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{{प्रतीक्षा
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{{भारत विषय सूची}}
|तिथि-समय=12:45, 22 अगस्त 2010 (IST)
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==भारत और विश्व का परिदृश्य==
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{{प्रांगण लेख इतिहास}}
{{main|भारत और विश्व}}
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'''आठवीं शताब्दी के बाद''' [[यूरोप]] और [[एशिया]] में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इनसे न केवल यूरोप और एशिया के सम्बन्धों में, बल्कि लोगों के रहन-सहन और उनकी विचारधारा पर भी, दूरगामी प्रभाव पड़े। प्राचीन रोमन साम्राज्य और [[भारत]] के बीच बड़ी मात्रा में व्यापार होने के कारण इन परिवर्तनों का प्रभाव अपरोक्ष रूप से भारत पर भी पड़ा। इस समय विश्व का परिदृश्य इस प्रकार था- यूरोप में छठी शताब्दी के उत्तरार्ध के आरम्भ में शक्तिशाली रोमन साम्राज्य दो हिस्सों में बंट गया था। पश्चिमी भाग में, जिसकी राजधानी [[रोम]] थी, रूस और जर्मनी की ओर से बहुत बड़ी संख्या में स्लाव और जर्मन क़बीले के लोगों के आक्रमण हुए। पश्चिमी यूरोप में रोमन साम्राज्य के विघटन के बाद एक नये प्रकार के समाज और एक नई शासन व्यवस्था का जन्म हुआ। इस नयी व्यवस्था को सामंतवाद कहा जाता है। [[इस्लाम धर्म|इस्लाम]] के उदय से अरब में हमेशा आपस में लड़ने वाले क़बीले एकजुट होकर एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में आगे आए। [[चीन]] में आठवीं और नौवी शताब्दी में तांग शासन के काल में वहाँ की सभ्यता और संस्कृति अपने शिखर पर थी।
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==तीन साम्राज्यों का युग <small>आठवीं से दसवीं शताब्दी</small>==
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{{इतिहास}}
सात सौ पचास और एक हज़ार ईस्वी के बीच उत्तर तथा दक्षिण [[भारत]] में कई शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ। नौंवीं शताब्दी तक पूर्वी और उत्तरी भारत में [[पाल साम्राज्य]] तथा दसवीं शताब्दी तक पश्चिमी तथा उत्तरी भारत में [[प्रतिहार साम्राज्य]] शक्तिशाली बने रहे। [[राष्ट्रकूट साम्राज्य|राष्ट्रकूटों]] का प्रभाव दक्कन में तो था ही, कई बार उन्होंने उत्तरी और दक्षिण भारत में भी अपना प्रभुत्व क़ायम किया। यद्यपि ये तीनों साम्राज्य आपस में लड़ते रहते थे तथापि इन्होंने एक बड़े भू-भाग में स्थिरता क़ायम रखी और साहित्य तथा कलाओं को प्रोत्साहित किया।
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[[भारत]] में मानवीय कार्यकलाप के जो प्राचीनतम चिह्न अब तक मिले हैं, वे 4,00,000 ई. पू. और 2,00,000 ई. पू. के बीच दूसरे और तीसरे हिम-युगों के संधिकाल के हैं और वे इस बात के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि उस समय पत्थर के उपकरण काम में लाए जाते थे। जीवित व्यक्ति के अपरिवर्तित जैविक गुणसूत्रों के प्रमाणों के आधार पर भारत में मानव का सबसे पहला प्रमाण [[केरल]] से मिला है जो '''सत्तर हज़ार साल पुराना होने की संभावना''' है। इस व्यक्ति के गुणसूत्र अफ़्रीक़ा के प्राचीन मानव के जैविक गुणसूत्रों (जीन्स) से पूरी तरह मिलते हैं।<ref>देखें: '''शोध ग्रंथ''' {{cite book |last=वेल्स|first=स्पेन्सर|url =http://books.google.ca/books?id=WAsKm-_zu5sC&lpg=PP1&dq=The%20Journey%20of%20Man&pg=PP1#v=onepage&q&f=true |title=अ जेनेटिक ओडिसी|year=2002|publisher=प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी प्रॅस, न्यू जर्सी, सं.रा.अमरीका|language=[[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]]||id=ISBN 0-691-11532-X}} </ref>इसके पश्चात् एक लम्बे अरसे तक विकास मन्द गति से होता रहा, जिसमें अन्तिम समय में जाकर तीव्रता आई और उसकी परिणति 2300 ई. पू. के लगभग [[सिन्धु घाटी]] की आलीशान सभ्यता (अथवा नवीनतम नामकरण के अनुसार हड़प्पा संस्कृति) के रूप में हुई। [[हड़प्पा]] की पूर्ववर्ती संस्कृतियाँ हैं: बलूचिस्तानी पहाड़ियों के गाँवों की [[कुल्ली संस्कृति]] और [[राजस्थान]] तथा [[पंजाब]] की नदियों के किनारे बसे कुछ ग्राम-समुदायों की संस्कृति।<ref>पुस्तक 'भारत का इतिहास' [[रोमिला थापर]]) पृष्ठ संख्या-19</ref> यह काल वह है जब अफ़्रीक़ा से आदि मानव ने विश्व के अनेक हिस्सों में बसना प्रारम्भ किया जो पचास से सत्तर हज़ार साल पहले का माना जाता है।
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==प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत==
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भारतीय इतिहास जानने के स्रोत को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता हैं-
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# साहित्यिक साक्ष्य
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# विदेशी यात्रियों का विवरण
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# पुरातत्त्व सम्बन्धी साक्ष्य
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====साहित्यिक साक्ष्य====
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साहित्यिक साक्ष्य के अन्तर्गत साहित्यिक ग्रन्थों से प्राप्त ऐतिहासिक वस्तुओं का अध्ययन किया जाता है। साहित्यिक साक्ष्य को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- <br />
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धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य। <br />
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;धार्मिक साहित्य
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धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेत्तर साहित्य की चर्चा की जाती है।
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*ब्राह्मण ग्रन्थों में-
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[[वेद]], [[उपनिषद]], [[रामायण]], [[महाभारत]], [[पुराण]], [[स्मृतियाँ|स्मृति ग्रन्थ]] आते हैं।
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*ब्राह्मणेत्तर ग्रन्थों में [[जैन]] तथा [[बौद्ध]] ग्रन्थों को सम्मिलित किया जाता है। <br />
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;लौकिक साहित्य
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लौकिक साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक ग्रन्थ, जीवनी, कल्पना-प्रधान तथा गल्प साहित्य का वर्णन किया जाता है।<br />
  
इस युग की एक और महत्वपूर्ण बात राज्य और धर्म के बीच सम्बन्ध है। इस युग के कई शासक [[शैवमत|शैव]] और [[वैष्णव धर्म|वैष्णव]] और कई [[बौद्ध]] और [[जैन धर्म]] को मानने वाले थे। वे ब्राह्मणों, बौद्ध बिहारों और जैन मन्दिरों को उदारतापूर्वक दान देते थे, लेकिन वे किसी भी व्यक्ति के प्रति उसके धार्मिक विचारों के लिए भेदभाव नहीं रखते थे और सभी मतावलंबियों को संरक्षण प्रदान करते थे। राष्ट्रकूट नरेशों ने भी मुसलमानों तक का स्वागत किया और उन्हें अपने धर्म प्रचार की स्वीकृति दी। साधारणतः कोई भी राजा धर्मशास्त्रों के नियमों तथा अन्य परम्पराओं में हस्तक्षेप नहीं करता था और इन मामलों में वह पुरोहित की सलाह पर चलता था। लेकिन इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि पुरोहित राज्य के कार्यों में हस्तक्षेप करता था अथवा राजा पर उसका किसी प्रकार का दबाव था। इस युग के धर्मशास्त्रों के महान व्याख्याकार मेधतिथि का कहना है कि राजा के अधिकार व्यंजित करने वाले स्रोत [[वेद]] सहित धर्मशास्त्रों के अलावा 'अर्थशास्त्र' भी है। उसका 'राजधर्म' अर्थशास्त्र में निहित सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए। इसका वास्तविक अर्थ यह था कि राजा को राजनीति और धर्म को बिल्कुल अलग-अलग रखना चाहिए और धर्म को राजा का व्यक्तिगत कर्तव्य समझा जाना चाहिए। इस प्रकार उस युग के शासकों पर न तो पुरोहितों और न ही उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म-क़ानून का कोई प्रभाव था। इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि उस युग में राज्य मूलतः धर्म निरपेक्ष थे।
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'''धर्म-ग्रन्थ'''<br />
  
इन तीनों साम्राज्यों में राष्ट्रकूट साम्राज्य सबसे अधिक दीर्घजीवी रहा। यह न केवल अपने समय का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था, वरन इसने आर्थिक तथा सांस्कृतिक मामलों में उत्तर और दक्षिण भारत के बीच सेतु का कार्य किया।
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प्राचीन काल से ही [[भारत]] के धर्म प्रधान देश होने के कारण यहां प्रायः तीन धार्मिक धारायें- वैदिक, जैन एवं बौद्ध प्रवाहित हुईं। वैदिक धर्म ग्रन्थ को ब्राह्मण धर्म ग्रन्थ भी कहा जाता है।<br />
====पाल साम्राज्य====
 
{{main|पाल साम्राज्य}}
 
[[हर्षवर्धन|हर्ष]] के समय के बाद से उत्तरी भारत के प्रभुत्व का प्रतीक [[कन्नौज]] माना जाता था। बाद में यह स्थान [[दिल्ली]] ने प्राप्त कर लिया। पाल साम्राज्य की नींव 750 ई0 में 'गोपाल' नामक राजा ने डाली। बताया जाता है कि उस क्षेत्र में फैली अशान्ति को दबाने के लिए कुछ प्रमुख लोगों ने उसको राजा के रूप में चुना। इस प्रकार राजा का निर्वाचन एक अभूतपूर्व घटना थी।  इसका अर्थ शायद यह है कि गोपाल उस क्षेत्र के सभी महत्वपूर्ण लोगों का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो सका और इससे उसे अपनी स्थिति मज़बूत करन में काफी सहायता मिली।
 
====प्रतिहार साम्राज्य====
 
{{main|प्रतिहार साम्राज्य}}
 
देवपाल के शासन के अन्तिम दिनों में प्रतिहार साम्राज्य की शक्ति बढ़ने लगी। प्रतिहारों का [[गुजरात]] अथवा दक्षिण-पश्चिम [[राजस्थान]] से सम्बन्ध होने के कारण उन्हें [[गुर्जर प्रतिहार वंश|गुर्जर प्रतिहार]] भी कहा जाता है। ये पाल वंश से कुछ समय पहले ही शक्तिशाली बने। आरम्भ में सम्भवतः ये केवल स्थानीय अधिकारी थे, लेकिन कालान्तर में उन्होंने मध्य तथा पूर्वी राजस्थान के कई क्षेत्रों पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया। इनकी ख्याति तब बढ़ी जब इन्होंने राजस्थान और गुजरात में सिंध के अरबी शासकों के आक्रमण का विरोध किया। गुजरात के एक युद्ध में 738 ई0 में [[चालुक्य राजवंश|चालुक्यों]] ने 'म्लच्छों' को निर्णायक रूप से पराजित किया। बताया जाता है कि इसके बाद अरब कभी भी गुजरात में अपना प्रभाव क़ायम नहीं कर सके। इस युद्ध में भाग लेने वाला एक मुख्य व्यक्ति दन्तिदुर्ग था जो बादामी के चालुक्यों का एक सामंत था और जो इस समय दक्षिण में शासक बन बैठा था। बाद में दन्तिदुर्ग ने चालुक्यों को पराजित कर राष्ट्रकूट साम्राज्य की नींव डाली।
 
====राष्ट्रकूट साम्राज्य====
 
{{main|राष्ट्रकूट साम्राज्य}}
 
जब उत्तरी भारत में पाल और प्रतिहार वंशों का शासन था, दक्कन में राष्टूकूट राज्य करते थे। इस वंश ने भारत को कई योद्धा और कुशल प्रशासक दिए हैं। इस साम्राज्य की नींव 'दन्तिदुर्ग' ने डाली। दन्तिदुर्ग ने 750 ई0 में चालुक्यों के शासन को समाप्त कर आज के [[शोलापुर ज़िला|शोलापुर]] के निकट अपनी राजधानी 'मान्यखेट' अथवा 'मानखेड़' की नींव रखी। शीघ्र ही [[महाराष्ट्र]] के उत्तर के सभी क्षेत्रों पर राष्ट्रकूटों का आधिपत्य हो गया। गुजरात और मालवा के प्रभुत्व के लिए इन्होंने प्रतिहारों से भी लोहा लिया। यद्यपि इन हमलों के कारण राष्ट्रकूट अपने साम्राज्य का विस्तार गंगा घाटी तक नहीं कर सके तथापि इनमें उन्हें बहुत बड़ी मात्रा में धन राशि मिली और उनकी ख्याति बढ़ी। वंगी (वर्तमान [[आंध्र प्रदेश]]) के पूर्वी चालुक्यों और दक्षिण में [[कांची]] के [[पल्लव वंश|पल्लवों]] तथा [[मदुरई]] के पांड्यों के साथ भी राष्ट्रकूटों का बराबर संघर्ष चलता रहा।
 
==चोल साम्राज्य <small>नौवीं से बारहवीं शताब्दी</small>==
 
{{main|चोल साम्राज्य}}
 
चोल साम्राज्य का अभ्युदय नौवीं शताब्दी में हुआ और दक्षिण प्राय:द्वीप का अधिकांश भाग इसके अधिकार में था। चोल शासकों ने [[श्रीलंका]] पर भी विजय प्राप्त कर ली थी और [[मालदीव]] द्वीपों पर भी इनका अधिकार था। कुछ समय तक इनका प्रभाव [[कलिंग]] और [[तुंगभद्रा नदी|तुंगभद्र]] दोआब पर भी छाया था। इनके पास शक्तिशाली नौसेना थी और ये दक्षिण पूर्वी [[एशिया]] में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हो सके। चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का निःसन्देह सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। अपनी प्रारम्भिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के बाद क़रीब दो शताब्दियों तक अर्थात बारहवीं ईस्वी के मध्य तक चोल शासकों ने न केवल एक स्थिर प्रशासन दिया, वरन कला और साहित्य को बहुत प्रोत्साहन दिया। कुछ इतिहासकारों का मत है कि चोल काल दक्षिण भारत का 'स्वर्ण युग' था। चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की जो आरम्भ में पल्लवों का एक सामंती सरदार था। उसने 850 ई0 में [[तंजावुर]] को अपने अधिकार में कर लिया और पांड्य राज्य पर चढ़ाई कर दी। चोल 897 तक इतने शक्तिशाली हो गए थे कि उन्होंने पल्लव शासक को हराकर उसकी हत्या कर दी और सारे टौंड मंडल पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद पल्लव, इतिहास के पन्नों से विलीन हो गए, पर चोल शासकों को राष्ट्रकूटों के विरुद्ध भयानक संघर्ष करना पड़ा। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने 949 ई0 में चोल सम्राट परंतक प्रथम को पराजित किया और चोल साम्राज्य के उत्तरी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इससे चोल वंश को धक्का लगा लेकिन 965 ई0 में कृष्ण तृतीय की मृत्यु और राष्ट्रकूटों के पतन के बाद वे एक बार फिर उठ खड़े हुए।
 
  
छठी शताब्दी के मध्य के बाद दक्षिण भारत में [[पल्लव वंश|पल्लवों]], [[चालुक्य वंश|चालुक्यों]] तथा [[पांड्य वंश|पांड्य]] वंशों का राज्य रहा। पल्लवों की राजधानी [[कांची]], चालुक्यों की [[बादामी]] तथा पांड्यों की राजधानी [[मदुरई]] थी, जो आधुनिक [[तंजावुर ज़िले]] में है और दक्षिण अर्थात [[केरल]] में, [[चेर वंश|चेर]] शासक थे। [[कर्नाटक]] क्षेत्र में [[कदम्ब वंश|कदम्ब]] तथा [[गंग वंश|गंगवंशों]] का शासन था। इस युग के अधिकतर समय में गंगा शासक राष्ट्रकूटों के अधीन थे या उनसे मिलते हुए थे। राष्ट्रकूट इस समय [[महाराष्ट्र]] क्षेत्र में सबसे अधिक प्रभावशाली थे। पल्लव, पांड्य तथा चेर आपस में तथा मिलकर राष्ट्रकूटों के विरुद्ध संघर्षरत थे। इनमें से कुछ शासकों विशेषकर पल्लवों के पास शक्तिशाली नौसेनाएँ भी थीं। पल्लवों के दक्षिण पूर्व एशिया के साथ बड़े पैमाने पर व्यापारिक सम्बन्ध थे और उन्होंने व्यापार तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों को बढ़ाने के लिए कई राजदूत भी [[चीन]] भेजे। पल्लव अधिकतर [[शैव मत]] के अनुयायी थे और इन्होंने आधुनिक [[मद्रास]] के निकट [[महाबलीपुरम]] में कई मन्दिरों का निर्माण किया।
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'''ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ'''<br />
==आर्थिक सामाजिक जीवन, शिक्षा तथा धर्म <sub>800 ई0 से 1200 ई0</sub>==
 
{{main|भारत की संस्कृति}}
 
इस काल में भारतीय समाज में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इनमें से एक यह था कि विशिष्ट वर्ग के लोगों की शक्ति बहुत बढ़ी जिन्हें 'सामंत', 'रानक' अथवा 'रौत्त' (राजपूत) आदि पुकारा जाता था। इस काल में भारतीय दस्तकारी तथा खनन कार्य उच्च स्तर का बना रहा तथा [[कृषि]] भी उन्नतिशील रही। [[भारत]] आने वाले कई अरब यात्रियों ने यहाँ की ज़मीन की उर्वरता और भारतीय किसानों की कुशलता की चर्चा की है। पहले से चली आ रही वर्ण व्यवस्था इस युग में भी क़ायम रही। [[स्मृतियाँ|स्मृतियों]] के लेखकों ने ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर तो कहा ही, शूद्रों की सामाजिक और धार्मिक अयोग्यता को उचित ठहराने में तो वे पिछले लेखकों से कहीं आगे निकल गए।
 
  
इस काल में भी स्त्रियों को मानसिक स्तर पर नीचा माना जाता था। इनका कर्तव्य मूलतः बिना कुछ सोचे समझे अपने पति की आज्ञा का पालन था। एक लेखक ने स्त्री के अपने पति के प्रति कर्तव्य के बारे में कहा है कि उसे अपने पति के पैरों को धोना चाहिए और नौकर की तरह उसकी पूरी सेवा करनी चाहिए। लेकिन उसने पति के कर्तव्य के बारे में भी कहा है कि उसे धर्म के पथ पर चलना चाहिए और अपनी पत्नी के प्रति घृणा तथा ईर्ष्या के भाव से मुक्त रहना चाहिए। विवाह के बारे में स्मृतियों में कहा गया कि माँ-बाप को अपनी लड़कियों का विवाह छः और आठ वर्ष से बीच की आयु, अर्थात यौवनारम्भ, के पहले ही कर देना चाहिए। पति द्वारा पत्नी के त्याग (अर्थात जब उसका कुछ अता-पता नहीं चलता हो), उसकी (पति की) मृत्यु, उसके द्वारा सन्यास ग्रहण, समाज द्वारा बहिष्कार तथा उसके नपुंसक होने जैसी कुछ विशेष स्थितियों में स्त्री को पुनर्विवाह की स्वीकृति थी।
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'''ब्राह्मण धर्म''' - ग्रंथ के अन्तर्गत वेद, उपनिषद्, महाकाव्य तथा स्मृति ग्रंथों को शामिल किया जाता है।<br />
  
इस काल में पुरुषों और स्त्रियों के पहनावे में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। पहले की तरह अब भी पुरुष आम तौर पर धोती तथा स्त्रियाँ साड़ी पहनती थीं। इसके अतिरिक्त उत्तर भारत में पुरुष जैकेट तथा स्त्रियाँ चोली पहनती थीं। उस समय की मूर्तियों को देखने से पता चलता है कि उत्तरी भारत में उच्च वर्ग के लोग लम्बे कोट, पैंट तथा जूते पहनते थे। उन दिनों सामूहिक शिक्षा की धारणा ने जन्म नहीं लिया था और लोग वही सीखते थे जो उनके जीवनयापन के लिए आवश्यक था। पढ़ना-लिखना कुछ ही लोगों में सीमित था। जिनमें अधिकतर ब्राह्मण या उच्च वर्ग के लोग थे। गाँव मे पढ़ना लिखना वहाँ का ब्राह्मण सिखाता था। बच्चे अधिकतर मन्दिरों में पढ़ते थे जो भूमि-अनुदान पर निर्भर करते थे। ज्ञानी ब्राह्मणों को भूमि दान में देना धार्मिक कृत्य माना जाता था।
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'''वेद'''<br />
==संघर्ष का युग <small>लगभग 1000 ई0 से 1200 ई0 तक</small>==
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{{main|वेद}}
पश्चिम के साथ-साथ मध्य [[एशिया]] तथा उत्तर [[भारत]] में भी 1000 ई. तथा 1200 ई. के बीच तेज़ी के साथ परिवर्तन हुए। इन्हीं परिवर्तनों के परिणमस्वरूप इस काल के अन्त में उत्तर भारत में तुर्कों के आक्रमण हुए। नौवीं शताब्दी के अन्त तक अब्बासी ख़लिफ़ों का पतन आरम्भ हो गया था। उनका साम्राज्य अब छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया था, जिन पर [[मुसलमान]] तुर्कों का शासन था। तुर्क, अब्बासी साम्राज्य में महल रक्षकों तथा पेशेवर सैनिकों के रूप में आए थे। लेकिन शीघ्र ही इतने शक्तिशाली बन गए कि नियुक्ति पर भी उनका अधिकार हो गया। जैसे-जैसे केन्द्रीय सरकार की शक्ति कम होती गई, प्रान्तीय शासक अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करने लगे, यद्यपि कुछ समय तक इस पर एकता का पर्दा पड़ा रहा, क्योंकि सफल सरदारों को, जो किसी क्षेत्र में अपना अधिकार जमाने में सफल हो जाते थे, ख़लीफ़ा ही औपचारिक रूप से 'अमीर-उल-उमरा' (सेनापतियों का सेनापति) की पदवी देता था। ये शासक पहले 'अमीर' की, पर बाद में 'सुल्तान' की पदवी ग्रहण करने लगे।
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वेद एक महत्त्वपूर्ण ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ है। वेद शब्द का अर्थ ‘ज्ञान‘ महतज्ञान अर्थात् ‘पवित्र एवं आध्यात्मिक ज्ञान‘ है। यह शब्द [[संस्कृत]] के ‘विद्‘ धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना। वेदों के संकलनकर्ता 'कृष्ण द्वैपायन' थे। कृष्ण द्वैपायन को वेदों के पृथक्करण-व्यास के कारण 'वेदव्यास' की संज्ञा प्राप्त हुई। वेदों से ही हमें आर्यो के विषय में प्रारम्भिक जानकारी मिलती है। कुछ लोग वेदों को अपौरुषेय अर्थात् दैवकृत मानते हैं। वेदों की कुल संख्या चार है-
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*[[ऋग्वेद]]- यह ऋचाओं का संग्रह है।
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*[[सामवेद]]- यह ऋचाओं का संग्रह है।
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*[[यजुर्वेद]]- इसमें यागानुष्ठान के लिए विनियोग वाक्यों का समावेश है।
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*[[अथर्ववेद]]- यह तंत्र-मंत्रों का संग्रह है।
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====ब्राह्मण ग्रंथ====
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{{main|ब्राह्मण साहित्य}}
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[[यज्ञ|यज्ञों]] एवं कर्मकाण्डों के विधान एवं इनकी क्रियाओं को भली-भांति समझने के लिए ही इस ब्राह्मण ग्रंथ की रचना हुई। यहां पर 'ब्रह्म' का शाब्दिक अर्थ हैं- यज्ञ अर्थात् यज्ञ के विषयों का अच्छी तरह से प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ ही 'ब्राह्मण ग्रंथ' कहे गये। ब्राह्मण ग्रन्थों में सर्वथा यज्ञों की वैज्ञानिक, अधिभौतिक तथा अध्यात्मिक मीमांसा प्रस्तुत की गयी है। यह ग्रंथ अधिकतर गद्य में लिखे हुए हैं। इनमें उत्तरकालीन समाज तथा संस्कृति के सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त होता है। प्रत्येक वेद (संहिता) के अपने-अपने ब्राह्मण होते हैं।
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====आरण्यक====
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{{main|आरण्यक साहित्य}}
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आरयण्कों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों यथा, आत्मा, मृत्यु, जीवन आदि का वर्णन होता है। इन ग्रंथों को आरयण्क इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन ग्रंथों का मनन अरण्य अर्थात् वन में किया जाता था। ये ग्रन्थ अरण्यों (जंगलों) में निवास करने वाले सन्न्यासियों के मार्गदर्शन के लिए लिखे गए थै। आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, शांखायन्त आरण्यक, बृहदारण्यक, मैत्रायणी उपनिषद आरण्यक तथा तवलकार आरण्यक (इसे जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण भी कहते हैं) मुख्य हैं। ऐतरेय तथा शांखायन ऋग्वेद से, बृहदारण्यक शुक्ल यजुर्वेद से, मैत्रायणी उपनिषद आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद से तथा तवलकार आरण्यक सामवेद से सम्बद्ध हैं। अथर्ववेद का कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राण विद्या की महिमा का प्रतिपादन विशेष रूप से मिलता है। इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी हैं, जैसे- तैत्तिरीय आरण्यक में [[कुरु]], [[पंचाल]], [[काशी]], [[विदेह]] आदि [[महाजनपद|महाजनपदों]] का उल्लेख है।
  
