"बालाजी बाजीराव" के अवतरणों में अंतर

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'''बालाजी बाजीराव''', तृतीय [[पेशवा]] (1740-61 ई.) था। वह अपने पिता [[बाजीराव प्रथम]] के उत्तराधिकारी के रूप में 1740 ई. में पेशवा बना।  यह '''बालाजी द्वितीय''', जो साधारणतया '''नाना साहेब''' तथा बालाजी बाजीराव के नाम से विख्यात है, उस समय अठारह वर्ष का युवक था। वह विश्राम तथा विलास का प्रेमी था। उसमें अपने पिता के उच्चतर गुण नहीं थे। परन्तु वह योग्यता में शून्य नहीं था।  
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'''बालाजी बाजीराव''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Balaji Bajirao'', जन्म- [[8 दिसम्बर]], 1721 ई.; मृत्यु- [[23 जून]], 1761 ई.) [[बाजीराव प्रथम]] का ज्येष्ठ पुत्र था। वह [[पिता]] की मृत्यु के बाद [[पेशवा]] बना था। [[बालाजी विश्वनाथ]] के समय में ही पेशवा का पद पैतृक बन गया था। 1750 ई. हुई 'संगोली संधि' के बाद पेशवा के हाथ में सारे अधिकार सुरक्षित हो गये। अब 'छत्रपति' (राजा का पद) दिखावे भर का रह गया था। बालाजी बाजीराव ने [[मराठा]] शक्ति का उत्तर तथा [[दक्षिण भारत]], दोनों ओर विस्तार किया। इस प्रकार उसके समय [[कटक]] से [[अटक]] तक मराठा दुदुम्भी बजने लगी। बालाजी ने [[मालवा]] तथा [[बुन्देलखण्ड]] में मराठों के अधिकार को क़ायम रखते हुए [[तंजौर|तंजौर प्रदेश]] को भी जीता। बालाजी बाजीराव ने [[हैदराबाद]] के निज़ाम को एक युद्ध में पराजित कर 1752 ई. में 'भलकी की संधि' की, जिसके तहत निज़ाम ने [[बरार]] का आधा भाग मराठों को दे दिया। [[बंगाल]] पर किये गये आक्रमण के परिणामस्वरूप [[अलीवर्दी ख़ाँ]] को बाध्य होकर [[उड़ीसा]] त्यागना पड़ा और बंगाल तथा [[बिहार]] से चौथ के रूप में 12 लाख [[रुपया]] वार्षिक देना स्वीकार करना पड़ा। 1760 ई. में [[उदगिरि का युद्ध|उदगिरि के युद्ध]] में निज़ाम ने करारी हार खाई। मराठों ने 60 लाख रुपये वार्षिक कर का प्रदेश, जिसमें [[अहमदनगर]], [[दौलताबाद]], [[बुरहानपुर]] तथा [[बीजापुर]] नगर सम्मिलित थे, प्राप्त कर लिया।
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==व्यक्तित्व==
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बालाजी बाजीराव ने 1740 ई. में [[पेशवा]] का पद प्राप्त किया था। पद प्राप्ति के समय वह 18 वर्ष का नव-युवक था। वह विश्राम तथा विलास का प्रेमी था। उसमें अपने पिता बाजीराव प्रथम के समान उच्चतर गुण नहीं थे, परन्तु वह योग्यता में किसी भी प्रकार से शून्य नहीं था। वह अपने पिता की तरह युद्ध संचालन, विशाल सेना के संगठन तथा सामग्री-संग्रह और युद्ध की सभी सामग्री की तैयारी में उत्साहपूर्वक लगा रहता था। उसने अपने पिता के कुछ योग्य एवं अनुभवी अफ़सरों की सेवाएँ प्राप्त की थीं।
 
====साहू का दस्तावेज़====
 
====साहू का दस्तावेज़====
'''वह अपने पिता की तरह युद्ध संचालन''', विशाल सेना के संगठन तथा सामग्री-संग्रह और युद्ध की सभी सामग्री की तैयारी में उत्साहपूर्वक लगा रहता था। उसने अपने पिता के कुछ योग्य एवं अनुभवी अफ़सरों की सेवाएँ प्राप्त कीं। [[राजा साहू]] ने 1749 ई. में अपनी मृत्यु से पूर्व एक दस्तावेज़ रख छोड़ा, जिसमें पेशवा को कुछ बंधनों के साथ राज्य का सर्वोच्च अधिकार सौंप दिया गया था। उसमें यह कहा गया था कि पेशवा राजा के नाम को सदा बनाये रखे तथा [[ताराबाई]] के पौत्र एवं उसके वंशजों के द्वारा [[शिवाजी]] के वंश की प्रतिष्ठा क़ायम रखे। उसमें यह आदेश भी था कि [[कौल्हापुर]] राज्य को स्वतंत्र समझना चाहिए तथा जागीरदारों के मौजूदा अधिकारों को मानना चाहिए। पेशवा को जागीरदारों के साथ ऐसे प्रबन्ध करने का अधिकार रहेगा, '''जो हिन्दू शक्ति के बढ़ाने तथा देवमन्दिरों, किसानों और प्रत्येक पवित्र अथवा लाभदायक वस्तु की रक्षा करने में लाभकारी हों।'''
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[[राजा साहू]] ने 1749 ई. में अपनी मृत्यु से पूर्व एक दस्तावेज़ रख छोड़ा था, जिसमें पेशवा को कुछ बंधनों के साथ राज्य का सर्वोच्च अधिकार सौंप दिया गया था। उसमें यह कहा गया था कि पेशवा राजा के नाम को सदा बनाये रखे तथा [[ताराबाई]] के पौत्र एवं उसके वंशजों के द्वारा [[शिवाजी]] के वंश की प्रतिष्ठा क़ायम रखे। उसमें यह आदेश भी था कि [[कोल्हापुर]] राज्य को स्वतंत्र समझना चाहिए तथा जागीरदारों के मौजूदा अधिकारों को मानना चाहिए। [[पेशवा]] को जागीरदारों के साथ ऐसे प्रबन्ध करने का अधिकार रहेगा, जो [[हिन्दू]] शक्ति के बढ़ाने तथा देवमन्दिरों, किसानों और प्रत्येक पवित्र अथवा लाभदायक वस्तु की रक्षा करने में लाभकारी हों।
 
