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क्रांतिकारी आन्दोलन में मैडम कामा का नाम विशेष उल्लेखनीय है, जिन्होंने विदेश में रहकर भी भारतीय क्रांतिकारीयों की भरपुर मदद की थी। उनके ओजस्वी लेख और भाषण क्रांतिकारीयों के लिए अत्यधिक प्रेरणा स्रोत बने।
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'''मैडम कामा''' का नाम क्रांतिकारी आन्दोलन में विशेष उल्लेखनीय है, जिन्होंने विदेश में रहकर भी भारतीय क्रांतिकारीयों की भरपुर मदद की थी। उनके ओजस्वी लेख और भाषण क्रांतिकारीयों के लिए अत्यधिक प्रेरणा स्रोत बने।
 
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08:02, 11 सितम्बर 2012 का अवतरण

मैडम कामा का नाम क्रांतिकारी आन्दोलन में विशेष उल्लेखनीय है, जिन्होंने विदेश में रहकर भी भारतीय क्रांतिकारीयों की भरपुर मदद की थी। उनके ओजस्वी लेख और भाषण क्रांतिकारीयों के लिए अत्यधिक प्रेरणा स्रोत बने।

जन्म और विवाह

बम्बई (वर्तमान मुम्बई) के एक सम्पन्न पारसी परिवार में जन्मी मैडम कामा का विवाह भीखमजी रुस्तमजी कामा से हुआ।

सामाजिक कार्य

सामाजिक कार्यों में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण उनका स्वास्थ बिगड़ गया, जिसके उपचार के लिए उन्हें 1902 ई. में इंग्लैण्ड जाना पडा। वहाँ वे 'भारतीय होम रूल समिति' की सदस्या बन गई। श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा उन्हें 'इण्डिया हाउस' के क्रांतिकारी दस्ते में शामिल कर लिया गया।

क्रांति-प्रसूता

1907 ई. में स्टुटगार्ड (जर्मनी) में 'अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद सम्मेलन' में मैडम कामा ने तिरंगा झण्डा फहराया और घोषणा की- यह भारतीय स्वतंत्रता का ध्वज है। इसका जन्म हो चुका है। हिन्दुस्तान के युवा वीर सपूतों के रक्त से यह पहले ही पवित्र हो चुका है। यहाँ उपस्थित सभी महानुभावों से मेरा निवेदन है कि सब खड़े होकर हिन्दुस्तान की आज़ादी के इस ध्वज की वंदना करें सभी ने खड़े होकर ध्वज वंदना की। मैडम कामा को 'क्रांति-प्रसूता' कहा जाने लगा।

पत्र का प्रकाशन

धीरे-धीरे मैडम कामा की क्रांतिकारी गतिविधियाँ बढ़ती गई। इससे पहले कि अंग्रेज़ सरकार उन्हें गिरफ्तार करे, वे फ्रांस चली गई तथा वहाँ से 'वन्दे मातरम' नामक क्रांतिकारी पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। अपनी सम्पादकीय में वे कितनी उग्र भाषा का प्रयोग करती थीं। इसका एक उदाहरण धीरे-धीरे गोली चलाना सीख लो। अब वह समय ज़्यादा दूर नहीं, जब तुम्हें अपनी प्रिय हिन्दुस्तानी सरजमीं से अग्रेज़ों को मार भागने के लिए कहा जाएगा।

निधन

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उन्हें काफ़ी कष्ट झेलने पड़े। भारत में उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली गई। उन्हें एक देश से दूसरे देश में लगातार भागना पड़ा। वृद्धावस्था में वे भारत लौटी तथा 1936 ई. में बम्बई (वर्तमान मुम्बई) में गुमनामी की हालत में उनका देहांत हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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