एक्स्प्रेशन त्रुटि: अनपेक्षित उद्गार चिन्ह "०"।

"भक्ति आन्दोलन" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
(''''मध्य काल में भक्ति आन्दोलन''' की शुरुआत सर्वप्रथम दक...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
पंक्ति 40: पंक्ति 40:
 
====कबीर====
 
====कबीर====
 
{{मुख्य|कबीर}}
 
{{मुख्य|कबीर}}
कबीर का जन्म 1440 ई. में [[वाराणसी]] में हुआ था। ये सुल्तान [[सिकन्दर शाह लोदी]] के समकालीन थे। सूरत गोपाल इनका मुख्य शिष्य था। मध्यकालीन संतों में कबीरदास का साहित्यिक एवं ऐतिहासिक योगदान निःसन्देह अविस्मरणीय है। एक महान समाज सुधारक के रूप में उन्होंने समाज में व्याप्त हर तरह की बुराइयों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया, जिनमें उन्हे काफ़ी हद तक सफलता भी मिली। कबीर ने राम, रहीम, हजरत, अल्लाह, आदि को एक ही ईश्वर के अनेक रूप माना। उन्होंने जाति प्रथा, धार्मिक कर्मकाण्ड, बाहरी आडम्बर, मूर्तिपूजा, जप-तप, अवतारवाद आदि का घोर विरोध करते हुए [[एकेश्वरवाद]] में आस्था एवं निराकार ब्रह्म की उपासना को महत्व दिया। कबीर ने ईश्वर प्राप्ति हेतु शुद्ध प्रेम, पवित्रता एवं निर्मल हदय की आवश्यकता बताई। कबीर ने कहा था कि “हे माधव! अपनी कंठी माला ले लो, क्योंकि भूखे पेट मैं तुम्हारा भजन नहीं कर सकता।” निर्गुण भक्ति धारा से जुड़े कबीर ऐसे प्रथम भक्त थे, जिन्होंने [[सन्त]] होने के बाद भी पूर्णतः सहिष्णुता की भावना को बनाये रखते हुए धर्म को अकर्मण्यता की भूमि से हटाकर कर्मयोगी की भूमि पर लाकर खड़ा किया। कबीर ने अपना सन्देश अपने दोहों के माध्यम से जनसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया। इनके अनुयायी [[कबीरपंथ|कबीरपंथी]] कहलाये। इसमें हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के लोग शामिल थे। कबीर की प्रमुख रचनाओं में साखी, सबद, रमैनी, दोहा, होली, रेखताल आदि प्रमुख है। कबीर की मुत्यु 1510 ई. में [[मगहर]] में हुई। ये [[रामानन्द]] के शिष्य तथा सिकन्दर लोदी के समकालीन थे।
+
कबीर का जन्म 1440 ई. में [[वाराणसी]] में हुआ था। ये सुल्तान [[सिकन्दर शाह लोदी]] के समकालीन थे। सूरत गोपाल इनका मुख्य शिष्य था। मध्यकालीन संतों में कबीरदास का साहित्यिक एवं ऐतिहासिक योगदान निःसन्देह अविस्मरणीय है। एक महान समाज सुधारक के रूप में उन्होंने समाज में व्याप्त हर तरह की बुराइयों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया, जिनमें उन्हे काफ़ी हद तक सफलता भी मिली। कबीर ने राम, रहीम, हजरत, अल्लाह, आदि को एक ही ईश्वर के अनेक रूप माना। उन्होंने जाति प्रथा, धार्मिक कर्मकाण्ड, बाहरी आडम्बर, मूर्तिपूजा, जप-तप, अवतारवाद आदि का घोर विरोध करते हुए [[एकेश्वरवाद]] में आस्था एवं निराकार ब्रह्मा की उपासना को महत्व दिया। कबीर ने ईश्वर प्राप्ति हेतु शुद्ध प्रेम, पवित्रता एवं निर्मल हदय की आवश्यकता बताई। कबीर ने कहा था कि “हे माधव! अपनी कंठी माला ले लो, क्योंकि भूखे पेट मैं तुम्हारा भजन नहीं कर सकता।” निर्गुण भक्ति धारा से जुड़े कबीर ऐसे प्रथम भक्त थे, जिन्होंने [[सन्त]] होने के बाद भी पूर्णतः सहिष्णुता की भावना को बनाये रखते हुए धर्म को अकर्मण्यता की भूमि से हटाकर कर्मयोगी की भूमि पर लाकर खड़ा किया। कबीर ने अपना सन्देश अपने दोहों के माध्यम से जनसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया। इनके अनुयायी [[कबीरपंथ|कबीरपंथी]] कहलाये। इसमें हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के लोग शामिल थे। कबीर की प्रमुख रचनाओं में साखी, सबद, रमैनी, दोहा, होली, रेखताल आदि प्रमुख है। कबीर की मुत्यु 1510 ई. में [[मगहर]] में हुई। ये [[रामानन्द]] के शिष्य तथा सिकन्दर लोदी के समकालीन थे।
 