====ताराबाई की आपत्ति====
 
====ताराबाई की आपत्ति====
'''ताराबाई ने इस प्रबन्ध पर आपत्ति की'''। उसने दामाजी गायकवाड़ से मिलकर पेशवा के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा युवक राजा को बन्दी बना लिया। परन्तु पेशवा ने अपने विपक्षियों को परास्त कर दिया। राजा पेशवा के हाथों में वस्तुत: क़ैदी रहा और पेशवा अब से मराठा संघ का वास्तविक प्रधान बन बैठा।
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साहू द्वारा जारी किये गए दस्तावेज़ पर [[ताराबाई]] ने गहरी आपत्ति प्रकट की। उसने [[दामाजी गायकवाड़]] से मिलकर [[पेशवा]] बालाजी बाजीराव के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा युवक राजा को बन्दी बना लिया। परन्तु बालाजी बाजीराव ने अपने समस्त विपक्षियों को परास्त कर दिया। राजा, पेशवा बालाजी बाजीराव के हाथों में वस्तुत: क़ैदी होकर ही रहा और पेशवा अब से [[मराठा]] संघ का वास्तविक प्रधान बन बैठा।
====मराठा साम्राज्य को बढ़ावा====
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==सेना में परिवर्तन==
{{मुख्य|मराठा साम्राज्य}}
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बालाजी बाजीराव ने मराठा साम्राज्यवाद को बढ़ावा देने का संकल्प कर लिया था, परन्तु दो प्रकार से अपने [[पिता]] की नीति का परित्याग कर उसने भूल की। प्रथमत: उसके समय में सेना में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। [[शिवाजी]] के समय में हल्की पैदल सेना शक्ति का प्रधान साधन थी। यद्यपि [[बाजीराव प्रथम]] ने बड़ी संख्या में घुड़सवारों को नियुक्त किया था, परन्तु उसने युद्ध करने के पुराने कौशल का परित्याग नहीं किया। बालाजी बाजीराव ने सेना में सभी प्रकार के भाड़े के ग़ैर-मराठा सैनिकों को, पश्चिमी युद्ध शैली के अपनाने के उद्देश्य से, नियुक्त कर लिया। इस प्रकार सेना का राष्ट्रीय रूप नष्ट हो गया और कई विदेशी तत्वों को उचित अनुशासक एवं नियंत्रण में रखना आसान न रहा। पुरानी युद्ध शेली भी आशिंक रूप में छोड़ दी गई। दूसरे, बालाजी बाजीराव ने जानबूझ कर अपने पिता के '[[हिन्दू पद पादशाही]]' के आदर्श को, जिसका उद्देश्य था, सभी [[हिन्दू]] सरदारों को एक झण्डे के नीचे संयुक्त करना, त्याग दिया। उसके अनुगामियों ने लूटमार वाली लड़ाई की पुरानी योजना को अपनाया। वे [[मुस्लिम]] एवं हिन्दू दोनों के विरुद्ध बिना भेदभाव के लूटमार मचाने लगे। इससे [[राजपूत|राजपूतों]] तथा अन्य हिन्दू सरदारों की सहानुभूति जाती रही। इस प्रकार मराठा साम्राज्यवाद एक भारतव्यापी राष्ट्रीयता के लिए नहीं रह गया। अब इसके लिए भीतरी अथवा बाहरी मुस्लिम शक्तियों के विरुद्ध हिन्दू शक्तियों का एक झण्डे के नीचे संगठन करना सम्भव नहीं रहा।
'''उसके पदारूढ़ होने के समय''' [[मुग़ल साम्राज्य]] के स्थान पर हिन्दू राज्य की स्थापना के लिए स्थिति अनुकूल थी। [[भारत]] पर बाहरी आक्रमण हो रहे थे और 1739 ई. में [[नादिरशाह]] द्वारा [[दिल्ली]] निर्दयतापूर्वक उजाड़ी जा चुकी थी। मुग़ल साम्राज्य की साख़ इतनी ज़्यादा इससे पहले कभी नहीं गिरि थी। उपरान्त [[अहमदशाह अब्दाली]] के बार-बार के हमलों से वह और भी कमज़ोर हो गया। अहमदशाह अब्दाली ने [[पंजाब]] पर अधिकार कर लिया। दिल्ली को लूटा और अपने प्रतिनिधि के रूप में [[नाजीबुद्दौला]] को रख दिया, जो मुग़ल बादशाह के ऊपर व्यावहारिक रूप में हुक़ूमत करने लगा। इस प्रकार यह प्रकट था कि [[भारत]] के हिन्दुओं में यदि एकता स्थापित हो सके तो वे [[मुग़ल]] साम्राज्य को समाप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। इस पर भी पेशवा बालाजी इस अवसर से लाभ नहीं उठा सका।
