"भारत का इतिहास" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
पंक्ति 39: पंक्ति 39:
  
 
तुर्क क़बीले अपने साथ बेरहम लूटपाट तथा युद्ध की ऐसी प्रथा लाए जिसमें हर प्रकार के षड़यंत्र और चाल को उचित समझा जाता था। इन्होंने एक नयी प्रकार की युद्धनीति शुरू की। जिसमें प्रमुख भूमिका भारी अस्त्रशस्त्रों से लैस घुड़सवार सैनिकों की होती थी, जो तेज़ी से आगे-पीछे सरक सकते थे और घोड़े की पीठ से ही तीरों की बौछार कर सकते थे। यह लोहे की रक़ाबों से ही सम्भव था। 'लोहे की रक़ाबों' तथा एक नए तरह की 'लगाम' के कारण युद्धनीति में इस तरह का परिवर्तन आया। इसी बीच [[प्रतिहार साम्राज्य|गुर्जर-प्रतिहारों]] के साम्राज्य के विघटन से उत्तरी भारत कई छोट-छोटे राज्यों में बंट गया जिनके शासकों के पास इस नई युद्ध नीति के महत्व को समझने तथा उसका मुक़ाबला करने के न तो साधन थे और न ही इच्छा थी।  
 
तुर्क क़बीले अपने साथ बेरहम लूटपाट तथा युद्ध की ऐसी प्रथा लाए जिसमें हर प्रकार के षड़यंत्र और चाल को उचित समझा जाता था। इन्होंने एक नयी प्रकार की युद्धनीति शुरू की। जिसमें प्रमुख भूमिका भारी अस्त्रशस्त्रों से लैस घुड़सवार सैनिकों की होती थी, जो तेज़ी से आगे-पीछे सरक सकते थे और घोड़े की पीठ से ही तीरों की बौछार कर सकते थे। यह लोहे की रक़ाबों से ही सम्भव था। 'लोहे की रक़ाबों' तथा एक नए तरह की 'लगाम' के कारण युद्धनीति में इस तरह का परिवर्तन आया। इसी बीच [[प्रतिहार साम्राज्य|गुर्जर-प्रतिहारों]] के साम्राज्य के विघटन से उत्तरी भारत कई छोट-छोटे राज्यों में बंट गया जिनके शासकों के पास इस नई युद्ध नीति के महत्व को समझने तथा उसका मुक़ाबला करने के न तो साधन थे और न ही इच्छा थी।  
==ग़ज़नवी==
 
नौवीं शताब्दी के अन्त तक ट्रांस-अक्सियाना, ख़ुरासान तथा ईरान के कुछ भागों पर समानी शासकों का राज्य था जो मूलतः ईरानी थे। इन्हें अपनी उत्तरी और पूर्वी सीमाओं पर बराबर तुर्क क़बीलों से संघर्ष करना पड़ता था। इसी संघर्ष के दौरान एक नये प्रकार के सैनिक 'ग़ाज़ी' का उदय हुआ। 'तुर्क' अधिकतर प्रकृति की शक्तियों की पूजा करते थे। अतः मुसलमानों की दृष्टि में काफ़िर थे। इसलिए उनके ख़िलाफ़ युद्ध राज्य की रक्षा के साथ-साथ धर्म की दृष्टि से भी वांछनीय था। इस प्रकार ग़ाज़ी, योद्धा तथा धर्म-प्रचारक, दोनों था। वह सेना के एक अतिरिक्त अंग के समान था और कम वेतन की पूर्ति लूटपाट से करता था। ग़ाज़ी लोग वीर होने के साथ-साथ धर्म के लिए बड़े से बड़ा ख़तरा मोल लेने के लिए तैयार रहते थे और इन्हीं की बदौलत नए मुस्लिम राज्यों को तुर्कों के आक्रमणों का सामना करने में सफलता मिल सकी। समय के साथ-साथ कई तुर्क मुसलमान बन गए पर फिर भी ग़ैर-मुसलमान तुर्क क़बीलों के साथ मुसलमान राज्यों का संघर्ष जारी रहा। तुर्की के क़बीलाई जो मुसलमान बन गए थे बाद में वे ही मुसलमान धर्म के कट्टर संरक्षक और प्रचारक बन गए। लेकिन [[इस्लाम]] की रक्षा और प्रचार के साथ-साथ उनकी लूटपाट की लिप्सा बनी रही।
 
 
समानी राज्य के प्रशासकों में एक तुर्क ग़ुलाम 'अलप्तग़ीन' था जो धीरे-धीरे एक अपना राज्य क़ायम करने में सफल हो गया। इसकी राजधानी 'ग़ज़नी' थी। बाद में समानी साम्राज्य का पतन हो गया और 'ग़ज़नवी' लोगों ने मध्य एशिया के क़बीलों से इस्लामी क्षेत्र की रक्षा करने का भार सम्भाला।
 
 
==महमूद ग़ज़नवी==
 
==महमूद ग़ज़नवी==
 +
{{main|महमूद ग़ज़नवी}}
 
इसी प्रक्रिया के दौरान ग़ज़नी के सिंहासन पर महमूद (998-1030) बैठा। मध्ययुगीन इतिहासकारों ने मध्य एशिया के क़बीलाई आक्रमणकारियों से वीरता से संघर्ष करने के कारण महमूद को इस्लाम का योद्धा माना है। इसके अलावा इस समय ईरानी संस्कृति का जो पुनर्जागरण हुआ, उसके साथ महमूद का गहरा सम्पर्क था। गर्वीले ईरानियों ने कभी भी अरबों की भाषा और संस्कृति नहीं अपनायी। समानी साम्राज्य में [[फ़ारसी भाषा]] और साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया गया। 'फ़िरदौसी' की 'शाहनामा' के साथ ईरानी साहित्य अपने शिखर पर पहुँच गया। फ़िरदौसी महमूद के दरबार में राज कवि था। उसने यह दिखाने की चेष्टा की कि ईरान और तूरान का संघर्ष बहुत प्राचीन युग में भी था और उसने ईरानी योद्धाओं को अपने साहित्य में गौरवशाली बनाया। इस काल में ईरानी देशप्रेम का इतना उभार हुआ कि महमूद ने भी स्वयं को प्राचीन ईरानी किंवदन्तियों में चर्चित राजा 'अफ़रासियाब' का वंशज होने का दावा किया। फ़ारसी भाषा सारे ग़ज़नवी साम्राज्य की भाषा बन गई। इस प्रकार तुर्क न केवल मुसलमान वरन फ़ारसी भी बन गए। इसी संस्कृति को दो शताब्दियों के बाद वे भारत लाए।  
 
इसी प्रक्रिया के दौरान ग़ज़नी के सिंहासन पर महमूद (998-1030) बैठा। मध्ययुगीन इतिहासकारों ने मध्य एशिया के क़बीलाई आक्रमणकारियों से वीरता से संघर्ष करने के कारण महमूद को इस्लाम का योद्धा माना है। इसके अलावा इस समय ईरानी संस्कृति का जो पुनर्जागरण हुआ, उसके साथ महमूद का गहरा सम्पर्क था। गर्वीले ईरानियों ने कभी भी अरबों की भाषा और संस्कृति नहीं अपनायी। समानी साम्राज्य में [[फ़ारसी भाषा]] और साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया गया। 'फ़िरदौसी' की 'शाहनामा' के साथ ईरानी साहित्य अपने शिखर पर पहुँच गया। फ़िरदौसी महमूद के दरबार में राज कवि था। उसने यह दिखाने की चेष्टा की कि ईरान और तूरान का संघर्ष बहुत प्राचीन युग में भी था और उसने ईरानी योद्धाओं को अपने साहित्य में गौरवशाली बनाया। इस काल में ईरानी देशप्रेम का इतना उभार हुआ कि महमूद ने भी स्वयं को प्राचीन ईरानी किंवदन्तियों में चर्चित राजा 'अफ़रासियाब' का वंशज होने का दावा किया। फ़ारसी भाषा सारे ग़ज़नवी साम्राज्य की भाषा बन गई। इस प्रकार तुर्क न केवल मुसलमान वरन फ़ारसी भी बन गए। इसी संस्कृति को दो शताब्दियों के बाद वे भारत लाए।  
  
 
माना जाता है कि महमूद ने न केवल तुर्क क़बीलों के विरुद्ध इस्लामी राज्य की रक्षा की वरन ईरानी संस्कृति के पुनर्जागरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन [[भारत]] में वह केवल एक लुटेरे के रूप में याद किया जाता है। कहा जाता है कि महमूद ने भारत पर सत्रह बार आक्रमण किया। आरम्भ में उसने [[पेशावर]] और [[पंजाब]] के हिन्दू शाही शासकों के ख़िलाफ़ युद्ध किया। उसने मुल्तान के मुस्लिम शासकों के विरुद्ध भी युद्ध किया क्योंकि वे इस्लाम के उस सम्प्रदाय को मानने वाले थे जिनका महमूद कट्टर विरोधी था। [[हिन्दुशाही]] राज्य पंजाब से लेकर आधुनिक [[अफ़ग़ानिस्तान]] तक फैला हुआ था और उनके शासक ग़ज़नी में एक स्वतंत्र शक्तिशाली राज्य से उत्पन्न होने वाले ख़तरों को बखूबी समझते थे। हिन्दुशाही शासक जयपाल ने समानी शासन के अंतर्गत भूतपर्व गवर्नर के पुत्र के साथ मिलकर ग़ज़नी पर चढ़ाई भी की थी, लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा। उसने अगले वर्ष फिर चढ़ाई की और फिर पराजित हुआ। इन लड़ाइयों में युवराज के रूप में महमूद ने सक्रिय भाग लिया था।  
 
माना जाता है कि महमूद ने न केवल तुर्क क़बीलों के विरुद्ध इस्लामी राज्य की रक्षा की वरन ईरानी संस्कृति के पुनर्जागरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन [[भारत]] में वह केवल एक लुटेरे के रूप में याद किया जाता है। कहा जाता है कि महमूद ने भारत पर सत्रह बार आक्रमण किया। आरम्भ में उसने [[पेशावर]] और [[पंजाब]] के हिन्दू शाही शासकों के ख़िलाफ़ युद्ध किया। उसने मुल्तान के मुस्लिम शासकों के विरुद्ध भी युद्ध किया क्योंकि वे इस्लाम के उस सम्प्रदाय को मानने वाले थे जिनका महमूद कट्टर विरोधी था। [[हिन्दुशाही]] राज्य पंजाब से लेकर आधुनिक [[अफ़ग़ानिस्तान]] तक फैला हुआ था और उनके शासक ग़ज़नी में एक स्वतंत्र शक्तिशाली राज्य से उत्पन्न होने वाले ख़तरों को बखूबी समझते थे। हिन्दुशाही शासक जयपाल ने समानी शासन के अंतर्गत भूतपर्व गवर्नर के पुत्र के साथ मिलकर ग़ज़नी पर चढ़ाई भी की थी, लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा। उसने अगले वर्ष फिर चढ़ाई की और फिर पराजित हुआ। इन लड़ाइयों में युवराज के रूप में महमूद ने सक्रिय भाग लिया था।  
 