इस युग में अशान्ति और संघर्ष के कई कारण थे। मध्य एशिया से तुर्क क़बीलों के बराबर आक्रमण हो रहे थे। अधिकतर तुर्क सैनिक पेशेवर थे जो असफल शासक का साथ छोड़ देने में ज़रा भी हिचकिचाते नहीं थे। इसके अलावा विभिन्न क्षेत्रों तथा मुसलमानों के विभिन्न सम्प्रदायों में भी बराबर संघर्ष चलता रहता था। एक के बाद एक साम्राज्य स्थापित होते गए और उतनी ही जल्दी उनका पतन होता गया। ऐसी स्थिति में केवल ऐसा व्यक्ति उभर कर आ सकता था जो योद्धा और नेता होने के साथ-साथ षड़यंत्र में भी अत्यन्त कुशल हो।
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====उपनिषद====
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{{main|उपनिषद}}
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उपनिषदों की कुल संख्या 108 है। प्रमुख उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक, कौषीतकि, मुण्डक, प्रश्न, मैत्राणीय आदि। लेकिन शंकराचार्य ने जिन 10 उपनिषदों पर स्पना भाष्य लिखा है, उनको प्रमाणिक माना गया है। ये हैं - ईश, केन, माण्डूक्य, मुण्डक, तैत्तिरीय, ऐतरेय, प्रश्न, छान्दोग्य और बृहदारण्यक उपनिषद। इसके अतिरिक्त श्वेताश्वतर  और कौषीतकि उपनिषद भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस प्रकार 103 उपनिषदों में से केवल 13 उपनिषदों को ही प्रामाणिक माना गया है। भारत का प्रसिद्ध आदर्श वाक्य '[[सत्यमेव जयते]]' मुण्डोपनिषद से लिया गया है। उपनिषद गद्य और पद्य दोनों में हैं, जिसमें [[प्रश्नोपनिषद|प्रश्न]], [[माण्डूक्योपनिषद|माण्डूक्य]], [[केनोपनिषद|केन]], [[तैत्तिरीयोपनिषद|तैत्तिरीय]], [[ऐतरेयोपनिषद|ऐतरेय]], [[छान्दोग्य उपनिषद|छान्दोग्य]], [[बृहदारण्यकोपनिषद|बृहदारण्यक]] और [[कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद|कौषीतकि उपनिषद]] गद्य में हैं तथा [[केनोपनिषद|केन]], [[ईशावास्योपनिषद|ईश]], [[कठोपनिषद|कठ]] और [[श्वेताश्वतरोपनिषद|श्वेताश्वतर उपनिषद]] पद्य में हैं।
  
तुर्क क़बीले अपने साथ बेरहम लूटपाट तथा युद्ध की ऐसी प्रथा लाए जिसमें हर प्रकार के षड़यंत्र और चाल को उचित समझा जाता था। इन्होंने एक नयी प्रकार की युद्धनीति शुरू की। जिसमें प्रमुख भूमिका भारी अस्त्रशस्त्रों से लैस घुड़सवार सैनिकों की होती थी, जो तेज़ी से आगे-पीछे सरक सकते थे और घोड़े की पीठ से ही तीरों की बौछार कर सकते थे। यह लोहे की रक़ाबों से ही सम्भव था। 'लोहे की रक़ाबों' तथा एक नए तरह की 'लगाम' के कारण युद्धनीति में इस तरह का परिवर्तन आया। इसी बीच [[प्रतिहार साम्राज्य|गुर्जर-प्रतिहारों]] के साम्राज्य के विघटन से उत्तरी भारत कई छोट-छोटे राज्यों में बंट गया जिनके शासकों के पास इस नई युद्ध नीति के महत्व को समझने तथा उसका मुक़ाबला करने के न तो साधन थे और न ही इच्छा थी।
+
====वेदांग====
==महमूद ग़ज़नवी==
+
{{main|वेदांग}}
{{main|महमूद ग़ज़नवी}}
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वेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने में वेदांग काफ़ी सहायक होते हैं। वेदांग शब्द से अभिप्राय है- 'जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिले'। वेदांगो की कुल संख्या 6 है, जो इस प्रकार है-<br />
इसी प्रक्रिया के दौरान ग़ज़नी के सिंहासन पर महमूद (998-1030) बैठा। मध्ययुगीन इतिहासकारों ने मध्य एशिया के क़बीलाई आक्रमणकारियों से वीरता से संघर्ष करने के कारण महमूद को इस्लाम का योद्धा माना है। इसके अलावा इस समय ईरानी संस्कृति का जो पुनर्जागरण हुआ, उसके साथ महमूद का गहरा सम्पर्क था। गर्वीले ईरानियों ने कभी भी अरबों की भाषा और संस्कृति नहीं अपनायी। समानी साम्राज्य में [[फ़ारसी भाषा]] और साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया गया। 'फ़िरदौसी' की 'शाहनामा' के साथ ईरानी साहित्य अपने शिखर पर पहुँच गया। फ़िरदौसी महमूद के दरबार में राज कवि था। उसने यह दिखाने की चेष्टा की कि ईरान और तूरान का संघर्ष बहुत प्राचीन युग में भी था और उसने ईरानी योद्धाओं को अपने साहित्य में गौरवशाली बनाया। इस काल में ईरानी देशप्रेम का इतना उभार हुआ कि महमूद ने भी स्वयं को प्राचीन ईरानी किंवदन्तियों में चर्चित राजा 'अफ़रासियाब' का वंशज होने का दावा किया। फ़ारसी भाषा सारे ग़ज़नवी साम्राज्य की भाषा बन गई। इस प्रकार तुर्क न केवल मुसलमान वरन फ़ारसी भी बन गए। इसी संस्कृति को दो शताब्दियों के बाद वे भारत लाए।
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1- शिक्षा, 2- कल्प, 3- व्याकरण, 4- निरूक्त, 5- छन्द एवं 6- ज्योतिष
  
==शक्तिशाली साम्राज्य सेलजुक==
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ब्राह्मण ग्रन्थों में धर्मशास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
महमूद की मृत्यु के बाद एक अन्य शक्तिशाली साम्राज्य 'सेलजुक' का अभ्युदय हुआ। सेलजुक साम्राज्य में सीरिया, ईरान तथा ट्राँस-अक्सियाना शामिल थे, इसे ख़ुरासान पर अधिकार ज़माने के लिए ग़ज़नियों का मुक़ाबला करना पड़ा। एक प्रसिद्ध लड़ाई में महमूद का पुत्र 'मसूद' बुरी तरह से पराजित हुआ और शरण के लिए [[लाहौर]] भागा। ग़ज़नवी साम्राज्य अब ग़ज़नी तथा पंजाब तक सीमित हो गया। यद्यपि ग़ज़नवी गंगा घाटी तथा राजपूताना में आकर लूट-पाट करते रहे, फिर भी भारत को उनसे कोई बड़ा सैनिक ख़तरा नहीं रह गया था। इसके साथ-साथ उत्तर भारत में कई नये राज्य स्थापित हुए, जो ग़ज़नवियों के आक्रमणों का मुक़ाबला कर सकते थे।
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*धर्मशास्त्र में चार साहित्य आते हैं- 1- धर्म सूत्र, 2- स्मृति, 3- टीका एवं 4- निबन्ध।
==राजपूत राज्य==
 
{{main|राजपूत काल}}
 
[[राजपूत]] नाम के नये वर्ग के उदय के साथ ही [[प्रतिहार साम्राज्य]] के विघटन के बाद उत्तर भारत में कई राजपूत राज्यों की नींव पड़ी। इनमें सबसे प्रमुख कन्नौज के गहदवाल, [[मालवा]] के [[परमार वंश|परमार]] तथा [[अजमेर]] के [[चौहान वंश|चौहान]] थे। देश के अन्य क्षेत्रों में और भी छोटे-छोटे राज्य थे। जैसे आधुनिक [[जबलपुर]] के निकट कलचुरी, [[बुंदेलखण्ड]] में [[चंदेल वंश|चंदेल]], [[गुजरात]] में [[चालुक्य वंश|चालुक्य]] तथा [[दिल्ली]] में [[तोमर वंश|तोमर]] वंशों का शासन था। [[बंगाल]] पर पहले [[पाल वंश]] का अधिकार था, बाद में [[सेन वंश]] का अधिकार हुआ।
 
  
==भव्यों मन्दिरों का निर्माण==
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====स्मृतियाँ====
{{main|भारत की वास्तुकला का इतिहास}}
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{{main|स्मृतियाँ}}
आठवीं शताब्दी के बाद और विशेषकर दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच का काल मन्दिर निर्माण कला का चरमोत्कर्ष माना जा सकता है। आज हम जिन भव्यों मन्दिरों को देखते हैं, उनमें से अधिकतर उसी काल में बनाये गए थे। इस काल की मन्दिर निर्माण कला की मुख्य शैली 'नागर' नाम से जानी जाती है। यद्यपि इस शैली के मन्दिर सारे भारत में पाए जाते हैं तथापि इनके मुख्य केन्द्र उत्तर भारत और दक्कन में थे।
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स्मृतियों को 'धर्म शास्त्र' भी कहा जाता है- 'श्रस्तु वेद विज्ञेयों धर्मशास्त्रं तु वैस्मृतिः।' स्मृतियों का उदय सूत्रों को बाद हुआ। मनुष्य के पूरे जीवन से सम्बंधित अनेक क्रिया-कलापों के बारे में असंख्य विधि-निषेधों की जानकारी इन स्मृतियों से मिलती है। सम्भवतः [[मनुस्मृति]] (लगभग 200 ई.पूर्व. से 100 ई. मध्य) एवं याज्ञवल्क्य स्मृति सबसे प्राचीन हैं। उस समय के अन्य महत्त्वपूर्ण स्मृतिकार थे- [[नारद]], [[पराशर]], [[बृहस्पति]], [[कात्यायन]], [[गौतम]], संवर्त, हरीत, [[अंगिरा]] आदि, जिनका समय सम्भवतः 100 ई. से लेकर 600 ई. तक था। मनुस्मृति से उस समय के [[भारत]] के बारे में राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जानकारी मिलती है। [[नारद स्मृति]] से [[गुप्त वंश]] के संदर्भ में जानकारी मिलती है। मेधातिथि, मारुचि, कुल्लूक भट्ट, गोविन्दराज आदि टीकाकारों ने 'मनुस्मृति' पर, जबकि विश्वरूप, अपरार्क, [[विज्ञानेश्वर]] आदि ने 'याज्ञवल्क्य स्मृति' पर भाष्य लिखे हैं।
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====महाकाव्य====
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{{main|महाकाव्य}}
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'[[रामायण]]' एवं '[[महाभारत]]', भारत के दो सर्वाधिक प्राचीन महाकाव्य हैं। यद्यपि इन दोनों महाकाव्यों के रचनाकाल के विषय में काफ़ी विवाद है, फिर भी कुछ उपलब्ध साक्ष्यों के आधर पर इन महाकाव्यों का रचनाकाल चौथी शती ई.पू. से चौथी शती ई. के मध्य माना गया है।
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====रामायण====
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{{main|रामायण}}
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रामायण की रचना [[बाल्मीकि|महर्षि बाल्मीकि]] द्वारा पहली एवं दूसरी शताब्दी के दौरान [[संस्कृत|संस्कृत भाषा]] में की गयी । बाल्मीकि कृत रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे, जो कालान्तर में 12000 हुए और फिर 24000 हो गये । इसे 'चतुर्विशिति साहस्त्री संहिता' भ्री कहा गया है। बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण- [[बाल काण्ड वा. रा.|बालकाण्ड]], [[अयोध्या काण्ड वा. रा.|अयोध्याकाण्ड]], [[अरण्य काण्ड वा. रा.|अरण्यकाण्ड]], [[किष्किन्धा काण्ड वा. रा.|किष्किन्धाकाण्ड]], [[सुन्दर काण्ड वा. रा.|सुन्दरकाण्ड]], [[युद्ध काण्ड वा. रा.|युद्धकाण्ड]] एवं [[उत्तर काण्ड वा. रा.|उत्तराकाण्ड]] नामक सात काण्डों में बंटा हुआ है। रामायण द्वारा उस समय की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। रामकथा पर आधारित ग्रंथों का अनुवाद सर्वप्रथम [[भारत]] से बाहर [[चीन]] में किया गया। भूशुण्डि रामायण को 'आदिरामायण' कहा जाता है। 
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====महाभारत====
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{{main|महाभारत}}
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[[व्यास|महर्षि व्यास]] द्वारा रचित [[महाभारत]] महाकाव्य [[रामायण]] से बृहद है। इसकी रचना का मूल समय ईसा पूर्व चौथी शताब्दी माना जाता है। महाभारत में मूलतः 8800 श्लोक थे तथा इसका नाम 'जयसंहिता' (विजय संबंधी ग्रंथ) था। बाद में श्लोकों की संख्या 24000 होने के पश्चात् यह वैदिक जन [[भरत (दुष्यंत पुत्र)|भरत]] के वंशजों की कथा होने के कारण ‘भारत‘ कहलाया। कालान्तर में [[गुप्त काल]] में श्लोकों की संख्या बढ़कर एक लाख होने पर यह 'शतसाहस्त्री संहिता' या 'महाभारत' कहलाया। महाभारत का प्रारम्भिक उल्लेख 'आश्वलाय गृहसूत्र' में मिलता है। वर्तमान में इस महाकाव्य में लगभग एक लाख श्लोकों का संकलन है। महाभारत महाकाव्य 18 पर्वो- [[आदि पर्व महाभारत|आदि]], [[सभा पर्व महाभारत|सभा]], [[वन पर्व महाभारत|वन]], [[विराट पर्व महाभारत|विराट]], [[उद्योग पर्व महाभारत|उद्योग]], [[भीष्म पर्व महाभारत|भीष्म]], [[द्रोण पर्व महाभारत|द्रोण]], [[कर्ण पर्व महाभारत|कर्ण]], [[शल्य पर्व महाभारत|शल्य]], [[सौप्तिक पर्व महाभारत|सौप्तिक]], [[स्त्री पर्व महाभारत|स्त्री]], [[शान्ति पर्व महाभारत|शान्ति]], [[अनुशासन पर्व महाभारत|अनुशासन]], [[आश्वमेधिक पर्व महाभारत|अश्वमेध]], [[आश्रमवासिक पर्व महाभारत|आश्रमवासी]], [[मौसल पर्व महाभारत|मौसल]], [[महाप्रास्थानिक पर्व महाभारत|महाप्रास्थानिक]] एवं [[स्वर्गारोहण पर्व महाभारत|स्वर्गारोहण]] में विभाजित है। महाभारत में ‘हरिवंश‘ नाम परिशिष्ट है। इस महाकाव्य से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है।
  
==उत्तर भारत पर तुर्कों की विजय==
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====पुराण====
[[पंजाब]] में ग़ज़नवियों के बाद हिन्दू और मुसलमानों के बीच दो विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध स्थापित हुए। एक तो लूट की लालसा थी जिसके परिणाम स्वरूप महमूद के उत्तराधिकारियों ने गंगा घाटी और राजपूताना में कई बार आक्रमण किए। राजपूत शासकों ने इन आक्रमणों का डट कर मुक़ाबला किया और कई बार तुर्कों को पराजित भी किया। लेकिन अब तक ग़ज़नवी साम्राज्य की शक्ति क्षीण हो चुकी थी और तुर्कों को कई बार पराजित कर राजपूत शासक चैन से बैठ गए। दूसरे स्तर पर मुसलमान व्यापारियों को न केवल स्वीकृति दी गई वरन उनका स्वागत भी किया गया क्योंकि उनके माध्यम से मध्य और पश्चिम एशिया के साथ भारत के व्यापार को बहुत बढ़ावा मिलता था और इससे इन राज्यों की आय भी बढ़ती थी। इस कारण उत्तर भारत के कुछ नगरों में मुसलमान व्यापारियों की कई बस्तियाँ स्थापित हो गईं। व्यापारियों के पीछे-पीछे कई मुसलमान धर्म प्रचारक भी आए जिन्होंने यहाँ [[सूफ़ी मत]] का प्रचार किया। इस प्रकार इस्लाम और हिन्दू समाज तथा और धर्मों में सम्पर्क स्थापित हुआ और वे दोनों एक दूसरे से प्रभावित हुए। लाहौर, [[अरबी भाषा|अरबी]] तथा [[फ़ारसी भाषा]] और साहित्य का केन्द्र बन गया। तिलक जैसे हिन्दू सेनापतियों ने ग़ज़नवियों की सेना का नेतृत्व किया। ग़ज़नवियों की सेना में हिन्दू, सिपाही भी भर्ती होते थे।
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{{main|पुराण}}
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प्राचीन आख्यानों से युक्त ग्रंथ को [[पुराण]] कहते हैं। सम्भवतः 5वीं से 4थी शताब्दी ई.पू. तक पुराण अस्तित्व में आ चुके थे। [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]] में पुराणों के पांच लक्षण बताये ये हैं। यह हैं- सर्प, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। कुल पुराणों की संख्या 18 हैं- 1. [[ब्रह्म पुराण]] 2. [[पद्म पुराण]] 3. [[विष्णु पुराण]] 4. [[वायु पुराण]] 5. [[भागवत पुराण]] 6. [[नारद पुराण|नारदीय पुराण]], 7. [[मार्कण्डेय पुराण]] 8. [[अग्नि पुराण]] 9. [[भविष्य पुराण]] 10. [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]], 11. [[लिंग पुराण]] 12. [[वराह पुराण]] 13. [[स्कन्द पुराण]] 14. [[वामन पुराण]] 15. [[कूर्म पुराण]] 16. [[मत्स्य पुराण]] 17. [[गरुड़ पुराण]] और 18. [[ब्रह्माण्ड पुराण]]
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====बौद्ध साहित्य====
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{{main|बौद्ध साहित्य}}
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[[बौद्ध साहित्य]] को ‘[[त्रिपिटक]]‘ कहा जाता है। [[महात्मा बुद्ध]] के परिनिर्वाण के उपरान्त आयोजित विभिन्न बौद्ध संगीतियों में संकलित किये गये त्रिपिटक (संस्कृत त्रिपिटक) सम्भवतः सर्वाधिक प्राचीन धर्मग्रंथ हैं। वुलर एवं रीज डेविड्ज महोदय ने ‘पिटक‘ का शाब्दिक अर्थ टोकरी बताया है। त्रिपिटक हैं- <br />
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[[सुत्तपिटक]], [[विनयपिटक]] और [[अभिधम्मपिटक]]।
  
