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भारत में अंग्रेज़ों और मैसूर के शासकों के बीच चार सैन्य मुठभेड़ हुई थी। अंग्रेज़ों और [[हैदर-अली]] तथा उसके पुत्र [[टीपू सुल्तान]] के बीच समय-समय पर युद्ध हुए थे। 32 वर्षो (1767से 1799 ई॰) के मध्य युद्ध छेड़े गए।
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भारत में अंग्रेज़ों और मैसूर के शासकों के बीच चार सैन्य मुठभेड़ हुई थी। अंग्रेज़ों और [[हैदर-अली]] तथा उसके पुत्र [[टीपू सुल्तान]] के बीच समय-समय पर युद्ध हुए थे। 32 वर्षो (1767से 1799 ई.) के मध्य युद्ध छेड़े गए।
  
 
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1761 के आस-पास एक शाही मुसलमान हैदर अली, जो पहले से ही प्रधान सेनापति थे, मैसूर राज्य के स्वयंभु शासक बन गए और अपने प्रभुत्व क्षेत्र का विस्तार करने लगे। प्रथम मैसूर युद्ध 1667 से 1669 ई॰ तक हुआ,जिसका कारण मद्रास में अंग्रेज़ों की आक्रामक नीतियाँ थीं। 1766 ई॰ में जब हैदर-अली मराठों से एक युद्ध में उलझा था, [[मद्रास]] के अंग्रेज़ अधिकारियों ने [[निज़ाम]] की सेवा में एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी भेज दी थी, और [[ईस्ट इंडिया कंपनी]] ने हैदर अली के विरुद्ध उत्तरी सरकारों के समर्पण के लिए [[हैदराबाद]] के निज़ाम से गठबंधन कर लिया। जिसकी सहायता से निज़ाम ने मैसूर के भूभागों पर आक्रमण कर दिया था। अंग्रेजों की इस अकारण शत्रुता से हैदर-अली को बड़ा क्रोध आया। उसने [[मराठा साम्राज्य|मराठों]] से संधि कर ली, अस्थिर बुद्धि निज़ाम को अपनी ओर मिला लिया और निजाम की सहायता से कर्नाटक पर, जो उस समय अंग्रेजों के नियंत्रण में था, आक्रमण कर दिया। लेकिन 1768 में निज़ाम युद्ध से हट गए और अंग्रेज़ों को अकेले हैदर अली का सामना करने के लिए छोड़ दिया।  इस प्रकार प्रथम मैसूर युद्ध का सूत्रपात हुआ। यह युद्ध दो वर्षो तक चलता रहा और 1769 ई॰ में जब हैदर-अली का अचानक धावा मद्रास के क़िले की दीवारों तक पहुँच गया, उसका अंत हुआ। मद्रास कौंसिल के सदस्य भयाकुल हो उठे और उन्होंने हैदर-अली द्वारा सुलह की शर्ते स्वीकार कर लीं। इसके अनुसार दोनों पक्षों ने जीते गए भू-भाग लौटा दिए और हैदर-अली तथा अंग्रेज़ों के बीच एक रक्षात्मक संधि हो गई।
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1761 के आस-पास एक शाही मुसलमान हैदर अली, जो पहले से ही प्रधान सेनापति थे, मैसूर राज्य के स्वयंभु शासक बन गए और अपने प्रभुत्व क्षेत्र का विस्तार करने लगे। प्रथम मैसूर युद्ध 1667 से 1669 ई. तक हुआ,जिसका कारण मद्रास में अंग्रेज़ों की आक्रामक नीतियाँ थीं। 1766 ई. में जब हैदर-अली मराठों से एक युद्ध में उलझा था, [[मद्रास]] के अंग्रेज़ अधिकारियों ने [[निज़ाम]] की सेवा में एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी भेज दी थी, और [[ईस्ट इंडिया कंपनी]] ने हैदर अली के विरुद्ध उत्तरी सरकारों के समर्पण के लिए [[हैदराबाद]] के निज़ाम से गठबंधन कर लिया। जिसकी सहायता से निज़ाम ने मैसूर के भूभागों पर आक्रमण कर दिया था। अंग्रेजों की इस अकारण शत्रुता से हैदर-अली को बड़ा क्रोध आया। उसने [[मराठा साम्राज्य|मराठों]] से संधि कर ली, अस्थिर बुद्धि निज़ाम को अपनी ओर मिला लिया और निजाम की सहायता से कर्नाटक पर, जो उस समय अंग्रेजों के नियंत्रण में था, आक्रमण कर दिया। लेकिन 1768 में निज़ाम युद्ध से हट गए और अंग्रेज़ों को अकेले हैदर अली का सामना करने के लिए छोड़ दिया।  इस प्रकार प्रथम मैसूर युद्ध का सूत्रपात हुआ। यह युद्ध दो वर्षो तक चलता रहा और 1769 ई. में जब हैदर-अली का अचानक धावा मद्रास के क़िले की दीवारों तक पहुँच गया, उसका अंत हुआ। मद्रास कौंसिल के सदस्य भयाकुल हो उठे और उन्होंने हैदर-अली द्वारा सुलह की शर्ते स्वीकार कर लीं। इसके अनुसार दोनों पक्षों ने जीते गए भू-भाग लौटा दिए और हैदर-अली तथा अंग्रेज़ों के बीच एक रक्षात्मक संधि हो गई।
  
