"बाजीराव प्रथम" के अवतरणों में अंतर

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बाजीराव प्रथम [[मराठा]] राज्य का दूसरा पेशवा (1720-40 ई0), जिसकी नियुक्ति उसके पिता बालाजी विश्वनाथ के उत्तराधिकारी के रूप में राजा साहू ने की थी। साहू ने राज-काज से अपने को क़रीब-क़रीब अलग कर लिया था और मराठा राज्य के प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव प्रथम देखता था। वह महान राजनयक और योग्य सेनापति था। उसने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि [[मुग़ल काल|मुग़ल साम्राज्य]] छिन्न-भिन्न होने जा रहा है और उसने [[महाराष्ट्र]] क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर हिन्दू-पद-पादशाही स्थापित करने की योजना बनाई थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को उत्तर [[भारत]] भेजा, जिससे पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की जड़ पर अन्तिम प्रहार किया जा सके। उसने 1723 ई0 में [[मालवा]] पर आक्रमण किया और 1724 ई0 में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से [[गुजरात]] जीत लिया।
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{{सूचना बक्सा ऐतिहासिक पात्र
==युद्ध==
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|चित्र=Bajirao-Statue-Shaniwar-Wada-Pune.jpg
मराठा सरदारों का एक वर्ग उत्तर भारत में मराठा शक्ति के प्रसार की इस नीति का विरोधी था, जिसका नेतृत्व सेनापति व्यंम्बक राव दाभाड़े कर रहा था। बाजीराव ने घबोई के युद्ध में दाभाड़े को पराजित कर उसका वध कर दिया। 1731 में निज़ाम के साथ की गयी एक सन्धि के द्वारा पेशवा को उत्तर भारत में अपनी शक्ति का प्रसार करने की छूट मिल गयी। बाजीराव प्रथम का अब महाराष्ट्र में कोई भी प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया था और राजा साहू का उसके ऊपर केवल नाम मात्र नियंत्रण था। इस परिस्थिति में बाजीराव प्रथम ने पेशवा पद को पैतृक उत्तराधिकारियों के रूप में अपने परिवार के लिए सुरक्षित कर दिया और उत्तर भारत में मराठा शक्ति के प्रसार की अपनी योजनाओं को फिर से आगे बढ़ाया। उसने [[आमेर]] के राजपूत राजा और बुन्देलों से गठबन्धन कर लिया। 1737 में उसकी विजयी सेनाएँ [[दिल्ली]] के पास पहुँच गईं। मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह (1719-48 ई0) ने घबरा कर [[हैदराबाद]] के निज़ाम को बुलाया जिसने मराठों से की गई 1731 ई0 वाली सन्धि का उल्लघंन कर बाजीराव प्रथम का बढ़ाव रोकने के लिए अपनी सेना उत्तर भारत में भेज दी। पेशवा ने निज़ाम की सेना को [[भोपाल]] के निकट युद्ध में पराजित कर दिया और उसे फिर सन्धि करने को मजबूर किया, जिसके द्वारा मराठों को केवल [[मालवा]] का क्षेत्र ही नहीं, वरन् [[नर्मदा नदी|नर्मदा]] और [[चम्बल नदी|चम्बल]] के बीच का क्षेत्र भी मिल गया। इस सन्धि की पुष्टि मुग़ल बादशाह ने की और हिन्दुस्तान के बड़े हिस्से पर मराठों का आधिपत्य हो गया।
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|चित्र का नाम=बाजीराव की प्रतिमा, शनिवार वाड़ा पुणे
==मराठा मण्डल की स्थापना==
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|पूरा नाम=बाजीराव प्रथम
1739 में बाजीराव प्रथम ने पुर्तग़ालियों से साष्टी और बसई का इलाक़ा छीन लिया। लेकिन बाजीराव प्रथम को अनेक मराठा सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ रहा था। विशेषरूप से उन सरदारों का जो क्षत्रिय थे और ब्राह्मण पेशवा की शक्ति बढ़ने से ईर्ष्या करते थे। बाजीराव प्रथम ने पुश्तैनी मराठा सरदारों की शक्ति कम करने के लिए अपने समर्थकों में से नये सरदार नियुक्त किये और उन्हें मराठों द्वारा विजित नये क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया। इस प्रकार मराठा मण्डल की स्थापना हुई, जिसमें [[ग्वालियर]] के शिन्दे, [[बड़ौंदा]] के गायकवाड़, [[इन्दौर]] के होल्कर और [[नागपुर]] के भोंसला शासक शामिल थे। इन सबके अधिकार में काफ़ी विस्तृत क्षेत्र था। इन लोगों ने बाजीराव प्रथम का समर्थन कर मराठा शक्ति के प्रसार में बहुत सहयोग दिया। लेकिन इनके द्वारा जिस सामन्तवादी व्यवस्था का बीजारोपण हुआ, उसके फलस्वरूप अन्त में मराठों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी। यदि बाजीराव प्रथम कुछ समय और जीवित रहता तो सम्भव था कि वह इसे रोकने के लिए कुछ उपाय करता। लेकिन 1840 ई0 में उसकी 42 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गयी, जिससे हिन्दू-पद-पादशाही की स्थापना के लक्ष्य को गहरी क्षति पहुँची।
