीतियाँ तथा कार्य ऐसे थे, जिनसे भारतीयों में असन्तोष की भावना जन्म लेने लगी थी। अंग्रेज़ों को अपनी 'श्वेत चमड़ी' पर बड़ा नाज था और वे भारतीयों को 'काली चमड़ी' कहकर उनका उपहास किया करते थे। विलियम बैंटिक ने अपने शासनकाल में सती प्रथा, बाल हत्या, नर हत्या आदि पर प्रतिबन्ध लगाकर तथा डलहौज़ी ने विधवा विवाह को मान्यता देकर रूढ़िवादी भारतीयों में असन्तोष भर दिया। अंग्रेज़ों द्वारा रेल, डाक एवं तार क्षेत्र में किये गये कार्यों को भारतीयों में मात्र ईसाई धर्म के प्रचार का माध्यम बनाने के कारण अंग्रेज़ों के प्रति उनके मन में विद्रोही भावना भड़क उठी। शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेज़ों ने पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति, भाषा एवं साहित्य के विकास पर अधिक ध्यान दिया। ऐसे समय में भारतीय सभ्यता, संस्कृति, भाषा एवं साहित्य के विकास के क्षेत्र में कम्पनी द्वारा कोई विशेष परिवर्तन न किये जाने के कारण भारतीय बौद्धिक वर्ग अंग्रेज़ों के विरुद्ध हो गया। अंग्रेज़ों द्वारा लगान वसूली एवं विद्रोह को कुचलने के समय भारतीयों को कठोर शारीरिक दण्ड एवं यातनायें दी गईं, जिससे उनके अन्दर ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ घृणा एवं द्वेष की भावना भर गई।

सैनिक असन्तोष

1857 ई. की क्रान्ति में सैन्य असन्तोष की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। सेना में प्रथम धार्मिक विरोध 1806 ई. में वेल्लोर में तब हुआ था, जब लॉर्ड विलियम बैंटिक द्वारा माथे पर तिलक लगाने और पकड़ी पहनने पर रोक लगायी गई। लॉर्ड डलहौज़ी के समय सैनिक विद्रोह हो चुके थे। 1849 ई. में 22वें एन. आई का विद्रोह, 1850 ई. में 66वें एन.आई. का विद्रोह और 1852 ई. में 38 वें एन.आई. का विद्रोह प्रमुख थे। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के अनुसार, "अवध के विलय ने सेना में साधारणतः और बंगाल सेना में विशेषतः विद्रोही भावना का संचार किया"। 1824 ई. में बैरकपुर में सैनिकों ने समुद्र पार जाने से इनकार कर दिया, जिसके कारण बर्मा रेजीमेण्ट को भंग कर दिया गया था। 1857 ई. में लॉर्ड कैनिंग द्वारा पारित 'सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम' के अंतर्गत सैनिकों को सरकार जहाँ चाहे वहीं कार्य करवा सकती थी। 1854 ई. के 'डाकघर अधिनियम' में सैनिकों की निःशुल्क डाक सुविधा समाप्त हो गयी। सैन्य असंतोष के इसी वातावरण में चर्बीयुक्त एनफ़ील्ड राइफ़लों के प्रयोग के आदेश ने आग में घी का कार्य किया और ये सैनिकों के विद्रोह के लिए तात्कालिक कारण सिद्ध हुआ।

मंगल पाण्डे

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29 मार्च, 1857 ई. को मंगल पाण्डे नामक एक सैनिक ने 'बैरकपुर छावनी' में अपने अफ़सरों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, लेकिन ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने इस सैनिक विद्रोह को सरलता से नियंत्रित कर लिया और साथ ही उसकी बटालियम '34 एन.आई.' को भंग कर दिया। 24 अप्रैल को 3 एल.सी. परेड मेरठ में 90 घुड़सवारों में से 85 सैनिकों ने नये कारतूस लेने से इंकार कर दिया। आज्ञा की अवहेलना के कारण इन 85 घुडसवारों को कोर्ट मार्शल द्वारा 5 वर्ष का कारावास दिया गया। 'खुला विद्रोह' 10 मई, दिन रविवार को सांयकाल 5 व 6 बजे के मध्य प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम पैदल टुकड़ी '20 एन.आई.' में विद्रोह की शुरुआत हुई, तत्पश्चात '3 एल.सी.' में भी विद्रोह फैल गया। इन विद्रोहियों ने अपने अधिकारियों के ऊपर गोलियाँ चलाई। मंगल पाण्डे ने 'हियरसे' को गोली मारी थी, जबकि 'अफ़सर बाग' की हत्या कर दी गई थी।