 
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अंग्रेज़ों ने 1769 ई॰ की संधि की शर्तो के अनुसार आचरण न किया और 1770 ई॰ में हैदर-अली को, समझौते के अनुसार उस समय सहायता न दी जब मराठों ने उस पर आक्रमण किया। अंग्रेज़ों के इस विश्वासघात से हैदर-अली को अत्यधिक क्षोभ हुआ था। उसका क्रोध उस समय और भी बढ़ गया, जब अंग्रेज़ों ने हैदर-अली की राज्य सीमाओं के अंतर्गत माही की फ्रांसीसी बस्तीपर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। उसने मराठा और निज़ाम के साथ 1780 ई॰ में त्रिपक्षीय संधि कर ली जिससे द्वितीय मैसूर-युद्ध प्रारंभ हुआ।
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अंग्रेज़ों ने 1769 ई. की संधि की शर्तो के अनुसार आचरण न किया और 1770 ई. में हैदर-अली को, समझौते के अनुसार उस समय सहायता न दी जब मराठों ने उस पर आक्रमण किया। अंग्रेज़ों के इस विश्वासघात से हैदर-अली को अत्यधिक क्षोभ हुआ था। उसका क्रोध उस समय और भी बढ़ गया, जब अंग्रेज़ों ने हैदर-अली की राज्य सीमाओं के अंतर्गत माही की फ्रांसीसी बस्तीपर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। उसने मराठा और निज़ाम के साथ 1780 ई. में त्रिपक्षीय संधि कर ली जिससे द्वितीय मैसूर-युद्ध प्रारंभ हुआ।
  
अंग्रेज़ों ने निज़ाम को अपनी ओर मोड़ लिया और 1782 ई॰ में सालबाई की संधि करके मराठों से युद्ध समाप्त कर दिया। फिर भी हैदर-अली भग्नोत्साह न होकर युद्ध करता रहा और एक विशाल सेना लेकर कर्नाटक में घुस गया, उसे नष्ट-भ्रष्ट कर डाला तथा मद्रास के चारों ओर के इलाक़े उजाड़ डाले। उसने बेली के अधिनायकत्व वाली अंग्रेज़ी फ़ौज की एक टुकड़ी को घेर लिया। परन्तु 1781 ई॰ में वह सर आयरकूट द्वारा [[पोर्टोनोवो]], [[पोलिलूर]] और [[शोलिंगलूर]] के तीन युद्धों में परास्त हुआ। क्योंकि उसे फ़्रांसीसियों से प्रत्याशित सहायता न मिल सकी। फिर भी वह डटा रहा और 1782 ई॰ में उसके पुत्र टीपू ने कर्नल व्रेथवेट के नायकत्ववाली ब्रिटिश सेना से तंजौर में आत्म-समर्पण करा लिया। इस युद्ध के बीच ही हैदर-अली की मृत्यु हो गई। किन्तु उत्तराधिकारी टीपू सुल्तान ने युद्ध जारी रखा और [[बेदनूर]] पर अंग्रेज़ों के आक्रमण को असफल करके [[मंगलोर]] जा घेरा। अब मद्रास की सरकार ने समझ लिया कि आगे युद्ध बढ़ाना उसकी सामर्थ्य के बाहर है। अत: उसने 1784 ई॰ में संधि कर ली, जो मंगलोर की संधि कहलाती है और जिसके आधारपर दोनों पक्षों ने एक दूसरे के भूभाग वापस कर दिए।
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अंग्रेज़ों ने निज़ाम को अपनी ओर मोड़ लिया और 1782 ई. में सालबाई की संधि करके मराठों से युद्ध समाप्त कर दिया। फिर भी हैदर-अली भग्नोत्साह न होकर युद्ध करता रहा और एक विशाल सेना लेकर कर्नाटक में घुस गया, उसे नष्ट-भ्रष्ट कर डाला तथा मद्रास के चारों ओर के इलाक़े उजाड़ डाले। उसने बेली के अधिनायकत्व वाली अंग्रेज़ी फ़ौज की एक टुकड़ी को घेर लिया। परन्तु 1781 ई. में वह सर आयरकूट द्वारा [[पोर्टोनोवो]], [[पोलिलूर]] और [[शोलिंगलूर]] के तीन युद्धों में परास्त हुआ। क्योंकि उसे फ़्रांसीसियों से प्रत्याशित सहायता न मिल सकी। फिर भी वह डटा रहा और 1782 ई. में उसके पुत्र टीपू ने कर्नल व्रेथवेट के नायकत्ववाली ब्रिटिश सेना से तंजौर में आत्म-समर्पण करा लिया। इस युद्ध के बीच ही हैदर-अली की मृत्यु हो गई। किन्तु उत्तराधिकारी टीपू सुल्तान ने युद्ध जारी रखा और [[बेदनूर]] पर अंग्रेज़ों के आक्रमण को असफल करके [[मंगलोर]] जा घेरा। अब मद्रास की सरकार ने समझ लिया कि आगे युद्ध बढ़ाना उसकी सामर्थ्य के बाहर है। अत: उसने 1784 ई. में संधि कर ली, जो मंगलोर की संधि कहलाती है और जिसके आधारपर दोनों पक्षों ने एक दूसरे के भूभाग वापस कर दिए।
  