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==अब्दाली का आक्रमण==
====असफल योजना====
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[[चित्र:Ahmad-Shah-Abdali.jpg|left|thumb|150px|[[अहमदशाह अब्दाली]]]]
'''बालाजी बाजीराव''' ने मराठा साम्राज्यवाद को बढ़ावा देने का संकल्प कर लिया था, परन्तु दो प्रकार से अपने पिता की नीति का परित्याग कर उसने भूल की। प्रथमत: उसके समय में सेना में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। [[शिवाजी]] के समय में हल्की पैदल सेना शक्ति का प्रधान साधन थी। यद्यपि बाजीराव प्रथम ने बड़ी संख्या में घुड़सवारों को नियुक्त किया था, परन्तु उसने युद्ध करने के पुराने कौशल का परित्याग नहीं किया। परन्तु बालाजी ने सेना में सभी प्रकार के भाड़े के ग़ैर-मराठा सैनिकों को, पश्चिमी युद्ध शैली के अपनाने के उद्देश्य से, नियुक्त कर लिया। इस प्रकार सेना का राष्ट्रीय रूप नष्ट हो गया और कई विदेशी तत्वों को उचित अनुशासक एवं नियंत्रण में रखना आसान न रहा। पुरानी युद्ध शेली भी आशिंक रूप में छोड़ दी गई। दूसरे, बालाजी ने जानबूझ कर अपने पिता के हिन्दूपाद-पादशाही के आदर्श को, जिसका उद्देश्य था सभी हिन्दू सरदारों को एक झण्डे के नीचे संयुक्त करना, त्याग दिया। उसके अनुगामियों ने लूटमार वाली लड़ाई की पुरानी योजना को अपनाया। वे मुसलमान एवं हिन्दू दोनों के विरुद्ध बिना भेदभाव के लूटमार मचाने लगे। इससे [[राजपूत|राजपूतों]] तथा अन्य हिन्दू सरदारों की सहानुभूति जाती रही। इस प्रकार मराठा साम्राज्यवाद एक भारतव्यापी राष्ट्रीयता के लिए नहीं रह गया। अब इसके लिए भीतरी अथवा बाहरी मुस्लिम शक्तियों के विरुद्ध हिन्दू शक्तियों का एक झण्डे के नीचे संगठन करना सम्भव नहीं रहा।
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बालाजी बाजीराव के समय में ही [[अहमदशाह अब्दाली]] का आक्रमण हुआ, जिसमें मराठे बुरी तरह परास्त हुए। इससे पहले बालाजी के समय [[मुग़ल साम्राज्य]] के स्थान पर हिन्दू राज्य की स्थापना के लिए स्थिति अनुकूल थी। [[भारत]] पर बाहरी आक्रमण हो रहे थे और 1739 ई. में [[नादिरशाह]] द्वारा [[दिल्ली]] निर्दयतापूर्वक उजाड़ी जा चुकी थी। मुग़ल साम्राज्य की साख इतनी ज़्यादा इससे पहले कभी नहीं गिरि थी। उपरान्त [[अहमदशाह अब्दाली]] के बार-बार के हमलों से वह और भी कमज़ोर हो गया। अहमदशाह अब्दाली ने [[पंजाब]] पर अधिकार कर लिया। दिल्ली को लूटा और अपने प्रतिनिधि के रूप में नाजीबुद्दौला को रख दिया, जो मुग़ल बादशाह के ऊपर व्यावहारिक रूप में हुक़ूमत करने लगा। इस प्रकार यह प्रकट था कि [[भारत]] के हिन्दुओं में यदि एकता स्थापित हो सके, तो वे मुग़ल साम्राज्य को समाप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। इस पर भी पेशवा बालाजी बाजीराव इस अवसर से लाभ नहीं उठा सका।
====आंशिक सफलताएँ====
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====नये सिपाहियों की भर्ती====
'''बालाजी बाजीराव''' ने हल के हथियारों से सुसज्जित फुर्तीली पैदल सेना का प्रयोग करने की पुरानी मराठा रणनीति में भी परिवर्तन कर दिया। वह पहले की अपेक्षा अधिक वज़नदार हथियारों से लैस घुड़सवारों और भारी तोपख़ाने को अधिक महत्व देने लगा। पेशवा स्वयं अपने सरदारों को पड़ोस के [[राजपूत]] राजाओं के इलाक़ों में लूट-ख़सोट करने के लिए उत्साहित करता था। इस प्रकार वह अपने पुराने मित्रों की सहायता से वंचित हो गया, जो उसके पिता बाजीराव प्रथम के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध हुए थे। उसके