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अजिनं दत्त भंडन्य लोहं, कालायनं बहु॥ जातक, भाग 5 (सं. 534) पृष्ठ 462</ref></poem>
 
अजिनं दत्त भंडन्य लोहं, कालायनं बहु॥ जातक, भाग 5 (सं. 534) पृष्ठ 462</ref></poem>
 
==यातायात और परिवहन==
 
==यातायात और परिवहन==
किसी नगर के विकास का एक मुख्य कारण यातायात के साधन हैं। बहुत प्राचीन काल से वाराणसी में यातायात की अच्छी सुविधा रही है। यात्रियों के आराम पर बनारसवासियों का काफी ध्यान था। बनारसवासी सड़कों पर जानवरों के लिए पानी का भी प्रबंध करते थे। जातकों में (जा. 1७5) एक जगह कहा गया है कि काशी जनपद के राजमार्ग पर एक गहरा कुआं था जिसके पानी तक पहुंचने के लिए कोई साधन न था। उस रास्ते से जो लोग जाते थे वे पुण्य के लिए पानी खींचकर एक द्रोणी भर देते थे जिससे जानवर पानी पी सकें।
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किसी नगर के विकास का एक मुख्य कारण यातायात के साधन हैं। बहुत प्राचीन काल से वाराणसी में यातायात की अच्छी सुविधा रही है। यात्रियों के आराम पर बनारसवासियों का काफी ध्यान था। बनारसवासी सड़कों पर जानवरों के लिए पानी का भी प्रबंध करते थे। जातकों में (जा. 175) एक जगह कहा गया है कि काशी जनपद के राजमार्ग पर एक गहरा कुआं था जिसके पानी तक पहुंचने के लिए कोई साधन न था। उस रास्ते से जो लोग जाते थे वे पुण्य के लिए पानी खींचकर एक द्रोणी भर देते थे जिससे जानवर पानी पी सकें।
 
वाराणसी हवाई, रेल तथा सड़क मार्ग द्वारा देश के अन्‍य भागों से जुड़ा हुआ है।
 
वाराणसी हवाई, रेल तथा सड़क मार्ग द्वारा देश के अन्‍य भागों से जुड़ा हुआ है।
 
====<u>हवाई मार्ग</u>====
 
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सड़क-ए-आजम जिसे हम ग्रैण्ड ट्रंक रोड़ कहते हैं, बहुत प्राचीन सड़क है जो मौर्य काल में पुष्पकलावती से पाटलिपुत्र होती हुई ताम्रलिप्ति तक जाती थी। शेरशाह ने इस सड़क का पुन: उद्धार किया, इस पर सरायां बनवाई और डाक का प्रबंध किया। कहते हैं कि यह सड़क-ए-आजम बंगाल में सोनारगांव से सिंध तक जाती थी और इसकी लम्बाई 15०० कोस थी। यह सड़क वाराणसी से होकर जाती थी। 2 इस सड़क की अकबर के समय में काफी उन्नति हुई और शायद उसी काल में मिर्जामुरात और सैयदराज में सराएं बनी। आगरा से पटना तक इस सड़क का वर्णन पीटर मंटी ने 1632 ईं. में किया है। 3 चहार गुलशन 4 में भी वाराणसी से होकर जाने वाली सड़कों का वर्णन है। एक सड़क दिल्ली-मुरादाबाद बनारस होकर पटना जाती थी और दूसरी आगरा-इलाहाबाद होकर वाराणसी आती थी। इन बड़ी सड़कों के अतिरिक्त बहुत से छोटे-मोटे रास्ते वाराणसी को जौनपुर, गाजीपुर और मिर्जापुर से मिलाते थे।
 