ये दोनों प्रक्रियाएँ बराबर जारी रहतीं, यदि इसी बीच मध्य एशिया की राजनीतिक स्थिति में एक बहुत बड़ा परिवर्तन न होता। बारहवीं शताब्दी के मध्य तक तुर्की क़बीलों के एक और दल ने, जो कुछ हद तक [[बौद्ध]] और कुछ हद तक विधर्मी था, सेलजुक तुर्कों को उखाड़ का। इस प्रकार जो स्थान रिक्त हुआ उसमें दो नयी शक्तियाँ - ख्वारिज़मी और [[मुहम्मद ग़ोरी|ग़ोरी]] का उदय हुआ। ख्वारिज़मी साम्राज्य का आधार [[ईरान]] था तथा ग़ोरी साम्राज्य का आधार उत्तर-पश्चिम [[अफ़ग़ानिस्तान]]। ग़ोरी आरम्भ में ग़ज़नी के 'सामंत' थे, पर शीघ्र ही ये इस बोझ को उठा फेंकने में सफल हो गए। ग़ोरियों की शक्ति सुल्तान अलाउद्दीन के समय बहुत बढ़ी। उसे 'संसार को जलाने वाला' कहा जाता था। क्योंकि उसने भाइयों के साथ किए गए दुर्व्यवहार के बदले के रूप में सारी ग़ज़नी को जलाकर ख़ाक में मिला दिया था। ख्वारिज़मी शासकों के कारण ग़ोरी मध्य एशिया में अपने पाँव जमाने की इच्छा को पूरा नहीं कर सके। उन दोनों के बीच झगड़े की जड़ - ख़ुरासान पर ख्वारिज़मी शाह ने अधिकार कर लिया। इससे ग़ोरियों के लिए [[भारत]] की ओर बढ़ने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था।
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{{seealso|जैन साहित्य|लौकिक साहित्य}}
==मुइज्जुद्दीन मुहम्मद बिन कासिम==
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====जैन साहित्य====
शहाबुद्दीन मुहम्मद (जिसे मुइज्जुद्दीन मुहम्मद-बिन-कासिम के नाम से जाना जाता है) 1173 ई. में ग़ज़नी की गद्दी (1173-1206) पर बैठा। इन दिनों उसका बड़ा भाई ग़ोरे का शासक था। गोमल दर्रे से होता हुआ मुइज्जुद्दीन मुहम्मद सुल्तान और उच्छ तक आया और उन स्थानों को अपने अधीन कर लिया। उसने 1178 ई0 में राजपूताना रेगिस्तान के रास्ते [[गुजरात]] पहुँचने की कोशिश की, लेकिन गुजरात के शासक ने आबू पहाड़ के निकट हुए युद्ध में उसे इतनी बुरी तरह हराया कि मुइज्जुद्दीन मुहम्मद की जान पर बन आई, इस युद्ध के परिणामस्वरूप उसने महसूस किया कि भारत में आक्रमण के लिए पंजाब को आधार बनाना आवश्यक है। परिणामस्वरूप उसने पंजाब में ग़ज़नवियों के अधिकार को समाप्त करने की चेष्टा की और 1179-80 में [[पेशावर]] पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद उसका लक्ष्य [[लाहौर]] था। लाहौर को भी उसने कई अभियानों के बाद 1186 में जीत लिया। इसके बाद उसने देबल तथा स्यालकोट के क़िलों पर भी क़ब्ज़ा किया।
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{{main|जैन साहित्य}}
इस प्रकार 1190 तक मुइज्जुद्दीन मुहम्मद बिन साम [[दिल्ली]] और गंगा दोआब पर बड़े आक्रमण के लिए तैयार हो गया।
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ऐतिहसिक जानकारी हेतु [[जैन साहित्य]] भी [[बौद्ध साहित्य]] की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहित्य [[प्राकृत]] एवं [[संस्कृत]] भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य, जिसे ‘[[आगम]]‘ कहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है। आगे चलकर इनके 'उपांग' भी लिखे गये । आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, एक नंदि सूत्र एक अनुयोगद्वार एवं चार मूलसूत्र हैं। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः [[श्वेताम्बर सम्प्रदाय]] के आचार्यो द्वारा [[महावीर|महावीर स्वामी]] की मृत्यु के बाद की गयी।
लेकिन इस बीच उत्तर भारत में भी घटनाएँ स्थिर नहीं थी। यहाँ चौहानों की शक्ति धीरे-धीरे बढ़ रही थी। उन्होंने [[राजस्थान]] पर [[पंजाब]] की ओर से हमला करने वाले तुर्कों को बड़ी संख्या में मार दिया और उनके हमलों को नाकाम कर दिया। वे इस शताब्दी के मध्य तक तोमरों से दिल्ली छीनने में भी सफल हो गए थे। पंजाब की बढ़ती चौहानों की शक्ति से इस क्षेत्र के ग़ज़नवी शासकों के साथ उनका संघर्ष होना तय ही था।
 
==पृथ्वीराज चौहान==
 
{{main|पृथ्वीराज चौहान}}
 
जब मुइज्जुद्दीन मुहम्मद मुल्तान और उच्छ पर अधिकार करने की चेष्टा कर रहा था, एक चौदह साल का लड़का, [[पृथ्वीराज चौहान|पृथ्वीराज]] [[अजमेर]] की गद्दी पर बैठा। पृथ्वीराज के बारे में कई कहानियाँ मशहूर हैं।
 
  
युवा पृथ्वीराज ने आरम्भ से ही साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाई। पहले अपने सगे-सम्बन्धियों के विरोध को समाप्त कर उसने [[राजस्थान]] के कई छोटे राज्यों को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। फिर उसने [[बुंदेलखण्ड]] पर चढ़ाई की तथा [[महोबा]] के निकट एक युद्ध में चदेलों को पराजित किया। इसी युद्ध में प्रसिद्ध भाइयों, [[आल्हाखण्ड|आल्हा और ऊदल]] ने महोबा को बचाने के लिए अपनी जान दे दी। पृथ्वीराज ने उन्हें पराजित करने के बावजूद उनके राज्य को नहीं हड़पा। इसके बाद उसने गुजरात पर आक्रमण किया, पर गुजरात के शासक 'भीम द्वितीय' ने, जो पहले मुइज्जुद्दीन मुहम्मद को पराजित कर चुका था, पृथ्वीराज को मात दी। इस पराजय से बाध्य होकर पृथ्वीराज को पंजाब तथा गंगा घाटी की ओर मुड़ना पड़ा।
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====विदेशियों के विवरण====
==क़ुतुबुद्दीन ऐबक==
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विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण से भी हमें भारतीय इतिहास की जानकारियाँ मिलती है। इनको तीन भागों में बांट सकते हैं- <br />
{{main|कुतुबुद्दीन ऐबक}}
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# [[यूनानी लेखक|यूनानी-रोमन लेखक]]
तराइन के युद्ध के बाद मुइज्जुद्दीन ग़ज़नी लौट गया और भारत के विजित क्षेत्रों का शासन अपने विश्वनीय ग़ुलाम क़ुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों में छोड़ दिया। पृथ्वीराज के पुत्र को [[रणथम्भौर]] सौंप दिया गया जो तेरहवीं शताब्दी में शक्तिशाली चौहानों की राजधानी बना। अगले दो वर्षों में ऐबक ने, ऊपरी दोआब में [[मेरठ]], बरन तथा कोइल (आधुनिक [[अलीगढ़]]) पर क़ब्ज़ा किया। इस क्षेत्र के शक्तिशाली डोर-राजपूतों ने ऐबक का मुक़ाबला किया, लेकिन आश्चर्य की बात है कि गहदवालों को तुर्की आक्रमण से सबसे अधिक नुकसान का ख़तरा था और उन्होंने न तो डोर-राजपूतों की कोई सहायता की और न ही तुर्कों को इस क्षेत्र से बाहर निकालने का कोई प्रयास ही किया। मुइज्जुद्दीन 1194 ई0 में भारत वापस आया। वह पचास हज़ार घुड़सवारों के साथ [[यमुना नदी|यमुना]] को पार कर कन्नौज की ओर बढ़ा। [[इटावा]] ज़िले में कन्नौज के निकट छंदवाड़ में मुइज्जुद्दीन और जयचन्द्र के बीच भीषण लड़ाई हुई। बताया जाता है कि जयचन्द्र जीत ही गया था जब उसे एक तीर लगा और उसकी मृत्यु हो गई। उसके मरने के साथ ही सेना के भी पाँव उखड़ गए। अब मुइज्जुद्दीन [[बनारस]] की ओर बढ़ा और उस शहर को तहस-नहस कर दिया। उसने वहाँ के मन्दिरों की भी नहीं छोड़ा। यद्यपि इस क्षेत्र के एक भाग पर तब भी गहदवालों का शासन रहा और कन्नौज जैसे कई गढ़, तुर्कों का विरोध करते रहे तथापि बंगाल की सीमा तक एक बड़ा भूभाग उनके क़ब्ज़े में आ गया।
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# [[चीनी लेखक]]
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# [[अरबी लेखक]]
  
तराइन और छंदवाड़ के युद्धों के परिणामस्वरूप उत्तर भारत में तुर्की साम्राज्य की नींव पड़ी। इस शासन की जड़ें मज़बूत करना कठिन काम था और लगभग 50 वर्षों तक तुर्क इसका प्रयास करते रहे। मुइज्जुद्दीन 1206 ई0 तक जीवित रहा। इस अवधि में उसने दिल्ली की दक्षिण सीमा की सुरक्षा के लिए बयाना तथा ग्वालियर के क़िलों पर क़ब्ज़ा किया। उसके बाद ऐबक ने चंदेल शासकों से कालिंजर, महोबा तथा ख़जुराहो को छीन लिया।
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====पुरातत्त्व====
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{{Main|पुरातत्त्व}}
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पुरातात्विक साक्ष्य के अंतर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियां चित्रकला आदि आते हैं। इतिहास निमार्ण में सहायक पुरातत्त्व सामग्री में अभिलेखों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये अभिलेख अधिकांशतः स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं पात्रों, मूर्तियों, गुहाओं आदि में खुदे हुए मिलते हैं। यद्यपि प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के ‘[[बोगजकोई]]‘ नाम स्थान से क़रीब 1400 ई.पू. में पाये गये जिनमें अनेक वैदिक देवताओं - [[इन्द्र]], मित्र, [[वरुण देवता|वरुण]], नासत्य आदि का उल्लेख मिलता है।
  
दोआब को अपना आधार बनाकर तुर्कों ने आसपास के क्षेत्रों पर आक्रमण आरम्भ कर दिया। ऐबक ने गुजरात तथा अनहिलवाड़ा के शासक भीम द्वितीय को पराजित किया और कई नगरों में लूटपाट मचाई। यहाँ यद्यपि एक मुसलमान शासक को नियुक्त किया गया था पर उसे शीघ्र ही गद्दी से उतार दिया गया। इससे पता चलता है कि तुर्क इतने दूर दराज क्षेत्रों में शासन करने के लायक शक्ति नहीं बने थे।
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====चित्रकला====
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{{Main|चित्रकला}}
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[[चित्रकला]] से हमें उस समय के जीवन के विषय में जानकारी मिलती है। [[अजंता की गुफ़ाएँ|अजंता]] के चित्रों में मानवीय भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति मिलती है। चित्रों में ‘माता और शिशु‘ या ‘मरणशील राजकुमारी‘ जैसे चित्रों से गुप्तकाल की कलात्मक पराकाष्ठा का पूर्ण प्रमाण मिलता है।
  
==बख़्तियार ख़िलजी==
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{{इन्हेंभीदेखें|मूर्ति कला मथुरा|अभिलेख}}
{{main|बख़्तियार ख़िलजी}}
 
पूर्व में तुर्क अधिक सफल रहे। एक ख़िलजी अधिकारी, बख़्तियार ख़िलजी, जिसके चाचा ने तराइन की लड़ाई में भाग लिया था, बनारस के पार कुछ क्षेत्रों का शासक हुआ। उसने इस बात का लाभ उठाया और बिहार में कई आक्रमण किए। बिहार में अभी कोई शक्तिशाली राजा नहीं था। इन आक्रमणों के दौरान उसने [[नालन्दा]] और [[विक्रमशिला]] जैसे बौद्ध मठों को ध्वंस कर दिया। इन बौद्ध संस्थानों को अब संरक्षण देने वाला कोई नहीं था। बख्तियार ख़िलजी ने काफ़ी सम्पत्ति और इसके साथ समर्थकों को भी इकट्ठा कर लिया। इन आक्रमणों के दौरान उसने [[बंगाल]] के मार्ग के बारे में भी सूचना इकट्ठी की। बंगाल अपने अतिरिक्त आंतरिक साधनों और विदेशी व्यापार के कारण अपनी सम्पत्ति के लिए प्रसिद्ध था।
 
==ग़ोरी साम्राज्य का विस्तार==
 
जब ऐबक और तुर्की और ख़िलजी सरदार उत्तर भारत में नए क्षेत्रों को जीतने और अपनी स्थिति मज़बूत करने की चेष्टा कर रहे थे, मुइज्जुद्दीन और उसका भाई मध्य एशिया में ग़ोरी साम्राज्य का विस्तार करने लगे थे। ग़ोरियों की विस्तार की आकांक्षा ने उन्हें शक्तिशाली ख्वारिज़म साम्राज्य से टक्कर लेने पर मज़बूर कर दिया। ख्वारिज़म शासक ने मुइज्जुद्दीन को 1203 में करारी मात दी। लेकिन यह पराजय एक प्रकार से उनके लिए लाभदायक सिद्ध हुई। क्योंकि इसके कारण उन्हें एशिया में विस्तार की आकांक्षा को त्यागना पड़ा और उन्होंने भारत में विस्तार की ओर अपना पूरा ध्यान लगा दिया। लेकिन इस युद्ध का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि मुइज्जुद्दीन की हार से साहस पा कर भारत में उसके कई विरोधियों ने बग़ावत कर दी। पश्चिम बंगाल की लड़ाकू जाति खोकर ने लाहौर और ग़ज़नी के बीच सम्पर्क साधनों को काट दिया। मुइज्जुद्दीन ने भारत में अपना अंतिम आक्रमण खोकरों के विद्रोह को दबाने के लिए किया जिसमें वह सफल भी हुआ। ग़ज़नी लौटते समय वह एक विरोधी मुस्लिम सम्प्रदाय के कट्टर समर्थक द्वारा मारा गया।
 
  
==मोहम्मद बिन कासिम और महमूद ग़ज़नवी==
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==पाषाण काल==
मुइज्जुद्दीन मोहम्मद बिन कासिम की तुलना अक्सर महमूद ग़ज़नवी से की जाती है। योद्धा के रूप में महमूद ग़ज़नवी अधिक सफल था क्योंकि भारत अथवा मध्य एशिया के एक भी अभियान में वह पराजित नहीं हुआ। वह भारत के बाहर भी एक बड़े साम्राज्य पर शासन करता था। लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि महमूद की अपेक्षा मुइज्जुद्दीन को भारत में और बड़े तथा संसंगठित राज्यों का सामना करना पड़ा। यद्यपि वह मध्य एशिया में उतना सफल नहीं हो सका, भारत में उसकी राजनीतिक उपलब्धियाँ और बड़ी थीं। उन दोनों को विभिन्न परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। अतः इन दोनों की तुलना से कोई विशेष लाभ नहीं होगा। इसके अलावा भारत में राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से इन दोनों का लक्ष्य कई बातों में बिल्कुल भिन्न था।
+
{{main|भारत का इतिहास पाषाण काल}}
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समस्त इतिहास को तीन कालों में विभाजित किया जा एकता है-
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#प्राक्इतिहास या प्रागैतिहासिक काल (Prehistoric Age)
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#आद्य ऐतिहासिक काल (Proto-historic Age)
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#ऐतिहासिक काल (Historic Age)
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====भारत की आदिम (प्रारंभिक) जातियाँ====
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{{main|भारत की आदिम जातियाँ}}
 +
प्रारम्भिक काल में [[भारत]] में कितने प्रकार की जातियां निवास करती थीं, उनमें आपसी सम्बन्घ किस स्तर के थे, आदि प्रश्न अत्यन्त ही विवादित हैं। फिर भी नवीनतम सर्वाधिक मान्यताओं में 'डॉ. बी.एस. गुहा' का मत है। भारतवर्ष की प्रारम्भिक जातियों को छह भागों में विभक्त किया जा सकता है। -
 +
# नीग्रिटों
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# प्रोटो-ऑस्ट्रेलियाईड
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# मंगोलायड
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# भूमध्य सागरीय
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# पश्चिमी ब्रेकी सेफल
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# नॉर्डिक
  
इन दोनों में से किसी को भी इस्लाम में विशेष दिलचस्पी नहीं थी। यदि एक बार कोई शासक उनके प्रभुत्व को स्वीकार कर लेता तो उसे अपने क्षेत्र में शासन करने दिया जाता। केवल विशेष परिस्थितियों में उसके पूरे राज्य अथवा उसके किसी हिस्से को पूरी तरह अपने अधिकार में लेना आवश्यक हो जाता। महमूद तथा मुइज्जुद्दीन दोनों की सेनाओं में हिन्दू सैनिक और अधिकारी थे और दोनों में से किसी ने अपने स्वार्थों को सिद्ध करने तथा भारतीय शहरों और मन्दिरों की लूट को उचित ठहराने के लिए इस्लाम के नारों का सहारा लेने में हिचकिचाहट महसूस नहीं की।
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==सिंधु घाटी सभ्यता==
पन्द्रह वर्षों की छोटी अवधि में उत्तर भारत के प्रमुख राज्यों ने तुर्की सेनाओं के सामने घुटने टेक दिए। इसके कारण भी जानना आवश्यक है। यह एक नियम के रूप में स्वीकार किया जा सकता है कि एक देश दूसरे से तभी पराजित होता है जब वह सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से कमज़ोर पड़ गया हो तथा अपने पड़ोसियों की तुलना में आर्थिक और सैनिक रूप से पीछे पड़ गया हो।
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{{main|सिंधु घाटी सभ्यता}}
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आज से लगभग 70 वर्ष पूर्व [[पाकिस्तान]] के 'पश्चिमी पंजाब प्रांत' के 'माण्टगोमरी ज़िले' में स्थित 'हरियाणा' के निवासियों को शायद इस बात का किंचित्मात्र भी आभास नहीं था कि वे अपने आस-पास की ज़मीन में दबी जिन ईटों का प्रयोग इतने धड़ल्ले से अपने मकानों का निर्माण में कर रहे हैं, वह कोई साधारण ईटें नहीं, बल्कि लगभग 5,000 वर्ष पुरानी और पूरी तरह विकसित सभ्यता के अवशेष हैं। इसका आभास उन्हें तब हुआ जब 1856 ई. में 'जॉन विलियम ब्रन्टम' ने कराची से [[लाहौर]] तक रेलवे लाइन बिछवाने हेतु ईटों की आपूर्ति के इन खण्डहरों की खुदाई प्रारम्भ करवायी। खुदाई के दौरान ही इस सभ्यता के प्रथम अवशेष प्राप्त हुए, जिसे इस सभ्यता का नाम ‘हड़प्पा सभ्यता‘ का नाम दिया गया।
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====हड़प्पा लिपि====
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{{main|हड़प्पा लिपि}}
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हड़प्पा लिपि का सर्वाधिक पुराना नमूना 1853 ई. में मिला था पर स्पष्टतः यह लिपि 1923 तक प्रकाश में आई। [[सिंधु लिपि]] में लगभग 64 मूल चिह्न एवं 205 से 400 तक अक्षर हैं जो सेलखड़ी की आयताकार मुहरों, तांबे की गुटिकाओं आदि पर मिलते हैं। यह लिपि चित्रात्मक थी। यह लिपि अभी तक गढ़ी नहीं जा सकी है। इस लिपि में प्राप्त सबसे बड़े लेख में क़रीब 17 चिह्न हैं। [[कालीबंगा]] के [[उत्खनन]] से प्राप्त मिट्टी के ठीकरों पर उत्कीर्ण चिह्न अपने पार्श्ववर्ती दाहिने चिह्न को काटते हैं। इसी आधार पर 'ब्रजवासी लाल' ने यह निष्कर्ष निकाला है - 'सैंधव लिपि दाहिनी ओर से बायीं ओर को लिखी जाती थी।'
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====मृण्मूर्तियां====
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{{main|हड़प्पा सभ्यता की मृण्मूर्तियां}}
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हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त मृण्मूर्तियों का निर्माण मिट्टी से किया गया है। इन मृण्मूर्तियों पर मानव के अतिरिक्त पशु पक्षियों में बैल, भैंसा, बकरा, [[बाघ]], सुअर, गैंडा, भालू, [[बन्दर]], [[मोर]], तोता, बत्तख़ एवं [[कबूतर]] की मृणमूर्तियां मिली है। मानव मृण्मूर्तियां ठोस है पर पशुओं की खोखली। नर एवं नारी मृण्मूर्तियां में सर्वाधिक नारी मृण्मूर्तियां ठोस हैं, पर पशुओं की खोखली। नर एवं नारी- मृण्मूर्तियां में सर्वाधिक नारी मृण्मूर्तियां मिली हैं।
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====हड़प्पा सभ्यता के नगरों की विशेषताएं====
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{{main|हड़प्पा सभ्यता की नगर योजना}}
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हड़प्पा संस्कृति की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी- इसकी नगर योजना। इस सभ्यता के महत्त्वपूर्ण स्थलों के नगर निर्माण में समरूपता थी। नगरों के भवनो के बारे में विशिष्ट बात यह थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे।
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====हडप्पा जनजीवन====
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{{main|हड़प्पा समाज और संस्कृति}}
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हडप्प्पा संस्कृति की व्यापकता एवं विकास को देखने से ऐसा लगता है कि यह सभ्यता किसी केन्द्रीय शक्ति से संचालित होती थी। वैसे यह प्रश्न अभी विवाद का विषय बना हुआ है, फिर भी चूंकि हडप्पावासी वाणिज्य की ओर अधिक आकर्षित थे, इसलिए ऐसा माना जाता है कि सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता का शासन वणिक वर्ग के हाथ में था।
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*ह्नीलर ने सिंधु प्रदेश के लोगों के शासन को 'मध्यम वर्गीय जनतंन्त्रात्मक शासन' कहा और उसमें धर्म की महत्ता को स्वीकार किया।
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*स्टुअर्ट पिग्गॉट महोदय ने कहा 'मोहनजोदाड़ों का शासन राजतन्त्रात्मक न होकर जनतंत्रात्मक' था।
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*मैके के अनुसार ‘मोहनजोदड़ों का शासन एक प्रतिनिधि शासक के हाथों था।
  
