बंग भंग

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बंग भंग पहली बार 1905 ई. में वाइसराय लॉर्ड कर्ज़न द्वारा किया गया था। उसका तर्क था कि तत्कालीन बंगाल प्रान्त, जिसमें बिहार और उड़ीसा भी शामिल थे, बहुत बड़ा है। एक लेफ्टिनेंट गवर्नर उसका प्रशासन ठीक ढंग से नहीं चला सकता। फलस्वरूप पूर्वी बंगाल के ज़िलों की उपेक्षा होती है, जहाँ मुसलमान अधिक संख्या में हैं। अतएव उत्तरी और पूर्वी बंगाल के राजशाही, ढाका तथा चटगाँव डिवीजन में आने वाले 15 ज़िले आसाम में मिले दिये गये और पूर्वी बंगाल तथा आसाम नाम से एक नया प्रान्त बना दिया गया और उसे बंगाल से अलग कर दिया गया। इन्हें भी देखें: बंगाल विभाजन

राष्ट्रीय शोक दिवस

बिहार तथा उड़ीसा को पुराने बंगाल में सम्मिलित रखा गया था। बंगाल के लोगों, विशेष रूप से हिन्दुओं में बंग भंग से भारी क्षोभ फैल गया, क्योंकि इसका उद्देश्य था, एक राष्ट्र को विभाजित कर देना, बंगवासियों की एकता को भंग कर देने का प्रयास, जातीय परम्परा, इतिहास तथा भाषा पर घृणित प्रहार। इसको जनता की राजनीतिक आकांक्षाओं को कुचल देने का एक साधन माना गया। बंगवासियों ने अपने प्रान्त का विच्छेदन रोकने के लिए अंग्रेज़ी माल, विशेष रूप से इंग्लैंण्ड के बने वस्त्रों का बहिष्कार प्रारम्भ कर दिया और 17 अक्टूबर को, जिस दिन बंगविच्छेदन किया गया, राष्ट्रीय शोक दिवस मनाया गया।