सड़क-ए-आजम जिसे हम ग्रैण्ड ट्रंक रोड़ कहते हैं, बहुत प्राचीन सड़क है जो मौर्य काल में पुष्पकलावती से पाटलिपुत्र होती हुई ताम्रलिप्ति तक जाती थी। शेरशाह ने इस सड़क का पुन: उद्धार किया, इस पर सरायां बनवाई और डाक का प्रबंध किया। कहते हैं कि यह सड़क-ए-आजम बंगाल में सोनारगांव से सिंध तक जाती थी और इसकी लम्बाई 15०० कोस थी। यह सड़क वाराणसी से होकर जाती थी। 2 इस सड़क की अकबर के समय में काफी उन्नति हुई और शायद उसी काल में मिर्जामुरात और सैयदराज में सराएं बनी। आगरा से पटना तक इस सड़क का वर्णन पीटर मंटी ने 1632 ईं. में किया है। 3 चहार गुलशन 4 में भी वाराणसी से होकर जाने वाली सड़कों का वर्णन है। एक सड़क दिल्ली-मुरादाबाद बनारस होकर पटना जाती थी और दूसरी आगरा-इलाहाबाद होकर वाराणसी आती थी। इन बड़ी सड़कों के अतिरिक्त बहुत से छोटे-मोटे रास्ते वाराणसी को जौनपुर, गाजीपुर और मिर्जापुर से मिलाते थे।
 
====चौराहों पर सभाएं====
 
====चौराहों पर सभाएं====
यात्रियों के विश्राम के लिये अक्सर चौराहों पर सभाएं बनवायी जाती थीं। इनमें सोने के लिए आसंदी और पानी के घड़े रखे होते थे। इनके चारों ओर दीवारें होती थी और एक ओर फाटक। भीतर जमीन पर बालू बिछी होती थी और ताड़ वृक्षों की कतारें लगी होती थी (जा. 1/७९)।  
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यात्रियों के विश्राम के लिये अक्सर चौराहों पर सभाएं बनवायी जाती थीं। इनमें सोने के लिए आसंदी और पानी के घड़े रखे होते थे। इनके चारों ओर दीवारें होती थी और एक ओर फाटक। भीतर जमीन पर बालू बिछी होती थी और ताड़ वृक्षों की कतारें लगी होती थी (जा. 1/7९)।  
 
==कला==
 
==कला==
 
====संगीत====
 
====संगीत====

14:02, 9 नवम्बर 2010 का अवतरण

काशी महाजनपद

काशी / बनारस / वाराणसी

वाराणसी, काशी अथवा बनारस भारत देश के उत्तर प्रदेश का एक प्राचीन और धार्मिक महत्ता रखने वाला शहर है। वाराणसी का पुराना नाम काशी है। वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है। यह गंगा नदी के किनारे बसा है और हज़ारों साल से उत्तर भारत का धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। दो नदियों वरुणा और असि के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम वाराणसी पडा। बनारस या वाराणसी का नाम पुराणों, रामायण, महाभारत जैसे अनेकानेक ग्रन्थों में मिलता है। संस्कृत पढने प्राचीन काल से ही लोग वाराणसी आया करते थे। वाराणसी के घरानों की हिन्दुस्तानी संगीत मे अपनी ही शैली है।

स्थिति

वाराणसी भारतवर्ष की सांस्कृतिक एवं धार्मिक नगरी के रूप में विख्यात है। इसकी प्राचीनता की तुलना विश्व के अन्य प्राचीनतम नगरों जेरुसलम, एथेंस तथा पीकिंग से की जाती है।[1] वाराणसी गंगा के बाएँ तट पर अर्द्धचंद्राकार में 25० 18’ उत्तरी अक्षांश एवं 83० 1’ पूर्वी देशांतर पर स्थित है। प्राचीन वाराणसी की मूल स्थिति विद्वानों के मध्य विवाद का विषय रही है।