भारत का दूसरे राष्ट्रों से अलग-थलग रहना, यहाँ के बुद्धिजीवियों, विशेषकर ब्राह्मणों का संकीर्ण दृष्टिकोण और दस्तकारों तथा श्रमिकों को नीची दृष्टि से देखा जाना इसके कारण थे। यदि ऐसा नहीं होता तो राजपूत राज्यों को पराजित नहीं होना पड़ता जो ग़ज़नवी और ग़ोरी राज्यों से यदि और बड़े नहीं तो उनसे छोटे भी नहीं थे और जिनके पास अधिक मानवीय और प्राकृतिक साधन थे।
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==प्रागैतिहासिक काल==
==घोड़ों का आयात==
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{{Main|प्रागैतिहासिक काल}}
सैनिक दृष्टि से तुर्क लोग कई कारणों से अधिक लाभदायक स्थिति में थे। ऊँची जाति के घोड़े मध्य एशिया, ईरान तथा अरब में होते थे जबकि भारत को उनका आयात करना पड़ता था। भारतीय लोग अच्छी क़िस्मों के घोड़ों को भारत में ही पैदा न कर सकने का कारण समझ में नहीं आता। जो भी हो अच्छे घोड़ों का आयात बहुत मंहगा पड़ता था और उनके यहाँ आने में किसी भी समय बाधा डाली जा सकती थी। ग़ज़नी शासकों द्वारा अफ़ग़ानिस्तान की विजय तथा समुद्र मार्ग पर अरबों के नियंत्रण से भारत को अच्छे घोड़ों के लिए मुसलमान व्यापारियों पर निर्भर रहना पड़ता था। बख्तबंद घुड़सवार तथा घुड़सवार धनुर्धारियों के कारण दसवीं शताब्दी के बाद मध्य एशिया और यूरोप में युद्ध के तरीकों में पूरी तरह परिवर्तन आ गया था। तुर्क इस प्रकार के नये युद्ध में कुशलता प्राप्त कर चुके थे। जबकि भारतीयों के साथ ऐसी बात नहीं थी। उन्हें अभी भी हाथियों और पैदल सैनिकों पर निर्भर रहना पड़ता था। घोड़ों का केवल पूरक के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। भारतीय सैनिक विपत्ति पड़ने पर तुरन्त घोड़े से उतर पड़ते थे और पैदल ही लड़ते थे। उनकी इस आदत से उनके शत्रु अच्छी तरह परिचित हो चुके थे और पराजय होने पर उनका बड़ी संख्या में क़त्ल होता था।
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भारत का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से आरम्भ होता है। 3000 ई. पूर्व तथा 1500 ई. पूर्व के बीच [[सिंधु घाटी]] में एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी, जिसके अवशेष [[मोहन जोदड़ो]] (मुअन-जो-दाड़ो) और [[हड़प्पा]] में मिले हैं। विश्वास किया जाता है कि भारत में [[आर्य|आर्यों]] का प्रवेश बाद में हुआ। आर्यों ने पाया कि इस देश में उनसे पूर्व के जो लोग निवास कर रहे थे, उनकी सभ्यता यदि उनसे श्रेष्ठ नहीं तो किसी रीति से निकृष्ट भी नहीं थी। आर्यों से पूर्व के लोगों में सबसे बड़ा वर्ग [[द्रविड़ निवासी|द्रविड़ों]] का था।
==भारतीय सेना का कमज़ोर संगठन ==
 
सामंतवाद के विकास से भारतीय सेना का संगठन कमज़ोर पड़ गया था। विभिन्न सरदार और राजे लड़ाई में समन्वित तरीक़े से लड़ नहीं सकते थे और पराजय के बाद जल्दी-जल्दी अपने क्षत्रों में लौट जाते थे। उधर तुर्कों ने एक संगठित सेना का विकास कर लिया था। वे सैनिकों को एक जगह भर्ती करते थे, उन्हें नक़द वेतन देते थे और इस प्रकार से उनकी सेना में मैदान में अधिक देर तक टिकने की आदत थी, उनके सैनिक काफ़ी समय तक मैदान में टिक सकते थे और दुश्मन से लोहा ले सकते थे। इसका आधार 'इक़ता' व्यवस्था थी।
 
दिल्ली सल्तनत (लगभग 1200 ई0 से 1400 ई0)
 
==मामलुक सुल्तान==
 
तुर्क [[पंजाब]] और मुल्तान से लेकर गंगा घाटी तक, यहाँ तक की [[बिहार]] तथा [[बंगाल]] के कुछ क्षेत्रों में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हो सके। इनके राज्य को 'दिल्ली सल्तनत' के नाम से जाना जाता है। क़रीब सौ वर्षों तक इन तुर्कों को अपने राज्य की सुरक्षा के लिए विदेशी आक्रमणों, तुर्की नेताओं के आंतरिक मतभेदों तथा विजित राजपूत शासकों द्वारा अपने राज्य को पुनः वापस लेने और यदि सम्भव हो तो तुर्कों को बाहर निकाल देने के प्रयासों का सामना करना पड़ा। तुर्की शासक इन बाधाओं को पार कर विजय पाने में सफल हुए और तेरहवीं शताब्दी के अन्त तक उन्होंने न केवल [[मालवा]] और [[गुजरात]] को अपने अधीन कर लिया, वरन दक्कन और दक्षिण [[भारत]] तक पहुँच गए। इस प्रकार उत्तर भारत में स्थापित तुर्की साम्राज्य का प्रभाव सारे भारत पर पड़ा और इसके परिणामस्वरूप सौ वर्षों में समाज, प्रशासन तथा सांस्कृतिक जीवन पर दूरगामी परिवर्तन हुए।
 
सबसे पहले हम तेरहवीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के विस्तार और उसकी बढ़ती शक्ति का अध्ययन करेंगे।
 
==शक्तिशाली राजतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष==
 
[[मुहम्मद ग़ोरी|मुइज्जुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी]] के बाद उसका ग़ुलाम [[कुतुबुद्दीन ऐबक]] सिंहासन पर बैठा। क़ुतुबुद्दीन ने तराइन के युद्ध के बाद तुर्की सल्तनत के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मुइज्जुद्दीन का ही एक और ग़ुलाम याल्दुज़ ग़ज़नी के सिंहासन पर बैठा। ग़ज़नी का शासक होने के नाते याल्दुज़ ने [[दिल्ली]] के राज्य का भी दावा किया। पर उसे ऐबक ने स्वीकार नहीं किया और इसी के समय से दिल्ली सल्तनत ने ग़ज़नी से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। यह भारत के लिए बहुत अच्छा हुआ, क्योंकि इस प्रकार यह मध्य [[एशिया]] की राजनीति से बचा रहा। इससे दिल्ली सल्तनत को, भारत के बाहर के देशों पर निर्भर हुए बिना, स्वतंत्र रूप से विकास करने का अवसर मिला।
 
  
==इल्तुतमिश/अल्तमश <small>(1201 ई0-1236 ई0)</small>==  
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{{seealso|आर्य|आर्यावर्त|द्रविड़ निवासी}}
{{main|इल्तुतमिश}}
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====महाजनपद युग====
चौगान खेलते समय 1210 ई0 में घोड़े से गिरने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका दामाद इल्तुतमिश उसका उत्तराधिकारी बना, पर सिंहासन पर बैठने के पहले उसे ऐबक के पुत्र से युद्ध कर उसे पराजित करना पड़ा। इस प्रकार आरम्भ से ही पिता की मृत्यु के बाद उसके पुत्र के सिंहासनाधिकार की प्रथा को धक्का लगा।
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{{मुख्य|महाजनपद}}
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<blockquote>'''प्राचीन भारतीयों ने कोई तिथि क्रमानुसार इतिहास नहीं सुरक्षित रखा है।''' सबसे प्राचीन सुनिश्चित तिथि जो हमें ज्ञात है, 326 ई. पू. है, जब मक़दूनिया के राजा [[सिकन्दर]] ने भारत पर आक्रमण किया। इस तिथि से पहले की घटनाओं का तारतम्य जोड़ कर तथा साहित्य में सुरक्षित ऐतिहासिक अनुश्रुतियों का उपयोग करके भारत का इतिहास सातवीं शताब्दी ई. पू. तक पहुँच जाता है। इस काल में भारत [[क़ाबुल]] की घाटी से लेकर गोदावरी तक [[सोलह महाजनपद|षोडश जनपदों]] में विभाजित था।</blockquote>
  
अल्तमश (1210-36) को उत्तर भारत में तुर्कों के राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जा सकता है। उसके सिंहासन पर बैठने के समय 'अली मर्दन ख़ाँ' ने बंगाल और बिहार तथा ऐबक के एक और ग़ुलाम, 'कुबाचा' ने, मुल्तान के स्वतंत्र शासकों के रूप में घोषणा कर दी थी। कुबाचा ने [[लाहौर]] तथा [[पंजाब]] के कुछ हिस्सों पर अपना अधिकार भी कर लिया। पहले पहल दिल्ली के निकट भी अल्तमश के कुछ सहकारी अधिकारी उसकी प्रभुता स्वीकार करने में हिचकिचा रहे थे। राजपूतों ने भी स्थिति का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दीं। इस प्रकार [[कालिंजर]], [[ग्वालियर]] तथा [[अजमेर]] और [[बयाना]] सहित सारे पूर्वी [[राजस्थान]] ने तुर्की बोझ अपने कन्धों से उतार फेंका।
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{{seealso|ब्राह्मण|अंधक संघ|कृष्ण|ब्रज}}
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==प्राचीन भारत==
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{{Main|प्राचीन भारत}}
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1200 ई.पू से 240 ई. तक का भारतीय इतिहास, प्राचीन भारत का इतिहास कहलाता है। इसके बाद के [[भारत]] को [[मध्यकालीन भारत]] कहते हैं जिसमें मुख्यतः मुस्लिम शासकों का प्रभुत्व रहा था।
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====मौर्य और शुंग====
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{{main|मौर्य काल|मौर्य साम्राज्य| शुंग}}
  
==रज़िया सुल्तान <small>(1236-39)</small>==
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{{seealso|अशोक|अशोक के शिलालेख|बुद्ध|बौद्ध दर्शन|बौद्ध धर्म|फ़ाह्यान|पाटलिपुत्र|तक्षशिला}}
{{main|रज़िया सुल्तान}}
 
अपने अंतिम दिनों में [[इल्तुतमिश]] अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। वह अपने किसी भी लड़के को सुल्तान बनने योग्य नहीं समझता था। बहुत सोचने विचारने के बाद अन्त में उसने अपनी पुत्री 'रज़िया' को अपना सिंहासन सौंपने का निश्चय किया तथा अपने सरदारों और उल्माओं को इस बात के लिए राज़ी किया। यद्यपि स्त्रियों ने प्राचीन [[मिस्र]] और [[ईरान]] में रानियों के रूप में शासन किया था और इसके अलावा शासक राजकुमारों के छोटे होने के कारण राज्य का कारोबार सम्भाला थी, तथापि इस प्रकार पुत्रों के होते हुए सिंहासन के लिए स्त्री को चुनना एक नया क़दम था।
 
  
==बलबन का युग==  
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====शक, कुषाण और सातवाहन====
(1246-84)
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{{मुख्य|शक साम्राज्य|कुषाण साम्राज्य}}
तुर्क सरदारों और शासन के बीच संघर्ष चलता रहा। एक तुर्क सरदार 'उलघु ख़ाँ' ने, जिसे उसके बाद के नाम, 'बलबन' से जाना जाता है, धीरे-धीरे सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित कर ली और वह 1265 में सिंहासन पर बैठा। उसके सिंहासन पर बैठने के बाद तुर्क सरदार और शासन के बीच संघर्ष रुका। आरम्भ में बलबन अल्तमश के छोटे पुत्र नसीरुद्दीन महमूद का नाइब था, जिसे उसने 1246 में गद्दी पर बैठने में मदद की थी। बलबन ने अपनी एक पुत्री का विवाह युवा सुल्तान से करवा कर अपनी स्थिति और मज़बूत कर ली। बलबन की बढ़ती शक्ति उन तुर्क सरदारों की आंखों में चुभ रही थी जो नसीरुद्दीन महमूद के युवा और अनुभवहीन होने के कारण शासन में अपना प्रभाव क़ायम रखना चाहते थे। उन्होंने मिल कर 1250 में बलबन के विरुद्ध एक षड़यंत्र रचा और बलबन को पदच्युत करवा दिया। बलबन के स्थान पर एक भारतीय मुसलमान 'इमादुद्दीन रिहान' की नियुक्ति हुई। यद्यपि तुर्क सरदार सारे अधिकारों और सारी शक्ति को अपने ही हाथों में रखना चाहते थे तथापि वे रिहान की नियुक्ति के लिए इसलिए राज़ी हो गए क्योंकि वे इस बात पर एकमत नहीं हो सके कि उनमें से बलबन के स्थान पर किसकी नियुक्ति हो। बलबन ने अपना पद छोड़ना स्वीकार तो कर लिया, पर वह चुपके-चुपके अपने समर्थकों को इकट्ठा भी करता रहा। पदच्युत होने के दो वर्षों के अन्दर ही बलबन अपने कुछ विरोधियों को जीतने में सफल हो गया। अब वह शक्ति परीक्षा के लिए तैयार था। ऐसा लगता है कि बलबन ने पंजाब के एक बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने वाले मंगोलों से भी सम्पर्क स्थापित किया। सुल्तान महमूद को बलबन की शक्ति के आगे घुटने टेकने पड़े और उसने रिहान को बर्खास्त कर दिया। कुछ समय बाद रिहान पराजित हुआ और उसे मार दिया गया। बलबन ने उचित-अनुचित तरीक़ों से अपने अन्य विरोधियों को भी समाप्त कर दिया। अब उसने राजसी प्रतीक 'छत्र' को भी ग्रहण कर लिया, पर इतना होने पर भी सम्भवतः तुर्क सरदारों की भावनाओं को ध्यान में रख वह सिंहासन पर नहीं बैठा। सुल्तान महमूद की 1265 में मृत्यु हो गई। कुछ इतिहासकारों का मत है कि बलबन ने सुल्तान को ज़हर देकर मार दिया और सिंहासन के अपने रास्ते को साफ करने के लिए उसके पुत्रों की भी हत्या कर दी। बलबन द्वारा अपनाए गए उपाय बहुत बार अनुचित और अवांछनीय होते थे, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके सिंहासन पर बैठने के साथ ही एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के युग का आरम्भ हुआ।
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{{seealso|राबाटक लेख|कुषाण|कनिष्क|कम्बोजिका|कल्हण}}
बलबन का विश्वास था कि आंतरिक और बाहरी ख़तरों का सामना करने का एकमात्र उपाय सम्राट के सम्मान और उसकी शक्ति को बढ़ाना है और इस कारण वह बराबर इस बात का प्रयत्न करता रहा। उस काल में मान्यता थी कि अधिकार और शक्ति केवल राजसी और प्राचीन वंशों का विशेषाधिकार है। उसी के अनुरूप बलबन ने भी सिंहासन के अपने दावे को मज़बूत करने के लिए घोषणा की कि वह कहानियों में प्रसिद्ध तुर्क योद्धा 'अफ़रासियान' का वंशज है। राजसी वंशज से अपने सम्बन्धों के दावों को मज़बूत करने के लिए बलबन ने स्वयं को तुर्क सरदारों के अग्रणी के रूप में प्रदर्शित किया। उसने शासन के उच्च पदों के लिए केवल उच्च वंश के सदस्यों को स्वीकार करना आरम्भ किया। इसका अर्थ यह था कि भारतीय मुसलमान इन पदों से वंचित रह जाते थे। बलबन कभी-कभी तो इस बात की हद कर देता था। उदाहरणार्थ उसने एक ऐसे बड़े व्यापारी से मिलना अस्वीकार कर दिया जो ऊँचे ख़ानदान का नहीं था। इतिहासकार 'ईरानी' ने, जो स्वयं ख़ानदानी तुर्कों का समर्थक था, अपनी रचना में बलबन से यह कहलवाया है- 'जब भी मैं किसी नीच वंश के आदमी को देखता हूँ तो क्रोध से मेरी आँखें जलने लगती हैं और मेरे हाथ मेरी तलवार तक (उसे मारने के लिए) पहुँच जाते हैं।' बलबन ने वास्तव में ऐसे शब्द कहे थे या नहीं, लेकिन इनसे सम्भवतः गैर-तुर्कों के प्रति उसके दृष्टिकोण के बारे में पता चलता है।
 
  
ख़ानदानी तुर्क सरदारों का स्वयं को अग्रणी बताते हुए भी बलबन अपनी शक्ति में किसी को, यहाँ तक की अपने परिवार के सदस्यों को भी, हिस्सेदार बनाने के लिए तैयार नहीं था। उसको तानाशाही इस हद तक थी कि और तो और वह अपने किसी समर्थ की भी आलोचना सहन नहीं कर सकता था। उसका एक प्रधान कार्य 'चहलगानी' की शक्ति को समाप्त कर सम्राट की शक्ति को मज़बूत करना था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह अपने सम्बन्धी 'शेर ख़ाँ' को ज़हर देकर मारने में भी नहीं हिचका। लेकिन साथ-साथ जनता के समर्थन और विश्वास को प्राप्त करने के लिए वह न्याय के मामले में थोड़ा भी पक्षपात नहीं करता था। अपने अधिकार की अवहेलना करने पर वह बड़े से बड़े व्यक्ति को भी नहीं छोड़ता था। इस प्रकार ग़ुलामों के प्रति दुर्व्यवहार करने पर [[बदायूँ]] तथा [[अवध]] के शासकों के पिताओं को कड़ी सजा दी गई। राज्य की सभी प्रकार की सूचना प्राप्त करने के लिए बलबन ने हर विभाग में अपने जासूस तैनात कर दिए। आंतरिक विद्रोहों तथा [[पंजाब]] में जमे हुए मंगोलों से मुक़ाबला करने के लिए एक शक्तिशाली केन्द्रीय सेना का संगठन किया। इन मंगोलों से दिल्ली सल्तनत को गम्भीर ख़तरा बना हुआ था। इसके लिए उसने सैनिक विभाग 'दीवान-ई-अर्ज़' को पुनर्गठित किया और ऐसे सैनिकों को पेंशन देकर सेवा मुक्त किया जो अब सेवा के लायक नहीं रह गए थे, क्योंकि इनमें से अधिकतर सैनिक तुर्क थे और अल्तमश के हिन्दुस्तान आए थे। उन्होंने बलबन के इस क़दम के विरोध में अपनी आवाज़ उठाई, पर बलबन ने उनकी एक न सुनी।
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====गुप्त====
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{{मुख्य|गुप्त साम्राज्य}}
  
दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों तथा दोआब में अल्तमश की मृत्यु के बाद क़ानून और व्यवस्था की हालत बिगड़ गयी थी। गंगा-यमुना दोआब तथा [[अवध]] में सड़कों की स्थिति ख़राब थी और चारों ओर डाकुओं के भय के कारण वे इतनी असुरक्षित थीं कि पूर्वी क्षेत्रों से सम्पर्क रखना कठिन हो गया। कुछ [[राजपूत]] ज़मीदारों ने इस क्षेत्र में क़िले बना लिए थे और अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। मेवातियों में दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में लूटपाट करने का साहस आ गया था। बलबन ने इन तत्वों का बड़ी कठोरता के साथ दमन किया। डाकुओं का पीछा कर उन्हें बर्बरता से मौत के घाट उतार दिया गया। बदायूँ के आसपास के क्षेत्रों में राजपूतों के क़िलों को तोड़ दिया गया तथा जंगलों को साफ़ कर वहाँ अफ़ग़ान सैनिकों बस्तियाँ बना दी गईं, ताकि वे सड़कों की सुरक्षा कर सकें और राजपूत ज़मीदारों के शासन के विरुद्ध विद्रोहों को तुरन्त कुचल सकें।
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==मध्यकालीन भारत==
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{{Main|मध्यकालीन भारत}}
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====तीन साम्राज्यों का युग (8वीं - 10वीं शताब्दी)====
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सात सौ पचास और एक हज़ार ईस्वी के बीच उत्तर तथा दक्षिण [[भारत]] में कई शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ। नौंवीं शताब्दी तक पूर्वी और उत्तरी भारत में [[पाल साम्राज्य]] तथा दसवीं शताब्दी तक पश्चिमी तथा उत्तरी भारत में [[प्रतिहार साम्राज्य]] शक्तिशाली बने रहे। [[राष्ट्रकूट साम्राज्य|राष्ट्रकूटों]] का प्रभाव दक्कन में तो था ही, कई बार उन्होंने उत्तरी और दक्षिण भारत में भी अपना प्रभुत्व क़ायम किया। यद्यपि ये तीनों साम्राज्य आपस में लड़ते रहते थे तथापि इन्होंने एक बड़े भू-भाग में स्थिरता क़ायम रखी और साहित्य तथा कलाओं को प्रोत्साहित किया।
  
इन कठोर तरीक़ों से बलबन ने स्थिति पर नियंत्रण कर लिया। लोगों को अपनी शक्ति से प्रभावित करने के लिए उसने अपने दरबार की शान-शौकत को बढ़ाया। वह जब भी बाहर निकलता था, उसके चारों तरफ़ अंगरक्षक नंगी तलवारें लिए चलते थे। उसने दरबार में हँसी-मज़ाक समाप्त कर दिया और यह सिद्ध करने के लिए कि उसके सरदार उसकी बराबरी नहीं कर सकते, उनके साथ शराब पीना बंद कर दिया। उसने 'सिज्दा' और 'पैबोस' (सम्राट के सामने झुक कर उसके पैरों को चूमना) के रिवाजों को आवश्यक बना दिया। ये और उसके द्वारा अपनाए गए कई अन्य रिवाज मूलतः ईरानी थे और उन्हें ग़ैर-इस्लामी समझा जाता था। लेकिन इसके बावजूद उनका विरोध करने की किसी में भी हिम्मत नहीं थी। क्योंकि ऐसे समय में जब मध्य और पश्चिम एशिया में मंगोलों के आक्रमण से अधिकतर इस्लामी साम्राज्य ख़त्म हो चुके थे, बलबन और दिल्ली सल्तनत को ही इस्लाम के नेता के रूप में देखा जाने लगा था।
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{{seealso|पाल साम्राज्य|राष्ट्रकूट साम्राज्य|पृथ्वीराज चौहान|गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य|राजपूत काल|चोल साम्राज्य}}
  
बलबन की 1286 में मृत्यु हो गई। वह निस्संदेह दिल्ली सल्तनत और विशेषकर उसके प्रशासन के प्रमुख प्रतिष्ठाताओं में से एक था। सम्राट के अधिकारों को प्रमुखता देकर बलबन ने दिल्ली सल्तनत की शक्ति को भी मज़बूत किया, लेकिन वह मंगोलों के आक्रमण से [[भारत]] की उत्तरी सीमा को पूरी तरह नहीं बचा सका। इसके अलावा ग़ैर-तुर्कों को उच्च पदों पर नियुक्त न करने और प्रशासन के आधार को संकीर्ण बनाने की नीति से लोगों में असंतोष फैला, जिसके कारण उसकी मृत्यु के बाद नये विद्रोह आरम्भ हो गए।
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====इस्लाम का प्रवेश====
==उत्तर-पश्चिम सीमा की समस्या तथा बाह्रा ख़तरा==
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{{मुख्य|इस्लाम धर्म}}
अपनी प्राकृतिक सीमाओं के कारण [[भारत]] अपने इतिहास के अधिकांश काल तक विदेशी आक्रमणों से सुरक्षित रहा है। विदेशी केवल उत्तर-पश्चिम मार्ग से यहाँ आ सकते थे। इसी क्षेत्र के पहाड़ी दर्रों से [[हूण]] और सीथियन आक्रमणकारियों की तरह तुर्क भी आए और यहाँ अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल हो गए। यह पहाड़ी क्षेत्र ऐसा है कि आक्रमणकारी को पंजाब की उर्वरक नदी घाटियों तक पहुँचने से रोकने के लिए ग़ज़नी होकर [[काबुल]] से [[कंन्धार]] तक के क्षेत्र पर नियंत्रण आवश्यक है। दक्षिण की ओर का क्षेत्र राजपूताना रेगिस्तान के कारण सुरक्षित है। तुर्की शासकों के लिए हिन्दूकुश क्षेत्र का नियंत्रण भी आवश्यक था क्योंकि मध्य एशिया से सैनिक तथा रसद पहुँचने का यही मुख्य मार्ग था।
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इस बीच 712 ई. में भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। [[मुहम्मद-इब्न-क़ासिम]] के नेतृत्व में [[मुसलमान]] अरबों ने [[सिंध]] पर हमला कर दिया और वहाँ के [[ब्राह्मण]] राजा [[दाहिर]] को हरा दिया। इस तरह भारत की भूमि पर पहली बार [[इस्लाम]] के पैर जम गये और बाद की शताब्दियों के [[हिन्दू धर्म|हिन्दू]] राजा उसे फिर हटा नहीं सके। परन्तु सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में निर्बल था और 1176 ई. में [[शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी]] ने उसे आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन के नेतृत्व में मुसलमानों ने हमले करके [[पंजाब]] छीन लिया था और ग़ज़नी के [[महमूद ग़ज़नवी|सुल्तान महमूद]] ने 997 से 1030 ई. के बीच भारत पर सत्रह हमले किये और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली, फिर भी हिन्दू राजाओं ने मुसलमानी आक्रमण का जिस अनवरत रीति से प्रबल विरोध किया, उसका महत्त्व कम करके नहीं आंकना चाहिए।
  