ही साथ दो मोर्चों पर दक्षिण में 'निज़ाम' के विरुद्ध और दक्षिण में [[अहमदशाह अब्दाली]] के विरुद्ध लड़ने की ग़लती की। आरम्भ में तो उसे कुछ सफलता मिली, उसने [[निज़ाम]] को 1750 ई. में उदगिर की लड़ाई में हरा दिया और [[बीजापुर]] का पूरा प्रदेश और [[औरंगाबाद]] और [[बीदर]] के बड़े भागों को निज़ाम से छीन लिया। मराठा शक्ति का सुदूर दक्षिण में भी प्रसार हुआ। उन्होंने [[मैसूर]] के हिन्दू राजा को हरा कर बेदनूर पर आक्रमण कर दिया। किन्तु उनके बढ़ाव को [[मैसूर]] राज्य के सेनापति [[हैदरअली]] ने रोक दिया, जिसने बाद में वहाँ के हिन्दू राजा को अपदस्थ कर दिया।
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अनेकों उपलब्धियों के बावजूद बालाजी बाजीराव के समय '[[हिन्दू पद पादशाही]]' को धक्का लगा, विशेषकर जब होल्कर और सिंधिया ने राजपूत प्रदेशों को लूटा और [[रघुनाथराव]] ने खम्बेर के [[जाट]] दुर्ग को घेर लिया। इसलिए [[पानीपत का युद्ध|पानीपत के युद्ध]] में जहाँ सभी मुस्लिम सरदार एक हो गए, मराठे, जाट और राजपूतों को अपने साथ मिलाने में असफल रहे। तुलाजी आग्रिया की नौसेना को समाप्त करने में [[अंग्रेज|अंग्रेजों]] की मदद करना भी इनकी बड़ी भूल थी। पेशवा ने मराठा सैन्य शक्ति को बढ़ाने के लिए हजारों की संख्या में [[राजपूत]], [[बुंदेला]] तथा [[अफ़ग़ान]] सिपाहियों की भर्ती की।
====अब्दाली का आक्रमण====
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==आंशिक सफलताएँ==
'''उत्तर में बालाजी बाजीराव''' को पहले तो अच्छी सफलता मिली, उसकी सेना ने राजपूतों की रियासतों की मनमाने ढंग से लूटपाट की, दोआब को रौंदकर उस पर अधिकार कर लिया, [[मुग़ल]] बादशाह से गठबंधन करके [[दिल्ली]] पर दबदबा जमा लिया, अब्दाली के नायब [[नाजीबुद्दौला]] को खदेड़ दिया और [[पंजाब]] से अब्दाली के पुत्र [[तैमूर]] को निष्कासित कर दिया। इस प्रकार मराठों का दबदबा अटक तक फैल गया। किन्तु मराठों की यह सफलता अल्पकालिक सिद्ध हुई। अब्दाली ने 1759 ई. में पुन: भारत पर आक्रमण किया और मराठों को जनवरी 1760 ई. में बरारी घाट की लड़ाई में हराया और पंजाब को पुन: प्राप्त कर दिल्ली की तरफ़ बढ़ा।
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बालाजी बाजीराव ने हल्के हथियारों से सुसज्जित फुर्तीली पैदल सेना का प्रयोग करने की पुरानी मराठा रणनीति में भी परिवर्तन कर दिया। वह पहले की अपेक्षा अधिक वज़नदार हथियारों से लैस घुड़सवारों और भारी तोपख़ाने को अधिक महत्त्व देने लगा। [[पेशवा]] स्वयं अपने सरदारों को पड़ोस के राजपूत राजाओं के इलाक़ों में लूट-ख़सोट करने के लिए उत्साहित करता था। इस प्रकार वह अपने पुराने मित्रों की सहायता से वंचित हो गया, जो उसके पिता [[बाजीराव प्रथम]] के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध हुए थे। इसके साथ ही दो मोर्चों पर दक्षिण में 'निज़ाम' के विरुद्ध और उत्तर में [[अहमदशाह अब्दाली]] के विरुद्ध लड़ने की ग़लती उसने की। आरम्भ में तो उसे कुछ सफलता मिली, उसने निज़ाम को 1750 ई. में उदगिर की लड़ाई में हरा दिया और [[बीजापुर]] का पूरा प्रदेश और [[औरंगाबाद महाराष्ट्र|औरंगाबाद]] और [[बीदर]] के बड़े भागों को निज़ाम से छीन लिया। मराठा शक्ति का सुदूर दक्षिण में भी प्रसार हुआ। उन्होंने [[मैसूर]] के हिन्दू राजा को हरा कर बेदनूर पर आक्रमण कर दिया। किन्तु उनके बढ़ाव को मैसूर राज्य के सेनापति [[हैदर अली]] ने रोक दिया, जिसने बाद में वहाँ के हिन्दू राजा को अपदस्थ कर दिया।
====विरोधी====  