विद्वानों के मतानुसार

शेरिंग,[2] मरडाक,[3] ग्रीब्ज,[4] और पारकर[5] प्रभृति विद्वानों के मतानुसार प्राचीन वाराणसी वर्तमान नगर के उत्तर में सारनाथ के समीप स्थित थी। किसी समय वाराणसी की स्थिति दक्षिण भाग में भी रही होगी। लेकिन वर्तमान नगर की स्थिति वाराणसी से पूर्णतया भिन्न है, जिससे यह प्राय: निश्चित है कि वाराणसी नगर की प्रकृति यथासमय एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापित होने की रही है। यह विस्थापन मुख्यतया दक्षिण की ओर हुआ है। पर किसी पुष्ट प्रमाण के अभाव में विद्वानों का उक्त मत समीचीन नहीं प्रतीत होता है।

गंगा नदी के तट पर बसे इस शहर को ही भगवान शिव ने पृथ्‍वी पर अपना स्‍थायी निवास बनाया था। यह भी माना जाता है कि वाराणसी का निर्माण सृष्टि रचना के प्रारम्भिक चरण में ही हुआ था। यह शहर प्रथम ज्‍योर्तिलिंग का भी शहर है। पुराणों में वाराणसी को ब्रह्मांड का केंद्र बताया गया है तथा यह भी कहा गया है यहाँ के कण-कण में शिव निवास करते हैं। वाराणसी के लोगों के अनुसार, काशी के कंकर में शिवशंकर हैं। इनके कहने का अर्थ यह है कि यहाँ के प्रत्‍येक पत्‍थर में शिव का निवास है।

हेवेल की दृष्टि में

हेवेल की दृष्टि में वाराणसी नगर की स्थिति विस्थापन प्रधान थी, अपितु प्राचीन काल में भी वाराणसी का वर्तमान स्वरूप सुरक्षित था।[6] हेवेल के मतानुसार बुद्ध पूर्व युग में आधुनिक सारनाथ एक घना जंगल था और यह विभिन्न धर्मावलंबियों का आश्रय स्थल भी था।

भौगोलिक दशाओं के परिप्रेक्ष्य में हेवेल का मत युक्तिसंगत प्रतीत होता है। वास्तव में वाराणसी नगर का अस्तित्व बुद्ध से भी प्राचीन है तथा उनके आविर्भाव के सदियों पूर्व से ही यह एक धार्मिक नगरी के रूप में ख्याति प्राप्त था। सारनाथ का उद्भव महात्मा बुद्ध के प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन के उपरांत हुआ। रामलोचन सिंह ने भी कुछ संशोधनों के साथ हेवेल के मत का समर्थन किया है। उनके अनुसार नगर की मूल स्थिति प्राय: उत्तरी भाग में स्वीकार करनी चाहिए।[7] हाल के अकथा उत्खनन से इस बात की पुष्टि होती है कि वाराणसी की प्राचीन स्थिति उत्तर में थी जहाँ से 1300 ईसा पूर्व के अवशेष प्रकाश में आये हैं।

नामकरण

‘वाराणसी’ शब्द ‘वरुणा’ और ‘असी’ दो नदीवाचक शब्दों के योग से बना है। पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार वरुणा और असि नाम की नदियों के बीच में बसने के कारण ही इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा।

  • 'पद्मपुराण' के एक उल्लेख के अनुसार दक्षिणोत्तर में ‘वरना’ और पूर्व में ‘असि’ की सीमा से घिरे होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा।[8]
  • 'अथर्ववेद'[9] में वरणावती नदी का उल्लेख है। संभवत: यह आधुनिक वरुणा का ही समानार्थक है।
  • 'अग्निपुराण' में नासी नदी का उल्लेख मिलता है।