पश्चिम एशिया की बदलती स्थिति के कारण दिल्ली सल्तनत के शासकों का उन सीमाओं पर नियंत्रण सम्भव नहीं हो सका, जिन्हें बाद में अंग्रेज़ 'वैज्ञानिक सीमा'(Scientific frontiers) कहते थे। रिज़मी साम्राज्य के उदय के साथ काबुल, कन्धार तथा ग़ज़नी पर से ग़ोरियों का प्रभाव शीघ्र ही समाप्त हो गया और ख़वारिज़मी साम्राज्य की सीमा सिंध नदी तक पहुँच गई। ऐसा लगता था जैसे उत्तर भारत पर प्रभुत्व के लिए ख़वारिज़मी शासकों और क़ुतुबुद्दीन ऐबक के उत्तराधिकारियों के बीच संघर्ष छिड़ जाएगा। लेकिन इसी समय इस क्षेत्र में एक और बड़ा ख़तरा पैदा हो गया। यह था मंगोलों का नेता '[[चंगेज़ ख़ाँ]]' जो स्वयं को ईश्वर का अभिशाप बताने में गर्व महसूस करता था।  
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{{seealso|चंगेज़ ख़ाँ|महमूद ग़ज़नवी|मुहम्मद बिन क़ासिम|मुहम्मद ग़ोरी|ग़ोर के सुल्तान|चंदबरदाई|पृथ्वीराज रासो|क़ुतुबुद्दीन ऐबक}}
मंगोलों ने 1220 ई0 में ख़वारिज़मी साम्राज्य को समाप्त कर दिया था। उन्होंने जक्सारटेज़ से लेकर कास्पियन समुद्र तथा ग़ज़नी से लेकर इराक तक के क्षेत्र में कई शहरों और गाँवों कें ध्वंस कर दिया और कई जगह क़त्ले-आम करने में भी नहीं चूके। कई तुर्क सैनिक मंगोलों से जा मिले। मंगोलों ने जानबूझ कर युद्ध में बर्बरता की नीति अपनायी। जब भी वे विरोध करने वाले किसी शहर पर क़ब्ज़ा करते तो वहाँ के सभी सैनिकों और अधिकारियों को मौत घाट उतार देते और बच्चों व औरतों को ग़ुलामों के रूप में बेच देते। यहाँ तक की नागरिकों को भी नहीं बख्शा जाता। उनमें से कुशल दस्तकारों को मंगोल सेना की सेवा में लगा दिया जाता और हट्टे-कट्टे लोगों से अन्य नगरों पर चढ़ाई की तैयारियों के लिए 'बेगार' लिया जाता। इससे इस क्षेत्र के आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन का ह्रास हो गया। पर साथ ही मंगोलों द्वारा इस क्षेत्र में शान्ति और व्यवस्था स्थापित करने और चीन से लेकर भूमध्यसागर के तट तक के व्यापार मार्ग को सुरक्षित बनाने से पुनरुत्थान की प्रक्रिया भी आरम्भ हुई। पर ईरान, तूरान और ईराक़ को अपनी प्राचीन समृद्धि फिर से प्राप्त करने में सदियाँ लग गईं। इसी दौरान मंगोल आक्रमण से दिल्ली सल्तनत पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। इनके भय से कई राजकुमारों, विद्वानों धर्मशास्त्रियों तथा अन्य प्रमुख लोगों ने [[दिल्ली]] में शरण ली। इस क्षेत्र में एकमात्र मुसलमान राज्य होने के नाते दिल्ली सल्तनत का महत्व बहुत बढ़ गया। एक ओर तो इसने विभिन्न शासकों के बीच [[इस्लाम]] के बंधन पर बहुत ज़ोर दिया और दूसरी ओर तुर्क आक्रमणकारियों का, जो अपना घर-बार छोड़ कर आए थे, भारतीय परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालना आवश्यक हो गया। [[भारत]] को मंगोलों से ख़तरा 1221 ई0 में पैदा हो गया। ख़वारिज़म सम्राज्य की पराजय के बाद मंगोलों ने युवराज जलालुद्दीन का पीछा यहाँ तक किया। जलालुद्दीन ने सिंध नदी के तट पर मंगोलों का वीरता से सामना किया, पर पराजित होने पर अपने घोड़े को नदी में फेंक कर भारत गया। यद्यपि चंगेज़ ख़ाँ सिंध नदी के आस पास तीन महीनों तक घूमता रहा, परन्तु उसने निश्चय किया कि वह भारत में न आकर ख़वारिज़म साम्राज्य के अन्य क्षेत्रों को पराजित करेगा। यह अब कहना कठिन है कि यदि चंगेज़ ने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया होता तो उसके क्या परिणाम होते। भारत में तुर्क साम्राज्य अत्यन्त कमज़ोर तथा असंगठित था। सम्भवतः भारत को भी बड़े पैमाने पर क़त्लेआम और विनाश लीला देखनी पड़ती। जिसके सामने तुर्कों की बर्बरता गौण लगती। उस समय दिल्ली के शासक [[अल्तमश]] ने जलालुद्दीन को शरण देने से इंकार कर मंगोलों के क्रोध को शान्त करने की चेष्टा की। जलालुद्दीन कुछ समय तक [[लाहौर]] और [[सतलुज नदी]] के बीच के क्षेत्र में छिपता रहा। इसके परिणामस्वरूप यहाँ मंगोलों के कई आक्रमण हुए। अब सिंध नदी भारत की पश्चिमी सीमा नहीं रह गई थी। अब उसकी सुरक्षा सीमा लाहौर और मुल्तान थी। कुछ समय तक लाहौर और मुल्तान, अल्तमश और उसके प्रतिद्वन्द्वियों, 'याल्दुज' और 'कुबाचा' के बीच झगड़े की जड़ बना रहा। अन्त में अल्तमश लाहौर और मुल्तान दोनों पर क़ब्ज़ा करने में सफल रहा और इस प्रकार मंगोलों के विरुद्ध काफ़ी शक्तिशाली सुरक्षा-सीमा बना सका।
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====आर्थिक सामाजिक जीवन, शिक्षा तथा धर्म <sub>800 ई. से 1200 ई.</sub>====
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{{main|भारत की संस्कृति}}
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इस काल में भारतीय समाज में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इनमें से एक यह था कि विशिष्ट वर्ग के लोगों की शक्ति बहुत बढ़ी जिन्हें 'सामंत', 'रानक' अथवा 'रौत्त' ([[राजपूत]]) आदि पुकारा जाता था। इस काल में भारतीय दस्तकारी तथा खनन कार्य उच्च स्तर का बना रहा तथा [[कृषि]] भी उन्नतिशील रही। [[भारत]] आने वाले कई [[अरब देश|अरब]] यात्रियों ने यहाँ की ज़मीन की उर्वरता और भारतीय किसानों की कुशलता की चर्चा की है। पहले से चली रही वर्ण व्यवस्था इस युग में भी क़ायम रही। [[स्मृतियाँ|स्मृतियों]] के लेखकों ने [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] के विशेषाधिकारों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर तो कहा ही, शूद्रों की सामाजिक और धार्मिक अयोग्यता को उचित ठहराने में तो वे पिछले लेखकों से कहीं आगे निकल गए।
  
चंगेज़ ख़ाँ की मृत्यु के बाद 1226 ई0 में उसका साम्राज्य उसके पुत्रों के बीच बंट गया। साम्राज्य का पश्चिमी क्षेत्र उसके सबसे बड़े लड़के 'जुजी' को मिला। जुजी के लड़के 'बाटु ख़ाँ' ने रूस पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया। मंगोल साम्राज्य के अन्य क्षेत्र चंगेज़ के और लड़कों में बंट गए। यद्यपि चंगेज़ ने भाइयों में से एक को प्रमुख (का-आन अथवा ख़ाँ) बनाकर अपने लड़कों में एकता की व्यवस्था की थी। लेकिन यह व्यवस्था अधिक समय तक नहीं टिक नहीं सकी।
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====दिल्ली सल्तनत====
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{{main|दिल्ली सल्तनत}}
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दिल्ली सल्तनत की स्थापना भारतीय इतिहास में युगान्तकारी घटना है। शासन का यह नवीन स्वरूप [[भारत]] की पूर्ववर्ती राजव्यवस्थाओं से भिन्न था। इस काल के शासक एवं उनकी [[प्रशासनिक व्यवस्था (सल्तनतकाल)|प्रशासनिक व्यवस्था]] एक ऐसे [[धर्म]] पर आधारित थी, जो कि साधारण धर्म से भिन्न था। शासकों द्वारा सत्ता के अभूतपूर्व केन्द्रीकरण और कृषक वर्ग के शोषण का भारतीय इतिहास में कोई उदाहरण नहीं मिलता है। दिल्ली सल्तनत का काल 1206 ई. से प्रारम्भ होकर 1562 ई. तक रहा। 320 वर्षों के इस लम्बे काल में [[भारत]] में मुस्लिमों का शासन व्याप्त रहा। यह काल [[स्थापत्य एवं वास्तुकला (सल्तनत काल)|स्थापत्य एवं वास्तुकला]] के लिये भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
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====मामलूक अथवा ग़ुलाम वंश====
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{{main|ग़ुलाम वंश}}
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ग़ुलाम वंश [[दिल्ली]] में [[कुतुबद्दीन ऐबक]] द्वारा 1206 ई. में स्थापित किया गया था। यह वंश 1290 ई. तक शासन करता रहा। इसका नाम ग़ुलाम वंश इस कारण पड़ा कि इसका संस्थापक और उसके इल्तुतमिश और बलबन जैसे महान् उत्तराधिकारी प्रारम्भ में ग़ुलाम अथवा दास थे और बाद में वे दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करने में समर्थ हुए।
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====इल्तुतमिश/अल्तमश====
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{{main|इल्तुतमिश}}
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इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का एक प्रमुख शासक था। वंश के संस्थापक ऐबक के बाद वो उन शासकों में से था जिससे दिल्ली सल्तनत की नींव मज़बूत हुई। वह ऐबक का दामाद भी था।
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====रज़िया सुल्तान ====
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{{main|रज़िया सुल्तान}}
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रज़िया का पूरा नाम-रज़िया अल्-दीन (1205 – 1240), सुल्तान जलालत उद-दीन रज़िया था। वह इल्तुतमिश की पुत्री तथा भारत की पहली मुस्लिम शासिका थी।
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====बलबन का युग====
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{{main|ग़यासुद्दीन बलबन}}
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ग़यासुद्दीन बलबन (1266-1286 ई.) इल्बारि जाति का व्यक्ति था, जिसने एक नये राजवंश ‘बलबनी वंश’ की स्थापना की थी। ग़यासुद्दीन बलबन ग़ुलाम वंश का नवाँ सुल्तान था।
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====ख़िलजी वंश (1290-1320 ई.)====
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{{main|ख़िलजी वंश}}
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ख़िलजी कौन थे? इस विषय में पर्याप्त विवाद है। इतिहासकार 'निज़ामुद्दीन अहमद' ने ख़िलजी को [[चंगेज़ ख़ाँ]] का दामाद और कुलीन ख़ाँ का वंशज, 'बरनी' ने उसे तुर्कों से अलग एवं 'फ़खरुद्दीन' ने ख़िलजियों को तुर्कों की 64 जातियों में से एक बताया है। फ़खरुद्दीन के मत का अधिकांश विद्वानों ने समर्थन किया है। चूंकि [[भारत]] आने से पूर्व ही यह जाति [[अफ़ग़ानिस्तान]] के हेलमन्द नदी के तटीय क्षेत्रों के उन भागों में रहती थी, जिसे ख़िलजी के नाम से जाना जाता था। सम्भवतः इसीलिए इस जाति को ख़िलजी कहा गया। मामलूक अथवा [[ग़ुलाम वंश]] के अन्तिम सुल्तान [[शमसुद्दीन क्यूमर्स]] की हत्या के बाद ही [[जलालुद्दीन ख़िलजी|जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी]] सिंहासन पर बैठा था, इसलिए इतिहास में ख़िलजी वंश की स्थापना को ख़िलजी क्रांति के नाम से भी जाना जाता है।
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====तुग़लक़ वंश (1320-1414)====
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{{main|तुग़लक़ वंश}}
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ग़यासुद्दीन ने एक नये वंश अर्थात् तुग़लक़ वंश की स्थापना की, जिसने 1412 तक राज किया। इस वंश में तीन योग्य शासक हुए। [[ग़यासुद्दीन तुग़लक|ग़यासुद्दीन]], उसका पुत्र [[मुहम्मद बिन तुग़लक़]] (1324-51) और उसका उत्तराधिकारी [[फ़िरोज शाह तुग़लक़]] (1351-87)।
  
चंगेज़ की मृत्यु से लेकर 1240 तक मंगोलों ने सतलुज को पार कर भारत के अन्य क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश नहीं की। इसका प्रमुख कारण था मंगोल ईराक़ और सीरियाई क्षेत्रों के दमन में व्यस्त थे। इससे दिल्ली के सुल्तानों को थोड़ा समय मिल गया। जिसमें उन्होंने शक्तिशाली सेना और शासन का गठन कर लिया।
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{{seealso|सैयद वंश|लोदी वंश|तैमूर लंग|विजय नगर साम्राज्य|बहमनी वंश|चंगेज़ ख़ाँ|अलाउद्दीन ख़िलजी|कबीर|भक्ति आन्दोलन}}
  
हैरात, ग़ोर, ग़ज़नी तथा तुर्कीस्तान में मंगोल सेना का सेनाध्यक्ष 'तैर बहादुर' 1241 ई0 में लाहौर के पास आया। दिल्ली से बार-बार अनुरोध करने के बाद भी कोई सहायता नहीं पहुँचने पर शहर का प्रशासक वहाँ से भाग निकला। मंगोलों ने लाहौर में सैनिक पड़ाव नहीं डाला, पर दिल्ली के रास्ते को साफ़ करने के लिए वहाँ की सेना का विनाश कर दिया और शहर की आबादी में क़त्ले-आम मचा दिया। मंगोलों ने 1245 ई0 में मुल्तान पर आक्रमण किया। पर [[बलबन]] द्वारा अपनी सेना को लेकर वहाँ शीघ्रता से पहुँचने पर स्थिति सम्भल गई। जब बलबन रिहान के नेतृत्व में अपने विरोधियों का मुक़ाबला करने में व्यस्त था, मंगोलों को उस लाहौर पर क़ब्ज़ा करने का मौका मिल गया जिसका पुनर्निर्माण बलबन ने करवाया था। उस समय कई सरदार, यहाँ तक की मुल्तान का प्रशासक 'शेर ख़ाँ' भी, मंगोलों के साथ मिल गया। यद्यपि बलबन ने मंगोलों का डट कर मुक़ाबला किया, दिल्ली की सीमा [[झेलम नदी]] से घट कर [[व्यास नदी|व्यास]] तक सीमित रह गई। बलबन ने बाद में मुल्तान पर फिर क़ब्ज़ा कर लिया, तथापि वहाँ मंगोलों का ख़तरा बना ही रहा।
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==मुग़ल==
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{{main|मुग़ल काल}}
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दिल्ली की सल्तनत वास्तव में कमज़ोर थी, क्योंकि सुल्तानों ने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का हृदय जीतने का कोई प्रयास नहीं किया। वे धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त कट्टर थे और उन्होंने बलपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया। इससे हिन्दू प्रजा उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखती थी। इसक फलस्वरूप 1526 ई. में [[बाबर]] ने आसानी से दिल्ली की सल्तनत को उखाड़ फैंका। उसने [[पानीपत]] की [[पानीपत युद्ध प्रथम |पहली लड़ाई]] में अन्तिम सुल्तान [[इब्राहीम लोदी]] को हरा दिया और [[मुग़ल वंश]] की प्रतिष्ठित किया, जिसने 1526 से 1858 ई. तक भारत पर शासन किया। तीसरा [[मुग़ल]] बादशाह [[अकबर]] असाधारण रूप से योग्य और दूरदर्शी शासक था। उसने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का हृदय जीतने की कोशिश की और विशेष रूप से युद्ध प्रिय राजपूत राजाओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया।
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====बाबर (1526-1530)====
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{{main|बाबर}}
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[[मुग़ल वंश]] का संस्थापक "ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर" था। बाबर का पिता 'उमर शेख़ मिर्ज़ा', '[[फ़रग़ना]]' का शासक था, जिसकी मृत्यु के बाद बाबर राज्य का वास्तविक अधिकारी बना।
  
ऐसी परिस्थितियों का सामना करने के लिए बलबन ने शक्ति और कूटनीति, दोनों से काम लिया। उसने भटिंडा, सुनाम तथा समाना के क़िलों की मरम्मत करवाई तथा मंगोलों को व्यास पार करने से रोकने के लिए वहाँ एक शक्तिशाली सेना को तैनात किया। वह स्वयं दिल्ली में ही रहा और सीमा की देखभाल के लिए भी कभी लम्बे दौरे पर नहीं आया। साथ ही उसने अपने राजदूत 'हलाकू' के पास भेजे। हलाकू के राजदूत जब दिल्ली आए तो बलबन ने उनका बहुत सम्मान किया। बलबल सारे पंजाब क्षेत्र को मंगोलों के क़ब्ज़े में छोड़ने के लिए तैयार भी हो गया। अपनी ओर से मंगोलों ने दिल्ली पर कोई आक्रमण नहीं किया। लेकिन सीमा अनिश्चित ही रही और बलबन को मंगोलों को दबा कर रखने के लिए क़रीब-क़रीब हर साल अभियान छेड़ना पड़ता था। वह अन्त में मुल्तान को अधीन करने में सफल हो गया और उसने अपने सबसे बड़े लड़के 'महमूद' को वहाँ का स्वतंत्र शासक नियुक्त किया। इसी मुल्तान व्यास सीमा की सुरक्षा करते समय बलबन के सिंहासन का उत्तराधिकारी युवराज महमूद एक लड़ाई में मारा गया।
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====हुमायूँ (1530-1540 और 1555-1556)====
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{{main|हुमायूँ}}
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'नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ' का जन्म बाबर की पत्नी ‘माहम बेगम’ के गर्भ से 6 मार्च, 1508 ई. को [[काबुल]] में हुआ था। बाबर के 4 पुत्रों- [[हुमायूँ]], [[कामरान शाहज़ादा|कामरान]], [[अस्करी]] और [[हिन्दाल]] में हुमायूँ सबसे बड़ा था। बाबर ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था।
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====शेरशाह सूरी====
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{{main|शेरशाह सूरी}}
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शेरशाह सूरी के बचपन का नाम 'फ़रीद ख़ाँ' था। वह वैजवाड़ा (होशियारपुर 1472 ई.) में अपने पिता 'हसन ख़ाँ' की [[अफ़ग़ान]] पत्‍नी से उत्पन्न था। उसका पिता हसन, [[बिहार]] के [[सासाराम]] का ज़मींदार था।
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====अकबर (1556 - 1605)====
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{{main|अकबर}}
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अकबर महान् ने धार्मिक सहिष्णुता तथा मेल-मिलाप की नीति बरती, हिन्दुओं पर से [[जज़िया]] उठा लिया और राज्य के ऊँचे पदों पर बिना भेदभाव के सिर्फ़ योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ कीं।
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{{seealso|अकबरनामा|अबुल फ़ज़ल|तानसेन|बीरबल|रहीम|टोडरमल}}
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====जहाँगीर (1605 - 1627)====
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{{main|जहाँगीर}}
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'नूरुद्दीन सलीम जहाँगीर' का जन्म [[फ़तेहपुर सीकरी]] में स्थित ‘शेख़ सलीम चिश्ती’ की कुटिया में राजा [[भारमल]] की बेटी ‘मरीयम-उज़्-ज़मानी’ के गर्भ से 30 अगस्त, 1569 ई. को हुआ था। [[अकबर]] सलीम को ‘शेख़ू बाबा’ कहा करता था। सलीम का मुख्य शिक्षक [[रहीम|अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना]] था।
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====शाहजहाँ (1627 - 1658)====
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{{main|शाहजहाँ}}
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शाहजहाँ का जन्म [[जोधपुर]] के शासक राजा उदयसिंह की पुत्री 'जगत गोसाई' (जोधाबाई) के गर्भ से [[5 जनवरी]], 1592 ई. को [[लाहौर]] में हुआ था। उसका बचपन का नाम ख़ुर्रम था। ख़ुर्रम [[जहाँगीर]] का छोटा पुत्र था, जो छल−बल से अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ था।
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====औरंगज़ेब (1658 - 1707)====
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{{main|औरंगज़ेब}}
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'मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब' का जन्म 4 नवम्बर, 1618 ई. में [[गुजरात]] के ‘[[दोहद]]’ नामक स्थान पर मुमताज़ के गर्भ से हुआ था। औरंगज़ेब के बचपन का अधिकांश समय [[नूरजहाँ]] के पास बीता था।
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====बहादुर शाह ज़फ़र (1837- 1858)====
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{{main|बहादुर शाह ज़फ़र}}
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बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म [[24 अक्तूबर]] सन् 1775 ई. को [[दिल्ली]] में हुआ था। बहादुर शाह ज़फ़र [[मुग़ल साम्राज्य]] के अंतिम बादशाह थे। इनका शासनकाल 1837-58 तक था। बहादुर शाह ज़फ़र एक कवि, संगीतकार व खुशनवीस थे और राजनीतिक नेता के बजाय सौंदर्यानुरागी व्यक्ति अधिक थे।
  