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'''इस बीच मराठों की लूटमार''' से न केवल रुहेले और [[अवध]] के नवाब वरन् [[राजपूत]], [[जाट]] और सिख भी विरोधी बन गये थे। रुहेले और अवध के नवाब तो अब्दाली से जा मिले, राजपूत, जाट और सिखों ने तटस्थ रहना पसन्द किया। फलत: अब्दाली की फ़ौज का [[दिल्ली]] की तरफ़ बढ़ाव [[शाहआलम द्वितीय]] के लिए उतना ही बड़ा ख़तरा था, जितना कि मराठों के लिए; अत: दोनों ने आपस में संधि कर ली।
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उत्तर में बालाजी बाजीराव को पहले तो अच्छी सफलता मिली, उसकी सेना ने राजपूतों की रियासतों की मनमाने ढंग से लूटपाट की, [[दोआब]] को रौंदकर उस पर अधिकार कर लिया, [[मुग़ल]] बादशाह से गठबंधन करके [[दिल्ली]] पर दबदबा जमा लिया, अब्दाली के नायब नाजीबुद्दौला को खदेड़ दिया और [[पंजाब]] से अब्दाली के पुत्र [[तैमूर]] को निष्कासित कर दिया। इस प्रकार मराठों का दबदबा [[अटक]] तक फैल गया। किन्तु मराठों की यह सफलता अल्पकालिक सिद्ध हुई। 1759 ई. में पुन: [[भारत]] पर [[अहमदशाह अब्दाली का आक्रमण]] हुआ और उसने मराठों को जनवरी 1760 ई. में बरार घाट की लड़ाई में हराया और [[पंजाब]] को पुन: प्राप्त कर [[दिल्ली]] की तरफ़ बढ़ा।
====मराठों की पराजय====
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====विरोधी====
[[पेशवा]] बालाजी बाजीराव ने [[सदाशिवराव भाऊ]] के सेनापतित्व में एक बड़ी सेना अब्दाली को रोकने के लिए भेजी। पेशवाओं ने अभी तक उत्तर भारत में जितनी सेनाएँ भेजी थीं, उनसे यह सबसे विशाल थी। मराठों ने दिल्ली पर क़ब्ज़ा तो कर लिया, पर वह उनके लिए मरुभूमि साबित हुई, क्योंकि वहाँ इतनी बड़ी सेना के लिए रसद उपलब्ध नहीं थी। अत: वे [[पानीपत]] की तरफ़ बढ़ गए। 14 जनवरी, 1761 ई. को अब्दाली के साथ पानीपत का तीसरा भाग्य निर्णायक युद्ध हुआ। मराठों की बुरी तरह से हार हुई। पेशवा का युवा पुत्र [[विश्वासराव]], जो कि नाममात्र का सेनापति था, भाऊ, जो वास्तव में सेना की क़मान सम्भाल रहा था तथा अनेक मराठा सेनानी मैदान में खेत रहे। उनकी घुड़सवार और पैदल सेना के हज़ारों जवान मारे गये।
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इस बीच [[मराठा|मराठों]] की लूटमार से न केवल रुहेले और [[अवध]] के नवाब वरन् [[राजपूत]], [[जाट]] और [[सिक्ख]] भी विरोधी बन गये थे। रुहेले और अवध के नवाब तो अब्दाली से जा मिले, [[राजपूत]], [[जाट]] और [[सिक्ख|सिक्खों]] ने तटस्थ रहना पसन्द किया। फलत: अब्दाली की फ़ौज का [[दिल्ली]] की तरफ़ बढ़ाव [[शाहआलम द्वितीय]] के लिए उतना ही बड़ा ख़तरा था, जितना कि मराठों के लिए। अत: दोनों ने आपस में संधि कर ली।
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==मराठों की पराजय==
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पेशवा बालाजी बाजीराव ने [[सदाशिवराव भाऊ]] के सेनापतित्व में एक बड़ी सेना अब्दाली को रोकने के लिए भेजी। पेशवाओं ने अभी तक [[उत्तर भारत]] में जितनी भी सेनाएँ भेजी थीं, उनसे यह सबसे विशाल थी। मराठों ने [[दिल्ली]] पर क़ब्ज़ा तो कर लिया, पर वह उनके लिए मरुभूमि साबित हुई, क्योंकि वहाँ इतनी बड़ी सेना के लिए रसद उपलब्ध नहीं थी। अत: वे [[पानीपत]] की तरफ़ बढ़ गए। [[14 जनवरी]], 1761 ई. को [[अहमदशाह अब्दाली]] के साथ पानीपत का तीसरा भाग्य निर्णायक युद्ध हुआ। मराठों की बुरी तरह से हार हुई। [[पेशवा]] का युवा पुत्र [[विश्वासराव]], जो कि नाममात्र का सेनापति था, भाऊ, जो वास्तव में सेना की क़मान सम्भाल रहा था तथा अनेक [[मराठा]] सेनानी मैदान में खेत रहे। उनकी घुड़सवार और पैदल सेना के हज़ारों जवान मारे गये।
 