विद्रोह का प्रसार

11 मई को मेरठ के क्रान्तिकारी सैनिकों ने दिल्ली पहुँचकर, 12 मई को दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इन सैनिकों ने मुग़ल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय को दिल्ली का सम्राट घोषित कर दिया। शीघ्र ही विद्रोह लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, बरेली, बनारस, बिहार तथा झांसी में भी फैल गया। अंग्रेज़ों ने पंजाब से सेना बुलाकर सबसे पहले दिल्ली पर अधिकार किया। 21 सितम्बर, 1857 ई. को दिल्ली पर अंग्रेज़ों ने पुनः अधिकार कर लिया, परन्तु संघर्ष में 'जॉन निकोलसन' मारा गया और लेफ्टिनेंट 'हडसन' ने धोखे से बहादुरशाह द्वितीय के दो पुत्रों 'मिर्ज़ा मुग़ल' और 'मिर्ज़ा ख्वाज़ा सुल्तान' एवं एक पोते 'मिर्ज़ा अबूबक्र' को गोली मरवा दी। लखनऊ में विद्रोह की शुरुआत 4 जून, 1857 ई. को हुई। यहाँ के क्रान्तिकारी सैनिकों द्वारा ब्रिटिश रेजीडेन्सी के घेराव के उपरान्त ब्रिटिश रेजिडेंट 'हेनरी लॉरेन्स' की मृत्यु हो गई। हैवलॉक और आउट्रम ने लखनऊ को दबाने का भरकस प्रयत्न किया, परन्तु वे असफल रहे। अन्ततः कॉलिन कैम्पवेल' ने गोरखा रेजिमेंट के सहयोग से मार्च, 1858 ई. में शहर पर अधिकार कर लिया। वैसे यहाँ क्रान्ति का प्रभाव सितम्बर तक रहा।

लक्ष्मीबाई

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5 जून, 1857 ई. को क्रान्तिकारियों ने कानपुर को अंग्रेज़ों से छीन लिया। नाना साहब को पेशवा घोषित किया गया, जिनका वास्तविक नाम 'धोंदू पन्त' था। तात्या टोपे ने इनका सहयोग किया। यहाँ पर विद्रोह का प्रभाव 6 सितम्बर तक ही रहा। कॉलिन कैम्पवेल के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना ने 6 सितम्बर, 1857 ई. को कानपुर को पुनः अपने क़ब्ज़े में कर लिया। तात्या टोपे कानपुर से फरार होकर झांसी पहुँच गये। रानी लक्ष्मीबाई, जो गंगाधर राव की विधवा थीं, वे भी अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को झांसी की गद्दी न दिए जाने के कारण अंग्रेज़ों से नाराज़ थीं। तात्या टोपे के सहयोग से रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज़ों को नाकों चने चबवाये। इन दोनों ने ग्वालियर पर भी क्रान्ति का झण्डा फहराया और वहाँ के तत्कालीन शासक सिंधिया द्वारा विद्रोह में भाग लेने पर रानी ने नाना साहब को पेशवा घोषित किया, परन्तु शीघ्र ही अंग्रेज़ों ने जून, 1858 ई. में ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। झांसी पर अंग्रेज़ी सेना ने ह्यूरोज के नेतृत्व में 3 अप्रैल, 1858 ई. को अधिकार कर लिया। ह्यूरोज ने रानी लक्ष्मीबाई की वीरता से प्रभावित होकर कहा कि, भारतीय क्रांतिकारियों में यह अकेली मर्द है। बरेली में 'ख़ान बहादुर ख़ाँ' ने स्वयं को नवाब घोषित किया। बिहार में जगदीशपुर के ज़मींदार 'कुंअर सिंह' ने बिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ विद्रोह का झण्डा फहराया। बनारस में हुए विद्रोह को कर्नल नील ने दबाया। जगदीशपुर के विद्रोह को अंग्रेज़ अधिकारी विलियम टेलर एवं मेजर विंसेट आयर ने दबाया।

बहादुरशाह द्वितीय की गिरफ्तारी

जुलाई, 1858 ई. तक क्रान्ति के सभी स्थानों पर विद्रोह को दबा दिया गया। रानी लक्ष्मीबाई एवं तात्या टोपे ने विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। इलाहाबाद की कमान 'मौलवी लियाकत अली' ने सम्भाली थी। कर्नल नील ने यहाँ के विद्रोह को समाप्त कर दिया। 20 सितम्बर, 1857 ई. को हुमायुँ के मक़बरे में शरण लिए हुए बहादुरशाह द्वितीय को पकड़ लिया गया। उन पर मुकदमा चला तथा उन्हें बर्मा (रंगून) निर्वासित कर दिया गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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