यद्यपि 1286 ई0 में बलबन की मृत्यु हो गई, उसके द्वारा स्थापित राजनीतिक और सैनिक व्यवस्था दिल्ली सल्तनत में बनी रही। 'हलाकू' का पोता 'अब्दुल्ला', जब 1292 में डेढ़ लाख घोड़ों के साथ दिल्ली की ओर बढ़ा तो 'जलालुद्दीन ख़िलजी' ने उसे बलबन द्वारा मज़बूत की गई भटिंडा और सुनाम सीमा पर पराजित किया। हार कर मंगोलों ने समझौता कर लिया। जिसके परिणास्वरूप चार हज़ार मंगोलों ने [[इस्लाम]] धर्म को क़बूल कर लिया तथा भारतीय शासक के पक्ष में आकर दिल्ली के आस पास बस गए।
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{{seealso|हेमू|ताजमहल|फ़तेहपुर सीकरी|चित्रकला मुग़ल शैली}}
  
मंगोलों द्वारा पंजाब में आगे बढ़कर दिल्ली की ओर आने का कारण मध्य एशिया की बदलती राजनीति थी। ईरान के 'मंगोल इल-ख़ानों' ने दिल्ली के सुल्तानों के साथ अधिकतर मैत्री के सम्बन्ध रखे थे। पूर्व में उनके प्रतिद्वन्द्वी ट्रांस-ऑक्सियाना के शासक चग़ताई मंगोल थे। ट्रांस- ऑक्सियाना का शासक दावा ख़ाँ जब ईरान के इल-खानों के विरुद्ध असफल हो गया तब उसने भारत पर अधिकार करने का प्रयास किया। उसने 1297 ई0 में दिल्ली की सुरक्षा करने वाले क़िलों के विरुद्ध अभियान शुरू किया। दावा ख़ाँ का लड़का कुतलुग़ ख़्वाजा 1299 ई0 में दो लाख मंगोल सैनिकों के साथ दिल्ली के दरवाज़े पर आ पहुँचा। मंगोलों ने दिल्ली और उसके आस पास के क्षेत्रों के बीच के सम्पर्क के साधन काट दिए और दिल्ली की कई सड़कों तक आ पहुँचे। यह पहली बार था कि मंगोलों ने दिल्ली पर अपना शासन स्थापित करने के लिए पक्के प्रयास किए। तात्कालिक दिल्ली के शासक [[अलाउद्दीन ख़िलजी]] ने मंगोलों का सामना दिल्ली से बाहर करने का निश्चय किया।
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==आधुनिक काल==
उसने धैर्य की नीति अपनायी क्योंकि उसे मालूम था कि मंगोल लम्बी अवधि तक अपने देश से दूर नहीं रह सकते थे। मंगोलों के साथ कई लड़ाइयों में भारतीय सेना ने विजय प्राप्त की यद्यपि एक लड़ाई में प्रसिद्ध सरदार 'जाफ़र ख़ाँ' मारा गया। कुछ समय बाद बिना कोई बड़ी लड़ाई लड़े मंगोल वापस लौट गए। मंगोल एक लाख बीस हज़ार सैनिकों के साथ, 1303 ई0 में फिर दिल्ली तक आ गए। अलाउद्दीन ख़िलजी उन दिनों राजपूताना में [[चित्तौड़]] को पराजित करने में व्यस्त था। मंगोलों की ख़बर मिलते ही वह तेज़ी से वापस लौटा और दिल्ली के पास बनी अपनी नई राजधानी 'सीरी' में उसने क़िलाबंदी का मोर्चा सम्भाला। दोनों सेनाएँ दो महीनों तक एक दूसरे के सामने खड़ी रहीं। इस अवधि में दिल्ली के नागरिकों को बहुत कष्ट सहना पड़ा। क़रीब-क़रीब रोज़ ही लड़ाई होती थी। अन्त में बिना कुछ हासिल किए मंगोल फिर लौट गए।
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====मराठा====
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{{main|मराठा साम्राज्य}}
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राजपूतों और मुग़लों के योग से उसने अपना साम्राज्य [[कन्दहार]] से [[आसाम]] की सीमा तक तथा [[हिमालय]] की तलहटी से लेकर दक्षिण में [[अहमदनगर]] तक विस्तृत कर दिया। उसके पुत्र [[जहाँगीर]] जहाँ पौत्र [[शाहजहाँ]] के राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार जारी रहा। शाहजहाँ ने [[ताजमहल]] का निर्माण कराया, परन्तु कन्दहार उसके हाथ से निकल गया। अकबर के प्रपौत्र औरंगज़ेब के राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार अपने चरम शिखर पर पहुँच गया और कुछ काल के लिए सारा भारत उसके अंतर्गत हो गया। परन्तु [[औरंगज़ेब]] ने जान-बूझकर अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति त्याग दी और हिन्दुओं को अपने विरुद्ध कर लिया। उसने हिन्दुस्तान का शासन सिर्फ़ मुसलमानों के हित में चलाने की कोशिश की और हिन्दुओं को ज़बर्दस्ती मुसलमान बनाने का असफल प्रयास किया। इससे राजपूताना, [[बुंदेलखण्ड]] तथा [[पंजाब]] के हिन्दू उसके विरुद्ध उठ खड़े हुए।
  
दिल्ली पर मंगोलों के इन दो आक्रमणों ने यह सिद्ध कर दिया कि दिल्ली के सुल्तान उनका मुक़ाबला कर सकते थे। यह ऐसा कार्य था जिसमें मध्य और पश्चिम एशिया के शासक अब तक असफल ही हुए थे।<ref>मंगोल अपने साम्राज्य के विस्तार के दौरान पहली बार मिस्रियों से येरुशलम के निकट 1260 में पराजित हुए थे। </ref> पर दिल्ली के सुल्तानों के लिए भी यह एक चेतावनी थी। अलाउद्दीन ख़िलजी ने इनसे सबक़ पाकर एक बड़ी और शक्तिशाली सेना संगठित की और व्यास के निकट के क़िलों को मज़बूत करवाया। इस प्रकार वह इतना शक्तिशाली हो गया कि आगे के वर्षों में होने वाले मंगोलों के आक्रमणों को, उनकी सेना का क़त्ले-आम कर, नाकाम कर सका। ट्रांस-ऑक्सियाना के शासक दावा ख़ाँ की मृत्यु 1306 में हो गई और मंगोलों में गृह युद्ध आरम्भ हो गया। अब भारत पर से मंगोलों का भय तब तक टल गया जब तक [[तैमूर]] ने मंगोलों में फिर एकता स्थापित की। मंगोलों के बीच आपसी मतभेद का लाभ उठाकर दिल्ली के शासक लाहौर पर क़ब्ज़ा करने में सफल हो गए और कालान्तर में उन्होंने नमक पहाड़ियों तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया।
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{{seealso|शिवाजी|तानाजी|अहिल्याबाई होल्कर|जाटों का इतिहास|वास्को द गामा|अंग्रेज़|सिपाही क्रांति 1857}}
  
इस प्रकार हम देखते हैं कि सारी तेरहवीं शताब्दी के दौरान दिल्ली सल्तनत को उत्तर-पश्चिम से ख़तरा बना रहा। यद्यपि मंगोल धीरे-धीरे लगभग सारे पंजाब पर क़ब्ज़ा करने और यहाँ तक की दिल्ली तक आने में सफल हो गए, तुर्की शासकों की दूरदर्शिता और दृढ़ता से यह ख़तरा टल गया और बाद में उन्होंने पंजाब को भी वापस ले लिया। मंगोलों से दिल्ली सल्तनत पर उत्पन्न ख़तरे से सल्तनत की आंतरिक समस्याओं पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा।
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====ईस्ट इंडिया कम्पनी====
==आंतरिक विद्रोह तथा दिल्ली सल्तनत के विस्तार के लिए संघर्ष==
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{{main|ईस्ट इंडिया कम्पनी}}
इल्बारी तुर्कों (जिन्हें कभी-कभी मामलुक अथवा ग़ुलाम शासक भी कहा जाता है) के शासन काल में दिल्ली के सुल्तानों को ने केवल विदेशी आक्रमणों, बल्कि आंतरिक विद्रोहों का भी सामना करना पड़ा। इनमें से कुछ विद्रोहों का नेतृत्व उन महत्वाकांक्षी मुसलमान सरदारों ने किया जो स्वाधीन होना चाहते थे और कुछ का उन राजपूत राजाओं और ज़मीदारों ने जो अपने क्षेत्रों से तुर्क आक्रमणकारियों को बाहर निकाल देना चाहते थे अथवा तुर्क शासकों की कठिनाइयों का फ़ायदा उठाकर अपने कमज़ोर पड़ोसियों के राज्यों को हड़प लेना चाहते थे। इस प्रकार ये राजा और ज़मीदार न केवल तुर्कों से बल्कि आपस में भी बराबर लड़ते रहते थे। इन आंतरिक विद्रोहों के उद्देश्य और लक्ष्य एक नहीं थे। इसलिए इन्हें एक साथ मिलाकर तुर्कों के ख़िलाफ़ 'हिन्दू-प्रतिरोध' की संज्ञा, देना ग़लत होगा। भारत एक मज़बूत बड़ा देश था और भौगोलिक कारणों से सारे देश पर एक केन्द्र से शासन करना अत्यन्त कठिन था। प्रान्तीय शासकों को बहुत अधिकार देने ही पड़ते थे और इससे तथा प्रान्तीय भावनाओं से प्रेरित होकर उनमें दिल्ली के शासन के विरुद्ध जाकर स्वयं को स्वाधीन घोषित करने की बराबर आकांक्षा रहती थी। प्रान्तीय शासक जानते थे कि दिल्ली के प्रति किए गए विरोध में उन्हें स्थानीय तत्वों का सहयोग मिलेगा।
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अठारहवीं शताब्दी के शुरू में अंग्रेजों की [[ईस्ट इंडिया कम्पनी]] ने बम्बई (मुम्बई), मद्रास (चेन्नई) तथा कलकत्ता (कोलकाता) पर क़ब्ज़ा कर लिया। उधर फ्राँसीसियों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने [[माहे]], [[पुदुचेरी|पांडिचेरी]] तथा [[चंद्रानगर]] पर क़ब्ज़ा कर लिया। उन्हें अपनी सेनाओं में भारतीय सिपाहियों को भरती करने की भी इजाज़त मिल गयी। वे इन भारतीय सिपाहियों का उपयोग न केवल अपनी आपसी लड़ाइयों में करते थे बल्कि इस देश के राजाओं के विरुद्ध भी करते थे। इन राजाओं की आपसी प्रतिद्वन्द्विता और कमज़ोरी ने इनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को जाग्रत कर दिया और उन्होंने कुछ देशी राजाओं के विरुद्ध दूसरे देशी राजाओं से संधियाँ कर लीं। 1744-49 ई. में मुग़ल बादशाह की प्रभुसत्ता की पूर्ण उपेक्षा करके उन्होंने आपस में [[कर्नाटक]] की दूसरी लड़ाई छेड़ी।
दिल्ली के सुल्तानों के विरुद्ध सभी विद्रोहों की सूची देना आवश्यक नहीं है। बंगाल, बिहार तथा भारत के अन्य पूर्वी क्षेत्र दिल्ली के अधिकार को समाप्त करने की लगातार चेष्टा करते रहे। ख़िलजी सरदार, मोहम्मद बिन बख्तियार ख़िलजी, सेन शासक लक्ष्मण सेन को 'नदिया' की गद्दी से हटाने में सफल हुआ। उसके बाद की गड़बड़ी में 'ईवाज़' नाम का व्यक्ति सत्ता हथियाने में सफल हुआ। उसने 'सुल्तान ग़ियासुद्दीन' की पदवी ग्रहण कर ली और स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। उत्तर-पश्चिम में उसने [[बिहार]] पर भी अधिकार क़ायम कर लिया तथा जाजनगर ([[उड़ीसा]]), तिरहुत (उत्तर बंगाल), बंग (पूर्व बंगाल) तथा कामरूप ([[असम]]) के शासकों से कर वसूलना आरम्भ कर दिया।
 
  
अल्तमश जब उधर से मुक्त हुआ तो उसने 1225 में ईवाज़ के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। ईवाज़ ने शुरू में तो घुटने टेक दिए लेकिन अल्तमश की पीठ फेरते ही उसने फिर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। अल्तमश का एक लड़का [[अवध]] का प्रशासक था। उसने एक युद्ध में ईवाज़ को पराजित कर मार डाला। लेकिन इसके बावजूद इस क्षेत्र में 1230 तक गड़बड़ी बनी रही, जब अल्तमश ने यह दूसरा अभियान छेड़ा।
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{{seealso|मैसूर युद्ध|टीपू सुल्तान|पानीपत युद्ध|रेग्युलेटिंग एक्ट|गवर्नर-जनरल}}
  
अल्तमश की मृत्यु के बाद बंगाल के प्रशासक अपनी सुविधानुसार कभी तो स्वतंत्रता की घोषणा कर लेते और कभी दिल्ली के अधिकार को मान लेते। इस काल में बिहार अधिकतर लखनौती के नियंत्रण में रहा। स्वतंत्र रूप से शासन करने वाले प्रशासकों ने अवध और बिहार के बीच के क्षेत्र पर कई बार नियंत्रण करने की चेष्टा की पर अधिकतर असफल ही रहे। उन्होंने राधा (दक्षिण बंगाल), उड़ीसा तथा कामरूप को भी अपने अधीन करने की चेष्टा की। इन संघर्ष में उड़ीसा के शासक ने 1244 ई0 में लखनौती के निकट मुसलमान सेना को करारी मात दी। इसके बाद भी जाजनगर के विरुद्ध मुसलमानों के अभियान असफल सिद्ध हुए। एक बार बंगाल के एक मुसलमान शासक की सेना असम घाटी में काफ़ी अन्दर तक चली गई, पर वापसी में बिल्कुल ही खत्म हो गई। स्वयं शासक को भी बन्दी बना लिया गया और वह अपने ज़ख्मों से ही मर गया। इससे पता चलता है कि लखनौती के मुसलमान शासक पड़ोसी हिन्दू क्षेत्रों पर नियंत्रण करने लायक़ शक्तिशाली नहीं थे।
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====गवर्नर-जनरलों का समय====
बलबन के शक्तिशाली प्रशासन के दौरान बिहार और बंगाल को दिल्ली के अधीन करने के लिए फिर प्रयत्न किए गए। अब दिल्ली शासन की औपचारिक मान्यता काफ़ी नहीं थी। तुग़रिल ने पहले बलबन की अधीनता स्वीकार कर ली, पर फिर स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया, पर बलबन ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसने तुग़रिल के परिवार के सदस्यों और उसके समर्थकों को बर्बर दंड दिया। तीन वर्षों तक चलने वाला यह एकमात्र अभियान था जिसके नेतृत्व के लिए बलबन स्वयं दिल्ली से दूर गया था।
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{{Main|गवर्नर-जनरल}}
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कम्पनी के शासन काल में भारत का प्रशासन एक के बाद एक बाईस [[गवर्नर-जनरल|गवर्नर-जनरलों]] के हाथों में रहा। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे उल्लेखनीय घटना यह है कि कम्पनी युद्ध तथा कूटनीति के द्वारा भारत में अपने साम्राज्य का उत्तरोत्तर विस्तार करती रही। [[मैसूर]] के साथ [[मैसूर युद्ध|चार लड़ाइयाँ]], मराठों के साथ तीन, बर्मा ([[म्यांमार]]) तथा [[सिख|सिखों]] के साथ दो-दो लड़ाइयाँ तथा सिंध के अमीरों, गोरखों तथा [[अफ़ग़ानिस्तान]] के साथ एक-एक लड़ाई छेड़ी गयी। इनमें से प्रत्येक लड़ाई में कम्पनी को एक या दूसरे देशी राजा की मदद मिली।
  
बंगाल पर दिल्ली का नियंत्रण लम्बी अवधि तक नहीं बना रह सका। बलबन की मृत्यु के बाद उसके पुत्र बुग़रा ख़ाँ ने दिल्ली सिंहासन के लिए संघर्ष करने के बदले बंगाल तथा उसके आसपास के क्षेत्रों पर शासन करना बेहतर समझा। इस विचार से उसने स्वतंत्रता की घोषणा की और बंगाल में एक वंश के राज्य की नींव डाली, जिसने अगले चालीस वर्षों तक बंगाल में राज किया।
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====प्रथम स्वतंत्रता संग्राम====
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{{Main|प्रथम स्वतंत्रता संग्राम}}
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इस काल में [[सती प्रथा]] का अन्त कर देने के समान कुछ सामाजिक सुधार के भी कार्य किये गये। [[राजा राममोहन राय]] ने [[सती प्रथा]] जैसी अमानवीय प्रथा के विरुद्ध निरन्तर आन्दोलन चलाया। उनके पूर्ण और निरन्तर समर्थन का ही प्रभाव था, जिसके कारण [[लॉर्ड विलियम बैंटिक]] 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने में समर्थ हो सका। अंग्रेज़ी के माध्यम से पश्चिम शिक्षा के प्रसार की दिशा में क़दम उठाये गये, अंग्रेज़ी देश की राजभाषा बना दी गयी, सारे देश में समान ज़ाब्ता दीवानी और ज़ाब्ता फ़ौजदारी क़ानून लागू कर दिया गया, परन्तु शासन स्वेच्छाचारी बना रहा और वह पूरी तरह अंग्रेज़ों के हाथों में रहा।
  
इस प्रकार तेरहवीं शताब्दी के अधिकतर काल में बंगाल दिल्ली के नियंत्रण से बाहर ही रहा। पंजाब का भी अधिकांश भाग मंगोलों के हाथ में था। यहाँ तक की गंगा दोआब में भी तुर्कों का शासन पूर्णतः सुरक्षित नहीं था। गंगा के उस पार कटेहरिया राजपूतों की राजधानी [[अहिछत्र]] थी, जहाँ से भी तुर्कों को बराबर भय बना रहता था। वे जब तब [[बदायूँ]] ज़िले पर आक्रमण करते रहते थे। अन्त में बलबन सिंहासन पर बैठने के बाद एक शक्तिशाली सेना लेकर आया और इस ज़िले में लूटपाट तथा क़त्ले-आम मचा दिया। सारा ज़िला आबादी से लगभग पूरी तरह शून्य हो गया। जंगलों को साफ किया गया और सड़कें बनाई गईं। 'बरनी' ने लिखा है कि 'उस दिन से बरन, अमरोहा,सम्बल तथा कटेहर के 'इक्ते' सुरक्षित हो गए और हमेशा के लिए उपद्रव-मुक्त हो गए।'
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{{seealso|झांसी की रानी लक्ष्मीबाई|तात्या टोपे|राजा राममोहन राय|सती प्रथा|भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस}}
 
 
दिल्ली सल्तनत की दक्षिणी सीमा भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं थी। यहाँ दो प्रकार की समस्याएँ थी। ऐबक ने तिजारा([[अलवर]]), [[ग्वालियर]], बयाना, [[रणथम्भौर]], [[कालिंजर]] आदि के कई क़िलों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। उसने [[नागपुर]], [[अजमेर]] तथा [[जालौर]] के निकट 'नादोल' तक पूर्वी राजस्थान पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। इस क्षेत्र का अधिकतर भाग पहले [[चौहान वंश|चौहान साम्राज्य]] का अंग था और अभी भी यहाँ कई चौहान परिवार शासन करते थे। ऐबक ने चौहान साम्राज्य के विरुद्ध चलाए गए अभियान में ही इन क्षेत्रों पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया था। इसके बाद मालवा और गुजरात में बढ़ना तो और, तुर्कों के लिए पूर्वी राजस्थान में विजित भूमि तथा गंगा क्षेत्र पर भी अपना अधिकार बनाए रखना कठिन हो गया।
 
  
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====असहयोग और सत्याग्रह====
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{{मुख्य|असहयोग आंदोलन}}
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[[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] के कुछ सुधारों से पुराने कांग्रेसजन संतुष्ट हो गये, परन्तु नव युवकों का दल, जिसे [[मोहनदास करमचंद गाँधी]] के रूप में एक नया नेता मिल गया था, संतुष्ट नहीं हुआ। इन सुधारों के अंतर्गत केन्द्रीय कार्यपालिका को केन्द्रीय विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं बनाया गया था और वाइसराय को बहुत अधिक अधिकार प्रदान कर दिये गये थे। अतएव उसने इन सुधारों को अस्वीकृत कर दिया। उसके मन में जो आशंकाएँ थीं, वे ग़लत नहीं थी, यह 1919 के एक्ट के बाद ही पास किये गये [[रौलट एक्ट]] जैसे दमनकारी क़ानूनों तथा [[जलियाँवाला बाग़]] हत्याकांण्ड जैसे दमनमूलक कार्यों से सिद्ध हो गया। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक में [[ऊधमसिंह]] ने माइकल ओ डायर पर गोलियाँ चला दीं। जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। [[चंद्रशेखर आज़ाद]], [[राजगुरु]], [[सुखदेव]] और [[भगतसिंह]] जैसे महान् क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए। कांग्रेस ने 1920 ई. में अपने नागपुर अधिवेशन में अपना ध्येय पूर्ण स्वराज्य की स्थापना घोषित कर दी और अपनी माँगों को मनवाने के लिए उसने अहिंसक असहयोंग की नीति अपनायी। चूंकि ब्रिटिश सरकार ने उसकी माँगें स्वीकार नहीं की और दमनकारी नीति के द्वारा वह [[असहयोग आंदोलन]] को दबा देने में सफल हो गयी। इसलिए कांग्रेस ने दिसम्बर 1929 ई. में लाहौर अधिवेशन में अपना लक्ष्य पूर्ण स्वीधीनता निश्चित किया और अपनी माँग का मनवाने के लिए उसने 1930 में [[नमक सत्याग्रह]] आंदोलन शुरू कर दिया।
  
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====भारत का विभाजन====
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{{Main|भारत का विभाजन}}
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कुछ ब्रिटिश अफ़सरों ने भारत को स्वाधीन होने से रोकने के लिए अंतिम दुर्राभ संधि की और [[मुसलमान|मुसलमानों]] के लिये भारत विभाजन करके [[पाकिस्तान]] की स्थापना की माँग का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप अगस्त 1946 ई. में सारे देश में भयानक सम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये, जिन्हें वाइसराय [[लॉर्ड वेवेल]] अपने समस्त फ़ौजी अनुभवों तथा साधनों बावजूद रोकन में असफल रहा। यह अनुभव किया गया कि भारत का प्रशासन ऐसी सरकार के द्वारा चलाना सम्भव नहीं है। जिसका नियंत्रण मुख्य रूप से [[अंग्रेज़|अंग्रेजों]] के हाथों में हो। अतएव सितम्बर 1946 ई. में लॉर्ड वेवेल ने [[पंडित जवाहर लाल नेहरू]] के नेतृत्व में भारतीय नेताओं की एक अंतरिम सरकार गठित की। ब्रिटिश अधिकारियों की कृपापात्र होने के कारण [[मुस्लिम लीग]] के दिमाग़ काफ़ी ऊँचे हो गये थे। उसने पहले तो एक महीने तक अंतरिम सरकार से अपने को अलग रखा, इसके बाद वह भी उसमें सम्मिलित हो गयी।
  
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{{seealso|भारत का इतिहास (तिथि क्रम)|सरदार पटेल|महात्मा गाँधी}}
  
 
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==बाहरी कड़ियाँ==
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{{प्रांगण लेख इतिहास}}
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*[http://www.shangrilagifts.org/hp/indus.html  Comparison of Indus Valley Harappan]
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*[http://ancientscripts.com/indus.html  Indus Script]
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*[http://vimitihas.wordpress.com/2008/08/16/sindhu_sabhyata सिंधुघाटी सभ्यता]
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*[http://hindi.indiawaterportal.org/content/%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%83-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4-%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A5%81-%E0%A4%98%E0%A4%BE%E0%A4%9F%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%A4%E0%A4%BE  विलुप्त होती सिन्धु घाटी की सभ्यता]
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*[http://hindi.indiawaterportal.org/node/20398 सिंधु घाटी सभ्यता]
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*[http://incredible-india.biz/hn/history/ivc सिंधु घाटी सभ्यता]
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==संबंधित लेख==
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{{भारत के राज्यों का इतिहास}}
 
[[Category:इतिहास]]
 
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[[Category:भारत का इतिहास]]
 
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11:36, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

भारत विषय सूची
Home-icon.png विस्तार में पढ़ें इतिहास प्रांगण (पोर्टल)
भारत का इतिहास
पाषाण युग- 70000 से 3300 ई.पू
मेहरगढ़ संस्कृति 7000-3300 ई.पू
सिन्धु घाटी सभ्यता- 3300-1700 ई.पू
हड़प्पा संस्कृति 1700-1300 ई.पू
वैदिक काल- 1500–500 ई.पू
प्राचीन भारत - 1200 ई.पू–240 ई.
महाजनपद 700–300 ई.पू
मगध साम्राज्य 545–320 ई.पू
सातवाहन साम्राज्य 230 ई.पू-199 ई.
मौर्य साम्राज्य 321–184 ई.पू
शुंग साम्राज्य 184–123 ई.पू
शक साम्राज्य 123 ई.पू–200 ई.
कुषाण साम्राज्य 60–240 ई.
पूर्व मध्यकालीन भारत- 240 ई.पू– 800 ई.
चोल साम्राज्य 250 ई.पू- 1070 ई.
गुप्त साम्राज्य 280–550 ई.
पाल साम्राज्य 750–1174 ई.
प्रतिहार साम्राज्य 830–963 ई.
राजपूत काल 900–1162 ई.
मध्यकालीन भारत- 500 ई.– 1761 ई.
दिल्ली सल्तनत
ग़ुलाम वंश
ख़िलजी वंश
तुग़लक़ वंश
सैय्यद वंश
लोदी वंश
मुग़ल साम्राज्य
1206–1526 ई.
1206-1290 ई.
1290-1320 ई.
1320-1414 ई.
1414-1451 ई.
1451-1526 ई.
1526–1857 ई.
दक्कन सल्तनत
बहमनी वंश
निज़ामशाही वंश
1490–1596 ई.
1358-1518 ई.
1490-1565 ई.
दक्षिणी साम्राज्य
राष्ट्रकूट वंश
होयसल साम्राज्य
ककातिया साम्राज्य
विजयनगर साम्राज्य
1040-1565 ई.
736-973 ई.
1040–1346 ई.
1083-1323 ई.
1326-1565 ई.
आधुनिक भारत- 1762–1947 ई.
मराठा साम्राज्य 1674-1818 ई.
सिख राज्यसंघ 1716-1849 ई.
औपनिवेश काल 1760-1947 ई.