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|अन्य नाम='बाजीराव बल्लाल' तथा 'थोरले बाजीराव'
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|जन्म=[[18 अगस्त]], 1700 ई.
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|जन्म भूमि=
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|मृत्यु तिथि=[[28 अप्रॅल]], 1740 ई.
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|मृत्यु स्थान=
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|पिता/माता=[[बालाजी विश्वनाथ]], राधाबाई
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|पति/पत्नी=काशीबाई, मस्तानी
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|संतान=[[बालाजी बाजीराव]], [[रघुनाथराव]]
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|धार्मिक मान्यता=
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|युद्ध=
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|प्रसिद्धि=[[मराठा साम्राज्य]] का द्वितीय [[पेशवा]]
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|पूर्वाधिकारी=[[बालाजी विश्वनाथ]]
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|संबंधित लेख=[[मराठा साम्राज्य]], [[पेशवा]], [[बालाजी विश्वनाथ]], [[बालाजी बाजीराव]], [[शिवाजी]], [[मस्तानी]]
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}}'''बाजीराव प्रथम''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Bajirao I'', जन्म- [[18 अगस्त]], [[1700]] ई.; मृत्यु- [[28 अप्रॅल]], [[1740]] ई.) [[मराठा साम्राज्य]] का महान् सेनानायक था। वह [[बालाजी विश्वनाथ]] और राधाबाई का बड़ा पुत्र था। [[शाहू|राजा शाहू]] ने बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु हो जाने के बाद उसे अपना दूसरा [[पेशवा]] (1720-1740 ई.) नियुक्त किया था। बाजीराव प्रथम को 'बाजीराव बल्लाल' तथा 'थोरले बाजीराव' के नाम से भी जाना जाता है। बाजीराव प्रथम विस्तारवादी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने [[हिन्दू|हिन्दू जाति]] की कीर्ति को विस्तृत करने के लिए '[[हिन्दू पद पादशाही]]' के आदर्श को फैलाने का प्रयत्न किया।
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==योग्य सेनापति और राजनायक==
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बाजीराव प्रथम एक महान् राजनायक और योग्य सेनापति था। उसने [[मुग़ल साम्राज्य]] की कमज़ोर हो रही स्थिति का फ़ायदा उठाने के लिए राजा शाहू को उत्साहित करते हुए कहा था कि-
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::"आओ हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखायें तो स्वयं ही गिर जायेंगी। हमारे प्रयत्नों से [[मराठा]] पताका [[कृष्णा नदी]] से [[अटक]] तक फहराने लगेगी।"
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इसके उत्तर में शाहू ने कहा कि-
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::"निश्चित रूप से ही आप इसे [[हिमालय]] के पार गाड़ देगें। निःसन्देह आप योग्य [[पिता]] के योग्य पुत्र हैं।"
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राजा शाहू ने राज-काज से अपने को क़रीब-क़रीब अलग कर लिया था और [[मराठा साम्राज्य]] के प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव प्रथम देखता था। बाजीराव प्रथम को सभी नौ पेशवाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