====मृत्यु====
 
====मृत्यु====
'''वास्तव में पानीपत का तीसरा युद्ध''' समूचे राष्ट्र के लिए भयंकर वज्रपात सिद्ध हुआ। [[पेशवा]] बालाजी बाजीराव की, जो भोग-विलास के कारण पहले ही असाध्य रोग से ग्रस्त हो गया था, '''23 जून, 1761 ई. में मृत्यु हो गई'''।
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वास्तव में [[पानीपत का तृतीय युद्ध|पानीपत का तीसरा युद्ध]] समूचे राष्ट्र के लिए भयंकर वज्रपात सिद्ध हुआ। पेशवा बालाजी बाजीराव की, जो भोग-विलास के कारण पहले ही असाध्य रोग से ग्रस्त हो गया था, [[23 जून]], 1761 ई. में मृत्यु हो गई।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
:*(पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-285
 
:*(पुस्तक 'भारत का बृहत इतिहास') पृष्ठ संख्या-259
 
 
<references/>
 
<references/>
[[Category:नया पन्ना]]
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==संबंधित लेख==
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{{मराठा साम्राज्य}}{{शिवाजी}}
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[[Category:इतिहास कोश]][[Category:शिवाजी]][[Category:मराठा साम्राज्य]][[Category:जाट-मराठा काल]][[Category:इतिहास कोश]]
 
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06:00, 23 जून 2018 के समय का अवतरण

बालाजी बाजीराव
बालाजी बाजीराव
पूरा नाम बालाजी बाजीराव
जन्म 8 दिसम्बर, 1721 ई.
मृत्यु तिथि 23 जून, 1761 ई.
पिता/माता बाजीराव प्रथम
प्रसिद्धि मराठा पेशवा
युद्ध 'उदगिरि का युद्ध', 'पानीपत का युद्ध'
पूर्वाधिकारी बाजीराव प्रथम
वंश मराठा
शासन काल 1740 से 1761 ई.
संबंधित लेख मराठा, मराठा साम्राज्य, शाहजी भोंसले, शिवाजी, शम्भाजी, शाहू, पेशवा, बालाजी विश्वनाथ, बाजीराव प्रथम, बाजीराव द्वितीय, नाना फड़नवीस, दादाजी कोंडदेव, शिवाजी की शासन व्यवस्था
अन्य जानकारी बालाजी बाजीराव ने 1740 ई. में पेशवा का पद प्राप्त किया था। पद प्राप्ति के समय वह 18 वर्ष का नव-युवक था। इसी के समय में अहमदशाह अब्दाली का आक्रमण हुआ था।

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बालाजी बाजीराव (अंग्रेज़ी: Balaji Bajirao, जन्म- 8 दिसम्बर, 1721 ई.; मृत्यु- 23 जून, 1761 ई.) बाजीराव प्रथम का ज्येष्ठ पुत्र था। वह पिता की मृत्यु के बाद पेशवा बना था। बालाजी विश्वनाथ के समय में ही पेशवा का पद पैतृक बन गया था। 1750 ई. हुई 'संगोली संधि' के बाद पेशवा के हाथ में सारे अधिकार सुरक्षित हो गये। अब 'छत्रपति' (राजा का पद) दिखावे भर का रह गया था। बालाजी बाजीराव ने मराठा शक्ति का उत्तर तथा दक्षिण भारत, दोनों ओर विस्तार किया। इस प्रकार उसके समय कटक से अटक तक मराठा दुदुम्भी बजने लगी। बालाजी ने मालवा तथा बुन्देलखण्ड में मराठों के अधिकार को क़ायम रखते हुए तंजौर प्रदेश को भी जीता। बालाजी बाजीराव ने हैदराबाद के निज़ाम को एक युद्ध में पराजित कर 1752 ई. में 'भलकी की संधि' की, जिसके तहत निज़ाम ने बरार का आधा भाग मराठों को दे दिया। बंगाल पर किये गये आक्रमण के परिणामस्वरूप अलीवर्दी ख़ाँ को बाध्य होकर उड़ीसा त्यागना पड़ा और बंगाल तथा बिहार से चौथ के रूप में 12 लाख रुपया वार्षिक देना स्वीकार करना पड़ा। 1760 ई. में उदगिरि के युद्ध में निज़ाम ने करारी हार खाई। मराठों ने 60 लाख रुपये वार्षिक कर का प्रदेश, जिसमें अहमदनगर, दौलताबाद, बुरहानपुर तथा बीजापुर नगर सम्मिलित थे, प्राप्त कर लिया।

व्यक्तित्व

बालाजी बाजीराव ने 1740 ई. में पेशवा का पद प्राप्त किया था। पद प्राप्ति के समय वह 18 वर्ष का नव-युवक था। वह विश्राम तथा विलास का प्रेमी था। उसमें अपने पिता बाजीराव प्रथम के समान उच्चतर गुण नहीं थे, परन्तु वह योग्यता में किसी भी प्रकार से शून्य नहीं था। वह अपने पिता की तरह युद्ध संचालन, विशाल सेना के संगठन तथा सामग्री-संग्रह और युद्ध की सभी सामग्री की तैयारी में उत्साहपूर्वक लगा रहता था। उसने अपने पिता के कुछ योग्य एवं अनुभवी अफ़सरों की सेवाएँ प्राप्त की थीं।