भारत में मानवीय कार्यकलाप के जो प्राचीनतम चिह्न अब तक मिले हैं, वे 4,00,000 ई. पू. और 2,00,000 ई. पू. के बीच दूसरे और तीसरे हिम-युगों के संधिकाल के हैं और वे इस बात के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि उस समय पत्थर के उपकरण काम में लाए जाते थे। जीवित व्यक्ति के अपरिवर्तित जैविक गुणसूत्रों के प्रमाणों के आधार पर भारत में मानव का सबसे पहला प्रमाण केरल से मिला है जो सत्तर हज़ार साल पुराना होने की संभावना है। इस व्यक्ति के गुणसूत्र अफ़्रीक़ा के प्राचीन मानव के जैविक गुणसूत्रों (जीन्स) से पूरी तरह मिलते हैं।[1]इसके पश्चात् एक लम्बे अरसे तक विकास मन्द गति से होता रहा, जिसमें अन्तिम समय में जाकर तीव्रता आई और उसकी परिणति 2300 ई. पू. के लगभग सिन्धु घाटी की आलीशान सभ्यता (अथवा नवीनतम नामकरण के अनुसार हड़प्पा संस्कृति) के रूप में हुई। हड़प्पा की पूर्ववर्ती संस्कृतियाँ हैं: बलूचिस्तानी पहाड़ियों के गाँवों की कुल्ली संस्कृति और राजस्थान तथा पंजाब की नदियों के किनारे बसे कुछ ग्राम-समुदायों की संस्कृति।[2] यह काल वह है जब अफ़्रीक़ा से आदि मानव ने विश्व के अनेक हिस्सों में बसना प्रारम्भ किया जो पचास से सत्तर हज़ार साल पहले का माना जाता है।

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत

भारतीय इतिहास जानने के स्रोत को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता हैं-

  1. साहित्यिक साक्ष्य
  2. विदेशी यात्रियों का विवरण
  3. पुरातत्त्व सम्बन्धी साक्ष्य

साहित्यिक साक्ष्य

साहित्यिक साक्ष्य के अन्तर्गत साहित्यिक ग्रन्थों से प्राप्त ऐतिहासिक वस्तुओं का अध्ययन किया जाता है। साहित्यिक साक्ष्य को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य।

धार्मिक साहित्य

धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेत्तर साहित्य की चर्चा की जाती है।

  • ब्राह्मण ग्रन्थों में-

वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृति ग्रन्थ आते हैं।

  • ब्राह्मणेत्तर ग्रन्थों में जैन तथा बौद्ध ग्रन्थों को सम्मिलित किया जाता है।
लौकिक साहित्य

लौकिक साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक ग्रन्थ, जीवनी, कल्पना-प्रधान तथा गल्प साहित्य का वर्णन किया जाता है।

धर्म-ग्रन्थ

प्राचीन काल से ही भारत के धर्म प्रधान देश होने के कारण यहां प्रायः तीन धार्मिक धारायें- वैदिक, जैन एवं बौद्ध प्रवाहित हुईं। वैदिक धर्म ग्रन्थ को ब्राह्मण धर्म ग्रन्थ भी कहा जाता है।

ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ

ब्राह्मण धर्म - ग्रंथ के अन्तर्गत वेद, उपनिषद्, महाकाव्य तथा स्मृति ग्रंथों को शामिल किया जाता है।

वेद

वेद एक महत्त्वपूर्ण ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ है। वेद शब्द का अर्थ ‘ज्ञान‘ महतज्ञान अर्थात् ‘पवित्र एवं आध्यात्मिक ज्ञान‘ है। यह शब्द संस्कृत के ‘विद्‘ धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना। वेदों के संकलनकर्ता 'कृष्ण द्वैपायन' थे। कृष्ण द्वैपायन को वेदों के पृथक्करण-व्यास के कारण 'वेदव्यास' की संज्ञा प्राप्त हुई। वेदों से ही हमें आर्यो के विषय में प्रारम्भिक जानकारी मिलती है। कुछ लोग वेदों को अपौरुषेय अर्थात् दैवकृत मानते हैं। वेदों की कुल संख्या चार है-

ब्राह्मण ग्रंथ

यज्ञों एवं कर्मकाण्डों के विधान एवं इनकी क्रियाओं को भली-भांति समझने के लिए ही इस ब्राह्मण ग्रंथ की रचना हुई। यहां पर 'ब्रह्म' का शाब्दिक अर्थ हैं- यज्ञ अर्थात् यज्ञ के विषयों का अच्छी तरह से प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ ही 'ब्राह्मण ग्रंथ' कहे गये। ब्राह्मण ग्रन्थों में सर्वथा यज्ञों की वैज्ञानिक, अधिभौतिक तथा अध्यात्मिक मीमांसा प्रस्तुत की गयी है। यह ग्रंथ अधिकतर गद्य में लिखे हुए हैं। इनमें उत्तरकालीन समाज तथा संस्कृति के सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त होता है। प्रत्येक वेद (संहिता) के अपने-अपने ब्राह्मण होते हैं।

आरण्यक

आरयण्कों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों यथा, आत्मा, मृत्यु, जीवन आदि का वर्णन होता है। इन ग्रंथों को आरयण्क इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन ग्रंथों का मनन अरण्य अर्थात् वन में किया जाता था। ये ग्रन्थ अरण्यों (जंगलों) में निवास करने वाले सन्न्यासियों के मार्गदर्शन के लिए लिखे गए थै। आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, शांखायन्त आरण्यक, बृहदारण्यक, मैत्रायणी उपनिषद आरण्यक तथा तवलकार आरण्यक (इसे जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण भी कहते हैं) मुख्य हैं। ऐतरेय तथा शांखायन ऋग्वेद से, बृहदारण्यक शुक्ल यजुर्वेद से, मैत्रायणी उपनिषद आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद से तथा तवलकार आरण्यक सामवेद से सम्बद्ध हैं। अथर्ववेद का कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राण विद्या की महिमा का प्रतिपादन विशेष रूप से मिलता है। इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी हैं, जैसे- तैत्तिरीय आरण्यक में कुरु, पंचाल, काशी, विदेह आदि महाजनपदों का उल्लेख है।

उपनिषद

उपनिषदों की कुल संख्या 108 है। प्रमुख उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक, कौषीतकि, मुण्डक, प्रश्न, मैत्राणीय आदि। लेकिन शंकराचार्य ने जिन 10 उपनिषदों पर स्पना भाष्य लिखा है, उनको प्रमाणिक माना गया है। ये हैं - ईश, केन, माण्डूक्य, मुण्डक, तैत्तिरीय, ऐतरेय, प्रश्न, छान्दोग्य और बृहदारण्यक उपनिषद। इसके अतिरिक्त श्वेताश्वतर और कौषीतकि उपनिषद भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस प्रकार 103 उपनिषदों में से केवल 13 उपनिषदों को ही प्रामाणिक माना गया है। भारत का प्रसिद्ध आदर्श वाक्य 'सत्यमेव जयते' मुण्डोपनिषद से लिया गया है। उपनिषद गद्य और पद्य दोनों में हैं, जिसमें प्रश्न, माण्डूक्य, केन, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और कौषीतकि उपनिषद गद्य में हैं तथा केन, ईश, कठ और श्वेताश्वतर उपनिषद पद्य में हैं।

वेदांग

वेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने में वेदांग काफ़ी सहायक होते हैं। वेदांग शब्द से अभिप्राय है- 'जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिले'। वेदांगो की कुल संख्या 6 है, जो इस प्रकार है-
1- शिक्षा, 2- कल्प, 3- व्याकरण, 4- निरूक्त, 5- छन्द एवं 6- ज्योतिष

ब्राह्मण ग्रन्थों में धर्मशास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

  • धर्मशास्त्र में चार साहित्य आते हैं- 1- धर्म सूत्र, 2- स्मृति, 3- टीका एवं 4- निबन्ध।

स्मृतियाँ

स्मृतियों को 'धर्म शास्त्र' भी कहा जाता है- 'श्रस्तु वेद विज्ञेयों धर्मशास्त्रं तु वैस्मृतिः।' स्मृतियों का उदय सूत्रों को बाद हुआ। मनुष्य के पूरे जीवन से सम्बंधित अनेक क्रिया-कलापों के बारे में असंख्य विधि-निषेधों की जानकारी इन स्मृतियों से मिलती है। सम्भवतः मनुस्मृति (लगभग 200 ई.पूर्व. से 100 ई. मध्य) एवं याज्ञवल्क्य स्मृति सबसे प्राचीन हैं। उस समय के अन्य महत्त्वपूर्ण स्मृतिकार थे- नारद, पराशर, बृहस्पति, कात्यायन, गौतम, संवर्त, हरीत, अंगिरा आदि, जिनका समय सम्भवतः 100 ई. से लेकर 600 ई. तक था। मनुस्मृति से उस समय के भारत के बारे में राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जानकारी मिलती है। नारद स्मृति से गुप्त वंश के संदर्भ में जानकारी मिलती है। मेधातिथि, मारुचि, कुल्लूक भट्ट, गोविन्दराज आदि टीकाकारों ने 'मनुस्मृति' पर, जबकि विश्वरूप, अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि ने 'याज्ञवल्क्य स्मृति' पर भाष्य लिखे हैं।

महाकाव्य

'रामायण' एवं 'महाभारत', भारत के दो सर्वाधिक प्राचीन महाकाव्य हैं। यद्यपि इन दोनों महाकाव्यों के रचनाकाल के विषय में काफ़ी विवाद है, फिर भी कुछ उपलब्ध साक्ष्यों के आधर पर इन महाकाव्यों का रचनाकाल चौथी शती ई.पू. से चौथी शती ई. के मध्य माना गया है।

रामायण

रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि द्वारा पहली एवं दूसरी शताब्दी के दौरान संस्कृत भाषा में की गयी । बाल्मीकि कृत रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे, जो कालान्तर में 12000 हुए और फिर 24000 हो गये । इसे 'चतुर्विशिति साहस्त्री संहिता' भ्री कहा गया है। बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड एवं उत्तराकाण्ड नामक सात काण्डों में बंटा हुआ है। रामायण द्वारा उस समय की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। रामकथा पर आधारित ग्रंथों का अनुवाद सर्वप्रथम भारत से बाहर चीन में किया गया। भूशुण्डि रामायण को 'आदिरामायण' कहा जाता है।

महाभारत

महर्षि व्यास द्वारा रचित महाभारत महाकाव्य रामायण से बृहद है। इसकी रचना का मूल समय ईसा पूर्व चौथी शताब्दी माना जाता है। महाभारत में मूलतः 8800 श्लोक थे तथा इसका नाम 'जयसंहिता' (विजय संबंधी ग्रंथ) था। बाद में श्लोकों की संख्या 24000 होने के पश्चात् यह वैदिक जन भरत के वंशजों की कथा होने के कारण ‘भारत‘ कहलाया। कालान्तर में गुप्त काल में श्लोकों की संख्या बढ़कर एक लाख होने पर यह 'शतसाहस्त्री संहिता' या 'महाभारत' कहलाया। महाभारत का प्रारम्भिक उल्लेख 'आश्वलाय गृहसूत्र' में मिलता है। वर्तमान में इस महाकाव्य में लगभग एक लाख श्लोकों का संकलन है। महाभारत महाकाव्य 18 पर्वो- आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शान्ति, अनुशासन, अश्वमेध, आश्रमवासी, मौसल, महाप्रास्थानिक एवं स्वर्गारोहण में विभाजित है। महाभारत में ‘हरिवंश‘ नाम परिशिष्ट है। इस महाकाव्य से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है।

पुराण

प्राचीन आख्यानों से युक्त ग्रंथ को पुराण कहते हैं। सम्भवतः 5वीं से 4थी शताब्दी ई.पू. तक पुराण अस्तित्व में आ चुके थे। ब्रह्म वैवर्त पुराण में पुराणों के पांच लक्षण बताये ये हैं। यह हैं- सर्प, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। कुल पुराणों की संख्या 18 हैं- 1. ब्रह्म पुराण 2. पद्म पुराण 3. विष्णु पुराण 4. वायु पुराण 5. भागवत पुराण 6. नारदीय पुराण, 7. मार्कण्डेय पुराण 8. अग्नि पुराण 9. भविष्य पुराण 10. ब्रह्म वैवर्त पुराण, 11. लिंग पुराण 12. वराह पुराण 13. स्कन्द पुराण 14. वामन पुराण 15. कूर्म पुराण 16. मत्स्य पुराण 17. गरुड़ पुराण और 18. ब्रह्माण्ड पुराण

बौद्ध साहित्य

बौद्ध साहित्य को ‘त्रिपिटक‘ कहा जाता है। महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरान्त आयोजित विभिन्न बौद्ध संगीतियों में संकलित किये गये त्रिपिटक (संस्कृत त्रिपिटक) सम्भवतः सर्वाधिक प्राचीन धर्मग्रंथ हैं। वुलर एवं रीज डेविड्ज महोदय ने ‘पिटक‘ का शाब्दिक अर्थ टोकरी बताया है। त्रिपिटक हैं-
सुत्तपिटक, विनयपिटक और अभिधम्मपिटक

इन्हें भी देखें: जैन साहित्य एवं लौकिक साहित्य

जैन साहित्य

ऐतिहसिक जानकारी हेतु जैन साहित्य भी बौद्ध साहित्य की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य, जिसे ‘आगम‘ कहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है। आगे चलकर इनके 'उपांग' भी लिखे गये । आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, एक नंदि सूत्र एक अनुयोगद्वार एवं चार मूलसूत्र हैं। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो द्वारा महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद की गयी।

विदेशियों के विवरण

विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण से भी हमें भारतीय इतिहास की जानकारियाँ मिलती है। इनको तीन भागों में बांट सकते हैं-

  1. यूनानी-रोमन लेखक
  2. चीनी लेखक
  3. अरबी लेखक

पुरातत्त्व

पुरातात्विक साक्ष्य के अंतर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियां चित्रकला आदि आते हैं। इतिहास निमार्ण में सहायक पुरातत्त्व सामग्री में अभिलेखों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये अभिलेख अधिकांशतः स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं पात्रों, मूर्तियों, गुहाओं आदि में खुदे हुए मिलते हैं। यद्यपि प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के ‘बोगजकोई‘ नाम स्थान से क़रीब 1400 ई.पू. में पाये गये जिनमें अनेक वैदिक देवताओं - इन्द्र, मित्र, वरुण, नासत्य आदि का उल्लेख मिलता है।

चित्रकला

चित्रकला से हमें उस समय के जीवन के विषय में जानकारी मिलती है। अजंता के चित्रों में मानवीय भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति मिलती है। चित्रों में ‘माता और शिशु‘ या ‘मरणशील राजकुमारी‘ जैसे चित्रों से गुप्तकाल की कलात्मक पराकाष्ठा का पूर्ण प्रमाण मिलता है।

इन्हें भी देखें: मूर्ति कला मथुरा एवं अभिलेख

पाषाण काल

समस्त इतिहास को तीन कालों में विभाजित किया जा एकता है-

  1. प्राक्इतिहास या प्रागैतिहासिक काल (Prehistoric Age)
  2. आद्य ऐतिहासिक काल (Proto-historic Age)
  3. ऐतिहासिक काल (Historic Age)

भारत की आदिम (प्रारंभिक) जातियाँ

प्रारम्भिक काल में भारत में कितने प्रकार की जातियां निवास करती थीं, उनमें आपसी सम्बन्घ किस स्तर के थे, आदि प्रश्न अत्यन्त ही विवादित हैं। फिर भी नवीनतम सर्वाधिक मान्यताओं में 'डॉ. बी.एस. गुहा' का मत है। भारतवर्ष की प्रारम्भिक जातियों को छह भागों में विभक्त किया जा सकता है। -

  1. नीग्रिटों
  2. प्रोटो-ऑस्ट्रेलियाईड
  3. मंगोलायड
  4. भूमध्य सागरीय
  5. पश्चिमी ब्रेकी सेफल
  6. नॉर्डिक

सिंधु घाटी सभ्यता

आज से लगभग 70 वर्ष पूर्व पाकिस्तान के 'पश्चिमी पंजाब प्रांत' के 'माण्टगोमरी ज़िले' में स्थित 'हरियाणा' के निवासियों को शायद इस बात का किंचित्मात्र भी आभास नहीं था कि वे अपने आस-पास की ज़मीन में दबी जिन ईटों का प्रयोग इतने धड़ल्ले से अपने मकानों का निर्माण में कर रहे हैं, वह कोई साधारण ईटें नहीं, बल्कि लगभग 5,000 वर्ष पुरानी और पूरी तरह विकसित सभ्यता के अवशेष हैं। इसका आभास उन्हें तब हुआ जब 1856 ई. में 'जॉन विलियम ब्रन्टम' ने कराची से लाहौर तक रेलवे लाइन बिछवाने हेतु ईटों की आपूर्ति के इन खण्डहरों की खुदाई प्रारम्भ करवायी। खुदाई के दौरान ही इस सभ्यता के प्रथम अवशेष प्राप्त हुए, जिसे इस सभ्यता का नाम ‘हड़प्पा सभ्यता‘ का नाम दिया गया।

हड़प्पा लिपि

हड़प्पा लिपि का सर्वाधिक पुराना नमूना 1853 ई. में मिला था पर स्पष्टतः यह लिपि 1923 तक प्रकाश में आई। सिंधु लिपि में लगभग 64 मूल चिह्न एवं 205 से 400 तक अक्षर हैं जो सेलखड़ी की आयताकार मुहरों, तांबे की गुटिकाओं आदि पर मिलते हैं। यह लिपि चित्रात्मक थी। यह लिपि अभी तक गढ़ी नहीं जा सकी है। इस लिपि में प्राप्त सबसे बड़े लेख में क़रीब 17 चिह्न हैं। कालीबंगा के उत्खनन से प्राप्त मिट्टी के ठीकरों पर उत्कीर्ण चिह्न अपने पार्श्ववर्ती दाहिने चिह्न को काटते हैं। इसी आधार पर 'ब्रजवासी लाल' ने यह निष्कर्ष निकाला है - 'सैंधव लिपि दाहिनी ओर से बायीं ओर को लिखी जाती थी।'

मृण्मूर्तियां

हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त मृण्मूर्तियों का निर्माण मिट्टी से किया गया है। इन मृण्मूर्तियों पर मानव के अतिरिक्त पशु पक्षियों में बैल, भैंसा, बकरा, बाघ, सुअर, गैंडा, भालू, बन्दर, मोर, तोता, बत्तख़ एवं कबूतर की मृणमूर्तियां मिली है। मानव मृण्मूर्तियां ठोस है पर पशुओं की खोखली। नर एवं नारी मृण्मूर्तियां में सर्वाधिक नारी मृण्मूर्तियां ठोस हैं, पर पशुओं की खोखली। नर एवं नारी- मृण्मूर्तियां में सर्वाधिक नारी मृण्मूर्तियां मिली हैं।

हड़प्पा सभ्यता के नगरों की विशेषताएं

हड़प्पा संस्कृति की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी- इसकी नगर योजना। इस सभ्यता के महत्त्वपूर्ण स्थलों के नगर निर्माण में समरूपता थी। नगरों के भवनो के बारे में विशिष्ट बात यह थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे।

हडप्पा जनजीवन

हडप्प्पा संस्कृति की व्यापकता एवं विकास को देखने से ऐसा लगता है कि यह सभ्यता किसी केन्द्रीय शक्ति से संचालित होती थी। वैसे यह प्रश्न अभी विवाद का विषय बना हुआ है, फिर भी चूंकि हडप्पावासी वाणिज्य की ओर अधिक आकर्षित थे, इसलिए ऐसा माना जाता है कि सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता का शासन वणिक वर्ग के हाथ में था।