 
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[[चित्र:Tipu-Sultan.jpg|[[टीपू सुल्तान]]<br /> Tipu Sultan|thumb]]
  
(1790-92 ई॰ में)
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(1790-92 ई. में)
  
तीसरा युद्ध 1790 ई॰ में शुरू हुआ था। जब गर्वनर-जनरल [[लॉर्ड कॉर्नवॉलिस]] ने टीपू का नाम कंपनी के मित्रों की सूची से हटा दिया था। तृतीय मैसूर युद्ध का कारण भी अंग्रेज़ों की दोहरी नीति थी। 1769 ई॰ में हैदर-अली और 1784 ई॰ में टीपू सुल्तान के साथ की गयी संधि की शर्तों के विरुद्ध अंग्रेज़ों ने 1788 ई॰ में निज़ाम को इस आशय का पत्र लिखा कि हम लोग टीपू सुल्तान से उन भूभागों को छीन लेने में आपकी सहायता करेंगे जो निज़ाम के राज्य के अंग रहे है। अंग्रेजों की इस विश्वासघाती नीति को देखकर टीपू सुल्तान के मन में उनके शत्रुतापूर्ण अभिप्राय के संबंध में कोई संशय न रहा। अत: 1789 ई॰ में अचानक [[ट्रावनकोर]] ([[त्रिवंकुर]]) पर आक्रमण कर दिया, और उस भू-भाग को तहस-नहस कर डाला । अंग्रेज़ों ने इस आक्रमण को युद्ध का कारण बना लिया और पेशवा और निज़ाम से इस शर्त पर गुटबन्दी कर ली कि वे दोनों विजित प्रदेशों का बराबर भागों में बँटवारा कर लेंगे। इस प्रकार प्रारंभ हुआ तृतीय मैसूर युद्ध 1790 से 1792 ई॰ तक चलता रहा।
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तीसरा युद्ध 1790 ई. में शुरू हुआ था। जब गर्वनर-जनरल [[लॉर्ड कॉर्नवॉलिस]] ने टीपू का नाम कंपनी के मित्रों की सूची से हटा दिया था। तृतीय मैसूर युद्ध का कारण भी अंग्रेज़ों की दोहरी नीति थी। 1769 ई. में हैदर-अली और 1784 ई. में टीपू सुल्तान के साथ की गयी संधि की शर्तों के विरुद्ध अंग्रेज़ों ने 1788 ई. में निज़ाम को इस आशय का पत्र लिखा कि हम लोग टीपू सुल्तान से उन भूभागों को छीन लेने में आपकी सहायता करेंगे जो निज़ाम के राज्य के अंग रहे है। अंग्रेजों की इस विश्वासघाती नीति को देखकर टीपू सुल्तान के मन में उनके शत्रुतापूर्ण अभिप्राय के संबंध में कोई संशय न रहा। अत: 1789 ई. में अचानक [[ट्रावनकोर]] ([[त्रिवंकुर]]) पर आक्रमण कर दिया, और उस भू-भाग को तहस-नहस कर डाला । अंग्रेज़ों ने इस आक्रमण को युद्ध का कारण बना लिया और पेशवा और निज़ाम से इस शर्त पर गुटबन्दी कर ली कि वे दोनों विजित प्रदेशों का बराबर भागों में बँटवारा कर लेंगे। इस प्रकार प्रारंभ हुआ तृतीय मैसूर युद्ध 1790 से 1792 ई. तक चलता रहा।
  
