"बुंदेलखंड राजविद्रोह" के अवतरणों में अंतर

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[[झाँसी]] में [[गंगाधरराव]] की मृत्यु के बाद [[दामोदर राव]] को गोद लिया गया था । परंतु जिस समय 1857 के विद्रोह की घटना घटी थी उस समय  लक्ष्मी बाई को हटाने के प्रयत्न भी जारी हो गए परंतु घटना घट गई थी । [[बरहमपुर]], [[मेरठ]], [[दिल्ली]], [[मुर्शीदाबाद]], [[लखनऊ]], [[इलाहाबाद]], [[काशी]], [[कानपुर]], झाँसी में विद्रोह हुआ और कई स्थान पर उपद्रव हुए। झाँसी में क़िले पर विद्रोहियों ने  अपना अधिकार जमाया था और रानी लक्ष्मीबाई ने भी युद्ध करके अपना अधिकार जमाया और [[झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई]] कहलाई थी।
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[[झाँसी]] में [[गंगाधरराव]] की मृत्यु के बाद [[दामोदर राव]] को गोद लिया गया था । परंतु जिस समय 1857 के विद्रोह की घटना घटी थी उस समय  लक्ष्मी बाई को हटाने के प्रयत्न भी जारी हो गए परंतु घटना घट गई थी । [[बरहमपुर]], [[मेरठ]], [[दिल्ली]], [[मुर्शीदाबाद]], [[लखनऊ]], [[इलाहाबाद]], [[काशी]], [[कानपुर]], झाँसी में विद्रोह हुआ और कई स्थान पर उपद्रव हुए। झाँसी में क़िले पर विद्रोहियों ने  अपना अधिकार जमाया था और रानी लक्ष्मीबाई ने भी युद्ध करके अपना अधिकार जमाया और [[झांसी की रानी लक्ष्मीबाई]] कहलाई थी।
  
 
[[सागर]] की ४२ न० पलटन ने अंग्रेज़ी हुकूमत मानना अस्वीकार कर दिया। अंग्रेज़ी अधिकार के परगनों पर [[बानपुर]] के महाराज [[मर्दनसिंह]] ने  कब्ज़ा करना प्रारंभ कर दिया था। मर्दनसिंह से [[खुरई]] का [[अहमदबख्श]] तहसीलदार भी अपने में मिल गया था। इन दोनों ने [[ललितपुर]], [[चंदेरी]] पर कब्ज़ा किया। [[बख्तवली]] ने अपनी स्वतंत्र सत्ता [[शाहगढ़]] में घोषित की थी। सागर की ३१ नं० पलटन बागी न थी इसीलिए इसकी सहायता से  [[मालथौन]] में डटी हुई मर्दनसिंह की सेना को हटाया गया, फिर इसका ४२ नं० पलटन से युद्ध हुआ था।
 
[[सागर]] की ४२ न० पलटन ने अंग्रेज़ी हुकूमत मानना अस्वीकार कर दिया। अंग्रेज़ी अधिकार के परगनों पर [[बानपुर]] के महाराज [[मर्दनसिंह]] ने  कब्ज़ा करना प्रारंभ कर दिया था। मर्दनसिंह से [[खुरई]] का [[अहमदबख्श]] तहसीलदार भी अपने में मिल गया था। इन दोनों ने [[ललितपुर]], [[चंदेरी]] पर कब्ज़ा किया। [[बख्तवली]] ने अपनी स्वतंत्र सत्ता [[शाहगढ़]] में घोषित की थी। सागर की ३१ नं० पलटन बागी न थी इसीलिए इसकी सहायता से  [[मालथौन]] में डटी हुई मर्दनसिंह की सेना को हटाया गया, फिर इसका ४२ नं० पलटन से युद्ध हुआ था।

06:13, 5 जून 2010 का अवतरण

सन् 1847 में महाराज रणजीत सिंह के बाद उनके पुत्र को पंजाब का राजा बनाया गया था। इसीलिए यह वर्ष अंग्रेज़ों के लिए उत्तम सिद्ध हुआ था क्योंकि लार्ड डलहौज़ी इस समय गवर्नर जनरल थे और उन्होंने दिलीपसिंह को अयोग्य शासक बताकर पंजाब पर कब्ज़ा जमा लिया था। शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को पुर्तगालियों से मिले रहने का आरोप लगा कर सतारा में कैद किया और दक्षिण का बाग अपने अधीन किया।