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====दूरदृष्टा====
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बाजीराव प्रथम ने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने जा रहा है। इसीलिए उसने [[महाराष्ट्र]] क्षेत्र से बाहर के [[हिन्दू]] राजाओं की सहायता से [[मुग़ल साम्राज्य]] के स्थान पर 'हिन्दू पद पादशाही' स्थापित करने की योजना बनाई थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को [[उत्तर भारत]] भेजा, जिससे पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की जड़ पर अन्तिम प्रहार किया जा सके। उसने 1723 ई. में [[मालवा]] पर आक्रमण किया और 1724 ई. में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से [[गुजरात]] जीत लिया।
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==साहसी एवं कल्पनाशील==
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बाजीराव प्रथम एक योग्य सैनिक ही नहीं, बल्कि विवेकी राजनीतिज्ञ भी था। उसने अनुभव किया कि मुग़ल साम्राज्य का अन्त निकट है तथा हिन्दू नायकों की सहानुभूति प्राप्त कर इस परिस्थिति का मराठों की शक्ति बढ़ाने में अच्छी तरह से उपयोग किया जा सकता है। साहसी एवं कल्पनाशील होने के कारण उसने निश्चित रूप से मराठा साम्राज्यवाद की नीति बनाई, जिसे प्रथम [[पेशवा]] ने आरम्भ किया था। उसने शाही शक्ति के केन्द्र पर आघात करने के उद्देश्य से [[नर्मदा नदी|नर्मदा]] के पार फैलाव की नीति का श्रीगणेश किया। अत: उसने अपने स्वामी शाहू से प्रस्ताव किया- "हमें मुर्झाते हुए वृक्ष के धड़ पर चोट करनी चाहिए। शाखाएँ अपने आप ही गिर जायेंगी। इस प्रकार मराठों का झण्डा [[कृष्णा नदी|कृष्णा]] से [[सिंध प्रांत|सिन्धु]] तक फहराना चाहिए।" बाजीराव के बहुत से साथियों ने उसकी इस नीति का समर्थन नहीं किया। उन्होंने उसे समझाया कि उत्तर में विजय आरम्भ करने के पहले दक्षिण में [[मराठा]] शक्ति को दृढ़ करना उचित है। परन्तु उसने वाक् शक्ति एवं उत्साह से अपने स्वामी को उत्तरी विस्तार की अपनी योग्यता की स्वीकृति के लिए राज़ी कर लिया।
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=='हिन्दू पद पादशाही' का प्रचार==
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[[हिन्दू]] नायकों की सहानुभूति जगाने तथा उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए बाजीराव ने '[[हिन्दू पद पादशाही]]' के आदर्श का प्रचार किया। जब उसने [[दिसम्बर]], 1723 ई. में [[मालवा]] पर आक्रमण किया, तब स्थानीय हिन्दू ज़मींदारों ने उसकी बड़ी सहायता की, यद्यपि इसके लिए उन्हें अपार धन-जन का बलिदान करना पड़ा। [[गुजरात]] में गृह-युद्ध से लाभ उठाकर मराठों ने उस समृद्ध प्रान्त में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। परन्तु इसके मामलों में बाजीराव प्रथम के हस्तक्षेप का एक प्रतिद्वन्द्वी मराठा दल ने, जिसका नेता पुश्तैनी सेनापति [[त्र्यम्बकराव दाभाड़े]] था, घोर विरोध किया।
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==सफलताएँ==
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बाजीराव प्रथम ने सर्वप्रथम दक्कन के निज़ाम निज़ामुलमुल्क से लोहा लिया, जो [[मराठा|मराठों]] के बीच मतभेद के द्वारा फूट पैदा कर रहा था। [[7 मार्च]], 1728 को पालखेड़ा के संघर्ष में निजाम को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा और ‘मुगी शिवगांव’ संधि के लिए बाध्य होना पड़ा, जिसकी शर्ते कुछ इस प्रकार थीं-
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#[[शाहू]] को चौथ तथा सरदेशमुखी देना।
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#शम्भू की किसी तरह से सहायता न करना।
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#जीते गये प्रदेशों को वापस करना।
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#युद्ध के समय बन्दी बनाये गये लोगों को छोड़ देना आदि।
  