====गुरुनानक (1469-1539 ई.)====
 
====गुरुनानक (1469-1539 ई.)====
 
{{मुख्य|गुरुनानक}}
 
{{मुख्य|गुरुनानक}}
पंक्ति 46: पंक्ति 46:
 
====चैतन्य (1486 से 1533 ई.)====
 
====चैतन्य (1486 से 1533 ई.)====
 
{{मुख्य|चैतन्य महाप्रभु}}
 
{{मुख्य|चैतन्य महाप्रभु}}
बंगाल में भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक चैतन्य ने सगुण भक्ति मार्ग का अनुसरण करते हुए कृष्ण भक्ति पर विशेष बल दिया। अन्य सन्तों की तरह चैतन्य ने भी जात-पात एवं अनाश्वक धार्मिक कुरीतियों का विरोध किया। चैतन्य ने मूर्तिपूजा, अवतारवाद, कीर्तन, उपासना आदि को महत्व दिया। चैतन्य के अनुसार प्रेम तथा भक्ति, नृत्य एवं संगीत, लीला एवं कीर्तन से सगुण ब्रह्म का साक्षात्कार किया जा सकता है। चैतन्य महाप्रभु ने ‘गोसाई संघ’ की स्थापना की और साथ ही ‘संकीर्तन प्रथा ’ को जन्म दिया। उनके दार्शनिक सिद्धान्त को ‘अचिंत्य भेदाभेदवाद’ के नाम से जाना जाता है। चैतन्य के अनुयायी उन्हे कृष्ण का विष्णु या कृष्ण का अवतार मानते हैं तथा गौरांगहाप्रभु के नाम से पूजते हैं। चैतन्य का प्रभ्ज्ञाव बंगाल के अतिरिक्त बिहार एवं उड़ीसा में भी था। सगुणोपसना को चैतन्य के अतिरिक्त बल्लभ, तुलसी, सूर एवं मीरा ने भी अपनाया।
+
[[बंगाल]] में भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक चैतन्य ने सगुण भक्ति मार्ग का अनुसरण करते हुए, [[कृष्ण]] भक्ति पर विशेष बल दिया। अन्य सन्तों की तरह चैतन्य ने भी जात-पात एवं अनावश्यक धार्मिक कुरीतियों का विरोध किया। चैतन्य ने मूर्तिपूजा, अवतारवाद, कीर्तन, उपासना आदि को महत्व दिया। चैतन्य के अनुसार प्रेम तथा भक्ति, [[नृत्य कला|नृत्य]] एवं [[संगीत]], लीला एवं कीर्तन से सगुण ब्रह्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है। चैतन्य महाप्रभु ने ‘गोसाई संघ’ की स्थापना की और साथ ही ‘संकीर्तन प्रथा’ को जन्म दिया। उनके दार्शनिक सिद्धान्त को ‘अचिंत्य भेदाभेदवाद’ के नाम से जाना जाता है। चैतन्य के अनुयायी उन्हें कृष्ण या [[विष्णु]] का अवतार मानते हैं तथा 'गौरांगमहाप्रभु' के नाम से पूजते हैं। चैतन्य का प्रभाव बंगाल के अतिरिक्त [[बिहार]] एवं [[उड़ीसा]] में भी था। सगुणोपसना को चैतन्य के अतिरिक्त [[बल्लभचार्य]], [[तुलसीदास]], [[सूरदास]] एवं [[मीराबाई]] ने भी अपनाया।
 