महमूद ने सिंहासन पर बैठते ही हिन्दूशाहियों के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। उनके बीच होने वाले संघर्ष में मुल्तान के मुसलमान शासकों ने 'जयपाल' का साथ दिया। सन 1001 ई. में जयपाल को पराजित कर पहले बन्दी बना लिया गया फिर छोड़ दिया गया। फिर भी उसने शर्म के कारण आत्मदाह करने का फैसला कर लिया। उसके बाद उसके पुत्र 'आनन्दपाल' ने शासन सम्भाला। हिन्दूशाही राजधानी 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) में महमूद और आनन्दपाल के बीच 1008-1009 ई. में भीषण युद्ध हुआ। ऐसा लगता है कि इस युद्ध में उत्तर-पश्चिमी भारत के [[कन्नौज]] और [[अजमेर]] के राजाओं के अलावा कई [[राजपूत]] शासकों ने भाग लिया। मुल्तान के मुसलमान शासक ने भी आनन्दपाल का साथ दिया। यद्यपि हिन्दुओं की सेना काफ़ी बड़ी थी और उसमें बहादुरी के लिए [[पंजाब]] के 'खोकर क़बीले' के लोग थे, तथापि महमूद के घुड़सवार धनुषधारियों के आगे उनकी एक न चली। हिन्दूशाहियों को अब ज़ागीरदारों के रूप में अपने भूतपर्व साम्राज्य के एक भाग का शासन मिला। यह 1020 तक क़ायम रहा, लेकिन सही अर्थों में पंजाब पर अब ग़ज़नवियों का पूर्ण अधिकार हो गया। इसके बाद मुल्तान की बारी आई।
 
 
इसके बाद भारत में महमूद के आक्रमणों का उद्देश्य यहाँ के मन्दिरों और उत्तर भारत के शहरों को लूटना तथा अपने विरुद्ध यहाँ के राजाओं को एक होने से रोकना था। इस प्रकार उसने पंजाब पहाड़ियों में [[नगरकोट]] तथा [[दिल्ली]] के निकट थानेसर पर चढ़ाई की। उसका सबसे बड़ा आक्रमण 1018 में कन्नौज तथा 1025 में [[गुजरात]] में [[सोमनाथ मंदिर|सोमनाथ]] पर हुआ। कन्नौज के अपने अभियान के दौरान उसने कन्नौज के साथ-साथ [[मथुरा]] का भी विध्वंस किया और अपार सम्पत्ति के साथ [[बुंदेलखण्ड]]  से कालिंजर होता हुआ स्वदेश लौट गया। अपने इन अभियानों मे वह इसलिए सफल हुआ क्योंकि उस समय उत्तरी भारत में एक भी शक्तिशाली राज्य नहीं था। महमूद ने इन क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा करने का कोई प्रयास नहीं किया। उन दिनों सोमनाथ का मन्दिर अपनी अपार सम्पत्ति के लिए प्रसिद्ध था। उसे लूटने के लिए महमूद मुल्तान से [[राजस्थान]] होते हुए सोमनाथ बिना किसी विशेष बाधा के या विरोध के पहुँच गया। भारत में पंजाब के बाहर यह उसका अन्तिम अभियान था। ग़ज़नी में 1030 ई0 में महमूद की मृत्यु हो गई।
 
 
महमूद को केवल एक लुटेरा कहकर उसकी भूमिका की अनदेखी करना उचित नहीं होगा। पंजाब और मुल्तान पर उसकी विजय से उत्तरी भारत की राजनीतिक स्थिति बिल्कुल बदल गई। अब तुर्क भारत के उत्तर पश्चिमी सीमा की सुरक्षा करने वाले पहाड़ों को पार कर कभी भी गंगा प्रदेश में आक्रमण कर सकते थे। फिर भी वे डेढ़ सौ वर्षों तक इस क्षेत्र को अपने अधिकार में नहीं ले सके। इसका कारण हमें इस काल में मध्य एशिया तथा उत्तर भारत में तेज़ी से होने वाले परिवर्तनों में मिलता है।
 
 
==शक्तिशाली साम्राज्य सेलजुक==
 
==शक्तिशाली साम्राज्य सेलजुक==
 
महमूद की मृत्यु के बाद एक अन्य शक्तिशाली साम्राज्य 'सेलजुक' का अभ्युदय हुआ। सेलजुक साम्राज्य में सीरिया, ईरान तथा ट्राँस-अक्सियाना शामिल थे, इसे ख़ुरासान पर अधिकार ज़माने के लिए ग़ज़नियों का मुक़ाबला करना पड़ा। एक प्रसिद्ध लड़ाई में महमूद का पुत्र 'मसूद' बुरी तरह से पराजित हुआ और शरण के लिए [[लाहौर]] भागा। ग़ज़नवी साम्राज्य अब ग़ज़नी तथा पंजाब तक सीमित हो गया। यद्यपि ग़ज़नवी गंगा घाटी तथा राजपूताना में आकर लूट-पाट करते रहे, फिर भी भारत को उनसे कोई बड़ा सैनिक ख़तरा नहीं रह गया था। इसके साथ-साथ उत्तर भारत में कई नये राज्य स्थापित हुए, जो ग़ज़नवियों के आक्रमणों का मुक़ाबला कर सकते थे।  
 
महमूद की मृत्यु के बाद एक अन्य शक्तिशाली साम्राज्य 'सेलजुक' का अभ्युदय हुआ। सेलजुक साम्राज्य में सीरिया, ईरान तथा ट्राँस-अक्सियाना शामिल थे, इसे ख़ुरासान पर अधिकार ज़माने के लिए ग़ज़नियों का मुक़ाबला करना पड़ा। एक प्रसिद्ध लड़ाई में महमूद का पुत्र 'मसूद' बुरी तरह से पराजित हुआ और शरण के लिए [[लाहौर]] भागा। ग़ज़नवी साम्राज्य अब ग़ज़नी तथा पंजाब तक सीमित हो गया। यद्यपि ग़ज़नवी गंगा घाटी तथा राजपूताना में आकर लूट-पाट करते रहे, फिर भी भारत को उनसे कोई बड़ा सैनिक ख़तरा नहीं रह गया था। इसके साथ-साथ उत्तर भारत में कई नये राज्य स्थापित हुए, जो ग़ज़नवियों के आक्रमणों का मुक़ाबला कर सकते थे।  
पंक्ति 72: पंक्ति 63:
  
 
परमार शासकों की राजधानी [[उज्जैन]] भी संस्कृत ज्ञान के केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध थी। इसके अलावा इन क्षेत्रों की प्रतिनिधि भाषाओं, [[अपभ्रंश]] और [[प्राकृत]], में भी रचनाएँ की गईं। इस कार्य में जैन विद्वानों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनमें से सबसे प्रसिद्ध [[हेमचन्द्र]] थे जिन्होंने संस्कृत के अलावा अपभ्रंश में भी रचनाएँ कीं। ब्राह्मणों के शक्तिशाली होने के बाद उच्च वर्गों में अपभ्रंश और प्राकृत का स्थान संस्कृत ने ले लिया। इसके बावजूद ऐसी भाषा जो जनभाषा के क़रीब थी प्रचलित रही और उसमें रचनाएँ होती रहीं। इन लोकप्रिय भाषाओं से [[हिन्दी भाषा|हिन्दी]], [[बंग्ला भाषा|बंगला]], [[मराठी भाषा|मराठी]] जैसी उत्तर भारत की आधुनिक भाषाओं का विकास आरम्भ हो गया।
 
परमार शासकों की राजधानी [[उज्जैन]] भी संस्कृत ज्ञान के केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध थी। इसके अलावा इन क्षेत्रों की प्रतिनिधि भाषाओं, [[अपभ्रंश]] और [[प्राकृत]], में भी रचनाएँ की गईं। इस कार्य में जैन विद्वानों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनमें से सबसे प्रसिद्ध [[हेमचन्द्र]] थे जिन्होंने संस्कृत के अलावा अपभ्रंश में भी रचनाएँ कीं। ब्राह्मणों के शक्तिशाली होने के बाद उच्च वर्गों में अपभ्रंश और प्राकृत का स्थान संस्कृत ने ले लिया। इसके बावजूद ऐसी भाषा जो जनभाषा के क़रीब थी प्रचलित रही और उसमें रचनाएँ होती रहीं। इन लोकप्रिय भाषाओं से [[हिन्दी भाषा|हिन्दी]], [[बंग्ला भाषा|बंगला]], [[मराठी भाषा|मराठी]] जैसी उत्तर भारत की आधुनिक भाषाओं का विकास आरम्भ हो गया।
 
 
==उत्तर भारत पर तुर्कों की विजय==
 
==उत्तर भारत पर तुर्कों की विजय==
 
[[पंजाब]] में ग़ज़नवियों के बाद हिन्दू और मुसलमानों के बीच दो विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध स्थापित हुए। एक तो लूट की लालसा थी जिसके परिणाम स्वरूप महमूद के उत्तराधिकारियों ने गंगा घाटी और राजपूताना में कई बार आक्रमण किए। राजपूत शासकों ने इन आक्रमणों का डट कर मुक़ाबला किया और कई बार तुर्कों को पराजित भी किया। लेकिन अब तक ग़ज़नवी साम्राज्य की शक्ति क्षीण हो चुकी थी और तुर्कों को कई बार पराजित कर राजपूत शासक चैन से बैठ गए। दूसरे स्तर पर मुसलमान व्यापारियों को न केवल स्वीकृति दी गई वरन उनका स्वागत भी किया गया क्योंकि उनके माध्यम से मध्य और पश्चिम एशिया के साथ भारत के व्यापार को बहुत बढ़ावा मिलता था और इससे इन राज्यों की आय भी बढ़ती थी। इस कारण उत्तर भारत के कुछ नगरों में मुसलमान व्यापारियों की कई बस्तियाँ स्थापित हो गईं। व्यापारियों के पीछे-पीछे कई मुसलमान धर्म प्रचारक भी आए जिन्होंने यहाँ [[सूफ़ी मत]] का प्रचार किया। इस प्रकार इस्लाम और हिन्दू समाज तथा और धर्मों में सम्पर्क स्थापित हुआ और वे दोनों एक दूसरे से प्रभावित हुए। लाहौर, [[अरबी भाषा|अरबी]] तथा [[फ़ारसी भाषा]] और साहित्य का केन्द्र बन गया। तिलक जैसे हिन्दू सेनापतियों ने ग़ज़नवियों की सेना का नेतृत्व किया। ग़ज़नवियों की सेना में हिन्दू, सिपाही भी भर्ती होते थे।  
 