  
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[[शिवाजी]] के वंश के [[कोल्हापुर]] शाखा के राजा शम्भुजी द्वितीय तथा निज़ामुलमुल्क, जो बाजीराव प्रथम की सफलताओं से जलते थे, त्र्यम्बकराव दाभाड़े से जा मिले। परन्तु बाजीराव प्रथम ने अपनी उच्चतर प्रतिभा के बल पर अपने शत्रुओं की योजनाओं को विफल कर दिया। [[1 अप्रैल]], 1731 ई. को ढावोई के निकट बिल्हापुर के मैदान में, जो [[बड़ौदा]] तथा ढावोई के बीच में है, एक लड़ाई हुई। इस लड़ाई में त्र्यम्बकराव दाभाड़े परास्त होकर मारा गया। बाजीराव प्रथम की यह विजय 'पेशवाओं के इतिहास में एक युगान्तकारी घटना है।' 1731 में निज़ाम के साथ की गयी एक सन्धि के द्वारा [[पेशवा]] को [[उत्तर भारत]] में अपनी शक्ति का प्रसार करने की छूट मिल गयी। बाजीराव प्रथम का अब [[महाराष्ट्र]] में कोई भी प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया था और [[शाहू|राजा शाहू]] का उसके ऊपर केवल नाम मात्र नियंत्रण था।   
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दक्कन के बाद [[गुजरात]] तथा [[मालवा]] जीतने के प्रयास में बाजीराव प्रथम को सफलता मिली तथा इन प्रान्तों में भी मराठों को चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार प्राप्त हुआ। ‘[[बुन्देलखण्ड]]’ की विजय बाजीराव की सर्वाधिक महान् विजय में से मानी जाती है। मुहम्मद ख़ाँ वंगश, जो [[बुन्देला]] नरेश [[छत्रसाल]] को पूर्णत: समाप्त करना चाहता था, के प्रयत्नों पर बाजीराव प्रथम ने छत्रसाल के सहयोग से 1728 ई. में पानी फेर दिया और साथ ही मुग़लों द्वारा छीने गये प्रदेशों को छत्रसाल को वापस करवाया। कृतज्ञ छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया तथा [[काल्पी]], [[सागर ज़िला|सागर]], [[झांसी]] और हद्यनगर [[पेशवा]] को निजी जागीर के रूप में भेंट किया।
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==निज़ामुलमुल्क पर विजय==
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बाजीराव प्रथम ने सौभाग्यवश [[आमेर क़िला|आमेर]] के [[जयसिंह|सवाई जयसिंह द्वितीय]] तथा छत्रसाल बुन्देला की मित्रता प्राप्त कर ली। 1737 ई. में वह सेना लेकर [[दिल्ली]] के पार्श्व तक गया, परन्तु बादशाह की भावनाओं पर चोट पहुँचाने से बचने के लिए उसने अन्दर प्रवेश नहीं किया। इस मराठा संकट से मुक्त होने के लिए बादशाह ने बाजीराव प्रथम के घोर शत्रु निज़ामुलमुल्क को सहायता के लिए दिल्ली बुला भेजा। निज़ामुलमुल्क को 1731 ई. के समझौते की अपेक्षा करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई। उसने बादशाह के बुलावे का शीघ्र ही उत्तर दिया, क्योंकि इसे उसने बाजीराव की बढ़ती हुई शक्ति के रोकने का अनुकूल अवसर समझा। [[भोपाल]] के निकट दोनों प्रतिद्वन्द्वियों की मुठभेड़ हुई। निज़ामुलमुल्क पराजित हुआ तथा उसे विवश होकर सन्धि करनी पड़ी। इस सन्धि के अनुसार उसने निम्न बातों की प्रतिज्ञा की-
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#बाजीराव को सम्पूर्ण [[मालवा]] देना तथा [[नर्मदा नदी|नर्मदा]] एवं [[चम्बल नदी]] के बीच के प्रदेश पर पूर्ण प्रभुता प्रदान करना।
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#बादशाह से इस समर्पण के लिए स्वीकृति प्राप्त करना।
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#पेशवा का ख़र्च चलाने के लिए पचास लाख रुपयों की अदायगी प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रयत्न को काम में लाना।
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==अकाल मृत्यु==
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इन प्रबन्धों के बादशाह द्वारा स्वीकृत होने का परिणाम यह हुआ कि मराठों की प्रभुता, जो पहले ठेठ हिन्दुस्तान के एक भाग में वस्तुत: स्थापित हो चुकी थी, अब क़ानूनन भी हो गई। पश्चिमी समुद्र तट पर मराठों ने [[पुर्तग़ाली|पुर्तग़ालियों]] से 1739 ई. में [[साष्टी]] तथा [[बसई]] छीन ली। परन्तु शीघ्र ही बाजीराव प्रथम, [[नादिरशाह का आक्रमण|नादिरशाह के आक्रमण]] से कुछ चिन्तित हो गया। अपने [[मुसलमान]] पड़ोसियों के प्रति अपने सभी मतभेदों को भूलकर [[पेशवा]] ने पारसी आक्रमणकारी को संयुक्त मोर्चा देने का प्रयत्न किया। परन्तु इसके पहले की कुछ किया जा सकता, [[28 अप्रैल]], 1740 ई. में [[नर्मदा नदी]] के किनारे उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार एक महान् [[मराठा]] राजनीतिज्ञ चल बसा, जिसने अपने व्यक्तिगत चरित्र में कुछ धब्बों के बावज़ूद [[मराठा साम्राज्य|मराठा राज्य]] की सेवा करने की भरसक चेष्टा की।