इस युद्ध में तीन संघर्ष हुए। 1790 ई॰ में तीन अंग्रेज़ी सेनाएँ मैसूर की ओर बढ़ी, उन्होंने [[डिंडीगल]], [[कोयम्बतूर]] तथा [[पालघाट]] पर अधिकार कर लिया, फिर भी उनको टीपू के प्रबल प्रतिरोध के कारण कोई महत्व की विजय प्राप्त न हो सकी। इस विफलता के कारण स्वंय लार्ड कार्नवालिसने, जो गवर्नर जनरल भी था, दिसम्बर 1790 ई॰ में प्रारम्भ हुए अभियान का नेतृव्य अपने हाथों में ले लिया। [[वेल्लोर]] और [[अम्बर]] की ओर से बढ़ते हुए कार्नवालिसने मार्च 1791 में॰ में बंगलोर पर अधिकार कर लिया और टीपू की राजधानी [[श्रीरंग-पट्टनम्]] की ओर बढ़ा। लेकिन टीपू की नियोजित ध्वंसक भू-नीति के कारण अंग्रेज़ों की सेना को अनाज का एक दाना न मिल सका और कार्नवालिस को अपनी तोपें कीलकर पीछे लौटना पड़ा। तीसरा अभियान, जो 1791 ई॰ की गर्मियों में प्रारंभ हुआ, अधिक सफल रहा। अंग्रेज़ी सेनाओं का नेतृव्य करते हुए कार्नवालिस ने पुन: टीपू की कई पहाड़ी चौकियों पर अधिकार कर लिया और 1792 ई॰ में एक विशाल सेना के साथ श्रीरंग-पट्टनम् पर घेरा डाल दिया। राजधानी की ब्राह्म प्राचीरों पर शत्रुओं का अधिकार हो जाने पर टीपू ने आत्मसमर्पण कर दिया और मार्च 1792 ई॰ में श्रीरंग-पट्टनम् की संधि के द्वारा युद्ध समाप्त हुआ।
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इस युद्ध में तीन संघर्ष हुए। 1790 ई. में तीन अंग्रेज़ी सेनाएँ मैसूर की ओर बढ़ी, उन्होंने [[डिंडीगल]], [[कोयम्बतूर]] तथा [[पालघाट]] पर अधिकार कर लिया, फिर भी उनको टीपू के प्रबल प्रतिरोध के कारण कोई महत्व की विजय प्राप्त न हो सकी। इस विफलता के कारण स्वंय लार्ड कार्नवालिसने, जो गवर्नर जनरल भी था, दिसम्बर 1790 ई. में प्रारम्भ हुए अभियान का नेतृव्य अपने हाथों में ले लिया। [[वेल्लोर]] और [[अम्बर]] की ओर से बढ़ते हुए कार्नवालिसने मार्च 1791 में. में बंगलोर पर अधिकार कर लिया और टीपू की राजधानी [[श्रीरंग-पट्टनम्]] की ओर बढ़ा। लेकिन टीपू की नियोजित ध्वंसक भू-नीति के कारण अंग्रेज़ों की सेना को अनाज का एक दाना न मिल सका और कार्नवालिस को अपनी तोपें कीलकर पीछे लौटना पड़ा। तीसरा अभियान, जो 1791 ई. की गर्मियों में प्रारंभ हुआ, अधिक सफल रहा। अंग्रेज़ी सेनाओं का नेतृव्य करते हुए कार्नवालिस ने पुन: टीपू की कई पहाड़ी चौकियों पर अधिकार कर लिया और 1792 ई. में एक विशाल सेना के साथ श्रीरंग-पट्टनम् पर घेरा डाल दिया। राजधानी की ब्राह्म प्राचीरों पर शत्रुओं का अधिकार हो जाने पर टीपू ने आत्मसमर्पण कर दिया और मार्च 1792 ई. में श्रीरंग-पट्टनम् की संधि के द्वारा युद्ध समाप्त हुआ।
  
 
इसके अनुसार टीपू ने अपने दो पुत्रों को बंधक के रूप में अंग्रेज़ों को सौंप दिया और तीन करोड़ रुपये युद्ध के हरजाने के रूप में दिये, जो तीन मित्रों (अंग्रेज़-निज़ाम-मराठा) में बराबर बाँट लिये गये। साथ ही टीपू ने अपने राज्य का आधा भाग भी सौंप दिया, जिसमें से अंग्रेज़ों में [[डिंडीगल]], [[बारा महाल]], [[कुर्ग]] और [[मलावार]] अपने अधिकार में रखकर टीपू के राज्य का समुद्र से संबंध काट दिया और उन पहाड़ी दर्रो को छीन लिया, जो दक्षिण भारत के पठारी भू-भाग के द्वार थे। मराठों के [[वर्धा नदी|वर्धा]] (वरदा) और [[कृष्णा नदी|कृष्णा]] नदियों व निज़ाम को कृष्णा पनार नदियों के बीच के भू-खण्ड मिले।
 