+
====रैदास====
रैदास - रैदास चमार जाति के थे। वे रामानंद के बारह शिष्यों में से एक थे। ये बनारस में मोची का काम करते थे। निर्गुण ब्रह्म के उपासक रैदास ने हिन्दू और मुसलमानों में कोई भेद नहीं माना। वे ईश्वर की एकता में विश्वास करते थे किन्तु उन्होने अवतारवाद का खण्डन किया। उन्होने ‘रायदासी सम्प्रदाय’ की स्थापना की।
+
{{मुख्य|रैदास}}
 
+
रैदास चमार जाति के थे। वे [[रामानन्द]] के बारह शिष्यों में से एक थे। ये [[बनारस]] में मोची का काम करते थे। निर्गुण ब्रह्मा के उपासक रैदास ने हिन्दू और मुसलमानों में कोई भेद नहीं माना। वे ईश्वर की एकता में विश्वास करते थे, किन्तु उन्होंने अवतारवाद का खण्डन किया। उन्होंने ‘रायदासी सम्प्रदाय’ की स्थापना की।
 
+
====दादू दयाल====
दादू दयाल - अन्य सन्तों की तरह अन्ध विश्वास मूर्ति पूजा, जात-पात, तीर्थयात्रा आदि के विरोधी दादू ने आचरण एवं चरित्र की शुद्धता पर बल दिया। दादू द्वारा स्थापित ‘दादूपंथी’ एक भेदभाव मुक्त पंथ है। उनके समय में ‘निपक्ष’ नामक आन्दोलन की शुरुआत की गई।
+
{{मुख्य|दादू दयाल}}
 
+
अन्य सन्तों की तरह अन्ध विश्वास, मूर्ति पूजा, जात-पात, तीर्थयात्रा आदि के विरोधी दादू ने आचरण एवं चरित्र की शुद्धता पर बल दिया। दादू द्वारा स्थापित ‘दादूपंथी’ एक भेदभाव मुक्त पंथ है। उनके समय में ‘निपक्ष’ नामक आन्दोलन की शुरुआत की गई।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
  
 
{{प्रचार}}
 
{{प्रचार}}

08:37, 18 मार्च 2011 का अवतरण

मध्य काल में भक्ति आन्दोलन की शुरुआत सर्वप्रथम दक्षिण के अलवार भक्तों द्वारा की गई। दक्षिण भारत से उत्तर भारत में बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में रामानन्द द्वारा यह आन्दोलन लाया गया। भक्ति आन्दोलन का महत्वपूर्ण उद्देश्य था- हिन्दू धर्म एवं समाज में सुधार तथा इस्लाम एवं हिन्दू धर्म में समन्वय स्थापित करना। अपने उद्देश्यों में यह आन्दोलन काफ़ी सफल रहा। शंकराचार्य के ‘अद्वैतदर्शन’ के विरोध में दक्षिण में वैष्णव संतों द्वारा 4 मतों की स्थापना की गई, जो निम्नलिखित है-

  1. 'विशिष्टाद्वैतवाद' की स्थापना 12वीं सदी में रामानुजाचार्य ने की।
  2. 'द्वैतवाद' की स्थापना 13वीं शताब्दी में मध्वाचार्य ने की।
  3. 'शुद्धाद्वैतवाद' की स्थापना 13वीं सदी में विष्णुस्वामी ने की।
  4. 'द्वैताद्वैवाद' की स्थापना 13वीं सदी में निम्बार्काचार्य ने की।

इन सन्तों ने भक्ति मार्ग को ईश्वर प्राप्ति का साधन मानते हुए 'ज्ञान', 'भक्ति' और 'समन्वय' को स्थापित करने का प्रयास किया। इन सनतों की प्रवृति सगुण भक्ति की थी। इन्होंने राम, कृष्ण, शिव, हरि आदि के रूप में आध्यात्मिक व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं। 14वीं एवं 15वीं शताब्दी में भक्ति आन्दोलन का नेतृत्व कबीरदास के हाथों में था। इस समय रामानन्द, नामदेव, कबीर, नानक, दादू, रविदास (रैदास), तुलसीदास एवं चैतन्य महाप्रभु जैसे लोगों के हाथ में इस आन्दोलन की बागडोर थी।

भक्ति आन्दोलन के कारण

आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित पीठ
पीठ स्थान
ज्योतिष्पीठ बद्रीनाथ (उत्तराखण्ड)
गोवर्धनपीठ पुरी (उड़ीसा)
शारदापीठ द्वारिका (गुजरात)
श्रृंगेरीपीठ मैसूर (कर्नाटक)