साहू का दस्तावेज़

राजा साहू ने 1749 ई. में अपनी मृत्यु से पूर्व एक दस्तावेज़ रख छोड़ा था, जिसमें पेशवा को कुछ बंधनों के साथ राज्य का सर्वोच्च अधिकार सौंप दिया गया था। उसमें यह कहा गया था कि पेशवा राजा के नाम को सदा बनाये रखे तथा ताराबाई के पौत्र एवं उसके वंशजों के द्वारा शिवाजी के वंश की प्रतिष्ठा क़ायम रखे। उसमें यह आदेश भी था कि कोल्हापुर राज्य को स्वतंत्र समझना चाहिए तथा जागीरदारों के मौजूदा अधिकारों को मानना चाहिए। पेशवा को जागीरदारों के साथ ऐसे प्रबन्ध करने का अधिकार रहेगा, जो हिन्दू शक्ति के बढ़ाने तथा देवमन्दिरों, किसानों और प्रत्येक पवित्र अथवा लाभदायक वस्तु की रक्षा करने में लाभकारी हों।

ताराबाई की आपत्ति

साहू द्वारा जारी किये गए दस्तावेज़ पर ताराबाई ने गहरी आपत्ति प्रकट की। उसने दामाजी गायकवाड़ से मिलकर पेशवा बालाजी बाजीराव के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा युवक राजा को बन्दी बना लिया। परन्तु बालाजी बाजीराव ने अपने समस्त विपक्षियों को परास्त कर दिया। राजा, पेशवा बालाजी बाजीराव के हाथों में वस्तुत: क़ैदी होकर ही रहा और पेशवा अब से मराठा संघ का वास्तविक प्रधान बन बैठा।

सेना में परिवर्तन

बालाजी बाजीराव ने मराठा साम्राज्यवाद को बढ़ावा देने का संकल्प कर लिया था, परन्तु दो प्रकार से अपने पिता की नीति का परित्याग कर उसने भूल की। प्रथमत: उसके समय में सेना में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। शिवाजी के समय में हल्की पैदल सेना शक्ति का प्रधान साधन थी। यद्यपि बाजीराव प्रथम ने बड़ी संख्या में घुड़सवारों को नियुक्त किया था, परन्तु उसने युद्ध करने के पुराने कौशल का परित्याग नहीं किया। बालाजी बाजीराव ने सेना में सभी प्रकार के भाड़े के ग़ैर-मराठा सैनिकों को, पश्चिमी युद्ध शैली के अपनाने के उद्देश्य से, नियुक्त कर लिया। इस प्रकार सेना का राष्ट्रीय रूप नष्ट हो गया और कई विदेशी तत्वों को उचित अनुशासक एवं नियंत्रण में रखना आसान न रहा। पुरानी युद्ध शेली भी आशिंक रूप में छोड़ दी गई। दूसरे, बालाजी बाजीराव ने जानबूझ कर अपने पिता के 'हिन्दू पद पादशाही' के आदर्श को, जिसका उद्देश्य था, सभी हिन्दू सरदारों को एक झण्डे के नीचे संयुक्त करना, त्याग दिया। उसके अनुगामियों ने लूटमार वाली लड़ाई की पुरानी योजना को अपनाया। वे मुस्लिम एवं हिन्दू दोनों के विरुद्ध बिना भेदभाव के लूटमार मचाने लगे। इससे राजपूतों तथा अन्य हिन्दू सरदारों की सहानुभूति जाती रही। इस प्रकार मराठा साम्राज्यवाद एक भारतव्यापी राष्ट्रीयता के लिए नहीं रह गया। अब इसके लिए भीतरी अथवा बाहरी मुस्लिम शक्तियों के विरुद्ध हिन्दू शक्तियों का एक झण्डे के नीचे संगठन करना सम्भव नहीं रहा।

अब्दाली का आक्रमण

बालाजी बाजीराव के समय में ही अहमदशाह अब्दाली का आक्रमण हुआ, जिसमें मराठे बुरी तरह परास्त हुए। इससे पहले बालाजी के समय मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर हिन्दू राज्य की स्थापना के लिए स्थिति अनुकूल थी। भारत पर बाहरी आक्रमण हो रहे थे और 1739 ई. में नादिरशाह द्वारा दिल्ली निर्दयतापूर्वक उजाड़ी जा चुकी थी। मुग़ल साम्राज्य की साख इतनी ज़्यादा इससे पहले कभी नहीं गिरि थी। उपरान्त अहमदशाह अब्दाली के बार-बार के हमलों से वह और भी कमज़ोर हो गया। अहमदशाह अब्दाली ने पंजाब पर अधिकार कर लिया। दिल्ली को लूटा और अपने प्रतिनिधि के रूप में नाजीबुद्दौला को रख दिया, जो मुग़ल बादशाह के ऊपर व्यावहारिक रूप में हुक़ूमत करने लगा। इस प्रकार यह प्रकट था कि भारत के हिन्दुओं में यदि एकता स्थापित हो सके, तो वे मुग़ल साम्राज्य को समाप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। इस पर भी पेशवा बालाजी बाजीराव इस अवसर से लाभ नहीं उठा सका।

नये सिपाहियों की भर्ती

अनेकों उपलब्धियों के बावजूद बालाजी बाजीराव के समय 'हिन्दू पद पादशाही' को धक्का लगा, विशेषकर जब होल्कर और सिंधिया ने राजपूत प्रदेशों को लूटा और रघुनाथराव ने खम्बेर के जाट दुर्ग को घेर लिया। इसलिए पानीपत के युद्ध में जहाँ सभी मुस्लिम सरदार एक हो गए, मराठे, जाट और राजपूतों को अपने साथ मिलाने में असफल रहे। तुलाजी आग्रिया की नौसेना को समाप्त करने में अंग्रेजों की मदद करना भी इनकी बड़ी भूल थी। पेशवा ने मराठा सैन्य शक्ति को बढ़ाने के लिए हजारों की संख्या में राजपूत, बुंदेला तथा अफ़ग़ान सिपाहियों की भर्ती की।