पौराणिक उल्लेख

वाराणसी के संदर्भ में इस तरह के अनेक पौराणिक और लोकमिथक प्रचलित हैं। इन मिथकों की व्याख्या का प्रयास विद्वानों ने किया है। कनिंघम[10] ने ‘बरना’ और ‘असि’ के मध्य वाराणसी की स्थिति स्वीकार की है। एम. जूलियन महोदय ने कनिंघम के मत पर संदेह व्यक्त करते हुए ‘बरना’ नदी का ही प्राचीन नाम ‘वाराणसी’ माना है।[11] यद्यपि वे अपने मत की पुष्टि में कोई प्रमाण नहीं देते, परंतु इतना तो निश्चित है कि वैदिक पौराणिक उल्लेखों में ‘असि’ का नदी के रूप में कहीं भी वर्णन नहीं मिलता।

महाभारत[12] में उल्लेख आया है कि बरना का प्राचीन नाम वाराणसी था और इसमें दो नदियों के नाम निकालने की प्रक्रिया अपेक्षाकृत बाद की है। पद्मपुराण[13] में ‘वरणासि’ का एक नदी के रूप में उल्लेख हैं। विभिन्न पुराणों के इन प्रसंगों से किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने में कठिनाई होती है। मोतीचंद्र ने वाराणसी में ‘वरुणा’ और ‘असी’ की संगति की अवधारणा को काल्पनिक प्रक्रिया माना है। संभव है कि अस्सी पर बसने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा हो। ‘वरुणा’ और ‘असि’ के मध्य वाराणसी के बसने की कल्पना उस समय हुई जब नगर की धार्मिक महिमा बढ़ी और कालांतर में यह कल्पना स्थिर हो गई।[14]

इस तथ्य से प्राय: सभी विद्वान सहमत हैं कि प्राचीन वाराणसी आधुनिक राजघाट के ऊँचे मैदान पर बसा था, और इसका प्राचीन विस्तार (भग्नावशेषो के आधार पर) वरना (वरुणा) के उस पार (बाएँ तट पर) भी था। बरना से असी की ओर का विस्तार परवर्ती है। उल्लेखनीय है कि प्राचीन वाराणसी सदैव बरना पर ही स्थित नहीं थी, बल्कि गंगा तक उसका प्रसार था। कम से कम पतंजलि के काल में (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में) उसका बसाव गंगा के किनारे-किनारे था जैसा कि अष्टाध्यायी के एक सूत्र[15] पर पतंजलि के भाष्य[16] से स्पष्ट है।

वृक्ष के नाम के आधार पर

वाराणसी के नामकरण के संबंध में एक दूसरी संभावना भी है। वरणा शब्द एक वृक्ष विशेष का द्योतक है। प्राचीन काल में वृक्षों के नाम के आधार पर नगरों का नामकरण किया गया था। यथा-कोसंब से कोशांबी, रोहीत से रोहीतक इत्यादि। अत: बहुत संभव है कि उसी परम्परा में वाराणसी और वरणावती दोनों का नाम यहाँ पर अधिक उत्पन्न होने वाले वरणा वृक्ष के कारण पड़ा हो।

दूसरा नाम ‘काशी’

वाराणसी का दूसरा नाम ‘काशी’ प्राचीन काल में एक जनपद के रूप में प्रख्यात था और वाराणसी उसकी राजधानी थी। इसकी पुष्टि पाँचवीं शताब्दी में भारत आने वाले चीनी यात्री फाह्यान के यात्रा विवरण से भी होती है।[17] हरिवंशपुराण में उल्लेख आया है कि ‘काशी’ को बसाने वाले पुरुरवा के वंशज राजा ‘काश’ थे। अत: उनके वंशज ‘काशि’ कहलाए।[18] संभव है इसके आधार पर ही इस जनपद का नाम ‘काशी’ पड़ा हो। काशी नामकरण से संबद्ध एक पौराणिक मिथक भी उपलब्ध है। उल्लेख है कि विष्णु ने पार्वती के मुक्तामय कुंडल गिर जाने से इस क्षेत्र को मुक्त क्षेत्र की संज्ञा दी और इसकी अकथनीय परम ज्योति के कारण तीर्थ का नामकरण काशी किया।[19]