मध्य काल में भक्ति आन्दोलन और सूफ़ी आन्दोलन अपने महत्वपूर्ण पड़ाव पर पहुँच गए थे। इस काल में भक्ति आन्दोलन के सूत्रपात एवं प्रचार-प्रसार के महत्वपूर्ण कारण निम्नलिखित थे-

  1. मुस्लिम शासकों के बर्बर शासन से कुंठित एवं उनके अत्यारों से त्रस्त हिन्दू जनता ने ईश्वर की शरण में अपने को अधिक सुरक्षित महसूस कर भक्ति मार्ग का सहारा लिया।
  2. हिन्दू एवं मुस्लिम जनता के आपस में सामाजिक एवं सांस्कृतिक सम्पर्क से दोनों के मध्य सदभाव, सहानुभूति एवं सहयोग की भावना का विकास हुआ। इस कारण से भी भक्ति आन्दोलन के विकास में सहयोग मिला।
  3. सूफ़ी-सन्तों की उदार एवं सहिष्णुता की भावना तथा एकेश्वरवाद में उनकी प्रबल निष्ठा ने हिन्दुओं को प्रभावित किया; जिस कारण से हिन्दू, इस्लाम के सिद्धान्तों के निकट सम्पर्क में आये। इन सबका प्रभाव भक्ति आन्दोलन पर बहुत गहरा पड़ा।
  4. हिन्दुओं ने सूफ़ियों की तरह एकेश्वरवाद में विश्वास करते हुए ऊँच-नीच एवं जात-पात का विरोध किया।
  5. शंकराचार्य का ज्ञान मार्ग व अद्वैतवाद अब साधारण जनता के लिए बोधगम्य नहीं रह गया था।
  6. मंस्लिम शासकों द्वार आये दिन मूर्तियों को नष्ट एवं अपवित्र कर देने के कारण, बिना मूर्ति एवं मंदिर के ईश्वर की अराधना के प्रति लोगों का झुकाव बढ़ा, जिसके लिए उन्हें भक्ति मार्ग का सहारा लेना पड़ा।

प्रणेता

भक्ति आन्दोलन को प्रेरणा प्रदान करने वाले निम्न महापुरुष थे-

रामानन्द

भक्ति आन्दोलन को दक्षिण से उत्तर में लाने का श्रेय रामानन्द को ही दिया जाता है। वे रामानुज की पीड़ी के प्रथम संत थे। उन्होंने सभी जातियों एवं धर्म के लोगों को अपना शिष्य बनाकर एक तरह से जातिवाद पर कड़ा प्रहार किया। उनके शिष्यों में कबीर (जुलाहा), सेना (नाई), रैदास (चमार) आदि थे। उन्होंने एकेश्वरवाद पर बल देते हुए राम की उपासना की बात कही। सम्भवतः हिन्दी में उपदेश देने वाले प्रथम वैष्णव संत रामानन्द ही थे।

कबीर

कबीर का जन्म 1440 ई. में वाराणसी में हुआ था। ये सुल्तान सिकन्दर शाह लोदी के समकालीन थे। सूरत गोपाल इनका मुख्य शिष्य था। मध्यकालीन संतों में कबीरदास का साहित्यिक एवं ऐतिहासिक योगदान निःसन्देह अविस्मरणीय है। एक महान समाज सुधारक के रूप में उन्होंने समाज में व्याप्त हर तरह की बुराइयों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया, जिनमें उन्हे काफ़ी हद तक सफलता भी मिली। कबीर ने राम, रहीम, हजरत, अल्लाह, आदि को एक ही ईश्वर के अनेक रूप माना। उन्होंने जाति प्रथा, धार्मिक कर्मकाण्ड, बाहरी आडम्बर, मूर्तिपूजा, जप-तप, अवतारवाद आदि का घोर विरोध करते हुए एकेश्वरवाद में आस्था एवं निराकार ब्रह्मा की उपासना को महत्व दिया। कबीर ने ईश्वर प्राप्ति हेतु शुद्ध प्रेम, पवित्रता एवं निर्मल हदय की आवश्यकता बताई। कबीर ने कहा था कि “हे माधव! अपनी कंठी माला ले लो, क्योंकि भूखे पेट मैं तुम्हारा भजन नहीं कर सकता।” निर्गुण भक्ति धारा से जुड़े कबीर ऐसे प्रथम भक्त थे, जिन्होंने सन्त होने के बाद भी पूर्णतः सहिष्णुता की भावना को बनाये रखते हुए धर्म को अकर्मण्यता की भूमि से हटाकर कर्मयोगी की भूमि पर लाकर खड़ा किया। कबीर ने अपना सन्देश अपने दोहों के माध्यम से जनसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया। इनके अनुयायी कबीरपंथी कहलाये। इसमें हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के लोग शामिल थे। कबीर की प्रमुख रचनाओं में साखी, सबद, रमैनी, दोहा, होली, रेखताल आदि प्रमुख है। कबीर की मुत्यु 1510 ई. में मगहर में हुई। ये रामानन्द के शिष्य तथा सिकन्दर लोदी के समकालीन थे।