आंशिक सफलताएँ

बालाजी बाजीराव ने हल्के हथियारों से सुसज्जित फुर्तीली पैदल सेना का प्रयोग करने की पुरानी मराठा रणनीति में भी परिवर्तन कर दिया। वह पहले की अपेक्षा अधिक वज़नदार हथियारों से लैस घुड़सवारों और भारी तोपख़ाने को अधिक महत्त्व देने लगा। पेशवा स्वयं अपने सरदारों को पड़ोस के राजपूत राजाओं के इलाक़ों में लूट-ख़सोट करने के लिए उत्साहित करता था। इस प्रकार वह अपने पुराने मित्रों की सहायता से वंचित हो गया, जो उसके पिता बाजीराव प्रथम के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध हुए थे। इसके साथ ही दो मोर्चों पर दक्षिण में 'निज़ाम' के विरुद्ध और उत्तर में अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध लड़ने की ग़लती उसने की। आरम्भ में तो उसे कुछ सफलता मिली, उसने निज़ाम को 1750 ई. में उदगिर की लड़ाई में हरा दिया और बीजापुर का पूरा प्रदेश और औरंगाबाद और बीदर के बड़े भागों को निज़ाम से छीन लिया। मराठा शक्ति का सुदूर दक्षिण में भी प्रसार हुआ। उन्होंने मैसूर के हिन्दू राजा को हरा कर बेदनूर पर आक्रमण कर दिया। किन्तु उनके बढ़ाव को मैसूर राज्य के सेनापति हैदर अली ने रोक दिया, जिसने बाद में वहाँ के हिन्दू राजा को अपदस्थ कर दिया।

उत्तर में बालाजी बाजीराव को पहले तो अच्छी सफलता मिली, उसकी सेना ने राजपूतों की रियासतों की मनमाने ढंग से लूटपाट की, दोआब को रौंदकर उस पर अधिकार कर लिया, मुग़ल बादशाह से गठबंधन करके दिल्ली पर दबदबा जमा लिया, अब्दाली के नायब नाजीबुद्दौला को खदेड़ दिया और पंजाब से अब्दाली के पुत्र तैमूर को निष्कासित कर दिया। इस प्रकार मराठों का दबदबा अटक तक फैल गया। किन्तु मराठों की यह सफलता अल्पकालिक सिद्ध हुई। 1759 ई. में पुन: भारत पर अहमदशाह अब्दाली का आक्रमण हुआ और उसने मराठों को जनवरी 1760 ई. में बरार घाट की लड़ाई में हराया और पंजाब को पुन: प्राप्त कर दिल्ली की तरफ़ बढ़ा।

विरोधी

इस बीच मराठों की लूटमार से न केवल रुहेले और अवध के नवाब वरन् राजपूत, जाट और सिक्ख भी विरोधी बन गये थे। रुहेले और अवध के नवाब तो अब्दाली से जा मिले, राजपूत, जाट और सिक्खों ने तटस्थ रहना पसन्द किया। फलत: अब्दाली की फ़ौज का दिल्ली की तरफ़ बढ़ाव शाहआलम द्वितीय के लिए उतना ही बड़ा ख़तरा था, जितना कि मराठों के लिए। अत: दोनों ने आपस में संधि कर ली।

मराठों की पराजय

पेशवा बालाजी बाजीराव ने सदाशिवराव भाऊ के सेनापतित्व में एक बड़ी सेना अब्दाली को रोकने के लिए भेजी। पेशवाओं ने अभी तक उत्तर भारत में जितनी भी सेनाएँ भेजी थीं, उनसे यह सबसे विशाल थी। मराठों ने दिल्ली पर क़ब्ज़ा तो कर लिया, पर वह उनके लिए मरुभूमि साबित हुई, क्योंकि वहाँ इतनी बड़ी सेना के लिए रसद उपलब्ध नहीं थी। अत: वे पानीपत की तरफ़ बढ़ गए। 14 जनवरी, 1761 ई. को अहमदशाह अब्दाली के साथ पानीपत का तीसरा भाग्य निर्णायक युद्ध हुआ। मराठों की बुरी तरह से हार हुई। पेशवा का युवा पुत्र विश्वासराव, जो कि नाममात्र का सेनापति था, भाऊ, जो वास्तव में सेना की क़मान सम्भाल रहा था तथा अनेक मराठा सेनानी मैदान में खेत रहे। उनकी घुड़सवार और पैदल सेना के हज़ारों जवान मारे गये।

मृत्यु

वास्तव में पानीपत का तीसरा युद्ध समूचे राष्ट्र के लिए भयंकर वज्रपात सिद्ध हुआ। पेशवा बालाजी बाजीराव की, जो भोग-विलास के कारण पहले ही असाध्य रोग से ग्रस्त हो गया था, 23 जून, 1761 ई. में मृत्यु हो गई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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