इसके अनुसार टीपू ने अपने दो पुत्रों को बंधक के रूप में अंग्रेज़ों को सौंप दिया और तीन करोड़ रुपये युद्ध के हरजाने के रूप में दिये, जो तीन मित्रों (अंग्रेज़-निज़ाम-मराठा) में बराबर बाँट लिये गये। साथ ही टीपू ने अपने राज्य का आधा भाग भी सौंप दिया, जिसमें से अंग्रेज़ों में [[डिंडीगल]], [[बारा महाल]], [[कुर्ग]] और [[मलावार]] अपने अधिकार में रखकर टीपू के राज्य का समुद्र से संबंध काट दिया और उन पहाड़ी दर्रो को छीन लिया, जो दक्षिण भारत के पठारी भू-भाग के द्वार थे। मराठों के [[वर्धा नदी|वर्धा]] (वरदा) और [[कृष्णा नदी|कृष्णा]] नदियों व निज़ाम को कृष्णा पनार नदियों के बीच के भू-खण्ड मिले।
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( 1799 ई॰ में)
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( 1799 ई. में)
चौथा युद्ध गर्वनर-जनरल लॉर्ड मॉर्निंग्टन (बाद में [[वेलेज़ली]]) ने इस बहाने से शुरू किया कि टीपू को फ़्रांसीसियों से सहायता मिल रही है। अल्पकालिक, परन्तु भयानक सिद्ध हुआ। इसका कारण टीपू सुल्तान द्वारा अंग्रेज़ों के आश्रित बन जाने के संधि प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना था, तत्कालीन गवर्नर- जनरल लार्ड वेलेज़ली को टीपू की ब्रिटिश- विरोधी गतिविधियों का पूर्ण विश्वास हो गया था। उसे पता चला कि 1792 ई॰ की पराजय के उपरांत टीपू ने फ़्रांस, [[कुस्तुनतुनियाँ]] और [[अफ़ग़ानिस्तान]] के शासकों के साथ इस अभ्रिप्राय से संधि का प्रयास किया था कि भारत से अंग्रेज़ों को निकाल दिया जाय। वेलेज़ली ने टीपू द्वारा आश्रित संधि के अस्वीकार को युद्ध का कारण बना लिया। उसने निज़ाम और [[बाजीराव द्वितीय|पेशवा]] के साथ इस आधार पर एक गठबंधन किया कि युद्ध में जो लाभ होगा, उसका तीनों में बराबर बँटवारा हो जाएगा।
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चौथा युद्ध गर्वनर-जनरल लॉर्ड मॉर्निंग्टन (बाद में [[वेलेज़ली]]) ने इस बहाने से शुरू किया कि टीपू को फ़्रांसीसियों से सहायता मिल रही है। अल्पकालिक, परन्तु भयानक सिद्ध हुआ। इसका कारण टीपू सुल्तान द्वारा अंग्रेज़ों के आश्रित बन जाने के संधि प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना था, तत्कालीन गवर्नर- जनरल लार्ड वेलेज़ली को टीपू की ब्रिटिश- विरोधी गतिविधियों का पूर्ण विश्वास हो गया था। उसे पता चला कि 1792 ई. की पराजय के उपरांत टीपू ने फ़्रांस, [[कुस्तुनतुनियाँ]] और [[अफ़ग़ानिस्तान]] के शासकों के साथ इस अभ्रिप्राय से संधि का प्रयास किया था कि भारत से अंग्रेज़ों को निकाल दिया जाय। वेलेज़ली ने टीपू द्वारा आश्रित संधि के अस्वीकार को युद्ध का कारण बना लिया। उसने निज़ाम और [[बाजीराव द्वितीय|पेशवा]] के साथ इस आधार पर एक गठबंधन किया कि युद्ध में जो लाभ होगा, उसका तीनों में बराबर बँटवारा हो जाएगा।
  
अंग्रेज़ों की तीन सेनाएँ क्रमश: जनरल हेरिस, जनरल स्टीवर्ट और गवर्नर जनरल के भाई वेलेज़ली (जो आगे चलकर ड्यूक ऑफ वेलिंगटन हुआ) के नेतृव्य में तीन दिशाओं से टीपू के राज्य की ओर बढ़ी। दो घमासान युद्धों में टीपू की पराजय हुई और उसे श्रीरंग-पट्टनम् के दुर्ग में शरण लेनी पड़ी। दुर्ग 17 अप्रैल को घेर लिया गया और 4 मई 1799 ई॰ को उस पर अधिकार हो गया। वीरतापूर्वक दुर्ग की रक्षा करते हुए टीपू युद्ध में मारा गया। उसके पुत्र ने आत्म-समर्पण कर दिया। विजयी अंग्रेज़ टीपू के राज्य को बराबर-बराबर तीन भागों में अपने मित्रों में नहीं बाँटना चाहते थे, अत: उन्होंने मैसूर के मुख्य और मध्यवर्ती भाग पर कृष्णराज को सिंहासनासीन किया, जो मैसूर के उस पुराने राजा का वंशज था, जिसे हैदर-अली ने अपदस्थ किया था।
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अंग्रेज़ों की तीन सेनाएँ क्रमश: जनरल हेरिस, जनरल स्टीवर्ट और गवर्नर जनरल के भाई वेलेज़ली (जो आगे चलकर ड्यूक ऑफ वेलिंगटन हुआ) के नेतृव्य में तीन दिशाओं से टीपू के राज्य की ओर बढ़ी। दो घमासान युद्धों में टीपू की पराजय हुई और उसे श्रीरंग-पट्टनम् के दुर्ग में शरण लेनी पड़ी। दुर्ग 17 अप्रैल को घेर लिया गया और 4 मई 1799 ई. को उस पर अधिकार हो गया। वीरतापूर्वक दुर्ग की रक्षा करते हुए टीपू युद्ध में मारा गया। उसके पुत्र ने आत्म-समर्पण कर दिया। विजयी अंग्रेज़ टीपू के राज्य को बराबर-बराबर तीन भागों में अपने मित्रों में नहीं बाँटना चाहते थे, अत: उन्होंने मैसूर के मुख्य और मध्यवर्ती भाग पर कृष्णराज को सिंहासनासीन किया, जो मैसूर के उस पुराने राजा का वंशज था, जिसे हैदर-अली ने अपदस्थ किया था।
  