रानी लक्ष्मीबाई की वीरता

झाँसी में गंगाधरराव की मृत्यु के बाद दामोदर राव को गोद लिया गया था । परंतु जिस समय 1857 के विद्रोह की घटना घटी थी उस समय लक्ष्मी बाई को हटाने के प्रयत्न भी जारी हो गए परंतु घटना घट गई थी । बरहमपुर, मेरठ, दिल्ली, मुर्शीदाबाद, लखनऊ, इलाहाबाद, काशी, कानपुर, झाँसी में विद्रोह हुआ और कई स्थान पर उपद्रव हुए। झाँसी में क़िले पर विद्रोहियों ने अपना अधिकार जमाया था और रानी लक्ष्मीबाई ने भी युद्ध करके अपना अधिकार जमाया और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई कहलाई थी।

सागर की ४२ न० पलटन ने अंग्रेज़ी हुकूमत मानना अस्वीकार कर दिया। अंग्रेज़ी अधिकार के परगनों पर बानपुर के महाराज मर्दनसिंह ने कब्ज़ा करना प्रारंभ कर दिया था। मर्दनसिंह से खुरई का अहमदबख्श तहसीलदार भी अपने में मिल गया था। इन दोनों ने ललितपुर, चंदेरी पर कब्ज़ा किया। बख्तवली ने अपनी स्वतंत्र सत्ता शाहगढ़ में घोषित की थी। सागर की ३१ नं० पलटन बागी न थी इसीलिए इसकी सहायता से मालथौन में डटी हुई मर्दनसिंह की सेना को हटाया गया, फिर इसका ४२ नं० पलटन से युद्ध हुआ था।

बख्तवली की ३१ नं० पलटन ने शेखरमजान से मेल कर लिया था और विद्रोह की लहर, सागर, दमोह, जबलपुर आदि स्थानों में फैल गई थी। पन्ना के राजा की स्थिति इस समय तक मजबूत थी, अंग्रेज़ों ने उनसे सहायता माँगी। राजा ने तुरन्त सेना पहुँचाई और जबलपुर की ५२ नं० की पलटन को बुरी तरह दबा दिया गया। सर हारोज ने बख्तवली और मर्दनसिंह को नरहट की घाटी में पराजित किया था। और अंग्रेज़ी सेना झाँसी की ओर बढ़ती गई। अंग्रेज़ों को झाँसी, कालपी में डटकर मुकाबला करना पड़ा। रानी लक्ष्मी बाई दामोदर राव (पुत्र) को अपनी पीठ पर बाँधकर मर्दाने वेश में कालपी की ओर भाग गयी। इसके बाद झाँसी पर भी अंग्रेज़ों का अधिकार हो गया था।

कालपी में एक बार फिर बख्तवली और मर्दनसिंह ने रानी के साथ मिलकर सर ह्यूरोज से युद्ध किया। यहाँ भी उसके हाथ पराजय ही लगी। रानी ग्वालियर पहुँची और सिंधिया को हराकर वहाँ भी शासक बन बैठी पर सर ह्यूरोज ने ग्वालियर पर अचानक हमला किया। राव साहब पेशवा, तात्या टोपे का पराभव, रानी की मृत्यु आदि ने पूर्णत: विद्रोह की अग्नि को ठंडा कर दिया। बुंदेलखंड के सारे प्रदेश इस प्रकार अंग्रेज़ी राज्य में समा गए।

बुंदेलखंड का राजविद्रोह

बुंदेलखंड के इतिहास में बुंदेलखंड का राजविद्रोह वास्तव में जनता का विद्रोह न होकर सामन्तों और सेना का विद्रोह था इसी पृष्ठभूमि में सांस्कृतिक और धार्मिक भावना के साथ साथ स्वामिभक्ति का पुट विशेष है। सामन्तो की जागीरे अथवा राज्यों की सीमायें देश की सीमा थीं। सामन्तों का धर्म जनता का धर्म था अत: विद्रोहियों द्वारा देश पर कब्ज़ा और धर्म का नाश असह्य था जिसे हिन्दु और मुसलमानों दोनों ने गोली में लगी चर्बी के बहाने व्यक्त किया।

कल्याण सिंह कुड़रा ने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीर गाथा करते हुए लिखा है - चलत तमंचा तेग किर्च कराल जहाँ गुरज गुमानी गिरै गाज के समान।

         तहाँ एकै बिन मध्यै एकै ताके सामरथ्यै, एकै डोलै बिन हथ्थै रन माचौ घमासान।।
         जहाँ एकै एक मारैं एकै भुव में चिकारै, एकै सुर पुर सिधारैं सूर छोड़ छोड़ प्रान।
         तहाँ बाई ने सवाई अंगरेज सो भंजाई, तहाँ रानी मरदानी झुकझारी किरवान।।

कवि ने रानी की वीरता का परिचय देते हुए कहा है कि रानी इस प्रकार वीरतापूर्वक शत्रु का सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त होती है।