[[पंजाब]] में ग़ज़नवियों के बाद हिन्दू और मुसलमानों के बीच दो विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध स्थापित हुए। एक तो लूट की लालसा थी जिसके परिणाम स्वरूप महमूद के उत्तराधिकारियों ने गंगा घाटी और राजपूताना में कई बार आक्रमण किए। राजपूत शासकों ने इन आक्रमणों का डट कर मुक़ाबला किया और कई बार तुर्कों को पराजित भी किया। लेकिन अब तक ग़ज़नवी साम्राज्य की शक्ति क्षीण हो चुकी थी और तुर्कों को कई बार पराजित कर राजपूत शासक चैन से बैठ गए। दूसरे स्तर पर मुसलमान व्यापारियों को न केवल स्वीकृति दी गई वरन उनका स्वागत भी किया गया क्योंकि उनके माध्यम से मध्य और पश्चिम एशिया के साथ भारत के व्यापार को बहुत बढ़ावा मिलता था और इससे इन राज्यों की आय भी बढ़ती थी। इस कारण उत्तर भारत के कुछ नगरों में मुसलमान व्यापारियों की कई बस्तियाँ स्थापित हो गईं। व्यापारियों के पीछे-पीछे कई मुसलमान धर्म प्रचारक भी आए जिन्होंने यहाँ [[सूफ़ी मत]] का प्रचार किया। इस प्रकार इस्लाम और हिन्दू समाज तथा और धर्मों में सम्पर्क स्थापित हुआ और वे दोनों एक दूसरे से प्रभावित हुए। लाहौर, [[अरबी भाषा|अरबी]] तथा [[फ़ारसी भाषा]] और साहित्य का केन्द्र बन गया। तिलक जैसे हिन्दू सेनापतियों ने ग़ज़नवियों की सेना का नेतृत्व किया। ग़ज़नवियों की सेना में हिन्दू, सिपाही भी भर्ती होते थे।  

10:52, 28 अगस्त 2010 का अवतरण

प्रतीक्षा
इस पन्ने पर सम्पादन का कार्य चल रहा है। कृपया प्रतीक्षा करें यदि 10 दिन हो चुके हों तो यह 'सूचना साँचा' हटा दें या दोबारा लगाएँ।
सूचना साँचा लगाने का समय → 12:45, 22 अगस्त 2010 (IST)

भारत और विश्व का परिदृश्य

आठवीं शताब्दी के बाद यूरोप और एशिया में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इनसे न केवल यूरोप और एशिया के सम्बन्धों में, बल्कि लोगों के रहन-सहन और उनकी विचारधारा पर भी, दूरगामी प्रभाव पड़े। प्राचीन रोमन साम्राज्य और भारत के बीच बड़ी मात्रा में व्यापार होने के कारण इन परिवर्तनों का प्रभाव अपरोक्ष रूप से भारत पर भी पड़ा। इस समय विश्व का परिदृश्य इस प्रकार था- यूरोप में छठी शताब्दी के उत्तरार्ध के आरम्भ में शक्तिशाली रोमन साम्राज्य दो हिस्सों में बंट गया था। पश्चिमी भाग में, जिसकी राजधानी रोम थी, रूस और जर्मनी की ओर से बहुत बड़ी संख्या में स्लाव और जर्मन क़बीले के लोगों के आक्रमण हुए। पश्चिमी यूरोप में रोमन साम्राज्य के विघटन के बाद एक नये प्रकार के समाज और एक नई शासन व्यवस्था का जन्म हुआ। इस नयी व्यवस्था को सामंतवाद कहा जाता है। इस्लाम के उदय से अरब में हमेशा आपस में लड़ने वाले क़बीले एकजुट होकर एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में आगे आए। चीन में आठवीं और नौवी शताब्दी में तांग शासन के काल में वहाँ की सभ्यता और संस्कृति अपने शिखर पर थी।

तीन साम्राज्यों का युग आठवीं से दसवीं शताब्दी

सात सौ पचास और एक हज़ार ईस्वी के बीच उत्तर तथा दक्षिण भारत में कई शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ। नौंवीं शताब्दी तक पूर्वी और उत्तरी भारत में पाल साम्राज्य तथा दसवीं शताब्दी तक पश्चिमी तथा उत्तरी भारत में प्रतिहार साम्राज्य शक्तिशाली बने रहे। राष्ट्रकूटों का प्रभाव दक्कन में तो था ही, कई बार उन्होंने उत्तरी और दक्षिण भारत में भी अपना प्रभुत्व क़ायम किया। यद्यपि ये तीनों साम्राज्य आपस में लड़ते रहते थे तथापि इन्होंने एक बड़े भू-भाग में स्थिरता क़ायम रखी और साहित्य तथा कलाओं को प्रोत्साहित किया।

इस युग की एक और महत्वपूर्ण बात राज्य और धर्म के बीच सम्बन्ध है। इस युग के कई शासक शैव और वैष्णव और कई बौद्ध और जैन धर्म को मानने वाले थे। वे ब्राह्मणों, बौद्ध बिहारों और जैन मन्दिरों को उदारतापूर्वक दान देते थे, लेकिन वे किसी भी व्यक्ति के प्रति उसके धार्मिक विचारों के लिए भेदभाव नहीं रखते थे और सभी मतावलंबियों को संरक्षण प्रदान करते थे। राष्ट्रकूट नरेशों ने भी मुसलमानों तक का स्वागत किया और उन्हें अपने धर्म प्रचार की स्वीकृति दी। साधारणतः कोई भी राजा धर्मशास्त्रों के नियमों तथा अन्य परम्पराओं में हस्तक्षेप नहीं करता था और इन मामलों में वह पुरोहित की सलाह पर चलता था। लेकिन इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि पुरोहित राज्य के कार्यों में हस्तक्षेप करता था अथवा राजा पर उसका किसी प्रकार का दबाव था। इस युग के धर्मशास्त्रों के महान व्याख्याकार मेधतिथि का कहना है कि राजा के अधिकार व्यंजित करने वाले स्रोत वेद सहित धर्मशास्त्रों के अलावा 'अर्थशास्त्र' भी है। उसका 'राजधर्म' अर्थशास्त्र में निहित सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए। इसका वास्तविक अर्थ यह था कि राजा को राजनीति और धर्म को बिल्कुल अलग-अलग रखना चाहिए और धर्म को राजा का व्यक्तिगत कर्तव्य समझा जाना चाहिए। इस प्रकार उस युग के शासकों पर न तो पुरोहितों और न ही उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म-क़ानून का कोई प्रभाव था। इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि उस युग में राज्य मूलतः धर्म निरपेक्ष थे।

इन तीनों साम्राज्यों में राष्ट्रकूट साम्राज्य सबसे अधिक दीर्घजीवी रहा। यह न केवल अपने समय का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था, वरन इसने आर्थिक तथा सांस्कृतिक मामलों में उत्तर और दक्षिण भारत के बीच सेतु का कार्य किया।

पाल साम्राज्य

हर्ष के समय के बाद से उत्तरी भारत के प्रभुत्व का प्रतीक कन्नौज माना जाता था। बाद में यह स्थान दिल्ली ने प्राप्त कर लिया। पाल साम्राज्य की नींव 750 ई0 में 'गोपाल' नामक राजा ने डाली। बताया जाता है कि उस क्षेत्र में फैली अशान्ति को दबाने के लिए कुछ प्रमुख लोगों ने उसको राजा के रूप में चुना। इस प्रकार राजा का निर्वाचन एक अभूतपूर्व घटना थी। इसका अर्थ शायद यह है कि गोपाल उस क्षेत्र के सभी महत्वपूर्ण लोगों का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो सका और इससे उसे अपनी स्थिति मज़बूत करन में काफी सहायता मिली।

प्रतिहार साम्राज्य

देवपाल के शासन के अन्तिम दिनों में प्रतिहार साम्राज्य की शक्ति बढ़ने लगी। प्रतिहारों का गुजरात अथवा दक्षिण-पश्चिम राजस्थान से सम्बन्ध होने के कारण उन्हें गुर्जर प्रतिहार भी कहा जाता है। ये पाल वंश से कुछ समय पहले ही शक्तिशाली बने। आरम्भ में सम्भवतः ये केवल स्थानीय अधिकारी थे, लेकिन कालान्तर में उन्होंने मध्य तथा पूर्वी राजस्थान के कई क्षेत्रों पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया। इनकी ख्याति तब बढ़ी जब इन्होंने राजस्थान और गुजरात में सिंध के अरबी शासकों के आक्रमण का विरोध किया। गुजरात के एक युद्ध में 738 ई0 में चालुक्यों ने 'म्लच्छों' को निर्णायक रूप से पराजित किया। बताया जाता है कि इसके बाद अरब कभी भी गुजरात में अपना प्रभाव क़ायम नहीं कर सके। इस युद्ध में भाग लेने वाला एक मुख्य व्यक्ति दन्तिदुर्ग था जो बादामी के चालुक्यों का एक सामंत था और जो इस समय दक्षिण में शासक बन बैठा था। बाद में दन्तिदुर्ग ने चालुक्यों को पराजित कर राष्ट्रकूट साम्राज्य की नींव डाली।

राष्ट्रकूट साम्राज्य

जब उत्तरी भारत में पाल और प्रतिहार वंशों का शासन था, दक्कन में राष्टूकूट राज्य करते थे। इस वंश ने भारत को कई योद्धा और कुशल प्रशासक दिए हैं। इस साम्राज्य की नींव 'दन्तिदुर्ग' ने डाली। दन्तिदुर्ग ने 750 ई0 में चालुक्यों के शासन को समाप्त कर आज के शोलापुर के निकट अपनी राजधानी 'मान्यखेट' अथवा 'मानखेड़' की नींव रखी। शीघ्र ही महाराष्ट्र के उत्तर के सभी क्षेत्रों पर राष्ट्रकूटों का आधिपत्य हो गया। गुजरात और मालवा के प्रभुत्व के लिए इन्होंने प्रतिहारों से भी लोहा लिया। यद्यपि इन हमलों के कारण राष्ट्रकूट अपने साम्राज्य का विस्तार गंगा घाटी तक नहीं कर सके तथापि इनमें उन्हें बहुत बड़ी मात्रा में धन राशि मिली और उनकी ख्याति बढ़ी। वंगी (वर्तमान आंध्र प्रदेश) के पूर्वी चालुक्यों और दक्षिण में कांची के पल्लवों तथा मदुरई के पांड्यों के साथ भी राष्ट्रकूटों का बराबर संघर्ष चलता रहा।