महाश्‍मशान

काशी को 'महाश्‍मशान' के नाम से भी जाना जाता है। इसे पृथ्‍वी का सबसे बड़ा शमशान भूमि माना जाता था। यहाँ के मर्णिकाघाट तथा हरिश्‍चंद्र घाट को सबसे पवित्र घाट माना जाता है। प्राचीन काल में विश्‍वास किया जाता था कि यहाँ जिनका क्रिया कर्म किया जाता है उन्‍हें मोक्ष की प्राप्‍ित होती है। वाराणसी का एक अन्‍य नाम 'अभिमुक्‍ता' था। माना जाता है कि इस शहर को भगवान शिव अपने त्रिशूल पर उठाए हुए हैं।

इतिहास

ऐतिहासिक आलेखों से प्रमाणित होता है कि ईसा पूर्व की छठी शताब्दी में वाराणसी भारतवर्ष का बड़ा ही समृद्धशाली और महत्वपूर्ण राज्य था। मध्य युग में यह कन्नौज राज्य का अंग था और बाद में बंगाल के पाल नरेशों का इस पर अधिकार हो गया था। सन 1194 में शहाबुद्दीन गौरी ने इस नगर को लूटा और क्षति पहुँचायी। मुग़ल काल में इसका नाम बदल कर मुहम्मदाबाद रखा गया। बाद में इसे अवध दरबार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखा गया। बलवंत सिंह ने बक्सर की लड़ाई में अंग्रेज़ों का साथ दिया और इसके उपलक्ष्य में वाराणसी को अवध दरबार से स्वतंत्र कराया। सन 1911 में अंग्रेज़ों ने महाराज प्रभुनारायण सिंह को वाराणसी का राजा बना दिया। सन 1950 में यह राज्य स्वेच्छा से भारतीय गणराज्य में शामिल हो गया।

वाराणसी विभिन्न मत-मतान्तरों की संगम स्थली रही है। विद्या के इस पुरातन और शाश्वत नगर ने सदियों से धार्मिक गुरुओं, सुधारकों और प्रचारकों को अपनी ओर आकृष्ट किया है। भगवान बुद्ध और शंकराचार्य के अलावा रामानुज, वल्लभाचार्य, संत कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु, रैदास आदि अनेक संत इस नगरी में आये।

विश्वनाथ मन्दिर, वाराणसी
Vishwanath Temple, Varanasi

भारतीय स्वातंत्रता आंदोलन

भारतीय स्वातंत्रता आंदोलन में भी वाराणसी सदैव अग्रणी रही है। राष्ट्रीय आंदोलन में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों का योगदान स्मरणीय है। इस नगरी को क्रांतिकारी सुशील कुमार लाहिड़ी, अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद तथा जितेद्रनाथ सान्याल सरीखे वीर सपूतों को जन्म देने का गौरव प्राप्त है। महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जैसे विलक्षण महापुरुष के अतिरिक्त राजा शिव प्रसाद गुप्त, बाबूराव विष्णु पराड़कर, श्री प्रकाश, डॉ. भगवान दास, लाल बहादुर शास्त्री, डॉ. संपूर्णानंद, कमलेश्वर प्रसाद, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुटबिहारी लाल जैसे महापुरुषों का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा

वैदिक साहित्य में वाराणसी

वाराणसी (काशी) की प्राचीनता का इतिहास वैदिक साहित्य में भी उपलब्ध होता है। वैदिक साहित्य के तीनों स्तरों (संहिता, ब्राह्मण एवं उपनिषद) में वाराणसी का विवरण मिलता है।

