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भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-3

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2.काल और मूल पाठ

भगवद्गीता उस महान् आन्दोलन के बाद की, जिसका प्रतिनिधित्व प्रारम्भिक उपनिषद् करते हैं, और दार्शनिक प्रणालियों के विकास और उनके सूत्रों में बांधे जाने के काल से पहले की रचना है। इसकी प्राचीन वाक्य-रचना और आन्तरिक निर्देशों से हम यह परिणाम निकाल सकते हैं कि यह निश्चित रूप से ईसवी-पूर्व काल की रचना है। इसका काल ईसवी-पूर्व पांचवीं शताब्दी कहा जा सकता है, हालांकि बाद में भी इसके मूल पाठ में अनेक हेर-फेर हुए हैं।[1] हमें गीता के रचयिता का नाम मालूम नहीं है। भारत के प्रारम्भिक साहित्य की लगभग सभी पुस्तकों के लेखकों के नाम अज्ञात हैं। गीता की रचना का श्रेय व्यास को दिया जाता है, जो महाभारत का पौराणिक संकलनकर्ता है। गीता के अट्ठारह अध्याय महाभारत के भीष्मपर्व के 23 से 40 तक के अध्याय हैं। यह कहा जाता है कि उपदेश देते समय कृष्ण के लिए युद्ध क्षेत्र में अर्जुन के सम्मुख 700 श्लोकों को पढ़ना सम्भव नहीं हुआ होगा। उसने कुछ थोड़ी-सी महत्त्वपूर्ण बातें कही होंगी, जिन्हें बाद में लेखक ने एक विशाल रचना के रूप में विस्तार से लिख दिया। गर्बे के मतानुसार, भगवद्गीता पहले एक सांख्य-योग-सम्बन्धी ग्रन्थ था, जिसमें बाद में कृष्ण-वासुदेव-पूजा पद्धति आ मिली और ईसवी-पूर्व तीसरी शताब्दी में इसका मेल-मिलान कृष्ण को विष्णु का रूप मानकर वैदिक परम्परा के साथ बिठा दिया गया। मूल रचना ईसवी-पूर्व 200 में लिखी गई थी और इसका वर्तमान रूप ईसा की दूसरी शताब्दी में किसी वेदान्त के अनुयायी द्वारा तैयार किया गया है। गर्बे का सिद्धान्त सामान्यतया अस्वीकार किया जाता है। होपकिन्स का विचार है कि “अब जो कृष्ण प्रधान रूप मिलता है, वह पहले कोई पुरानी विष्णु प्रधान कविता थी और उससे भी पहले वह कोई एक निस्सम्प्रदाय रचना थी, सम्भवतः विलम्बता से लिखी गई कोई उपनिषद्।”[2] हौल्ट्ज़मन गीता को एक सर्वेश्वरवादी कविता का बाद में विष्णु प्रधान बनाया गया रूप मानता है। कीथ का विश्वास है कि मूलतः गीता श्वेताश्वतर के ढंग की उपनिषद् थी, परन्तु बाद में उसे कृष्ण पूजा के अनुकूल ढ़ाल दिया गया। बार्नेट का विचार है कि गीता के लेखक के मन में परम्परा की विभिन्न धाराएं गड्डमड्ड हो गई। रूडोफ़ ओटो का कथन है कि “मूल गीता महाकाव्य का एक शानदार खण्ड थी और उसमे किसी प्रकार का कोई सैद्धान्तिक साहित्य नही था।” कृष्ण का इरादा “मुक्ति का कोई लोकोत्तर उपाय प्रस्तुत करने का नहीं था, अपितु अर्जुन को उस भगवान् की सर्वशक्तिशालिनी इच्छा को पूरा करने की विशेष सेवा के लिए तैयार करना था, जो युद्धों के भाग्य का निर्णय करता है।”[3]ओटो का विश्वास है कि सैद्धान्तिक अंश प्रक्षिप्त हैं। इस विषय में उसका जैकोबी से मतैक्य है, जिसका विचार है कि विद्वानों ने मूल छोटे-से केन्द्र-बिन्दु को विस्तृत करके वर्तमान रूप दे दिया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. राधाकृष्‍णन् की ‘इण्डियन फिलॉसफ़ी’, खण्‍ड 1, पृ. 522-25
  2. 1. रिलिजन्स ऑफ़ इण्डिया (1908), पृ. 3891 इसके विषय में फ़र्कहार लिखता है कि “यह एक पुरानी पद्य उपनिषद् है, जो सम्भवतः श्वेताश्वतर के बाद लिखी गई है और जिसे किसी कवि ने कृष्णवाद के समर्थन के लिए ईसवी सन् के बाद गीता के वर्तमान रूप में ढाल दिया है।”
  3. ओरिजिनल गीता, अंग्रेज़ी अनुवाद (1939), पृ. 12, 14

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