बंग भंग और स्वामी विवेकानंद

हाउस आफ कामन्स में 4 जुलाई को हुआ रहस्योद्घाटन 6 जुलाई के बंगाल के अखबारों में छपा। 7 जुलाई को शिमला में वायसराय भवन से इसकी अधिकृत घोषणा कर दी गई। बंगाल इस राष्ट्रीय अपमान से तिलमिला उठा। डेढ़ वर्ष लम्बे उसकी शान्तिपूर्ण संवैधानिक चीख पुकार को ब्रिटिश सरकार ने अनसुना कर दिया। शायद इसके पीछे बंगाली चरित्र के बारे में अंग्रेजों का यह मूल्यांकन काम कर रहा था कि बंगाली दिमाग से भले ही तेज हों पर वह शौर्यवृत्ति से शून्य है। वे शोर मचा सकते हैं पर संघर्ष के मैदान में नहीं उतर सकते। चुनौती सामने खड़ी थी। अब समय आ गया था कि बंगाल अंग्रेजों की इस भ्रान्त धारणा को गलत सिद्ध करे। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के नरमदली अखबार "बंगाली" ने पहले ही दिन ब्रिटिश सरकार की इस चुनौती को स्वीकार करने की घोषणा कर दी। "बंगाली" ने लिखा कि "ब्रिटिश सरकार इस खुशफहमी में न रहे कि देश इस राक्षसी योजना को बिना किसी संघर्ष के चुपचाप स्वीकार कर लेगा। इसमें तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है कि हम ऐसे अप्रत्याशित आंदोलन के कगार पर खड़े हैं जो अपनी व्यापकता और तीव्रता में इस प्रान्त के अब तक के इतिहास में अद्वितीय होगा।" 8 जुलाई को बंगाल लेजिस्लेटिव काउंसिल में तीन शीर्ष नरमदली प्रतिनिधियों अम्बिका चरण मज़ूमदार, भूपेन्द्र नाथ बसु और जोगेशचन्द्र चौधरी ने बंगाल के ले. गवर्नर फ्रेजर की उपस्थिति में अपनी पीड़ा व्यक्त की कि किसी मामूली अपराधी को सजा देने के पहले अपनी बात कहने का मौका दिया जाता है किन्तु बंगाल को वह मौका भी नहीं दिया गया और करोड़ों बंगालियों के भविष्य को फाँसी पर लटकाने की घोषणा कर दी गई। अब हमारे सामने कोई रास्ता नहीं बचा सिवाय इसके कि इस अन्याय के विरुद्ध हम अपनी एकता के बल पर शान्तिपूर्ण संघर्ष में बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए तैयार रहें। किन्तु कर्जन को विश्वास था कि बंगाल गरजेगा पर बरसेगा नहीं। उसे अन्दाजा नहीं था कि बंगाल राष्ट्रीयता के रंग में पूरी तरह रंग चुका है। उसका पूरी तरह मानसिक और बौद्धिक रूपान्तरण हो चुका है। बंगाल की युवा पीढ़ी स्वामी विवेकानन्द के सन्देश को आत्मसात कर चुकी है। 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना करके स्वामी विवेकानन्द ने नारायण को नर सेवा से जोड़ दिया था। कोलम्बो से अल्मोड़ा तक उनकी यात्रा और गर्जना ने बंगाली मानस को अखिल भारतीय राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक गौरव से अनुप्राणित कर दिया था। अमरीका और ब्रिटेन में स्वामी जी के भारी प्रभाव का साक्षात्कार करके विपिन चन्द्र पाल जैसे नरमदलीय ब्राहृ समाजी चिन्तक ब्रिटिश भक्ति की भाषा छोड़कर एक नए महान् सांस्कृतिक भारत के निर्माण का सपना देखने लगे थे। अपनी अमरीका यात्रा से भारत वापस लौटते ही उन्होंने 1901 में "न्यू इंडिया" नामक एक साप्ताहिक प्रारम्भ करके अपने सपने को शिक्षित बंगाल तक पहुंचाना शुरू कर दिया था। 1898 में एक ब्रिटिश महिला स्वामी विवेकानन्द से प्रभावित होकर उनकी शिष्या बनकर भारत आ गई थी। भगिनी निवेदिता नाम धारण कर उसने भारत को ही अपनी कर्मभूमि, मोक्षभूमि बना लिया था। जिस वर्ष 1902 में स्वामी विवेकानन्द अपना भौतिक शरीर त्याग कर विचार रूप में बंगाल के मन-प्राण पर छा गए, उसी वर्ष एक अन्य मनीषी सतीशचन्द्र मुखोपाध्याय ने "डान सोसायटी" की स्थापना की, जिसने बंगाल के किशोर और युवा अन्त:करणों को भारत के प्राचीन गौरव और राष्ट्रीय स्वाभिमान का पाठ पढ़ाना शुरू किया। बंगाल अपने क्षेत्रीय अभिमान से आगे बढ़कर अखिल भारतीय राष्ट्रीयता का अंग ही नहीं, बल्कि उसका बौद्धिक नेतृत्व करने लगा था। महाराष्ट्र का एक युवक सखाराम गणेश देऊस्कर बंगाल को अपनी कर्मभूमि बनाकर बंगाल और महाराष्ट्र के बीच राष्ट्रीय एकता का पुल बना रहा था। 1902 में पहली बार शिवाजी उत्सव का आयोजन हुआ जिसमें विपिनचन्द्र पाल ने अपनी ओजस्वी वाणी में शिवाजी के संकल्प, रणनीति और वीरता के आदर्श को बंगाल की जनता के सामने रखा। 1904 में शिवाजी उत्सव के लिए कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने "शिवाजी" शीर्षक अपनी प्रसिद्ध कविता प्रस्तुत की। उसी वर्ष रवीन्द्रनाथ ने "स्वदेशी समाज" नामक निबन्ध में भारत के सांस्कृतिक पुनरुज्जीवन का चित्र प्रस्तुत किया। अन्य बंगाली साहित्यकारों ने भी भारत के अन्य भागों के वीर और राष्ट्रभक्त चरित्रों-जैसे राणा प्रताप, गुरु गोविन्द सिंह आदि को केन्द्र बनाकर प्रेरणादायी रचनाएं कीं। विदेश यात्रा से लौटकर ब्राहृ बांधव उपाध्याय ने नवम्बर, 1908 में सांध्य दैनिक "संध्या" शुरू करके फिरंगी सभ्यता पर व्यंग्यात्मक प्रहार प्रारंभ कर दिए थे। कर्जन समझ नहीं पाया था कि 1905 का बंगाल वह नहीं था जो मुग़लों-पठानों के शासनकाल में था। अब वह अखिल भारतीय राष्ट्रीय जागरण का अग्रदूत बन चुका था। श्री अरविन्द ने अपने छोटे से निबन्ध "बंकिम-तिलक-दयानंद" में बंगाल के इस रूपान्तरण की अखिल भारतीय पृष्ठभूमि को प्रस्तुत किया है।[1]