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==मराठा मण्डल की स्थापना==
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बाजीराव प्रथम को अनेक [[मराठा]] सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ा था। विशेषरूप से उन सरदारों का जो [[क्षत्रिय]] थे और [[ब्राह्मण]] पेशवा की शक्ति बढ़ने से ईर्ष्या करते थे। बाजीराव प्रथम ने पुश्तैनी मराठा सरदारों की शक्ति कम करने के लिए अपने समर्थकों में से नये सरदार नियुक्त किये थे और उन्हें मराठों द्वारा विजित नये क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया था। इस प्रकार मराठा मण्डल की स्थापना हुई, जिसमें [[ग्वालियर]] के शिन्दे, [[बड़ौदा]] के [[गायकवाड़]], [[इन्दौर]] के होल्कर और [[नागपुर]] के भोंसला शासक शामिल थे। इन सबके अधिकार में काफ़ी विस्तृत क्षेत्र था। इन लोगों ने बाजीराव प्रथम का समर्थन कर मराठा शक्ति के प्रसार में बहुत सहयोग दिया था। लेकिन इनके द्वारा जिस सामन्तवादी व्यवस्था का बीजारोपण हुआ, उसके फलस्वरूप अन्त में मराठों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी। यदि बाजीराव प्रथम कुछ समय और जीवित रहता, तो सम्भव था कि वह इसे रोकने के लिए कुछ उपाय करता। उसको बहुत अच्छी तरह [[मराठा साम्राज्य]] का द्वितीय संस्थापक माना जा सकता है।
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==मराठा शक्ति का विभाजन==
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बाजीराव प्रथम ने बहुत अंशों में मराठों की शक्ति और प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया था, परन्तु जिस राज्य पर उसने अपने स्वामी के नाम से शासन किया, उसमें ठोसपन का बहुत आभाव था। इसके अन्दर [[छत्रपति राजाराम|राजाराम]] के समय में जागीर प्रथा के पुन: चालू हो जाने से कुछ अर्ध-स्वतंत्र मराठा राज्य पैदा हो गए। इसका स्वाभाविक परिणाम हुआ, मराठा केन्द्रीय सरकार का दुर्बल होना तथा अन्त में इसका टूट पड़ना। ऐसे राज्यों में [[बरार]] बहुत पुराना और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। यह उस समय [[रघुजी भोंसले]] के अधीन था, जिसका [[शाहू|राजा शाहू]] के साथ वैवाहिक सम्बन्ध था। उसका [[परिवार]] [[पेशवा]] के परिवार से पुराना था, क्योंकि यह राजाराम के शासनकाल में ही प्रसिद्ध हो चुका था। दाभाड़े परिवार ने मूलरूप से [[गुजरात]] पर अधिकार कर रखा था, परन्तु पुश्तैनी सेनापति के पतन के बाद उसके पहले के पुराने अधीन रहने वाले [[गायकवाड़|गायकवाड़ों]] ने [[बड़ौदा]] में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। [[ग्वालियर]] के [[सिंधिया वंश]] के संस्थापक रणोजी सिंधिया ने बाजीराब प्रथम के अधीन गौरव के साथ सेवा की तथा [[मालवा]] के मराठा राज्य में मिलाये जाने के बाद इस प्रान्त का एक भाग उसके हिस्से में पड़ा। [[इन्दौर]] परिवार के [[मल्हारराव होल्कर|मल्हारराव]] व होल्कर ने भी बाजीराव प्रथम के अधीन विशिष्ट रूप से सेवा की थी तथा मालवा का एक भाग प्राप्त किया था। [[मालवा]] में एक छोटी जागीर पवारों को मिली, जिन्होंने [[धार]] में अपनी राजधानी बनाई।
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==विलक्षण व्यक्तित्व==
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बाजीराव प्रथम ने [[मराठा]] शक्ति के प्रदर्शन हेतु [[29 मार्च]], 1737 को [[दिल्ली]] पर धावा बोल दिया था। मात्र तीन दिन के [[दिल्ली]] प्रवास के दौरान उसके भय से [[मुग़ल]] सम्राट [[मुहम्मदशाह रौशन अख़्तर|मुहम्मदशाह]] दिल्ली को छोड़ने के लिए तैयार हो गया था। इस प्रकार [[उत्तर भारत]] में मराठा शक्ति की सर्वोच्चता सिद्ध करने के प्रयास में बाजीराव प्रथम सफल रहा था। उसने [[पुर्तग़ाली|पुर्तग़ालियों]] से [[बसई]] और सालसिट प्रदेशों को छीनने में सफलता प्राप्त की थी। [[शिवाजी]] के बाद बाजीराव प्रथम ही दूसरा ऐसा मराठा सेनापति था, जिसने [[गुरिल्ला युद्ध|गुरिल्ला युद्ध प्रणाली]] को अपनाया। वह 'लड़ाकू पेशवा' के नाम से भी जाना जाता है। बाजीराव-प्रथम '[[मस्तानी]]' नाम की [[मुस्लिम]] स्त्री से प्रेम सम्बन्धों के कारण भी चर्चित रहा था।
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक1|पूर्णता=|शोध=}}
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==संबंधित लेख==
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{{मराठा साम्राज्य}}{{शिवाजी}}
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[[Category:मराठा साम्राज्य]][[Category:जाट-मराठा काल]][[Category:जीवनी साहित्य]][[Category:शिवाजी]][[Category:चरित कोश]][[Category:इतिहास कोश]]
 
