भारत छोड़ो आन्दोलन

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भारत छोड़ो आन्दोलन 9 अगस्त, 1942 ई. को सम्पूर्ण भारत में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी के आह्वान पर प्रारम्भ हुआ था। भारत को जल्द ही आज़ादी दिलाने के लिए महात्मा गाँधी द्वारा अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध यह एक बड़ा नागरिक अवज्ञा आन्दोलन था। क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद गाँधीजी ने एक और बड़ा आन्दोलन प्रारम्भ करने का निश्चय ले लिया। इस आन्दोलन को 'भारत छोड़ो आन्दोलन' का नाम दिया गया। भारत की आज़ादी से सम्बन्धित इतिहास में दो पड़ाव सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण नज़र आते हैं- प्रथम '1857 ई. का स्वतंत्रता संग्राम' और द्वितीय '1924 ई. का भारत छोड़ो आन्दोलन'।

गाँधीजी की गिरफ़्तारी

'भारत छोड़ो आन्दोलन' प्रारम्भ होने के कुछ ही समय बाद गाँधीजी को तुरंत ही गिरफ़्तार कर लिया गया, लेकिन देशभर के युवा कार्यकर्ता हड़तालों और तोड़फ़ोड़ की कार्रवाइयों के साथ इस आन्दोलन को जारी रखे हुए थे। कांग्रेस में जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी सदस्य भूमिगत प्रतिरोधि गतिविधियों में सबसे ज्यादा सक्रिय थे। पश्चिम में सतारा और पूर्व में मेदिनीपुर जैसे कई जिलों में स्वतंत्र सरकार, प्रतिसरकार की स्थापना कर दी गई थी। अंग्रेज़ों ने आंदोलन के प्रति काफ़ी सख्त रवैया अपना लिया था, फ़िर भी इस विद्रोह को दबाने में अंग्रेज़ सरकार को साल से भी अधिक का समय लगाना पड़ा।

मूलमंत्र 'करो या मरो'

वह लोग जो कुर्बानी देना नहीं जानते, वे आज़ादी प्राप्त नहीं कर सकते। 9 अगस्त, 1942 ई. को शुरू हुए भारत छोड़ो आन्दोलन का मूल भी इसी भावना से प्रेरित था। गांधीजी वैसे तो अहिंसावादी थे, मगर देश को आज़ाद करवाने के लिए उन्होंने 'करो या मरो' का मूल मंत्र दिया। अंग्रेजी शासकों की दमनकारी, आर्थिक लूट-खसूट, विस्तारवादी एवं नस्लवादी नीतियों के विरुद्ध उन्होंने लोगों को क्रमबद्ध करने के लिए 'भारत छोड़ो आन्दोलन' छेड़ा था। गांधीजी ने कहा था कि-


"एक देश तब तक आज़ाद नहीं हो सकता, जब तक कि उसमें रहने वाले लोग एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते।"


गाँधीजी के इन शब्दों ने भारत की जनता पर जादू-सा असर डाला और वे नये जोश, नये साहस, नये संकल्प, नई आस्था, दृढ़ निश्चय और आत्मविश्वास के साथ स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। देश के कोने-कोने में 'करो या मरो' की आवाज़ गुंजायमान हो उठी, और चारों ओर बस यही नारा श्रमण होने लगा।

गाँधी का प्रभाव

भारत छोड़ो आंदोलन मूल रूप से एक जनांदोलन था, जिसमें भारत का हर जाति वर्ग का व्यक्ति शामिल था। इस आंदोलन ने युवाओं को एक बहुत बड़ी संख्या में अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। युवाओं ने अपने कॉलेज छोड़ दिये और वे जेल का रास्ता अपनाने लगे। जिस दौरान कांग्रेस के नेता जेल में थे, ठीक इसी समय मोहम्मद अली जिन्ना तथा मुस्लिम लीग के उनके साथी अपना प्रभाव क्षेत्र फ़ैलाने में लग गये। इसी वर्षों में मुस्लिम लीग को पंजाब और सिंध में अपनी पहचान बनाने का मौका मिला, जहाँ पर उसकी अभी तक कोई ख़ास पहचान नहीं थी। जून 1944 ई. में जब विश्वयुद्ध समाप्ति की ओर था, गाँधीजी को जेल से रिहा कर दिया गया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच फ़ासले को पाटने के लिए जिन्ना के साथ कई बार मुलाकात की और उन्हें समझाने का प्रयत्न किया। इसी समय 1945 ई. में ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार बन गई। यह सरकार पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में थी। उसी समय वायसराय लॉर्ड वावेल ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के बीच कई बैठकों का आयोजन किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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