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प्रवरा नदी

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प्रवरा नदी की उत्पत्ति और उसके प्रवाहमान होने की कथा समुद्र मंथन के समय ब्रह्मपुराण में आती है। देवताओं ने समुद्र मंथन के फलस्वरूप निकले अमृत के वितरण के लिए एक शुभ मुहूर्त निकाला। असुरों को इस शुभ मुहूर्त तथा अमृत वितरण से अलग रखा गया था, जिससे कि वे अमृत का पान न करने पायें। राहु को इस बात का पता चल गया, कि सिर्फ़ देवता ही अमृत का पान करेंगे।

  • देवताओं की चाल को जान लेने के बाद राहु अमृत पान का उपाय खोजने लगा।
  • मरुद्गणों के मध्य छिपकर राहु ने भी अमृत का पान कर लिया।
  • आदित्य देवता ने छिपकर बैठे हुए राहु को पहचान लिया।
  • विष्णु ने तत्काल अपने चक्र से राहु का सिर काट डाला, लेकिन अमृत पान से राहु का सिर और धड़ अमर हो चुके थे।
  • देवता भयभीत थे, कि सिर और धड़ जुड़कर नया बखेड़ा न शुरू कर दें।
  • राहु के सिर ने देवताओं को राय दी कि उसका धड़ चीरकर अमृत निकाल लें, तदुपरान्त वह धड़ भस्म हो जायेगा।
  • देवताओं ने उसके सिर को राहु के रूप में नक्षत्रों में स्थान दिया।
  • धड़ से अमृत निकालकर एक स्थान पर स्थापित कर दिया गया।
  • राहु के शेष धड़ को भद्र काली (अम्बिका) चट कर गईं, और उसमें विद्यमान रस भी पी गई।
  • जो रस बह गया था, उसकी बूंद-बूंद से 'प्रवरा नदी' की उत्पत्ति हुई और वह प्रवहमान हो पृथ्वी पर बहने लगी।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 517 |

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