चोल साम्राज्य नौवीं से बारहवीं शताब्दी

चोल साम्राज्य का अभ्युदय नौवीं शताब्दी में हुआ और दक्षिण प्राय:द्वीप का अधिकांश भाग इसके अधिकार में था। चोल शासकों ने श्रीलंका पर भी विजय प्राप्त कर ली थी और मालदीव द्वीपों पर भी इनका अधिकार था। कुछ समय तक इनका प्रभाव कलिंग और तुंगभद्र दोआब पर भी छाया था। इनके पास शक्तिशाली नौसेना थी और ये दक्षिण पूर्वी एशिया में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हो सके। चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का निःसन्देह सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। अपनी प्रारम्भिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के बाद क़रीब दो शताब्दियों तक अर्थात बारहवीं ईस्वी के मध्य तक चोल शासकों ने न केवल एक स्थिर प्रशासन दिया, वरन कला और साहित्य को बहुत प्रोत्साहन दिया। कुछ इतिहासकारों का मत है कि चोल काल दक्षिण भारत का 'स्वर्ण युग' था। चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की जो आरम्भ में पल्लवों का एक सामंती सरदार था। उसने 850 ई0 में तंजावुर को अपने अधिकार में कर लिया और पांड्य राज्य पर चढ़ाई कर दी। चोल 897 तक इतने शक्तिशाली हो गए थे कि उन्होंने पल्लव शासक को हराकर उसकी हत्या कर दी और सारे टौंड मंडल पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद पल्लव, इतिहास के पन्नों से विलीन हो गए, पर चोल शासकों को राष्ट्रकूटों के विरुद्ध भयानक संघर्ष करना पड़ा। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने 949 ई0 में चोल सम्राट परंतक प्रथम को पराजित किया और चोल साम्राज्य के उत्तरी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इससे चोल वंश को धक्का लगा लेकिन 965 ई0 में कृष्ण तृतीय की मृत्यु और राष्ट्रकूटों के पतन के बाद वे एक बार फिर उठ खड़े हुए।

छठी शताब्दी के मध्य के बाद दक्षिण भारत में पल्लवों, चालुक्यों तथा पांड्य वंशों का राज्य रहा। पल्लवों की राजधानी कांची, चालुक्यों की बादामी तथा पांड्यों की राजधानी मदुरई थी, जो आधुनिक तंजावुर ज़िले में है और दक्षिण अर्थात केरल में, चेर शासक थे। कर्नाटक क्षेत्र में कदम्ब तथा गंगवंशों का शासन था। इस युग के अधिकतर समय में गंगा शासक राष्ट्रकूटों के अधीन थे या उनसे मिलते हुए थे। राष्ट्रकूट इस समय महाराष्ट्र क्षेत्र में सबसे अधिक प्रभावशाली थे। पल्लव, पांड्य तथा चेर आपस में तथा मिलकर राष्ट्रकूटों के विरुद्ध संघर्षरत थे। इनमें से कुछ शासकों विशेषकर पल्लवों के पास शक्तिशाली नौसेनाएँ भी थीं। पल्लवों के दक्षिण पूर्व एशिया के साथ बड़े पैमाने पर व्यापारिक सम्बन्ध थे और उन्होंने व्यापार तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों को बढ़ाने के लिए कई राजदूत भी चीन भेजे। पल्लव अधिकतर शैव मत के अनुयायी थे और इन्होंने आधुनिक मद्रास के निकट महाबलीपुरम में कई मन्दिरों का निर्माण किया।

आर्थिक सामाजिक जीवन, शिक्षा तथा धर्म 800 ई0 से 1200 ई0

इस काल में भारतीय समाज में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इनमें से एक यह था कि विशिष्ट वर्ग के लोगों की शक्ति बहुत बढ़ी जिन्हें 'सामंत', 'रानक' अथवा 'रौत्त' (राजपूत) आदि पुकारा जाता था। इस काल में भारतीय दस्तकारी तथा खनन कार्य उच्च स्तर का बना रहा तथा कृषि भी उन्नतिशील रही। भारत आने वाले कई अरब यात्रियों ने यहाँ की ज़मीन की उर्वरता और भारतीय किसानों की कुशलता की चर्चा की है। पहले से चली आ रही वर्ण व्यवस्था इस युग में भी क़ायम रही। स्मृतियों के लेखकों ने ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर तो कहा ही, शूद्रों की सामाजिक और धार्मिक अयोग्यता को उचित ठहराने में तो वे पिछले लेखकों से कहीं आगे निकल गए।

इस काल में भी स्त्रियों को मानसिक स्तर पर नीचा माना जाता था। इनका कर्तव्य मूलतः बिना कुछ सोचे समझे अपने पति की आज्ञा का पालन था। एक लेखक ने स्त्री के अपने पति के प्रति कर्तव्य के बारे में कहा है कि उसे अपने पति के पैरों को धोना चाहिए और नौकर की तरह उसकी पूरी सेवा करनी चाहिए। लेकिन उसने पति के कर्तव्य के बारे में भी कहा है कि उसे धर्म के पथ पर चलना चाहिए और अपनी पत्नी के प्रति घृणा तथा ईर्ष्या के भाव से मुक्त रहना चाहिए। विवाह के बारे में स्मृतियों में कहा गया कि माँ-बाप को अपनी लड़कियों का विवाह छः और आठ वर्ष से बीच की आयु, अर्थात यौवनारम्भ, के पहले ही कर देना चाहिए। पति द्वारा पत्नी के त्याग (अर्थात जब उसका कुछ अता-पता नहीं चलता हो), उसकी (पति की) मृत्यु, उसके द्वारा सन्यास ग्रहण, समाज द्वारा बहिष्कार तथा उसके नपुंसक होने जैसी कुछ विशेष स्थितियों में स्त्री को पुनर्विवाह की स्वीकृति थी।

इस काल में पुरुषों और स्त्रियों के पहनावे में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। पहले की तरह अब भी पुरुष आम तौर पर धोती तथा स्त्रियाँ साड़ी पहनती थीं। इसके अतिरिक्त उत्तर भारत में पुरुष जैकेट तथा स्त्रियाँ चोली पहनती थीं। उस समय की मूर्तियों को देखने से पता चलता है कि उत्तरी भारत में उच्च वर्ग के लोग लम्बे कोट, पैंट तथा जूते पहनते थे। उन दिनों सामूहिक शिक्षा की धारणा ने जन्म नहीं लिया था और लोग वही सीखते थे जो उनके जीवनयापन के लिए आवश्यक था। पढ़ना-लिखना कुछ ही लोगों में सीमित था। जिनमें अधिकतर ब्राह्मण या उच्च वर्ग के लोग थे। गाँव मे पढ़ना लिखना वहाँ का ब्राह्मण सिखाता था। बच्चे अधिकतर मन्दिरों में पढ़ते थे जो भूमि-अनुदान पर निर्भर करते थे। ज्ञानी ब्राह्मणों को भूमि दान में देना धार्मिक कृत्य माना जाता था।

संघर्ष का युग लगभग 1000 ई0 से 1200 ई0 तक

पश्चिम के साथ-साथ मध्य एशिया तथा उत्तर भारत में भी 1000 ई. तथा 1200 ई. के बीच तेज़ी के साथ परिवर्तन हुए। इन्हीं परिवर्तनों के परिणमस्वरूप इस काल के अन्त में उत्तर भारत में तुर्कों के आक्रमण हुए। नौवीं शताब्दी के अन्त तक अब्बासी ख़लिफ़ों का पतन आरम्भ हो गया था। उनका साम्राज्य अब छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया था, जिन पर मुसलमान तुर्कों का शासन था। तुर्क, अब्बासी साम्राज्य में महल रक्षकों तथा पेशेवर सैनिकों के रूप में आए थे। लेकिन शीघ्र ही इतने शक्तिशाली बन गए कि नियुक्ति पर भी उनका अधिकार हो गया। जैसे-जैसे केन्द्रीय सरकार की शक्ति कम होती गई, प्रान्तीय शासक अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करने लगे, यद्यपि कुछ समय तक इस पर एकता का पर्दा पड़ा रहा, क्योंकि सफल सरदारों को, जो किसी क्षेत्र में अपना अधिकार जमाने में सफल हो जाते थे, ख़लीफ़ा ही औपचारिक रूप से 'अमीर-उल-उमरा' (सेनापतियों का सेनापति) की पदवी देता था। ये शासक पहले 'अमीर' की, पर बाद में 'सुल्तान' की पदवी ग्रहण करने लगे।

इस युग में अशान्ति और संघर्ष के कई कारण थे। मध्य एशिया से तुर्क क़बीलों के बराबर आक्रमण हो रहे थे। अधिकतर तुर्क सैनिक पेशेवर थे जो असफल शासक का साथ छोड़ देने में ज़रा भी हिचकिचाते नहीं थे। इसके अलावा विभिन्न क्षेत्रों तथा मुसलमानों के विभिन्न सम्प्रदायों में भी बराबर संघर्ष चलता रहता था। एक के बाद एक साम्राज्य स्थापित होते गए और उतनी ही जल्दी उनका पतन होता गया। ऐसी स्थिति में केवल ऐसा व्यक्ति उभर कर आ सकता था जो योद्धा और नेता होने के साथ-साथ षड़यंत्र में भी अत्यन्त कुशल हो।

तुर्क क़बीले अपने साथ बेरहम लूटपाट तथा युद्ध की ऐसी प्रथा लाए जिसमें हर प्रकार के षड़यंत्र और चाल को उचित समझा जाता था। इन्होंने एक नयी प्रकार की युद्धनीति शुरू की। जिसमें प्रमुख भूमिका भारी अस्त्रशस्त्रों से लैस घुड़सवार सैनिकों की होती थी, जो तेज़ी से आगे-पीछे सरक सकते थे और घोड़े की पीठ से ही तीरों की बौछार कर सकते थे। यह लोहे की रक़ाबों से ही सम्भव था। 'लोहे की रक़ाबों' तथा एक नए तरह की 'लगाम' के कारण युद्धनीति में इस तरह का परिवर्तन आया। इसी बीच गुर्जर-प्रतिहारों के साम्राज्य के विघटन से उत्तरी भारत कई छोट-छोटे राज्यों में बंट गया जिनके शासकों के पास इस नई युद्ध नीति के महत्व को समझने तथा उसका मुक़ाबला करने के न तो साधन थे और न ही इच्छा थी।