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[[Category:मराठा साम्राज्य]]
 

10:33, 17 अगस्त 2020 के समय का अवतरण

बाजीराव प्रथम
बाजीराव की प्रतिमा, शनिवार वाड़ा पुणे
पूरा नाम बाजीराव प्रथम
अन्य नाम 'बाजीराव बल्लाल' तथा 'थोरले बाजीराव'
जन्म 18 अगस्त, 1700 ई.
मृत्यु तिथि 28 अप्रॅल, 1740 ई.
पिता/माता बालाजी विश्वनाथ, राधाबाई
पति/पत्नी काशीबाई, मस्तानी
संतान बालाजी बाजीराव, रघुनाथराव
प्रसिद्धि मराठा साम्राज्य का द्वितीय पेशवा
पूर्वाधिकारी बालाजी विश्वनाथ
शासन काल 1720-1740 ई.
संबंधित लेख मराठा साम्राज्य, पेशवा, बालाजी विश्वनाथ, बालाजी बाजीराव, शिवाजी, मस्तानी
अन्य जानकारी बाजीराव प्रथम ने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने जा रहा है। इसीलिए उसने महाराष्ट्र क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर 'हिन्दू पद पादशाही' स्थापित करने की योजना बनाई थी।

बाजीराव प्रथम (अंग्रेज़ी: Bajirao I, जन्म- 18 अगस्त, 1700 ई.; मृत्यु- 28 अप्रॅल, 1740 ई.) मराठा साम्राज्य का महान् सेनानायक था। वह बालाजी विश्वनाथ और राधाबाई का बड़ा पुत्र था। राजा शाहू ने बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु हो जाने के बाद उसे अपना दूसरा पेशवा (1720-1740 ई.) नियुक्त किया था। बाजीराव प्रथम को 'बाजीराव बल्लाल' तथा 'थोरले बाजीराव' के नाम से भी जाना जाता है। बाजीराव प्रथम विस्तारवादी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने हिन्दू जाति की कीर्ति को विस्तृत करने के लिए 'हिन्दू पद पादशाही' के आदर्श को फैलाने का प्रयत्न किया।

योग्य सेनापति और राजनायक

बाजीराव प्रथम एक महान् राजनायक और योग्य सेनापति था। उसने मुग़ल साम्राज्य की कमज़ोर हो रही स्थिति का फ़ायदा उठाने के लिए राजा शाहू को उत्साहित करते हुए कहा था कि-

"आओ हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखायें तो स्वयं ही गिर जायेंगी। हमारे प्रयत्नों से मराठा पताका कृष्णा नदी से अटक तक फहराने लगेगी।"

इसके उत्तर में शाहू ने कहा कि-

"निश्चित रूप से ही आप इसे हिमालय के पार गाड़ देगें। निःसन्देह आप योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं।"

राजा शाहू ने राज-काज से अपने को क़रीब-क़रीब अलग कर लिया था और मराठा साम्राज्य के प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव प्रथम देखता था। बाजीराव प्रथम को सभी नौ पेशवाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

दूरदृष्टा

बाजीराव प्रथम ने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने जा रहा है। इसीलिए उसने महाराष्ट्र क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर 'हिन्दू पद पादशाही' स्थापित करने की योजना बनाई थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को उत्तर भारत भेजा, जिससे पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की जड़ पर अन्तिम प्रहार किया जा सके। उसने 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया और 1724 ई. में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से गुजरात जीत लिया।

साहसी एवं कल्पनाशील

बाजीराव प्रथम एक योग्य सैनिक ही नहीं, बल्कि विवेकी राजनीतिज्ञ भी था। उसने अनुभव किया कि मुग़ल साम्राज्य का अन्त निकट है तथा हिन्दू नायकों की सहानुभूति प्राप्त कर इस परिस्थिति का मराठों की शक्ति बढ़ाने में अच्छी तरह से उपयोग किया जा सकता है। साहसी एवं कल्पनाशील होने के कारण उसने निश्चित रूप से मराठा साम्राज्यवाद की नीति बनाई, जिसे प्रथम पेशवा ने आरम्भ किया था। उसने शाही शक्ति के केन्द्र पर आघात करने के उद्देश्य से नर्मदा के पार फैलाव की नीति का श्रीगणेश किया। अत: उसने अपने स्वामी शाहू से प्रस्ताव किया- "हमें मुर्झाते हुए वृक्ष के धड़ पर चोट करनी चाहिए। शाखाएँ अपने आप ही गिर जायेंगी। इस प्रकार मराठों का झण्डा कृष्णा से सिन्धु तक फहराना चाहिए।" बाजीराव के बहुत से साथियों ने उसकी इस नीति का समर्थन नहीं किया। उन्होंने उसे समझाया कि उत्तर में विजय आरम्भ करने के पहले दक्षिण में मराठा शक्ति को दृढ़ करना उचित है। परन्तु उसने वाक् शक्ति एवं उत्साह से अपने स्वामी को उत्तरी विस्तार की अपनी योग्यता की स्वीकृति के लिए राज़ी कर लिया।

'हिन्दू पद पादशाही' का प्रचार

हिन्दू नायकों की सहानुभूति जगाने तथा उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए बाजीराव ने 'हिन्दू पद पादशाही' के आदर्श का प्रचार किया। जब उसने दिसम्बर, 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया, तब स्थानीय हिन्दू ज़मींदारों ने उसकी बड़ी सहायता की, यद्यपि इसके लिए उन्हें अपार धन-जन का बलिदान करना पड़ा। गुजरात में गृह-युद्ध से लाभ उठाकर मराठों ने उस समृद्ध प्रान्त में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। परन्तु इसके मामलों में बाजीराव प्रथम के हस्तक्षेप का एक प्रतिद्वन्द्वी मराठा दल ने, जिसका नेता पुश्तैनी सेनापति त्र्यम्बकराव दाभाड़े था, घोर विरोध किया।