गुरुनानक (1469-1539 ई.)

गुरुनानक का जन्म 1569 में तलवन्डी नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम कालू तथा माता का नाम तृप्ता था। कबीर के बाद तत्कालीन समाज को प्रभावित करने वालों में नानक का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने बिना किसी वर्ग पर आघात किये ही उसके अन्दर छिपे कुसंस्कारों को नष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने धर्म के वाह्म आडम्बर, जात-पात, छुआछूत, ऊँच-नीच, उपवास, मूर्तिपूजा, अन्ध-विश्वास, बहु-देववाद आदि की आलोचना की। उन्होंने हिन्दू-मुस्जिम एकता, सच्ची ईश्वर भक्ति और सच्चरित्रता पर विशेष बल दिया। निरंकार ईश्वर को इन्होंने अकाल पुरुष की संज्ञा दी। उनका दृष्टिकोण विशाल मानवतावादी था। उनके उपदेशों को सिक्ख पंथ के पवित्र ग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहब’ में संकलित किया गया है।

चैतन्य (1486 से 1533 ई.)

बंगाल में भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक चैतन्य ने सगुण भक्ति मार्ग का अनुसरण करते हुए, कृष्ण भक्ति पर विशेष बल दिया। अन्य सन्तों की तरह चैतन्य ने भी जात-पात एवं अनावश्यक धार्मिक कुरीतियों का विरोध किया। चैतन्य ने मूर्तिपूजा, अवतारवाद, कीर्तन, उपासना आदि को महत्व दिया। चैतन्य के अनुसार प्रेम तथा भक्ति, नृत्य एवं संगीत, लीला एवं कीर्तन से सगुण ब्रह्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है। चैतन्य महाप्रभु ने ‘गोसाई संघ’ की स्थापना की और साथ ही ‘संकीर्तन प्रथा’ को जन्म दिया। उनके दार्शनिक सिद्धान्त को ‘अचिंत्य भेदाभेदवाद’ के नाम से जाना जाता है। चैतन्य के अनुयायी उन्हें कृष्ण या विष्णु का अवतार मानते हैं तथा 'गौरांगमहाप्रभु' के नाम से पूजते हैं। चैतन्य का प्रभाव बंगाल के अतिरिक्त बिहार एवं उड़ीसा में भी था। सगुणोपसना को चैतन्य के अतिरिक्त बल्लभचार्य, तुलसीदास, सूरदास एवं मीराबाई ने भी अपनाया।

रैदास

रैदास चमार जाति के थे। वे रामानन्द के बारह शिष्यों में से एक थे। ये बनारस में मोची का काम करते थे। निर्गुण ब्रह्मा के उपासक रैदास ने हिन्दू और मुसलमानों में कोई भेद नहीं माना। वे ईश्वर की एकता में विश्वास करते थे, किन्तु उन्होंने अवतारवाद का खण्डन किया। उन्होंने ‘रायदासी सम्प्रदाय’ की स्थापना की।

दादू दयाल

अन्य सन्तों की तरह अन्ध विश्वास, मूर्ति पूजा, जात-पात, तीर्थयात्रा आदि के विरोधी दादू ने आचरण एवं चरित्र की शुद्धता पर बल दिया। दादू द्वारा स्थापित ‘दादूपंथी’ एक भेदभाव मुक्त पंथ है। उनके समय में ‘निपक्ष’ नामक आन्दोलन की शुरुआत की गई।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