  • वैदिक साहित्य[20] में कहा है कि आर्यों का एक काफिला विदेध माथव के नेतृत्व में आधुनिक उत्तर प्रदेश के मध्य से सदानीरा अथवा गंडक के किनारे जा पहुँचा और वहाँ कोशल जनपद की नींव पड़ी। जब आर्यों ने उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया तो आर्यों की एक जाति कासिस ने बनारस के समीप 1400 से 1000 ई.पू. के मध्य अपने को स्थापित किया।[21]
  • वाराणसी का सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा[22] में हुआ है। एक मंत्र में मंत्रकार एक रोगी से कहता है कि उसका ‘तक्मा’ (ज्वर) दूर हो जाए और ज्वर का प्रसार काशी, कोशल और मगध जनपदों में हो। इससे स्पष्ट है कि इस काल में ये तीनों जनपद पार्श्ववर्ती थे।
  • शतपथ ब्राह्मण[23] के एक उद्धरण के अनुसार भरत ने सत्वत लोगों के साथ व्यवहार किया था उसी प्रकार सत्राजित के पुत्र शतानिक ने काशीवासियों के पवित्र यज्ञीय अश्व को पकड़ लिया था। शतानिक ने इसी अश्व द्वारा अपना अश्वमेघ यज्ञ पूरा किया। इस घटना के परिणामस्वरूप काशीवासियों ने अग्निकर्म और अग्निहोत्र करना ही छोड़ दिया था।[24]
  • मोतीचंद्र[25] काशीवासियों में वैदिक प्रक्रियायों के प्रति तिरस्कार की भावना पाते हैं। वे तीसरी सदी ई.पू. के पहले वाराणसी के धार्मिक महत्त्व की बात स्वीकार नहीं करते।

परस्पर संबंधों पर प्रकाश

वैदिक साहित्य में वाराणसी और अन्य जनपदों के परस्पर संबंधों पर भी प्रकाश पड़ता है। कौषीतकी उपनिषद[26] में काश्यों और विदेहों के नाम का एक स्थान पर उल्लेख है। वृहदारण्यक उपनिषद्[27] में अजातशत्रु[28] को काशी अथवा विदेह का शासक कहा गया है। इसके अतिरिक्त शांखायन[29] और बौधायन श्रोतसूत्र[30] में भी काशी तथा विदेह का पास-पास उल्लेख हुआ है। स्वतंत्र राज्यसत्ता नष्ट हो जाने के पश्चात् काशी के कोशल राज्य में सम्मिलित हो जाने का भी उल्लेख मिलता है। काशी, कोशल का सर्वप्रथम उल्लेख गोपथ ब्राह्मण[31] में आया है। पतंजलि के महाभाष्य[32] में काशीकोशलीया (काशी कोशल संबंधी) उदाहरण के रूप में उद्धृत है।

वाराणसी के संबंध में उपर्युक्त उल्लेखों से यह सुस्पष्ट है कि वैदिक साहित्य में इसका उल्लेख अपेक्षाकृत बाद में मिलता है। लेकिन हम यह निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि वाराणसी एक प्राचीन नगरी है क्योंकि अथर्ववेद[33] में वरणावती नदी का उद्धरण है और इसी के नाम पर वाराणसी का नामकरण हुआ। वैदिक साहित्य में उल्लेखित वाराणसी का कोशल और विदेह से संबंध तथा कुरु और पाँचाल से शत्रुता, संभवत: राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों अंतर्विरोधों का परिणाम था।

महाकाव्यों में वर्णित वाराणसी

महाभारत

महाकाव्यों में वाराणसी के संदर्भ में कई उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में वाराणसी का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है। महाभारत से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि बरना का ही प्राचीन नाम वाराणसी था।[34] आदिपर्व में काशिराज की पुत्री सार्वसेनी का विवाह दुष्यंत के पुत्र भरत के साथ होने का विवरण मिलता है।[35] एक अन्य स्थल पर भीष्म द्वारा काशिराज की तीन पुत्रियों- अंबा, अंबिका और अम्बालिका के स्वयंवर में जीते जाने का उल्लेख है।[36] काशी के शासक प्रतर्दन तथा मिथिला के शासक जनक के मध्य युद्ध की चर्चा भी महाभारत में मिलती है।[37]