  • ह्नीलर ने सिंधु प्रदेश के लोगों के शासन को 'मध्यम वर्गीय जनतंन्त्रात्मक शासन' कहा और उसमें धर्म की महत्ता को स्वीकार किया।
  • स्टुअर्ट पिग्गॉट महोदय ने कहा 'मोहनजोदाड़ों का शासन राजतन्त्रात्मक न होकर जनतंत्रात्मक' था।
  • मैके के अनुसार ‘मोहनजोदड़ों का शासन एक प्रतिनिधि शासक के हाथों था।

प्रागैतिहासिक काल

भारत का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से आरम्भ होता है। 3000 ई. पूर्व तथा 1500 ई. पूर्व के बीच सिंधु घाटी में एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी, जिसके अवशेष मोहन जोदड़ो (मुअन-जो-दाड़ो) और हड़प्पा में मिले हैं। विश्वास किया जाता है कि भारत में आर्यों का प्रवेश बाद में हुआ। आर्यों ने पाया कि इस देश में उनसे पूर्व के जो लोग निवास कर रहे थे, उनकी सभ्यता यदि उनसे श्रेष्ठ नहीं तो किसी रीति से निकृष्ट भी नहीं थी। आर्यों से पूर्व के लोगों में सबसे बड़ा वर्ग द्रविड़ों का था।

इन्हें भी देखें: आर्य, आर्यावर्त एवं द्रविड़ निवासी

महाजनपद युग

प्राचीन भारतीयों ने कोई तिथि क्रमानुसार इतिहास नहीं सुरक्षित रखा है। सबसे प्राचीन सुनिश्चित तिथि जो हमें ज्ञात है, 326 ई. पू. है, जब मक़दूनिया के राजा सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया। इस तिथि से पहले की घटनाओं का तारतम्य जोड़ कर तथा साहित्य में सुरक्षित ऐतिहासिक अनुश्रुतियों का उपयोग करके भारत का इतिहास सातवीं शताब्दी ई. पू. तक पहुँच जाता है। इस काल में भारत क़ाबुल की घाटी से लेकर गोदावरी तक षोडश जनपदों में विभाजित था।

इन्हें भी देखें: ब्राह्मण, अंधक संघ, कृष्ण एवं ब्रज

प्राचीन भारत

1200 ई.पू से 240 ई. तक का भारतीय इतिहास, प्राचीन भारत का इतिहास कहलाता है। इसके बाद के भारत को मध्यकालीन भारत कहते हैं जिसमें मुख्यतः मुस्लिम शासकों का प्रभुत्व रहा था।

मौर्य और शुंग

इन्हें भी देखें: अशोक, अशोक के शिलालेख, बुद्ध, बौद्ध दर्शन, बौद्ध धर्म, फ़ाह्यान, पाटलिपुत्र एवं तक्षशिला

शक, कुषाण और सातवाहन

इन्हें भी देखें: राबाटक लेख, कुषाण, कनिष्क, कम्बोजिका एवं कल्हण

गुप्त

मध्यकालीन भारत

तीन साम्राज्यों का युग (8वीं - 10वीं शताब्दी)

सात सौ पचास और एक हज़ार ईस्वी के बीच उत्तर तथा दक्षिण भारत में कई शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ। नौंवीं शताब्दी तक पूर्वी और उत्तरी भारत में पाल साम्राज्य तथा दसवीं शताब्दी तक पश्चिमी तथा उत्तरी भारत में प्रतिहार साम्राज्य शक्तिशाली बने रहे। राष्ट्रकूटों का प्रभाव दक्कन में तो था ही, कई बार उन्होंने उत्तरी और दक्षिण भारत में भी अपना प्रभुत्व क़ायम किया। यद्यपि ये तीनों साम्राज्य आपस में लड़ते रहते थे तथापि इन्होंने एक बड़े भू-भाग में स्थिरता क़ायम रखी और साहित्य तथा कलाओं को प्रोत्साहित किया।

इन्हें भी देखें: पाल साम्राज्य, राष्ट्रकूट साम्राज्य, पृथ्वीराज चौहान, गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य, राजपूत काल एवं चोल साम्राज्य

इस्लाम का प्रवेश

इस बीच 712 ई. में भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। मुहम्मद-इब्न-क़ासिम के नेतृत्व में मुसलमान अरबों ने सिंध पर हमला कर दिया और वहाँ के ब्राह्मण राजा दाहिर को हरा दिया। इस तरह भारत की भूमि पर पहली बार इस्लाम के पैर जम गये और बाद की शताब्दियों के हिन्दू राजा उसे फिर हटा नहीं सके। परन्तु सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में निर्बल था और 1176 ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी ने उसे आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन के नेतृत्व में मुसलमानों ने हमले करके पंजाब छीन लिया था और ग़ज़नी के सुल्तान महमूद ने 997 से 1030 ई. के बीच भारत पर सत्रह हमले किये और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली, फिर भी हिन्दू राजाओं ने मुसलमानी आक्रमण का जिस अनवरत रीति से प्रबल विरोध किया, उसका महत्त्व कम करके नहीं आंकना चाहिए।

इन्हें भी देखें: चंगेज़ ख़ाँ, महमूद ग़ज़नवी, मुहम्मद बिन क़ासिम, मुहम्मद ग़ोरी, ग़ोर के सुल्तान, चंदबरदाई, पृथ्वीराज रासो एवं क़ुतुबुद्दीन ऐबक

आर्थिक सामाजिक जीवन, शिक्षा तथा धर्म 800 ई. से 1200 ई.

इस काल में भारतीय समाज में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इनमें से एक यह था कि विशिष्ट वर्ग के लोगों की शक्ति बहुत बढ़ी जिन्हें 'सामंत', 'रानक' अथवा 'रौत्त' (राजपूत) आदि पुकारा जाता था। इस काल में भारतीय दस्तकारी तथा खनन कार्य उच्च स्तर का बना रहा तथा कृषि भी उन्नतिशील रही। भारत आने वाले कई अरब यात्रियों ने यहाँ की ज़मीन की उर्वरता और भारतीय किसानों की कुशलता की चर्चा की है। पहले से चली आ रही वर्ण व्यवस्था इस युग में भी क़ायम रही। स्मृतियों के लेखकों ने ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर तो कहा ही, शूद्रों की सामाजिक और धार्मिक अयोग्यता को उचित ठहराने में तो वे पिछले लेखकों से कहीं आगे निकल गए।

दिल्ली सल्तनत

दिल्ली सल्तनत की स्थापना भारतीय इतिहास में युगान्तकारी घटना है। शासन का यह नवीन स्वरूप भारत की पूर्ववर्ती राजव्यवस्थाओं से भिन्न था। इस काल के शासक एवं उनकी प्रशासनिक व्यवस्था एक ऐसे धर्म पर आधारित थी, जो कि साधारण धर्म से भिन्न था। शासकों द्वारा सत्ता के अभूतपूर्व केन्द्रीकरण और कृषक वर्ग के शोषण का भारतीय इतिहास में कोई उदाहरण नहीं मिलता है। दिल्ली सल्तनत का काल 1206 ई. से प्रारम्भ होकर 1562 ई. तक रहा। 320 वर्षों के इस लम्बे काल में भारत में मुस्लिमों का शासन व्याप्त रहा। यह काल स्थापत्य एवं वास्तुकला के लिये भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

मामलूक अथवा ग़ुलाम वंश

ग़ुलाम वंश दिल्ली में कुतुबद्दीन ऐबक द्वारा 1206 ई. में स्थापित किया गया था। यह वंश 1290 ई. तक शासन करता रहा। इसका नाम ग़ुलाम वंश इस कारण पड़ा कि इसका संस्थापक और उसके इल्तुतमिश और बलबन जैसे महान् उत्तराधिकारी प्रारम्भ में ग़ुलाम अथवा दास थे और बाद में वे दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करने में समर्थ हुए।

इल्तुतमिश/अल्तमश

इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का एक प्रमुख शासक था। वंश के संस्थापक ऐबक के बाद वो उन शासकों में से था जिससे दिल्ली सल्तनत की नींव मज़बूत हुई। वह ऐबक का दामाद भी था।

रज़िया सुल्तान

रज़िया का पूरा नाम-रज़िया अल्-दीन (1205 – 1240), सुल्तान जलालत उद-दीन रज़िया था। वह इल्तुतमिश की पुत्री तथा भारत की पहली मुस्लिम शासिका थी।

बलबन का युग

ग़यासुद्दीन बलबन (1266-1286 ई.) इल्बारि जाति का व्यक्ति था, जिसने एक नये राजवंश ‘बलबनी वंश’ की स्थापना की थी। ग़यासुद्दीन बलबन ग़ुलाम वंश का नवाँ सुल्तान था।

ख़िलजी वंश (1290-1320 ई.)

ख़िलजी कौन थे? इस विषय में पर्याप्त विवाद है। इतिहासकार 'निज़ामुद्दीन अहमद' ने ख़िलजी को चंगेज़ ख़ाँ का दामाद और कुलीन ख़ाँ का वंशज, 'बरनी' ने उसे तुर्कों से अलग एवं 'फ़खरुद्दीन' ने ख़िलजियों को तुर्कों की 64 जातियों में से एक बताया है। फ़खरुद्दीन के मत का अधिकांश विद्वानों ने समर्थन किया है। चूंकि भारत आने से पूर्व ही यह जाति अफ़ग़ानिस्तान के हेलमन्द नदी के तटीय क्षेत्रों के उन भागों में रहती थी, जिसे ख़िलजी के नाम से जाना जाता था। सम्भवतः इसीलिए इस जाति को ख़िलजी कहा गया। मामलूक अथवा ग़ुलाम वंश के अन्तिम सुल्तान शमसुद्दीन क्यूमर्स की हत्या के बाद ही जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी सिंहासन पर बैठा था, इसलिए इतिहास में ख़िलजी वंश की स्थापना को ख़िलजी क्रांति के नाम से भी जाना जाता है।

तुग़लक़ वंश (1320-1414)

ग़यासुद्दीन ने एक नये वंश अर्थात् तुग़लक़ वंश की स्थापना की, जिसने 1412 तक राज किया। इस वंश में तीन योग्य शासक हुए। ग़यासुद्दीन, उसका पुत्र मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1324-51) और उसका उत्तराधिकारी फ़िरोज शाह तुग़लक़ (1351-87)।

इन्हें भी देखें: सैयद वंश, लोदी वंश, तैमूर लंग, विजय नगर साम्राज्य, बहमनी वंश, चंगेज़ ख़ाँ, अलाउद्दीन ख़िलजी, कबीर एवं भक्ति आन्दोलन

मुग़ल

दिल्ली की सल्तनत वास्तव में कमज़ोर थी, क्योंकि सुल्तानों ने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का हृदय जीतने का कोई प्रयास नहीं किया। वे धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त कट्टर थे और उन्होंने बलपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया। इससे हिन्दू प्रजा उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखती थी। इसक फलस्वरूप 1526 ई. में बाबर ने आसानी से दिल्ली की सल्तनत को उखाड़ फैंका। उसने पानीपत की पहली लड़ाई में अन्तिम सुल्तान इब्राहीम लोदी को हरा दिया और मुग़ल वंश की प्रतिष्ठित किया, जिसने 1526 से 1858 ई. तक भारत पर शासन किया। तीसरा मुग़ल बादशाह अकबर असाधारण रूप से योग्य और दूरदर्शी शासक था। उसने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का हृदय जीतने की कोशिश की और विशेष रूप से युद्ध प्रिय राजपूत राजाओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया।

बाबर (1526-1530)

मुग़ल वंश का संस्थापक "ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर" था। बाबर का पिता 'उमर शेख़ मिर्ज़ा', 'फ़रग़ना' का शासक था, जिसकी मृत्यु के बाद बाबर राज्य का वास्तविक अधिकारी बना।

हुमायूँ (1530-1540 और 1555-1556)

'नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ' का जन्म बाबर की पत्नी ‘माहम बेगम’ के गर्भ से 6 मार्च, 1508 ई. को काबुल में हुआ था। बाबर के 4 पुत्रों- हुमायूँ, कामरान, अस्करी और हिन्दाल में हुमायूँ सबसे बड़ा था। बाबर ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था।

शेरशाह सूरी

शेरशाह सूरी के बचपन का नाम 'फ़रीद ख़ाँ' था। वह वैजवाड़ा (होशियारपुर 1472 ई.) में अपने पिता 'हसन ख़ाँ' की अफ़ग़ान पत्‍नी से उत्पन्न था। उसका पिता हसन, बिहार के सासाराम का ज़मींदार था।

अकबर (1556 - 1605)

अकबर महान् ने धार्मिक सहिष्णुता तथा मेल-मिलाप की नीति बरती, हिन्दुओं पर से जज़िया उठा लिया और राज्य के ऊँचे पदों पर बिना भेदभाव के सिर्फ़ योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ कीं। इन्हें भी देखें: अकबरनामा, अबुल फ़ज़ल, तानसेन, बीरबल, रहीम एवं टोडरमल

जहाँगीर (1605 - 1627)

'नूरुद्दीन सलीम जहाँगीर' का जन्म फ़तेहपुर सीकरी में स्थित ‘शेख़ सलीम चिश्ती’ की कुटिया में राजा भारमल की बेटी ‘मरीयम-उज़्-ज़मानी’ के गर्भ से 30 अगस्त, 1569 ई. को हुआ था। अकबर सलीम को ‘शेख़ू बाबा’ कहा करता था। सलीम का मुख्य शिक्षक अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना था।

शाहजहाँ (1627 - 1658)

शाहजहाँ का जन्म जोधपुर के शासक राजा उदयसिंह की पुत्री 'जगत गोसाई' (जोधाबाई) के गर्भ से 5 जनवरी, 1592 ई. को लाहौर में हुआ था। उसका बचपन का नाम ख़ुर्रम था। ख़ुर्रम जहाँगीर का छोटा पुत्र था, जो छल−बल से अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ था।

औरंगज़ेब (1658 - 1707)

'मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब' का जन्म 4 नवम्बर, 1618 ई. में गुजरात के ‘दोहद’ नामक स्थान पर मुमताज़ के गर्भ से हुआ था। औरंगज़ेब के बचपन का अधिकांश समय नूरजहाँ के पास बीता था।

बहादुर शाह ज़फ़र (1837- 1858)

बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्तूबर सन् 1775 ई. को दिल्ली में हुआ था। बहादुर शाह ज़फ़र मुग़ल साम्राज्य के अंतिम बादशाह थे। इनका शासनकाल 1837-58 तक था। बहादुर शाह ज़फ़र एक कवि, संगीतकार व खुशनवीस थे और राजनीतिक नेता के बजाय सौंदर्यानुरागी व्यक्ति अधिक थे।

इन्हें भी देखें: हेमू, ताजमहल, फ़तेहपुर सीकरी एवं चित्रकला मुग़ल शैली

आधुनिक काल

मराठा

राजपूतों और मुग़लों के योग से उसने अपना साम्राज्य कन्दहार से आसाम की सीमा तक तथा हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में अहमदनगर तक विस्तृत कर दिया। उसके पुत्र जहाँगीर जहाँ पौत्र शाहजहाँ के राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार जारी रहा। शाहजहाँ ने ताजमहल का निर्माण कराया, परन्तु कन्दहार उसके हाथ से निकल गया। अकबर के प्रपौत्र औरंगज़ेब के राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार अपने चरम शिखर पर पहुँच गया और कुछ काल के लिए सारा भारत उसके अंतर्गत हो गया। परन्तु औरंगज़ेब ने जान-बूझकर अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति त्याग दी और हिन्दुओं को अपने विरुद्ध कर लिया। उसने हिन्दुस्तान का शासन सिर्फ़ मुसलमानों के हित में चलाने की कोशिश की और हिन्दुओं को ज़बर्दस्ती मुसलमान बनाने का असफल प्रयास किया। इससे राजपूताना, बुंदेलखण्ड तथा पंजाब के हिन्दू उसके विरुद्ध उठ खड़े हुए।

इन्हें भी देखें: शिवाजी, तानाजी, अहिल्याबाई होल्कर, जाटों का इतिहास, वास्को द गामा, अंग्रेज़ एवं सिपाही क्रांति 1857

ईस्ट इंडिया कम्पनी

अठारहवीं शताब्दी के शुरू में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बम्बई (मुम्बई), मद्रास (चेन्नई) तथा कलकत्ता (कोलकाता) पर क़ब्ज़ा कर लिया। उधर फ्राँसीसियों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने माहे, पांडिचेरी तथा चंद्रानगर पर क़ब्ज़ा कर लिया। उन्हें अपनी सेनाओं में भारतीय सिपाहियों को भरती करने की भी इजाज़त मिल गयी। वे इन भारतीय सिपाहियों का उपयोग न केवल अपनी आपसी लड़ाइयों में करते थे बल्कि इस देश के राजाओं के विरुद्ध भी करते थे। इन राजाओं की आपसी प्रतिद्वन्द्विता और कमज़ोरी ने इनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को जाग्रत कर दिया और उन्होंने कुछ देशी राजाओं के विरुद्ध दूसरे देशी राजाओं से संधियाँ कर लीं। 1744-49 ई. में मुग़ल बादशाह की प्रभुसत्ता की पूर्ण उपेक्षा करके उन्होंने आपस में कर्नाटक की दूसरी लड़ाई छेड़ी।

इन्हें भी देखें: मैसूर युद्ध, टीपू सुल्तान, पानीपत युद्ध, रेग्युलेटिंग एक्ट एवं गवर्नर-जनरल

गवर्नर-जनरलों का समय

कम्पनी के शासन काल में भारत का प्रशासन एक के बाद एक बाईस गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे उल्लेखनीय घटना यह है कि कम्पनी युद्ध तथा कूटनीति के द्वारा भारत में अपने साम्राज्य का उत्तरोत्तर विस्तार करती रही। मैसूर के साथ चार लड़ाइयाँ, मराठों के साथ तीन, बर्मा (म्यांमार) तथा सिखों के साथ दो-दो लड़ाइयाँ तथा सिंध के अमीरों, गोरखों तथा अफ़ग़ानिस्तान के साथ एक-एक लड़ाई छेड़ी गयी। इनमें से प्रत्येक लड़ाई में कम्पनी को एक या दूसरे देशी राजा की मदद मिली।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम

इस काल में सती प्रथा का अन्त कर देने के समान कुछ सामाजिक सुधार के भी कार्य किये गये। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा के विरुद्ध निरन्तर आन्दोलन चलाया। उनके पूर्ण और निरन्तर समर्थन का ही प्रभाव था, जिसके कारण लॉर्ड विलियम बैंटिक 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने में समर्थ हो सका। अंग्रेज़ी के माध्यम से पश्चिम शिक्षा के प्रसार की दिशा में क़दम उठाये गये, अंग्रेज़ी देश की राजभाषा बना दी गयी, सारे देश में समान ज़ाब्ता दीवानी और ज़ाब्ता फ़ौजदारी क़ानून लागू कर दिया गया, परन्तु शासन स्वेच्छाचारी बना रहा और वह पूरी तरह अंग्रेज़ों के हाथों में रहा।

इन्हें भी देखें: झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, राजा राममोहन राय, सती प्रथा एवं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

असहयोग और सत्याग्रह

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कुछ सुधारों से पुराने कांग्रेसजन संतुष्ट हो गये, परन्तु नव युवकों का दल, जिसे मोहनदास करमचंद गाँधी के रूप में एक नया नेता मिल गया था, संतुष्ट नहीं हुआ। इन सुधारों के अंतर्गत केन्द्रीय कार्यपालिका को केन्द्रीय विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं बनाया गया था और वाइसराय को बहुत अधिक अधिकार प्रदान कर दिये गये थे। अतएव उसने इन सुधारों को अस्वीकृत कर दिया। उसके मन में जो आशंकाएँ थीं, वे ग़लत नहीं थी, यह 1919 के एक्ट के बाद ही पास किये गये रौलट एक्ट जैसे दमनकारी क़ानूनों तथा जलियाँवाला बाग़ हत्याकांण्ड जैसे दमनमूलक कार्यों से सिद्ध हो गया। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक में ऊधमसिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियाँ चला दीं। जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह जैसे महान् क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए। कांग्रेस ने 1920 ई. में अपने नागपुर अधिवेशन में अपना ध्येय पूर्ण स्वराज्य की स्थापना घोषित कर दी और अपनी माँगों को मनवाने के लिए उसने अहिंसक असहयोंग की नीति अपनायी। चूंकि ब्रिटिश सरकार ने उसकी माँगें स्वीकार नहीं की और दमनकारी नीति के द्वारा वह असहयोग आंदोलन को दबा देने में सफल हो गयी। इसलिए कांग्रेस ने दिसम्बर 1929 ई. में लाहौर अधिवेशन में अपना लक्ष्य पूर्ण स्वीधीनता निश्चित किया और अपनी माँग का मनवाने के लिए उसने 1930 में नमक सत्याग्रह आंदोलन शुरू कर दिया।

भारत का विभाजन

कुछ ब्रिटिश अफ़सरों ने भारत को स्वाधीन होने से रोकने के लिए अंतिम दुर्राभ संधि की और मुसलमानों के लिये भारत विभाजन करके पाकिस्तान की स्थापना की माँग का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप अगस्त 1946 ई. में सारे देश में भयानक सम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये, जिन्हें वाइसराय लॉर्ड वेवेल अपने समस्त फ़ौजी अनुभवों तथा साधनों बावजूद रोकन में असफल रहा। यह अनुभव किया गया कि भारत का प्रशासन ऐसी सरकार के द्वारा चलाना सम्भव नहीं है। जिसका नियंत्रण मुख्य रूप से अंग्रेजों के हाथों में हो। अतएव सितम्बर 1946 ई. में लॉर्ड वेवेल ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय नेताओं की एक अंतरिम सरकार गठित की। ब्रिटिश अधिकारियों की कृपापात्र होने के कारण मुस्लिम लीग के दिमाग़ काफ़ी ऊँचे हो गये थे। उसने पहले तो एक महीने तक अंतरिम सरकार से अपने को अलग रखा, इसके बाद वह भी उसमें सम्मिलित हो गयी।

इन्हें भी देखें: भारत का इतिहास (तिथि क्रम), सरदार पटेल एवं महात्मा गाँधी


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देखें: शोध ग्रंथ वेल्स, स्पेन्सर (2002) अ जेनेटिक ओडिसी (अंग्रेज़ी)। प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी प्रॅस, न्यू जर्सी, सं.रा.अमरीका। ISBN 0-691-11532-X।
  2. पुस्तक 'भारत का इतिहास' रोमिला थापर) पृष्ठ संख्या-19

बाहरी कड़ियाँ

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