संजीवनी द्वारा स्वदेशी का उद्घोष

8 जुलाई, 1905 को बंगाल लेजिस्लेटिव काउंसिल में अम्बिका चरण मजूमदार ने ले.गवर्नर फ्रेजर को सुनाकर कहा कि क्या हम फिर से मुग़लों और पठानों के अत्याचारी युग में पहुंच गए हैं? पर, बंगाल की मन:स्थिति से बेखबर कर्जन बंग-भंग की योजना को क्रमश: आगे बढ़ा रहा था। 19 जुलाई, 1905 को शिमला के वायसराय भवन में बैठकर कर्जन की सरकार ने एक अधिकृत प्रस्ताव पारित कर विभाजन की पूरी रूपरेखा घोषित कर दी। घोषणा कर दी गई कि 16 अक्तूबर को विभाजन का निर्णय क्रियान्वित कर दिया जाएगा और जोसेफ बम्प फील्ड फुलर "पूर्वी बंगाल और असम" नामक नए प्रान्त का ले. गवर्नर होंगे। ब्रिटिश सरकार तो चुनौती फेंक चुकी थी। अब बंगाल को सोचना था कि वह इस चुनौती को परास्त कैसे करे। वह जान गया था कि केवल सभाओं में प्रस्ताव पारित करने, सरकार को खुले पत्र और याचिकाएं भेजने, सत्ताधीशों के पास प्रतिनिधिमंडल ले जाने, विधानसभाओं में विरोध का स्वर उठाने जैसी संवैधानिक लड़ाई की भाषा को ब्रिटिश सरकार समझने वाली नहीं है। अब उसे कोई ऐसा मार्ग खोजना होगा जिससे ब्रिटिश हितों पर सीधा प्रहार हो सके और बंग-भंग विरोधी जनता के संकल्प के क्रियात्मक रूप की अभिव्यक्ति भी हो सके। दूसरी चुनौती थी इस आंदोलन के पीछे पूरे समाज को एक्यबद्ध कैसे किया जाए, उसमें संघर्ष और त्याग का संकल्प कैसे जगाया जाए। इस दिशा में पहली रचनात्मक पहल की जाने-माने नरमदली नेता कृष्ण कुमार मित्र की पत्रिका "संजीवनी" ने। 13 जुलाई, 1905 को संजीवनी ने लिखा कि इंग्लैण्ड बनियों का देश है। वहां के निवासी अपने आर्थिक हितों को सर्वोपरि मानते हैं। इंग्लैण्ड वासियों की दृष्टि में भारत में उनकी सरकार की सफलता की एकमात्र कसौटी है कि वह भारत का शोषण करके उनकी आर्थिक समृद्धि को कितना बढ़ाती है। इस समय भारत ब्रिटिश माल का बाज़ार बना हुआ है। मैनचेस्टर का कपड़ा और लीवर पूल का नमक भारतीय जीवन का अनिवार्य अंग बन गए हैं। ब्रिटेन में बने जूते, साबुन, सिगरेट, तम्बाकू आदि अनेक उत्पाद भारतीय बाज़ार पर छाये हुए हैं। पाश्चात्य सभ्यता के प्रवाह में बह रहा बंगाल अपनी विशाल जनसंख्या के कारण ब्रिटिश माल की खपत में सर्वाधिक योगदान कर रहा है। अत: यदि बंगाल की जनता ब्रिटिश उत्पादनों के बहिष्कार का निर्णय कर ले तो ब्रिटेन का व्यापारी वर्ग अपनी जड़ों तक हिल जाएगा और अपने आर्थिक हितों की रक्षा के लिए ब्रिटिश सरकार पर विभाजन के निर्णय को वापस लेने का दबाव बनायेगा। अर्थात् संजीवनी ने पहली बार ब्रिटिश माल के बहिष्कार का आह्वान किया। संजीवनी ने यह भी लिखा कि विभाजन के दिन को शोक दिवस के रूप में मनाया जाए, ब्रिटिश अधिकारियों एवं कार्यालयों से सम्पर्क न रखा जाए।[1]