सफलताएँ

बाजीराव प्रथम ने सर्वप्रथम दक्कन के निज़ाम निज़ामुलमुल्क से लोहा लिया, जो मराठों के बीच मतभेद के द्वारा फूट पैदा कर रहा था। 7 मार्च, 1728 को पालखेड़ा के संघर्ष में निजाम को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा और ‘मुगी शिवगांव’ संधि के लिए बाध्य होना पड़ा, जिसकी शर्ते कुछ इस प्रकार थीं-

  1. शाहू को चौथ तथा सरदेशमुखी देना।
  2. शम्भू की किसी तरह से सहायता न करना।
  3. जीते गये प्रदेशों को वापस करना।
  4. युद्ध के समय बन्दी बनाये गये लोगों को छोड़ देना आदि।


शिवाजी के वंश के कोल्हापुर शाखा के राजा शम्भुजी द्वितीय तथा निज़ामुलमुल्क, जो बाजीराव प्रथम की सफलताओं से जलते थे, त्र्यम्बकराव दाभाड़े से जा मिले। परन्तु बाजीराव प्रथम ने अपनी उच्चतर प्रतिभा के बल पर अपने शत्रुओं की योजनाओं को विफल कर दिया। 1 अप्रैल, 1731 ई. को ढावोई के निकट बिल्हापुर के मैदान में, जो बड़ौदा तथा ढावोई के बीच में है, एक लड़ाई हुई। इस लड़ाई में त्र्यम्बकराव दाभाड़े परास्त होकर मारा गया। बाजीराव प्रथम की यह विजय 'पेशवाओं के इतिहास में एक युगान्तकारी घटना है।' 1731 में निज़ाम के साथ की गयी एक सन्धि के द्वारा पेशवा को उत्तर भारत में अपनी शक्ति का प्रसार करने की छूट मिल गयी। बाजीराव प्रथम का अब महाराष्ट्र में कोई भी प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया था और राजा शाहू का उसके ऊपर केवल नाम मात्र नियंत्रण था।

दक्कन के बाद गुजरात तथा मालवा जीतने के प्रयास में बाजीराव प्रथम को सफलता मिली तथा इन प्रान्तों में भी मराठों को चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार प्राप्त हुआ। ‘बुन्देलखण्ड’ की विजय बाजीराव की सर्वाधिक महान् विजय में से मानी जाती है। मुहम्मद ख़ाँ वंगश, जो बुन्देला नरेश छत्रसाल को पूर्णत: समाप्त करना चाहता था, के प्रयत्नों पर बाजीराव प्रथम ने छत्रसाल के सहयोग से 1728 ई. में पानी फेर दिया और साथ ही मुग़लों द्वारा छीने गये प्रदेशों को छत्रसाल को वापस करवाया। कृतज्ञ छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया तथा काल्पी, सागर, झांसी और हद्यनगर पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट किया।

निज़ामुलमुल्क पर विजय

बाजीराव प्रथम ने सौभाग्यवश आमेर के सवाई जयसिंह द्वितीय तथा छत्रसाल बुन्देला की मित्रता प्राप्त कर ली। 1737 ई. में वह सेना लेकर दिल्ली के पार्श्व तक गया, परन्तु बादशाह की भावनाओं पर चोट पहुँचाने से बचने के लिए उसने अन्दर प्रवेश नहीं किया। इस मराठा संकट से मुक्त होने के लिए बादशाह ने बाजीराव प्रथम के घोर शत्रु निज़ामुलमुल्क को सहायता के लिए दिल्ली बुला भेजा। निज़ामुलमुल्क को 1731 ई. के समझौते की अपेक्षा करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई। उसने बादशाह के बुलावे का शीघ्र ही उत्तर दिया, क्योंकि इसे उसने बाजीराव की बढ़ती हुई शक्ति के रोकने का अनुकूल अवसर समझा। भोपाल के निकट दोनों प्रतिद्वन्द्वियों की मुठभेड़ हुई। निज़ामुलमुल्क पराजित हुआ तथा उसे विवश होकर सन्धि करनी पड़ी। इस सन्धि के अनुसार उसने निम्न बातों की प्रतिज्ञा की-

  1. बाजीराव को सम्पूर्ण मालवा देना तथा नर्मदा एवं चम्बल नदी के बीच के प्रदेश पर पूर्ण प्रभुता प्रदान करना।
  2. बादशाह से इस समर्पण के लिए स्वीकृति प्राप्त करना।
  3. पेशवा का ख़र्च चलाने के लिए पचास लाख रुपयों की अदायगी प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रयत्न को काम में लाना।