महमूद ग़ज़नवी

इसी प्रक्रिया के दौरान ग़ज़नी के सिंहासन पर महमूद (998-1030) बैठा। मध्ययुगीन इतिहासकारों ने मध्य एशिया के क़बीलाई आक्रमणकारियों से वीरता से संघर्ष करने के कारण महमूद को इस्लाम का योद्धा माना है। इसके अलावा इस समय ईरानी संस्कृति का जो पुनर्जागरण हुआ, उसके साथ महमूद का गहरा सम्पर्क था। गर्वीले ईरानियों ने कभी भी अरबों की भाषा और संस्कृति नहीं अपनायी। समानी साम्राज्य में फ़ारसी भाषा और साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया गया। 'फ़िरदौसी' की 'शाहनामा' के साथ ईरानी साहित्य अपने शिखर पर पहुँच गया। फ़िरदौसी महमूद के दरबार में राज कवि था। उसने यह दिखाने की चेष्टा की कि ईरान और तूरान का संघर्ष बहुत प्राचीन युग में भी था और उसने ईरानी योद्धाओं को अपने साहित्य में गौरवशाली बनाया। इस काल में ईरानी देशप्रेम का इतना उभार हुआ कि महमूद ने भी स्वयं को प्राचीन ईरानी किंवदन्तियों में चर्चित राजा 'अफ़रासियाब' का वंशज होने का दावा किया। फ़ारसी भाषा सारे ग़ज़नवी साम्राज्य की भाषा बन गई। इस प्रकार तुर्क न केवल मुसलमान वरन फ़ारसी भी बन गए। इसी संस्कृति को दो शताब्दियों के बाद वे भारत लाए।

माना जाता है कि महमूद ने न केवल तुर्क क़बीलों के विरुद्ध इस्लामी राज्य की रक्षा की वरन ईरानी संस्कृति के पुनर्जागरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन भारत में वह केवल एक लुटेरे के रूप में याद किया जाता है। कहा जाता है कि महमूद ने भारत पर सत्रह बार आक्रमण किया। आरम्भ में उसने पेशावर और पंजाब के हिन्दू शाही शासकों के ख़िलाफ़ युद्ध किया। उसने मुल्तान के मुस्लिम शासकों के विरुद्ध भी युद्ध किया क्योंकि वे इस्लाम के उस सम्प्रदाय को मानने वाले थे जिनका महमूद कट्टर विरोधी था। हिन्दुशाही राज्य पंजाब से लेकर आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान तक फैला हुआ था और उनके शासक ग़ज़नी में एक स्वतंत्र शक्तिशाली राज्य से उत्पन्न होने वाले ख़तरों को बखूबी समझते थे। हिन्दुशाही शासक जयपाल ने समानी शासन के अंतर्गत भूतपर्व गवर्नर के पुत्र के साथ मिलकर ग़ज़नी पर चढ़ाई भी की थी, लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा। उसने अगले वर्ष फिर चढ़ाई की और फिर पराजित हुआ। इन लड़ाइयों में युवराज के रूप में महमूद ने सक्रिय भाग लिया था।

शक्तिशाली साम्राज्य सेलजुक

महमूद की मृत्यु के बाद एक अन्य शक्तिशाली साम्राज्य 'सेलजुक' का अभ्युदय हुआ। सेलजुक साम्राज्य में सीरिया, ईरान तथा ट्राँस-अक्सियाना शामिल थे, इसे ख़ुरासान पर अधिकार ज़माने के लिए ग़ज़नियों का मुक़ाबला करना पड़ा। एक प्रसिद्ध लड़ाई में महमूद का पुत्र 'मसूद' बुरी तरह से पराजित हुआ और शरण के लिए लाहौर भागा। ग़ज़नवी साम्राज्य अब ग़ज़नी तथा पंजाब तक सीमित हो गया। यद्यपि ग़ज़नवी गंगा घाटी तथा राजपूताना में आकर लूट-पाट करते रहे, फिर भी भारत को उनसे कोई बड़ा सैनिक ख़तरा नहीं रह गया था। इसके साथ-साथ उत्तर भारत में कई नये राज्य स्थापित हुए, जो ग़ज़नवियों के आक्रमणों का मुक़ाबला कर सकते थे।

राजपूत राज्य

राजपूत नाम के नये वर्ग के उदय के साथ ही प्रतिहार साम्राज्य के विघटन के बाद उत्तर भारत में कई राजपूत राज्यों की नींव पड़ी। इनमें सबसे प्रमुख कन्नौज के गहदवाल, मालवा के परमार तथा अजमेर के चौहान थे। देश के अन्य क्षेत्रों में और भी छोटे-छोटे राज्य थे। जैसे आधुनिक जबलपुर के निकट कलचुरी, बुंदेलखण्ड में चंदेल, गुजरात में चालुक्य तथा दिल्ली में तोमर वंशों का शासन था। बंगाल पर पहले पाल वंश का अधिकार था, बाद में सेन वंश का अधिकार हुआ। उत्तरकालीन पाल शासकों में सबसे महत्वपूर्ण 'महीपाल' था। जिसने उत्तरी भारत में महमूद के आक्रमण के समय क़रीब पचास वर्षों तक राज किया। इस काल में उसने अपने राज्य का विस्तार बंगाल के अलावा बिहार में भी किया। उसने कई नगरों का निर्माण किया तथा कई पुराने धार्मिक भवनों की मरम्मत करवाई, जिनमें से कुछ नालन्दा तथा बनारस में थे। उसकी मृत्यु के बाद कन्नौज के गहदवालों ने बिहार से धीरे-धीरे पालों के अधिकार को समाप्त कर दिया और बनारस को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। इसी दौरान चौहान अपने साम्राज्य का विस्तार अजमेर से लेकर गुजरात की ओर कर रहे थे। वे दिल्ली और पंजाब की ओर भी बढ़ रहे थे। इस प्रयास में उन्हें गहदवालों का सामना करना पड़ा। इन्ही आपसी संघर्षों के कारण राजपूत पंजाब से ग़ज़नवियों को बाहर निकालने में असफल रहे। उनकी कमज़ोरी का लाभ उठाकर ग़ज़नवियों ने उज्जैन पर भी आक्रमण किया।

इन राज्यों में भी सामंतवादी व्यवस्था का प्रभाव था। राजपूत समाज का मुख्य आधार वंश था। हर वंश अपने को एक योद्धा का वंशज बताता था, जो वास्तविक भी हो सकता था और काल्पनिक भी। अलग-अलग वंश अलग-अलग क्षेत्रों पर शासन करते थे। इनके राज्यों के अंतर्गत 12, 24, 48 या 84 ग्राम आते थे। राजा इन ग्रामों की भूमि अपने सरदारों में बाँट देता था जो फिर इसी तरह अपने हिस्से की भूमि को राजपूत योद्धाओं को, अपने परिवारों और घोड़ों के रख-रखाव के लिए बाँट देते थे। राजपूतों की प्रमुख विशेषता अपनी भूमि, परिवार और अपने मान-सम्मान के साथ लगाव था। हर राजपूत राज्य का राजा अधिकतर अपने भाइयों की सहायता से शासन करता था। यद्यपि सारी भूमि पर राजा का ही अधिकार था। भूमि पर नियंत्रण को सम्मान की बात समझने के कारण विद्रोह अथवा उत्तराधिकारी के न होने जैसी विशेष स्थितियों में ही राजा ज़मीन वापस ले लेता था।

राजपूतों की समाज व्यवस्था के लाभ भी थे और नुकसान भी। लाभ तो यह था कि राजपूतों में भाईचारे और समानता की भावना व्याप्त थी, पर दूसरी ओर इसी भावना के कारण उनमें अनुशासन लाना कठिन था। उनकी दूसरी कमज़ोरी आपसी संघर्ष था, जो पुश्तों तक चलता था। पर उनकी मूल कमज़ोरी यह थी कि वे अपने ही अलग गुट बनाते और दूसरों से श्रेष्ठ होने का दावा करते थे। वे भाईचारे की भावना में ग़ैर राजपूतों को शामिल नहीं करते थे। इससे शासन करने वाले राजपूतों और आम जनता, जो अधिकतर राजपूत नहीं थी, के बीच अन्तर बढ़ता गया। आज भी राजपूत राजस्थान की आबादी के कुल दस प्रतिशत हैं। ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दी में भी राजपूतों तथा उनके द्वारा शासित प्रदेशों की पूरी आबादी के बीच यही अनुपात रहा होगा।

उस काल में अधिकतर राजपूत राजा हिन्दू थे यद्यपि कुछ जैन धर्म के भी समर्थक थे। वे ब्राह्मण और मन्दिरों को बड़ी मात्रा में धन और भूमि का दान करते थे। वे वर्ण व्यवस्था तथा ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के पक्ष में थे। इसलिए कुछ राजपूती राज्यों में तो भारत की स्वतंत्रता और भारतीय संघ में उनके विलय तक ब्राह्मणों से अपेक्षाकृत कम लगान वसूल किया जाता था। इन विशेषाधिकारों के बदले ब्राह्मण राजपूतों को प्राचीन सूर्य और चन्द्रवंशी क्षत्रियों के वंशज मानने को तैयार थे।