टीपू के राज्य के बचे हुए भू-भागों में से कनास(कन्नड़), कोयम्बतूर और श्रीरंग-पट्टनम् कम्पनी के राज्य में मिला लिए गए। मराठों ने, जिन्होंने इस युद्ध में कोई भी सक्रिय भाग नहीं लिया था, हिस्सा लेना अस्वीकार कर दिया। निज़ाम को टीपू के राज्य का उत्तर पूर्व वाला कुछ भू-भाग मिला, जिसे उसने 1800 ई॰ में कम्पनी को सौंप दिया। इस प्रकार चतुर्थ मैसूर-युद्ध की समाप्ति पर मैसूर का सम्पूर्ण राज्य अंग्रेज़ों के नियंत्रण में आ गया।
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टीपू के राज्य के बचे हुए भू-भागों में से कनास(कन्नड़), कोयम्बतूर और श्रीरंग-पट्टनम् कम्पनी के राज्य में मिला लिए गए। मराठों ने, जिन्होंने इस युद्ध में कोई भी सक्रिय भाग नहीं लिया था, हिस्सा लेना अस्वीकार कर दिया। निज़ाम को टीपू के राज्य का उत्तर पूर्व वाला कुछ भू-भाग मिला, जिसे उसने 1800 ई. में कम्पनी को सौंप दिया। इस प्रकार चतुर्थ मैसूर-युद्ध की समाप्ति पर मैसूर का सम्पूर्ण राज्य अंग्रेज़ों के नियंत्रण में आ गया।
  
 
[[Category:इतिहास_कोश]]
 
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09:11, 25 अगस्त 2010 का अवतरण

मैसूर-युद्ध

भारत में अंग्रेज़ों और मैसूर के शासकों के बीच चार सैन्य मुठभेड़ हुई थी। अंग्रेज़ों और हैदर-अली तथा उसके पुत्र टीपू सुल्तान के बीच समय-समय पर युद्ध हुए थे। 32 वर्षो (1767से 1799 ई.) के मध्य युद्ध छेड़े गए।

प्रथम मैसूर-युद्ध


(1767-69 ई. में) 1761 के आस-पास एक शाही मुसलमान हैदर अली, जो पहले से ही प्रधान सेनापति थे, मैसूर राज्य के स्वयंभु शासक बन गए और अपने प्रभुत्व क्षेत्र का विस्तार करने लगे। प्रथम मैसूर युद्ध 1667 से 1669 ई. तक हुआ,जिसका कारण मद्रास में अंग्रेज़ों की आक्रामक नीतियाँ थीं। 1766 ई. में जब हैदर-अली मराठों से एक युद्ध में उलझा था, मद्रास के अंग्रेज़ अधिकारियों ने निज़ाम की सेवा में एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी भेज दी थी, और ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदर अली के विरुद्ध उत्तरी सरकारों के समर्पण के लिए हैदराबाद के निज़ाम से गठबंधन कर लिया। जिसकी सहायता से निज़ाम ने मैसूर के भूभागों पर आक्रमण कर दिया था। अंग्रेजों की इस अकारण शत्रुता से हैदर-अली को बड़ा क्रोध आया। उसने मराठों से संधि कर ली, अस्थिर बुद्धि निज़ाम को अपनी ओर मिला लिया और निजाम की सहायता से कर्नाटक पर, जो उस समय अंग्रेजों के नियंत्रण में था, आक्रमण कर दिया। लेकिन 1768 में निज़ाम युद्ध से हट गए और अंग्रेज़ों को अकेले हैदर अली का सामना करने के लिए छोड़ दिया। इस प्रकार प्रथम मैसूर युद्ध का सूत्रपात हुआ। यह युद्ध दो वर्षो तक चलता रहा और 1769 ई. में जब हैदर-अली का अचानक धावा मद्रास के क़िले की दीवारों तक पहुँच गया, उसका अंत हुआ। मद्रास कौंसिल के सदस्य भयाकुल हो उठे और उन्होंने हैदर-अली द्वारा सुलह की शर्ते स्वीकार कर लीं। इसके अनुसार दोनों पक्षों ने जीते गए भू-भाग लौटा दिए और हैदर-अली तथा अंग्रेज़ों के बीच एक रक्षात्मक संधि हो गई।

द्वितीय मैसूर-युद्ध


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(1780-84 ई. में)