बंग विच्छेद आदेश में परिवर्तन

सरकार को यह जन आन्दोलन रुचिकर नहीं प्रतीत हुआ। उसने उसे विफल बनाने के लिए मुसलमानों को अपनी ओर मिलाने की चेष्टा की और वचन दिया कि नये प्रान्त में उनको विशेष सुविधाएँ प्रदान की जायेंगी। इसके साथ ही उसने दमनकारी उपायों का सहारा लिया और सार्वजनिक स्थानों पर 'वदेमातरम्' का घोष करना दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया। दमन के फलस्वरूप जन असंतोष और गहरा हो गया और आतंकवादी गतिविधियाँ आरम्भ हो गयीं। अंग्रेज़ अफ़सरों तथा उनके भारतीय गुर्गों की हत्या करने के प्रयत्न किये गये। सरकार ने दमनचक्र और तेज़ कर दिया। परन्तु, उसका कोई फल नहीं निकला। परिणामस्वरूप दिसम्बर 1911 ई. के दिल्ली दरबार में शाही घोषणा करके बंग विच्छेद सम्बन्धी आदेश मे संशोधन कर दिया गया। पूर्वी बंगाल के 15 ज़िलों को आसाम से अलग करके पश्चिमी बंगाल में फिर संयुक्त कर दिया गया। इसके साथ ही बिहार तथा उड़ीसा को बंगाल प्रान्त से अलग कर दिया गया। संयुक्त बंगाल का प्रशासन एक गवर्नर के अधीन हो गया। प्रशासन की कथित शिथिलता दूर करने के लिए यह सुझाव लॉर्ड कर्ज़न को भी दिया गया, परन्तु उसने इसे नामन्ज़ूर कर दिया।

दूसरा विभाजन

बंगाल का दूसरा विभाजन 1947 ई. में भारत विभाजन के फलस्वरूप हुआ। भारत को इसी शर्त पर स्वाधीनता प्रदान की गयी कि उसका विभाजन भारत तथा पाकिस्तान नाम के दो राज्यों में कर दिया जाए। फलस्वरूप बंगाल के ढाका तथा चटगाँव डिवीजन के कुछ ज़िलों को अलग करके पूर्वी पाकिस्तान का निर्माण कर दिया गया। 16 दिसम्बर, 1971 ई. को पूर्वी पाकिस्तान शेष पाकिस्तान से अलग होकर एक स्वतंत्र सार्वभौम प्रभुसत्ता सम्पन्न राष्ट्र बन गया, जो अब 'बांग्ला देश' कहलाने लगा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 बंग-भंग से स्वदेशी तक-2 (हिंदी) panchjanya.com। अभिगमन तिथि: 13 फ़रवरी, 2013।

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