भव्यों मन्दिरों का निर्माण

आठवीं शताब्दी के बाद और विशेषकर दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच का काल मन्दिर निर्माण कला का चरमोत्कर्ष माना जा सकता है। आज हम जिन भव्यों मन्दिरों को देखते हैं, उनमें से अधिकतर उसी काल में बनाये गए थे। इस काल की मन्दिर निर्माण कला की मुख्य शैली 'नागर' नाम से जानी जाती है। यद्यपि इस शैली के मन्दिर सारे भारत में पाए जाते हैं तथापि इनके मुख्य केन्द्र उत्तर भारत और दक्कन में थे। इसकी प्रमुख विशेषता 'प्रतिमा-कक्ष' (जिसे गर्भगृह कहा जाता है) के ऊपर की छत थी, जो गोल और बड़ी होती थी। यद्यपि इसके हर तरफ़ प्रक्षेप हो सकते थे। 'प्रतिमा कक्ष' से लगा एक और कमरा होता था जिसे 'मंडप' कहते थे और कभी-कभी मन्दिर के चारों ओर बड़ी-बड़ी दीवारें होती थीं जिनमें बड़े-बड़े फाटक थे। इस शैली के प्रमुख उदाहरण मध्य प्रदेश में खजुराहो तथा उड़ीसा में भुवनेश्वर के मन्दिर हैं। विश्वनाथ मन्दिर तथा खजुराहो का कंदरिया महादेव का मन्दिर इस शैली के उत्कृष्ट और सुन्दरतम उदाहरण हैं। इन मन्दिरों पर बारीक खुदाइयों से पता चलता है कि इस काल में मूर्ति कला अपने शिखर पर थी। इनमें से अधिकतर मन्दिरों का निर्माण चंदेलों ने किया था जो इस क्षेत्र में नवीं शताब्दी के आरम्भ से लेकर तेरहवीं शताब्दी के अन्त तक राज्य करते रहे। उड़ीसा में इस काल के मन्दिर निर्माण का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण कोणार्क का सूर्य मन्दिर (13 वीं शताब्दी) तथा लिंगराज मन्दिर (11 वीं शताब्दी में निर्मित) हैं। पुरी का प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर भी इसी काल की देन है।

उत्तर भारत के और स्थानों में मथुरा, वाराणसी, दिलवाड़ा (आबू) आदि में भी बड़ी संख्या में मन्दिरों का निर्माण हुआ। दक्षिण भारत की तरह यहाँ भी मन्दिर और अधिक होते गए। ये सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के केन्द्र भी थे। इनमें से सोमनाथ मन्दिर जैसे कुछ मन्दिरों ने अपार सम्पत्ति इकट्ठी कर ली। ये कई गाँव पर शासन करने लगे। उन्होंने व्यापार में भी भाग लिया।

राजपूत शासक कला और साहित्य को बढ़ावा देते थे। इस काल में संस्कृत की कई पुस्तकों और नाटकों की रचना हुई। चालुक्य का प्रसिद्ध मंत्री, 'भीम' न केवल विद्वानों को संरक्षण देता था बल्कि स्वयं भी एक लेखक था। उसने आबू के सुन्दर जैन मन्दिर का निर्माण करवाया।

परमार शासकों की राजधानी उज्जैन भी संस्कृत ज्ञान के केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध थी। इसके अलावा इन क्षेत्रों की प्रतिनिधि भाषाओं, अपभ्रंश और प्राकृत, में भी रचनाएँ की गईं। इस कार्य में जैन विद्वानों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनमें से सबसे प्रसिद्ध हेमचन्द्र थे जिन्होंने संस्कृत के अलावा अपभ्रंश में भी रचनाएँ कीं। ब्राह्मणों के शक्तिशाली होने के बाद उच्च वर्गों में अपभ्रंश और प्राकृत का स्थान संस्कृत ने ले लिया। इसके बावजूद ऐसी भाषा जो जनभाषा के क़रीब थी प्रचलित रही और उसमें रचनाएँ होती रहीं। इन लोकप्रिय भाषाओं से हिन्दी, बंगला, मराठी जैसी उत्तर भारत की आधुनिक भाषाओं का विकास आरम्भ हो गया।

उत्तर भारत पर तुर्कों की विजय

पंजाब में ग़ज़नवियों के बाद हिन्दू और मुसलमानों के बीच दो विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध स्थापित हुए। एक तो लूट की लालसा थी जिसके परिणाम स्वरूप महमूद के उत्तराधिकारियों ने गंगा घाटी और राजपूताना में कई बार आक्रमण किए। राजपूत शासकों ने इन आक्रमणों का डट कर मुक़ाबला किया और कई बार तुर्कों को पराजित भी किया। लेकिन अब तक ग़ज़नवी साम्राज्य की शक्ति क्षीण हो चुकी थी और तुर्कों को कई बार पराजित कर राजपूत शासक चैन से बैठ गए। दूसरे स्तर पर मुसलमान व्यापारियों को न केवल स्वीकृति दी गई वरन उनका स्वागत भी किया गया क्योंकि उनके माध्यम से मध्य और पश्चिम एशिया के साथ भारत के व्यापार को बहुत बढ़ावा मिलता था और इससे इन राज्यों की आय भी बढ़ती थी। इस कारण उत्तर भारत के कुछ नगरों में मुसलमान व्यापारियों की कई बस्तियाँ स्थापित हो गईं। व्यापारियों के पीछे-पीछे कई मुसलमान धर्म प्रचारक भी आए जिन्होंने यहाँ सूफ़ी मत का प्रचार किया। इस प्रकार इस्लाम और हिन्दू समाज तथा और धर्मों में सम्पर्क स्थापित हुआ और वे दोनों एक दूसरे से प्रभावित हुए। लाहौर, अरबी तथा फ़ारसी भाषा और साहित्य का केन्द्र बन गया। तिलक जैसे हिन्दू सेनापतियों ने ग़ज़नवियों की सेना का नेतृत्व किया। ग़ज़नवियों की सेना में हिन्दू, सिपाही भी भर्ती होते थे।

ये दोनों प्रक्रियाएँ बराबर जारी रहतीं, यदि इसी बीच मध्य एशिया की राजनीतिक स्थिति में एक बहुत बड़ा परिवर्तन न होता। बारहवीं शताब्दी के मध्य तक तुर्की क़बीलों के एक और दल ने, जो कुछ हद तक बौद्ध और कुछ हद तक विधर्मी था, सेलजुक तुर्कों को उखाड़ का। इस प्रकार जो स्थान रिक्त हुआ उसमें दो नयी शक्तियाँ - ख्वारिज़मी और ग़ोरी का उदय हुआ। ख्वारिज़मी साम्राज्य का आधार ईरान था तथा ग़ोरी साम्राज्य का आधार उत्तर-पश्चिम अफ़ग़ानिस्तान। ग़ोरी आरम्भ में ग़ज़नी के 'सामंत' थे, पर शीघ्र ही ये इस बोझ को उठा फेंकने में सफल हो गए। ग़ोरियों की शक्ति सुल्तान अलाउद्दीन के समय बहुत बढ़ी। उसे 'संसार को जलाने वाला' कहा जाता था। क्योंकि उसने भाइयों के साथ किए गए दुर्व्यवहार के बदले के रूप में सारी ग़ज़नी को जलाकर ख़ाक में मिला दिया था। ख्वारिज़मी शासकों के कारण ग़ोरी मध्य एशिया में अपने पाँव जमाने की इच्छा को पूरा नहीं कर सके। उन दोनों के बीच झगड़े की जड़ - ख़ुरासान पर ख्वारिज़मी शाह ने अधिकार कर लिया। इससे ग़ोरियों के लिए भारत की ओर बढ़ने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था।

मुइज्जुद्दीन मुहम्मद बिन कासिम

शहाबुद्दीन मुहम्मद (जिसे मुइज्जुद्दीन मुहम्मद-बिन-कासिम के नाम से जाना जाता है) 1173 ई. में ग़ज़नी की गद्दी (1173-1206) पर बैठा। इन दिनों उसका बड़ा भाई ग़ोरे का शासक था। गोमल दर्रे से होता हुआ मुइज्जुद्दीन मुहम्मद सुल्तान और उच्छ तक आया और उन स्थानों को अपने अधीन कर लिया। उसने 1178 ई0 में राजपूताना रेगिस्तान के रास्ते गुजरात पहुँचने की कोशिश की, लेकिन गुजरात के शासक ने आबू पहाड़ के निकट हुए युद्ध में उसे इतनी बुरी तरह हराया कि मुइज्जुद्दीन मुहम्मद की जान पर बन आई, इस युद्ध के परिणामस्वरूप उसने महसूस किया कि भारत में आक्रमण के लिए पंजाब को आधार बनाना आवश्यक है। परिणामस्वरूप उसने पंजाब में ग़ज़नवियों के अधिकार को समाप्त करने की चेष्टा की और 1179-80 में पेशावर पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद उसका लक्ष्य लाहौर था। लाहौर को भी उसने कई अभियानों के बाद 1186 में जीत लिया। इसके बाद उसने देबल तथा स्यालकोट के क़िलों पर भी क़ब्ज़ा किया। इस प्रकार 1190 तक मुइज्जुद्दीन मुहम्मद बिन साम दिल्ली और गंगा दोआब पर बड़े आक्रमण के लिए तैयार हो गया। लेकिन इस बीच उत्तर भारत में भी घटनाएँ स्थिर नहीं थी। यहाँ चौहानों की शक्ति धीरे-धीरे बढ़ रही थी। उन्होंने राजस्थान पर पंजाब की ओर से हमला करने वाले तुर्कों को बड़ी संख्या में मार दिया और उनके हमलों को नाकाम कर दिया। वे इस शताब्दी के मध्य तक तोमरों से दिल्ली छीनने में भी सफल हो गए थे। पंजाब की बढ़ती चौहानों की शक्ति से इस क्षेत्र के ग़ज़नवी शासकों के साथ उनका संघर्ष होना तय ही था।

पृथ्वीराज चौहान

जब मुइज्जुद्दीन मुहम्मद मुल्तान और उच्छ पर अधिकार करने की चेष्टा कर रहा था, एक चौदह साल का लड़का, पृथ्वीराज अजमेर की गद्दी पर बैठा। पृथ्वीराज के बारे में कई कहानियाँ मशहूर हैं।

युवा पृथ्वीराज ने आरम्भ से ही साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाई। पहले अपने सगे-सम्बन्धियों के विरोध को समाप्त कर उसने राजस्थान के कई छोटे राज्यों को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। फिर उसने बुंदेलखण्ड पर चढ़ाई की तथा महोबा के निकट एक युद्ध में चदेलों को पराजित किया। इसी युद्ध में प्रसिद्ध भाइयों, आल्हा और ऊदल ने महोबा को बचाने के लिए अपनी जान दे दी। पृथ्वीराज ने उन्हें पराजित करने के बावजूद उनके राज्य को नहीं हड़पा। इसके बाद उसने गुजरात पर आक्रमण किया, पर गुजरात के शासक 'भीम द्वितीय' ने, जो पहले मुइज्जुद्दीन मुहम्मद को पराजित कर चुका था, पृथ्वीराज को मात दी। इस पराजय से बाध्य होकर पृथ्वीराज को पंजाब तथा गंगा घाटी की ओर मुड़ना पड़ा।