अंग्रेज़ों ने 1769 ई. की संधि की शर्तो के अनुसार आचरण न किया और 1770 ई. में हैदर-अली को, समझौते के अनुसार उस समय सहायता न दी जब मराठों ने उस पर आक्रमण किया। अंग्रेज़ों के इस विश्वासघात से हैदर-अली को अत्यधिक क्षोभ हुआ था। उसका क्रोध उस समय और भी बढ़ गया, जब अंग्रेज़ों ने हैदर-अली की राज्य सीमाओं के अंतर्गत माही की फ्रांसीसी बस्तीपर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। उसने मराठा और निज़ाम के साथ 1780 ई. में त्रिपक्षीय संधि कर ली जिससे द्वितीय मैसूर-युद्ध प्रारंभ हुआ।

अंग्रेज़ों ने निज़ाम को अपनी ओर मोड़ लिया और 1782 ई. में सालबाई की संधि करके मराठों से युद्ध समाप्त कर दिया। फिर भी हैदर-अली भग्नोत्साह न होकर युद्ध करता रहा और एक विशाल सेना लेकर कर्नाटक में घुस गया, उसे नष्ट-भ्रष्ट कर डाला तथा मद्रास के चारों ओर के इलाक़े उजाड़ डाले। उसने बेली के अधिनायकत्व वाली अंग्रेज़ी फ़ौज की एक टुकड़ी को घेर लिया। परन्तु 1781 ई. में वह सर आयरकूट द्वारा पोर्टोनोवो, पोलिलूर और शोलिंगलूर के तीन युद्धों में परास्त हुआ। क्योंकि उसे फ़्रांसीसियों से प्रत्याशित सहायता न मिल सकी। फिर भी वह डटा रहा और 1782 ई. में उसके पुत्र टीपू ने कर्नल व्रेथवेट के नायकत्ववाली ब्रिटिश सेना से तंजौर में आत्म-समर्पण करा लिया। इस युद्ध के बीच ही हैदर-अली की मृत्यु हो गई। किन्तु उत्तराधिकारी टीपू सुल्तान ने युद्ध जारी रखा और बेदनूर पर अंग्रेज़ों के आक्रमण को असफल करके मंगलोर जा घेरा। अब मद्रास की सरकार ने समझ लिया कि आगे युद्ध बढ़ाना उसकी सामर्थ्य के बाहर है। अत: उसने 1784 ई. में संधि कर ली, जो मंगलोर की संधि कहलाती है और जिसके आधारपर दोनों पक्षों ने एक दूसरे के भूभाग वापस कर दिए।

तृतीय मैसूर-युद्ध


(1790-92 ई. में)

तीसरा युद्ध 1790 ई. में शुरू हुआ था। जब गर्वनर-जनरल लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने टीपू का नाम कंपनी के मित्रों की सूची से हटा दिया था। तृतीय मैसूर युद्ध का कारण भी अंग्रेज़ों की दोहरी नीति थी। 1769 ई. में हैदर-अली और 1784 ई. में टीपू सुल्तान के साथ की गयी संधि की शर्तों के विरुद्ध अंग्रेज़ों ने 1788 ई. में निज़ाम को इस आशय का पत्र लिखा कि हम लोग टीपू सुल्तान से उन भूभागों को छीन लेने में आपकी सहायता करेंगे जो निज़ाम के राज्य के अंग रहे है। अंग्रेजों की इस विश्वासघाती नीति को देखकर टीपू सुल्तान के मन में उनके शत्रुतापूर्ण अभिप्राय के संबंध में कोई संशय न रहा। अत: 1789 ई. में अचानक ट्रावनकोर (त्रिवंकुर) पर आक्रमण कर दिया, और उस भू-भाग को तहस-नहस कर डाला । अंग्रेज़ों ने इस आक्रमण को युद्ध का कारण बना लिया और पेशवा और निज़ाम से इस शर्त पर गुटबन्दी कर ली कि वे दोनों विजित प्रदेशों का बराबर भागों में बँटवारा कर लेंगे। इस प्रकार प्रारंभ हुआ तृतीय मैसूर युद्ध 1790 से 1792 ई. तक चलता रहा।

इस युद्ध में तीन संघर्ष हुए। 1790 ई. में तीन अंग्रेज़ी सेनाएँ मैसूर की ओर बढ़ी, उन्होंने डिंडीगल, कोयम्बतूर तथा पालघाट पर अधिकार कर लिया, फिर भी उनको टीपू के प्रबल प्रतिरोध के कारण कोई महत्व की विजय प्राप्त न हो सकी। इस विफलता के कारण स्वंय लार्ड कार्नवालिसने, जो गवर्नर जनरल भी था, दिसम्बर 1790 ई. में प्रारम्भ हुए अभियान का नेतृव्य अपने हाथों में ले लिया। वेल्लोर और अम्बर की ओर से बढ़ते हुए कार्नवालिसने मार्च 1791 में. में बंगलोर पर अधिकार कर लिया और टीपू की राजधानी श्रीरंग-पट्टनम् की ओर बढ़ा। लेकिन टीपू की नियोजित ध्वंसक भू-नीति के कारण अंग्रेज़ों की सेना को अनाज का एक दाना न मिल सका और कार्नवालिस को अपनी तोपें कीलकर पीछे लौटना पड़ा। तीसरा अभियान, जो 1791 ई. की गर्मियों में प्रारंभ हुआ, अधिक सफल रहा। अंग्रेज़ी सेनाओं का नेतृव्य करते हुए कार्नवालिस ने पुन: टीपू की कई पहाड़ी चौकियों पर अधिकार कर लिया और 1792 ई. में एक विशाल सेना के साथ श्रीरंग-पट्टनम् पर घेरा डाल दिया। राजधानी की ब्राह्म प्राचीरों पर शत्रुओं का अधिकार हो जाने पर टीपू ने आत्मसमर्पण कर दिया और मार्च 1792 ई. में श्रीरंग-पट्टनम् की संधि के द्वारा युद्ध समाप्त हुआ।

