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खाण्डव वन के दहन के समय अर्जुन ने मय दानव को अभय दान दे दिया था। इससे कृतज्ञ होकर मय दानव ने अर्जुन से कहा- "हे कुन्तीनन्दन! आपने मेरे प्राणों की रक्षा की है, अतः आप आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?" अर्जुन ने उत्तर दिया- "मैं किसी बदले की भावना से उपकार नहीं करता, किन्तु यदि तुम्हारे अन्दर सेवा भावना है तो तुम [[श्रीकृष्ण]] की सेवा करो।" मयासुर के द्वारा किसी प्रकार की सेवा की आज्ञा माँगने पर श्रीकृष्ण ने उससे कहा- "हे दैत्यश्रेष्ठ! तुम युधिष्ठिर की सभा हेतु ऐसे भवन का निर्माण करो, जैसा कि इस [[पृथ्वी]] पर अभी तक न निर्मित हुआ हो।"
 
खाण्डव वन के दहन के समय अर्जुन ने मय दानव को अभय दान दे दिया था। इससे कृतज्ञ होकर मय दानव ने अर्जुन से कहा- "हे कुन्तीनन्दन! आपने मेरे प्राणों की रक्षा की है, अतः आप आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?" अर्जुन ने उत्तर दिया- "मैं किसी बदले की भावना से उपकार नहीं करता, किन्तु यदि तुम्हारे अन्दर सेवा भावना है तो तुम [[श्रीकृष्ण]] की सेवा करो।" मयासुर के द्वारा किसी प्रकार की सेवा की आज्ञा माँगने पर श्रीकृष्ण ने उससे कहा- "हे दैत्यश्रेष्ठ! तुम युधिष्ठिर की सभा हेतु ऐसे भवन का निर्माण करो, जैसा कि इस [[पृथ्वी]] पर अभी तक न निर्मित हुआ हो।"
 
==सभा भवन का निर्माण==
 
==सभा भवन का निर्माण==
मयासुर ने श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन करके एक अद्वितीय भवन का निर्माण कर दिया। इसके साथ ही उसने [[पाण्डव|पाण्डवों]] को 'देवदत्त शंख', एक [[वज्र अस्त्र|वज्र]] से भी कठोर [[रत्न]] से जड़ित [[गदा शस्त्र|गदा]] तथा मणिमय पात्र भी भेंट किया। कुछ काल पश्चात धर्मराज [[युधिष्ठिर]] ने [[राजसूय यज्ञ]] का सफलतापूर्वक आयोजन किया। [[यज्ञ]] के समाप्त हो जाने के बाद भी [[कौरव]] राजा [[दुर्योधन]] अपने भाइयों के साथ युधिष्ठिर का अतिथि बना रहा। एक दिन दुर्योधन ने मय दानव के द्वारा निर्मित राजसभा को देखने की इच्छा प्रदर्शित की, जिसे युधिष्ठिर ने सहर्ष स्वीकार किया। दुर्योधन उस सभा भवन की शिल्पकला को देख कर आश्चर्यचकित रह गया। मय दानव ने उस सभा भवन का निर्माण इस प्रकार से किया था कि वहाँ पर अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो जाते थे, जैसे कि स्थल के स्थान पर [[जल]], जल के स्थान पर स्थल, द्वार के स्थान पर दीवार तथा दीवार के स्थान पर द्वार दृष्टिगत होता था। दुर्योधन को भी उस भवन के अनेक स्थानों में भ्रम हुआ तथा उपहास का पात्र बनना पड़ा।
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मयासुर ने श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन करके एक अद्वितीय भवन का निर्माण कर दिया। इसके साथ ही उसने [[पाण्डव|पाण्डवों]] को 'देवदत्त शंख', एक [[वज्र अस्त्र|वज्र]] से भी कठोर [[रत्न]] से जड़ित [[गदा शस्त्र|गदा]] तथा मणिमय पात्र भी भेंट किया। कुछ काल पश्चात् धर्मराज [[युधिष्ठिर]] ने [[राजसूय यज्ञ]] का सफलतापूर्वक आयोजन किया। [[यज्ञ]] के समाप्त हो जाने के बाद भी [[कौरव]] राजा [[दुर्योधन]] अपने भाइयों के साथ युधिष्ठिर का अतिथि बना रहा। एक दिन दुर्योधन ने मय दानव के द्वारा निर्मित राजसभा को देखने की इच्छा प्रदर्शित की, जिसे युधिष्ठिर ने सहर्ष स्वीकार किया। दुर्योधन उस सभा भवन की शिल्पकला को देख कर आश्चर्यचकित रह गया। मय दानव ने उस सभा भवन का निर्माण इस प्रकार से किया था कि वहाँ पर अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो जाते थे, जैसे कि स्थल के स्थान पर [[जल]], जल के स्थान पर स्थल, द्वार के स्थान पर दीवार तथा दीवार के स्थान पर द्वार दृष्टिगत होता था। दुर्योधन को भी उस भवन के अनेक स्थानों में भ्रम हुआ तथा उपहास का पात्र बनना पड़ा।
  