तराइन की लड़ाई

इस प्रकार पृथ्वीराज और मुइज्जुद्दीन मुहम्मद, दो महत्वाकांक्षी शासकों के बीच युद्ध अवश्यंभावी हो गया। संघर्ष तबारहिन्द (भटिंडा) पर दोनों के दावों को लेकर आरम्भ हुआ। तराइन में 1191 में जो युद्ध हुआ उसमें ग़ोरी सेना के पाँव उखड़ गए और स्वयं मुइज्जुद्दीन मुहम्मद की जान एक युवा ख़िलज़ी घुड़सवार ने बचाई। पृथ्वीराज अब भटिंडा की ओर मुड़ा और तेरह महीनों के घेरे के बाद उसे अपने क़ब्ज़े में कर लिया। लेकिन इसके बावजूद उसने पंजाब से ग़ोरियों को खदेड़ने का कोई प्रयास नहीं किया। शायद उसे ऐसा लगा हो कि तुर्कों के बार-बार हो रहे आक्रमणों में से यह भी एक हो और ग़ोरी शासक बस पंजाब पर शासन कर संतुष्ट रहें। बताया जाता है कि तराइन की दूसरी लड़ाई के पूर्व वह मुइज्जुद्दीन को दिए एक प्रस्ताव में पंजाब को मुइज्जुद्दीन के हाथों छोड़ने के लिए तैयार था।

तराइन की दूसरी लड़ाई

तराइन की दूसरी लड़ाई को भारतीय इतिहास का एक मोड़ माना जाता है। मुइज्जुद्दीन ने इसके लिए बहुत तैयारियाँ कीं। कहा जाता है कि वह 1,20,000 सैनिकों के साथ मैदान में उतरा जिसमें बड़ी संख्या में बख्तरबंद घुड़सवार और 10,000 धनुर्धारी घुड़सवार शामिल थे। यह सोचना उचित नहीं होगा कि पृथ्वीराज ने अपनी ओर से शासन में लापरवाही की या उसे स्थिति का अंदाजा तभी लग सका जब बहुत देर हो चुकी थी। यह सही है कि इस अंतिम अभियान का सेनाध्यक्ष, स्कंन्द, कहीं और फँसा था। जैसे ही पृथ्वीराज ने ग़ोरियों के ख़तरे को भाँपा, उसने उत्तर भारत के सभी राजाओं से सहायता का अनुरोध किया। बताया जाता है कि कई राजाओं ने उसकी मदद के लिए अपने सैनिक भेजे, लेकिन कन्नौज का शासक जयचंद्र चुप रहा। ऐसा कहा जाता है कि जयचन्द्र की पुत्री संयोगिता पृथ्वीराज से प्रेम करती थी और पृथ्वीराज उसे भगा लाया था। इसलिए जयचन्द्र चुप रहा। पर अब अनेक इतिहासकार इस कथन को स्वीकार नहीं करते। यह कहानी बहुत बाद में, कवि चंदबरदाई ने लिखी और उसके वर्णन में कई एक असंभाव्य घटनाएँ हैं। यथार्थ में इन दोनों राज्यों के बीच पुरानी दुश्मनी थी और इस कारण कोई आश्चर्य की बात नहीं कि जयचन्द्र ने पृथ्वीराज का साथ नहीं दिया।

पृथ्वीराज की सेना

कहा जाता है कि पृथ्वीराज की सेना में तीन सौ हाथी तथा 3,00,000 सैनिक थे, जिनमें बड़ी संख्या में घुड़सवार भी थे। दोनों तरफ़ की सेनाओं की शक्ति के वर्णन में अतिशयोक्ति भी हो सकती है। संख्या के हिसाब से भारतीय सेना बड़ी हो सकती है, पर तुर्क सेना बड़ी अच्छी तरह संगठित थी। वास्तव में यह दोनों ओर के घुड़सवारों का युद्ध था। मुइज्जुद्दीन की जीत श्रेष्ठ संगठन तथा तुर्की घुड़सवारों की तेज़ी और दक्षता के कारण ही हुई। भारतीय सैनिक बड़ी संख्या में मारे गए। तुर्की सेना ने हांसी, सरस्वती तथा समाना के क़िलों पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद उन्होंने अजमेर पर चढ़ाई की और उसे जीता। कुछ समय तक पृथ्वीराज को एक ज़ागीरदार के रूप में राज करने दिया गया क्योंकि हमें उस काल के ऐसे सिक्के मिले हैं जिनकी एक तरफ़ 'पृथ्वीराज' तथा दूसरी तरफ़ 'श्री मुहम्मद साम' का नाम खुदा हुआ है। पर इसके शीघ्र ही बाद षड़यंत्र के अपराध में पृथ्वीराज को मार डाला गया और उसके पुत्र को गद्दी पर बैठाया गया। दिल्ली के शासकों को भी उसका राज्य वापस कर दिया गया, लेकिन इस नीति को शीघ्र ही बदल दिया गया। दिल्ली के शासक को गद्दी से उतार दिया और दिल्ली गंगा घाटी पर तुर्कों के आक्रमण के लिए आधार स्थान बन गई। पृथ्वीराज के कुछ भूतपूर्व सेनानियों के विद्रोह के बाद पृथ्वीराज के लड़के को भी गद्दी से उतार दिया गया और उसकी जगह अजमेर का शासन एक तुर्की सेनाध्यक्ष को सौंपा दिया गया। इस प्रकार दिल्ली का क्षेत्र और पूर्वी राजस्थान तुर्कों के शासन में आ गया।

गंगा घाटी, बिहार तथा बंगाल पर तुर्कों की विजय

गंगा-यमुना दोआब तथा उसके आसपास के क्षेत्र 1192 ई0 और 1206 ई0 के बीच तुर्कों के अधिकार में आ गए और इसके शीघ्र बाद ही उन्होंने बंगाल और बिहार को भी जीत लिया। दोआब पर अधिकार स्थापित करने के लिए तुर्कों को पहले कन्नौज के शक्तिशाली गहदवालों को पराजित करना पड़ा। कहा जाता है कि गहदवाल शासक जयचन्द्र उस समय भारत का सबसे शक्तिशाली शासक था। वह दो दशकों से शान्तिपूर्वक राज्य कर रहा था। सम्भवतः वह बहुत कुशल योद्धा नहीं था, क्योंकि यह बंगाल के सेन शासक के हाथों पराजित हो चुका था।

क़ुतुबुद्दीन ऐबक

तराइन के युद्ध के बाद मुइज्जुद्दीन ग़ज़नी लौट गया और भारत के विजित क्षेत्रों का शासन अपने विश्वनीय ग़ुलाम क़ुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों में छोड़ दिया। पृथ्वीराज के पुत्र को रणथम्भौर सौंप दिया गया जो तेरहवीं शताब्दी में शक्तिशाली चौहानों की राजधानी बना। अगले दो वर्षों में ऐबक ने, ऊपरी दोआब में मेरठ, बरन तथा कोइल (आधुनिक अलीगढ़) पर क़ब्ज़ा किया। इस क्षेत्र के शक्तिशाली डोर-राजपूतों ने ऐबक का मुक़ाबला किया, लेकिन आश्चर्य की बात है कि गहदवालों को तुर्की आक्रमण से सबसे अधिक नुकसान का ख़तरा था और उन्होंने न तो डोर-राजपूतों की कोई सहायता की और न ही तुर्कों को इस क्षेत्र से बाहर निकालने का कोई प्रयास ही किया। मुइज्जुद्दीन 1194 ई0 में भारत वापस आया। वह पचास हज़ार घुड़सवारों के साथ यमुना को पार कर कन्नौज की ओर बढ़ा। इटावा ज़िले में कन्नौज के निकट छंदवाड़ में मुइज्जुद्दीन और जयचन्द्र के बीच भीषण लड़ाई हुई। बताया जाता है कि जयचन्द्र जीत ही गया था जब उसे एक तीर लगा और उसकी मृत्यु हो गई। उसके मरने के साथ ही सेना के भी पाँव उखड़ गए। अब मुइज्जुद्दीन बनारस की ओर बढ़ा और उस शहर को तहस-नहस कर दिया। उसने वहाँ के मन्दिरों की भी नहीं छोड़ा। यद्यपि इस क्षेत्र के एक भाग पर तब भी गहदवालों का शासन रहा और कन्नौज जैसे कई गढ़, तुर्कों का विरोध करते रहे तथापि बंगाल की सीमा तक एक बड़ा भूभाग उनके क़ब्ज़े में आ गया।

तराइन और छंदवाड़ के युद्धों के परिणामस्वरूप उत्तर भारत में तुर्की साम्राज्य क नींव पड़ी। इस शासन की जड़ें मज़बूत करना कठिन काम था और लगभग 50 वर्षों तक तुर्क इसका प्रयास करते रहे। मुइज्जुद्दीन 1206 ई0 तक जीवित रहा। इस अवधि में उसने दिल्ली की दक्षिण सीमा की सुरक्षा के लिए बयाना तथा ग्वालियर के क़िलों पर क़ब्ज़ा किया। उसके बाद ऐबक ने चंदेल शासकों से कालिंजर, महोबा तथा ख़जुराहो को छीन लिया।

दोआब को अपना आधार बनाकर तुर्कों ने आसपास के क्षेत्रों पर आक्रमण आरम्भ कर दिया। ऐबक ने गुजरात तथा अनहिलवाड़ा के शासक भीम द्वितीय को पराजित किया और कई नगरों में लूटपाट मचाई। यहाँ यद्यपि एक मुसलमान शासक को नियुक्त किया गया था पर उसे शीघ्र ही गद्दी से उतार दिया गया। इससे पता चलता है कि तुर्क इतने दूर दराज क्षेत्रों में शासन करने के लायक शक्ति नहीं बने थे।

बख़्तियार ख़िलजी

पूर्व में तुर्क अधिक सफल रहे। एक ख़िलजी अधिकारी, बख़्तियार ख़िलजी, जिसके चाचा ने तराइन की लड़ाई में भाग लिया था, बनारस के पार कुछ क्षेत्रों का शासक हुआ। उसने इस बात का लाभ उठाया और बिहार में कई आक्रमण किए। बिहार में अभी कोई शक्तिशाली राजा नहीं था। इन आक्रमणों के दौरान उसने नालन्दा और विक्रमशिला जैसे बौद्ध मठों को ध्वंस कर दिया। इन बौद्ध संस्थानों को अब संरक्षण देने वाला कोई नहीं था। बख्तियार ख़िलजी ने काफ़ी सम्पत्ति और इसके साथ समर्थकों को भी इकट्ठा कर लिया। इन आक्रमणों के दौरान उसने बंगाल के मार्ग के बारे में भी सूचना इकट्ठी की। बंगाल अपने अतिरिक्त आंतरिक साधनों और विदेशी व्यापार के कारण अपनी सम्पत्ति के लिए प्रसिद्ध था।