इसके अनुसार टीपू ने अपने दो पुत्रों को बंधक के रूप में अंग्रेज़ों को सौंप दिया और तीन करोड़ रुपये युद्ध के हरजाने के रूप में दिये, जो तीन मित्रों (अंग्रेज़-निज़ाम-मराठा) में बराबर बाँट लिये गये। साथ ही टीपू ने अपने राज्य का आधा भाग भी सौंप दिया, जिसमें से अंग्रेज़ों में डिंडीगल, बारा महाल, कुर्ग और मलावार अपने अधिकार में रखकर टीपू के राज्य का समुद्र से संबंध काट दिया और उन पहाड़ी दर्रो को छीन लिया, जो दक्षिण भारत के पठारी भू-भाग के द्वार थे। मराठों के वर्धा (वरदा) और कृष्णा नदियों व निज़ाम को कृष्णा पनार नदियों के बीच के भू-खण्ड मिले।

चतुर्थ मैसूर युद्ध


( 1799 ई. में) चौथा युद्ध गर्वनर-जनरल लॉर्ड मॉर्निंग्टन (बाद में वेलेज़ली) ने इस बहाने से शुरू किया कि टीपू को फ़्रांसीसियों से सहायता मिल रही है। अल्पकालिक, परन्तु भयानक सिद्ध हुआ। इसका कारण टीपू सुल्तान द्वारा अंग्रेज़ों के आश्रित बन जाने के संधि प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना था, तत्कालीन गवर्नर- जनरल लार्ड वेलेज़ली को टीपू की ब्रिटिश- विरोधी गतिविधियों का पूर्ण विश्वास हो गया था। उसे पता चला कि 1792 ई. की पराजय के उपरांत टीपू ने फ़्रांस, कुस्तुनतुनियाँ और अफ़ग़ानिस्तान के शासकों के साथ इस अभ्रिप्राय से संधि का प्रयास किया था कि भारत से अंग्रेज़ों को निकाल दिया जाय। वेलेज़ली ने टीपू द्वारा आश्रित संधि के अस्वीकार को युद्ध का कारण बना लिया। उसने निज़ाम और पेशवा के साथ इस आधार पर एक गठबंधन किया कि युद्ध में जो लाभ होगा, उसका तीनों में बराबर बँटवारा हो जाएगा।

अंग्रेज़ों की तीन सेनाएँ क्रमश: जनरल हेरिस, जनरल स्टीवर्ट और गवर्नर जनरल के भाई वेलेज़ली (जो आगे चलकर ड्यूक ऑफ वेलिंगटन हुआ) के नेतृव्य में तीन दिशाओं से टीपू के राज्य की ओर बढ़ी। दो घमासान युद्धों में टीपू की पराजय हुई और उसे श्रीरंग-पट्टनम् के दुर्ग में शरण लेनी पड़ी। दुर्ग 17 अप्रैल को घेर लिया गया और 4 मई 1799 ई. को उस पर अधिकार हो गया। वीरतापूर्वक दुर्ग की रक्षा करते हुए टीपू युद्ध में मारा गया। उसके पुत्र ने आत्म-समर्पण कर दिया। विजयी अंग्रेज़ टीपू के राज्य को बराबर-बराबर तीन भागों में अपने मित्रों में नहीं बाँटना चाहते थे, अत: उन्होंने मैसूर के मुख्य और मध्यवर्ती भाग पर कृष्णराज को सिंहासनासीन किया, जो मैसूर के उस पुराने राजा का वंशज था, जिसे हैदर-अली ने अपदस्थ किया था।

टीपू के राज्य के बचे हुए भू-भागों में से कनास(कन्नड़), कोयम्बतूर और श्रीरंग-पट्टनम् कम्पनी के राज्य में मिला लिए गए। मराठों ने, जिन्होंने इस युद्ध में कोई भी सक्रिय भाग नहीं लिया था, हिस्सा लेना अस्वीकार कर दिया। निज़ाम को टीपू के राज्य का उत्तर पूर्व वाला कुछ भू-भाग मिला, जिसे उसने 1800 ई. में कम्पनी को सौंप दिया। इस प्रकार चतुर्थ मैसूर-युद्ध की समाप्ति पर मैसूर का सम्पूर्ण राज्य अंग्रेज़ों के नियंत्रण में आ गया।