अकाल मृत्यु

इन प्रबन्धों के बादशाह द्वारा स्वीकृत होने का परिणाम यह हुआ कि मराठों की प्रभुता, जो पहले ठेठ हिन्दुस्तान के एक भाग में वस्तुत: स्थापित हो चुकी थी, अब क़ानूनन भी हो गई। पश्चिमी समुद्र तट पर मराठों ने पुर्तग़ालियों से 1739 ई. में साष्टी तथा बसई छीन ली। परन्तु शीघ्र ही बाजीराव प्रथम, नादिरशाह के आक्रमण से कुछ चिन्तित हो गया। अपने मुसलमान पड़ोसियों के प्रति अपने सभी मतभेदों को भूलकर पेशवा ने पारसी आक्रमणकारी को संयुक्त मोर्चा देने का प्रयत्न किया। परन्तु इसके पहले की कुछ किया जा सकता, 28 अप्रैल, 1740 ई. में नर्मदा नदी के किनारे उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार एक महान् मराठा राजनीतिज्ञ चल बसा, जिसने अपने व्यक्तिगत चरित्र में कुछ धब्बों के बावज़ूद मराठा राज्य की सेवा करने की भरसक चेष्टा की।

मराठा मण्डल की स्थापना

बाजीराव प्रथम को अनेक मराठा सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ा था। विशेषरूप से उन सरदारों का जो क्षत्रिय थे और ब्राह्मण पेशवा की शक्ति बढ़ने से ईर्ष्या करते थे। बाजीराव प्रथम ने पुश्तैनी मराठा सरदारों की शक्ति कम करने के लिए अपने समर्थकों में से नये सरदार नियुक्त किये थे और उन्हें मराठों द्वारा विजित नये क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया था। इस प्रकार मराठा मण्डल की स्थापना हुई, जिसमें ग्वालियर के शिन्दे, बड़ौदा के गायकवाड़, इन्दौर के होल्कर और नागपुर के भोंसला शासक शामिल थे। इन सबके अधिकार में काफ़ी विस्तृत क्षेत्र था। इन लोगों ने बाजीराव प्रथम का समर्थन कर मराठा शक्ति के प्रसार में बहुत सहयोग दिया था। लेकिन इनके द्वारा जिस सामन्तवादी व्यवस्था का बीजारोपण हुआ, उसके फलस्वरूप अन्त में मराठों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी। यदि बाजीराव प्रथम कुछ समय और जीवित रहता, तो सम्भव था कि वह इसे रोकने के लिए कुछ उपाय करता। उसको बहुत अच्छी तरह मराठा साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक माना जा सकता है।

मराठा शक्ति का विभाजन

बाजीराव प्रथम ने बहुत अंशों में मराठों की शक्ति और प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया था, परन्तु जिस राज्य पर उसने अपने स्वामी के नाम से शासन किया, उसमें ठोसपन का बहुत आभाव था। इसके अन्दर राजाराम के समय में जागीर प्रथा के पुन: चालू हो जाने से कुछ अर्ध-स्वतंत्र मराठा राज्य पैदा हो गए। इसका स्वाभाविक परिणाम हुआ, मराठा केन्द्रीय सरकार का दुर्बल होना तथा अन्त में इसका टूट पड़ना। ऐसे राज्यों में बरार बहुत पुराना और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। यह उस समय रघुजी भोंसले के अधीन था, जिसका राजा शाहू के साथ वैवाहिक सम्बन्ध था। उसका परिवार पेशवा के परिवार से पुराना था, क्योंकि यह राजाराम के शासनकाल में ही प्रसिद्ध हो चुका था। दाभाड़े परिवार ने मूलरूप से गुजरात पर अधिकार कर रखा था, परन्तु पुश्तैनी सेनापति के पतन के बाद उसके पहले के पुराने अधीन रहने वाले गायकवाड़ों ने बड़ौदा में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। ग्वालियर के सिंधिया वंश के संस्थापक रणोजी सिंधिया ने बाजीराब प्रथम के अधीन गौरव के साथ सेवा की तथा मालवा के मराठा राज्य में मिलाये जाने के बाद इस प्रान्त का एक भाग उसके हिस्से में पड़ा। इन्दौर परिवार के मल्हारराव व होल्कर ने भी बाजीराव प्रथम के अधीन विशिष्ट रूप से सेवा की थी तथा मालवा का एक भाग प्राप्त किया था। मालवा में एक छोटी जागीर पवारों को मिली, जिन्होंने धार में अपनी राजधानी बनाई।

विलक्षण व्यक्तित्व

बाजीराव प्रथम ने मराठा शक्ति के प्रदर्शन हेतु 29 मार्च, 1737 को दिल्ली पर धावा बोल दिया था। मात्र तीन दिन के दिल्ली प्रवास के दौरान उसके भय से मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह दिल्ली को छोड़ने के लिए तैयार हो गया था। इस प्रकार उत्तर भारत में मराठा शक्ति की सर्वोच्चता सिद्ध करने के प्रयास में बाजीराव प्रथम सफल रहा था। उसने पुर्तग़ालियों से बसई और सालसिट प्रदेशों को छीनने में सफलता प्राप्त की थी। शिवाजी के बाद बाजीराव प्रथम ही दूसरा ऐसा मराठा सेनापति था, जिसने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया। वह 'लड़ाकू पेशवा' के नाम से भी जाना जाता है। बाजीराव-प्रथम 'मस्तानी' नाम की मुस्लिम स्त्री से प्रेम सम्बन्धों के कारण भी चर्चित रहा था।

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