काफ़ी तैयारियाँ करने के बाद बख़्तियार ख़िलजी ने अपनी सेना के साथ बंगाल के सेन राजाओं की राजधानी 'नदिया' की ओर कूच किया। बहुत चोरी छिपे और घोड़ों के व्यापारी के रूप में उसने अपने अट्ठारह सैनिकों के साथ नदिया में प्रवेश किया। उस पर किसी ने संदेह नहीं किया क्योंकि उन दिनों तुर्की घोड़े व्यापारियों का देखा जाना आम बात थी। महल तक पहुँचने के बाद बख़्तियार ख़िलजी ने एकाएक धावा बोल दिया और चारों तरफ ख़लबली मच गई। लक्ष्मण सेन अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध था। लेकिन इस अचानक हमले से वह घबरा सा गया। यह सोचकर की पूरी तुर्की सेना ही आ गई है, उसने पिछले दरवाज़े से भागकर सोनारगांव में शरण ली। तुर्की सेना सच में ही कहीं नज़दीक रही होगी क्योंकि वह जल्दी ही वहाँ चली आई और महल को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। लक्ष्मण सेन की सारी सम्पत्ति यहाँ तक कि उसकी पत्नियाँ तथा बच्चों को भी क़ब्ज़े में कर लिया गया। ये घटनाएँ 1204 ई0 के आस पास हुई।

उस क्षेत्र की बड़ी नदियों के कारण बख्तियार ख़िलजी को नदिया पर अधिकार बनाए रखना मुश्किल हो गया। इस कारण वह पीछे हट गया और उत्तर बंगाल में लखनौती को अपनी राजधानी बनाया। लक्षमण सेन और उसके उत्तराधिकारी सोनारगांव से दक्षिण बंगाल पर शासन करते रहे। यद्यपि बख़्तियार ख़िलजी औपचारिक रूप से मुइज्जुद्दीन द्वारा बंगाल का प्रशासक नियुक्त किया गया था परन्तु वास्तव में वह स्वतंत्र शासक के रूप में राज्य करता रहा, लेकिन उसकी स्थिति बहुत दिनों तक मज़बूत नहीं रह सकी। उसने असम में ब्रह्मपुत्र घाटी पर आक्रमण करने की मूर्खता की। लेखकों का कहना है कि वह तिब्बत तक जाना चाहता था। असम के माघ शासक पीछे हटते गए और तुर्की सेना को अन्दर आने का रास्ता देते गए। अन्त में थकान से चूर हो गए, फिर वापस लौटने का निश्चय कर लिया, लेकिन अब उन्हें कहीं से रसद नहीं मिल सकी और असम की सेना रह-रह कर उन पर हमले करती रही। भूख, प्यास और बीमारी से पूरी सेना कमज़ोर हो गई थी और ऐसी स्थिति में उन्हें युद्ध करना पड़ा। युद्ध के समय उनके सामने एक चौड़ी नदी थी और पीछे असम की सेना। तुर्की सेना पूर्णतः पराजित हुई। बख़्तियार ख़िलजी स्वयं अपने कुछ सैनिकों के साथ पहाड़ी क़बीलों की सहायता से जान बचाकर वापस लौटने में सफल हो गया। लेकिन अब उसका उत्साह खत्म हो चुका था, स्वास्थ्य गिर चुका था और ऐसी दशा में उसके एक अमीर ने उसको सोते हुए में छुरा घोंपकर उसकी हत्या कर दी।

जब ऐबक और तुर्की और ख़िलजी सरदार उत्तर भारत में नए क्षेत्रों को जीतने और अपनी स्थिति मज़बूत करने की चेष्टा कर रहे थे, मुइज्जुद्दीन और उसका भाई मध्य एशिया में ग़ोरी साम्राज्य का विस्तार करने लगे थे। ग़ोरियों की विस्तार की आकांक्षा ने उन्हें शक्तिशाली ख्वारिज़म साम्राज्य से टक्कर लेने पर मज़बूर कर दिया। ख्वारिज़म शासक ने मुइज्जुद्दीन को 1203 में करारी मात दी। लेकिन यह पराजय एक प्रकार से उनके लिए लाभदायक सिद्ध हुई। क्योंकि इसके कारण उन्हें एशिया में विस्तार की आकांक्षा को त्यागना पड़ा और उन्होंने भारत में विस्तार की ओर अपना पूरा ध्यान लगा दिया। लेकिन इस युद्ध का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि मुइज्जुद्दीन की हार से साहस पा कर भारत में उसके कई विरोधियों ने बग़ावत कर दी। पश्चिम बंगाल की लड़ाकू जाति खोकर ने लाहौर और ग़ज़नी के बीच सम्पर्क साधनों को काट दिया। मुइज्जुद्दीन ने भारत में अपना अंतिम आक्रमण खोकरों के विद्रोह को दबाने के लिए किया जिसमें वह सफल भी हुआ। ग़ज़नी लौटते समय वह एक विरोधी मुस्लिम सम्प्रदाय के कट्टर समर्थक द्वारा मारा गया।

मोहम्मद बिन कासिम और महमूद ग़ज़नवी

मुइज्जुद्दीन मोहम्मद बिन कासिम की तुलना अक्सर महमूद ग़ज़नवी से की जाती है। योद्धा के रूप में महमूद ग़ज़नवी अधिक सफल था क्योंकि भारत अथवा मध्य एशिया के एक भी अभियान में वह पराजित नहीं हुआ। वह भारत के बाहर भी एक बड़े साम्राज्य पर शासन करता था। लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि महमूद की अपेक्षा मुइज्जुद्दीन को भारत में और बड़े तथा संसंगठित राज्यों का सामना करना पड़ा। यद्यपि वह मध्य एशिया में उतना सफल नहीं हो सका, भारत में उसकी राजनीतिक उपलब्धियाँ और बड़ी थीं। उन दोनों को विभिन्न परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। अतः इन दोनों की तुलना से कोई विशेष लाभ नहीं होगा। इसके अलावा भारत में राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से इन दोनों का लक्ष्य कई बातों में बिल्कुल भिन्न था।

इन दोनों में से किसी को भी इस्लाम में विशेष दिलचस्पी नहीं थी। यदि एक बार कोई शासक उनके प्रभुत्व को स्वीकार कर लेता तो उसे अपने क्षेत्र में शासन करने दिया जाता। केवल विशेष परिस्थितियों में उसके पूरे राज्य अथवा उसके किसी हिस्से को पूरी तरह अपने अधिकार में लेना आवश्यक हो जाता। महमूद तथा मुइज्जुद्दीन दोनों की सेनाओं में हिन्दू सैनिक और अधिकारी थे और दोनों में से किसी ने अपने स्वार्थों को सिद्ध करने तथा भारतीय शहरों और मन्दिरों की लूट को उचित ठहराने के लिए इस्लाम के नारों का सहारा लेने में हिचकिचाहट महसूस नहीं की। पन्द्रह वर्षों की छोटी अवधि में उत्तर भारत के प्रमुख राज्यों ने तुर्की सेनाओं के सामने घुटने टेक दिए। इसके कारण भी जानना आवश्यक है। यह एक नियम के रूप में स्वीकार किया जा सकता है कि एक देश दूसरे से तभी पराजित होता है जब वह सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से कमज़ोर पड़ गया हो तथा अपने पड़ोसियों की तुलना में आर्थिक और सैनिक रूप से पीछे पड़ गया हो।

भारत का दूसरे राष्ट्रों से अलग-थलग रहना, यहाँ के बुद्धिजीवियों, विशेषकर ब्राह्मणों का संकीर्ण दृष्टिकोण और दस्तकारों तथा श्रमिकों को नीची दृष्टि से देखा जाना इसके कारण थे। यदि ऐसा नहीं होता तो राजपूत राज्यों को पराजित नहीं होना पड़ता जो ग़ज़नवी और ग़ोरी राज्यों से यदि और बड़े नहीं तो उनसे छोटे भी नहीं थे और जिनके पास अधिक मानवीय और प्राकृतिक साधन थे।

घोड़ों का आयात

सैनिक दृष्टि से तुर्क लोग कई कारणों से अधिक लाभदायक स्थिति में थे। ऊँची जाति के घोड़े मध्य एशिया, ईरान तथा अरब में होते थे जबकि भारत को उनका आयात करना पड़ता था। भारतीय लोग अच्छी क़िस्मों के घोड़ों को भारत में ही पैदा न कर सकने का कारण समझ में नहीं आता। जो भी हो अच्छे घोड़ों का आयात बहुत मंहगा पड़ता था और उनके यहाँ आने में किसी भी समय बाधा डाली जा सकती थी। ग़ज़नी शासकों द्वारा अफ़ग़ानिस्तान की विजय तथा समुद्र मार्ग पर अरबों के नियंत्रण से भारत को अच्छे घोड़ों के लिए मुसलमान व्यापारियों पर निर्भर रहना पड़ता था। बख्तबंद घुड़सवार तथा घुड़सवार धनुर्धारियों के कारण दसवीं शताब्दी के बाद मध्य एशिया और यूरोप में युद्ध के तरीकों में पूरी तरह परिवर्तन आ गया था। तुर्क इस प्रकार के नये युद्ध में कुशलता प्राप्त कर चुके थे। जबकि भारतीयों के साथ ऐसी बात नहीं थी। उन्हें अभी भी हाथियों और पैदल सैनिकों पर निर्भर रहना पड़ता था। घोड़ों का केवल पूरक के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। भारतीय सैनिक विपत्ति पड़ने पर तुरन्त घोड़े से उतर पड़ते थे और पैदल ही लड़ते थे। उनकी इस आदत से उनके शत्रु अच्छी तरह परिचित हो चुके थे और पराजय होने पर उनका बड़ी संख्या में क़त्ल होता था।

भारतीय सेना का कमज़ोर संगठन

सामंतवाद के विकास से भारतीय सेना का संगठन कमज़ोर पड़ गया था। विभिन्न सरदार और राजे लड़ाई में समन्वित तरीक़े से लड़ नहीं सकते थे और पराजय के बाद जल्दी-जल्दी अपने क्षत्रों में लौट जाते थे। उधर तुर्कों ने एक संगठित सेना का विकास कर लिया था। वे सैनिकों को एक जगह भर्ती करते थे, उन्हें नक़द वेतन देते थे और इस प्रकार से उनकी सेना में मैदान में अधिक देर तक टिकने की आदत थी, उनके सैनिक काफ़ी समय तक मैदान में टिक सकते थे और दुश्मन से लोहा ले सकते थे। इसका आधार 'इक़ता' व्यवस्था थी।



पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