 
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07:48, 23 जून 2017 के समय का अवतरण

मय दानव का उल्लेख महाभारत में खाण्डव वन दहन के प्रसंग में हुआ है। उसे देवताओं का शिल्पकार भी कहा गया है। मत्स्यपुराण में अठारह वास्तुशिल्पियों के नाम दिए गए हैं, जिनमें विश्वकर्मा और मय दानव का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। मय दानव बड़ा होशियार शिल्पकार था। अर्जुन द्वारा जीवन दान दिये जाने के कारण उसकी अर्जुन से मित्रता हो गई थी। अर्जुन के कहने से ही मय दानव ने युधिष्ठिर के लिए राजधानी इन्द्रप्रस्थ में बड़ा सुन्दर सभा भवन बनाया था।

अर्जुन से मित्रता

खाण्डव वन के दहन के समय अर्जुन ने मय दानव को अभय दान दे दिया था। इससे कृतज्ञ होकर मय दानव ने अर्जुन से कहा- "हे कुन्तीनन्दन! आपने मेरे प्राणों की रक्षा की है, अतः आप आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?" अर्जुन ने उत्तर दिया- "मैं किसी बदले की भावना से उपकार नहीं करता, किन्तु यदि तुम्हारे अन्दर सेवा भावना है तो तुम श्रीकृष्ण की सेवा करो।" मयासुर के द्वारा किसी प्रकार की सेवा की आज्ञा माँगने पर श्रीकृष्ण ने उससे कहा- "हे दैत्यश्रेष्ठ! तुम युधिष्ठिर की सभा हेतु ऐसे भवन का निर्माण करो, जैसा कि इस पृथ्वी पर अभी तक न निर्मित हुआ हो।"

सभा भवन का निर्माण

मयासुर ने श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन करके एक अद्वितीय भवन का निर्माण कर दिया। इसके साथ ही उसने पाण्डवों को 'देवदत्त शंख', एक वज्र से भी कठोर रत्न से जड़ित गदा तथा मणिमय पात्र भी भेंट किया। कुछ काल पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का सफलतापूर्वक आयोजन किया। यज्ञ के समाप्त हो जाने के बाद भी कौरव राजा दुर्योधन अपने भाइयों के साथ युधिष्ठिर का अतिथि बना रहा। एक दिन दुर्योधन ने मय दानव के द्वारा निर्मित राजसभा को देखने की इच्छा प्रदर्शित की, जिसे युधिष्ठिर ने सहर्ष स्वीकार किया। दुर्योधन उस सभा भवन की शिल्पकला को देख कर आश्चर्यचकित रह गया। मय दानव ने उस सभा भवन का निर्माण इस प्रकार से किया था कि वहाँ पर अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो जाते थे, जैसे कि स्थल के स्थान पर जल, जल के स्थान पर स्थल, द्वार के स्थान पर दीवार तथा दीवार के स्थान पर द्वार दृष्टिगत होता था। दुर्योधन को भी उस भवन के अनेक स्थानों में भ्रम हुआ तथा उपहास का पात्र बनना पड़ा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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