व्यास की सतसाहस्त्री संहिता में काशी का उल्लेख दो प्रसंगों में हुआ है-

  1. तीर्थ के रूप में।
  2. महाभारत के युद्ध में पांडवों की ओर से लड़ने के प्रसंग में।

रोचक है कि वाराणसी का तीर्थरूप में वर्णन सबसे पहले महाभारत में ही हुआ है। वनपर्व में पांडवों के अज्ञातवास के अवसर पर उनके काशी आने का उल्लेख मिलता है। इसी पर्व में उल्लेखित है कि उस समय काशी में ‘कपिलाहद’ नामक तीर्थ बड़ा प्रसिद्ध था।[38] यही तीर्थ आजकल कपिलधारा के नाम से विख्यात है और नगर के भीतर न होकर पंचक्रोशी के प्रदक्षिणा मार्ग में अवस्थित है। महाभारत युद्ध में काशिराज का पांडवों की ओर लड़ने का प्रसंग आता है। काशिराज का युद्धक्षेत्र में सुवर्ण्य माल विभूषित घोड़ों पर चढ़ने का[39] तथा पांडव सेना के बीच तीन हजार रथों के साथ स्थित रहने का उल्लेख मिलता है।[40] उल्लेखनीय है कि यहाँ काशी के राजा का उल्लेख ‘काशिराज’ अथवा ‘काश्य’ शब्दों से किया गया है। परंतु काशी का कौन-सा राजा महाभारत युद्ध में लड़ने गया था, उसके नाम का उल्लेख नहीं मिलता। महाभारत में एक जगह कृष्ण द्वारा वाराणसी के जलाए जाने का वर्णन है।[41] जिसकी पुष्टि विष्णुपुराण से भी होती है।[42]

वाल्मीकि रामायण

वाल्मीकि रामायण में वाराणसी से संबंधित प्रकरण अपेक्षाकृत कम मिलते हैं। उत्तरकांड में काशिराज पुरुरवा का नाम आया है।[43] इसी कांड में यह भी आया है कि ययाति का पुत्र पुरु प्रतिष्ठान के साथ ही वाराणसी का भी शासक था।[44] रामायण के एक अन्य स्थल पर काशी-कोशल जनपद का एक साथ उल्लेख मिलता है।[45] दशरथ ने अपने अश्वमेध यज्ञ में काशिराज को भी आमंत्रित किया था।[46] अयोध्याकांड के अनुसार कैकेयी के क्रोध को शांत करने के लिए राजा दशरथ ने इस देश (काशी राज्य) से उत्पन्न होने वाली वस्तुओं को भी प्राप्त करने का आदेश दिया था।[47] किष्किंधाकांड के अनुसार सुग्रीव ने इस देश में सीता को खोजने के लिए विनत को भेजा था।[48] वाल्मीकि ने यहाँ की अन्य घटनाओं का भी उल्लेख किया है।[49]

पुराणों में वाराणसी

पुराणों में वाराणसी की धार्मिक समृद्धि की चर्चा है। इस नगर को शिवपुरी के नाम से संबोधित किया गया है[50] तथा इसकी गणना भारत की सात मोक्षदायिनी पुरियों में की गई है[51]

शिवपुराण

शिवपुराण में वाराणसी को भारतवर्ष में स्थित प्रमुख बारह स्थानों में एक बताया गया है। मान्यता थी कि जो व्यक्ति प्रतिदिन प्रात:काल उठकर इन बारह नामों का पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है, और संपूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है।[52]

ब्रह्मपुराण

ब्रह्मपुराण में शिव पार्वती से कहते है ‘हे सुखवल्लभे, वरुणा और असी इन दोनों नदियों के बीच में ही वाराणसी क्षेत्र है और उससे बाहर किसी को नहीं बसना चाहिए।’’[53] लोगों का ऐसा विश्वास था कि शिव के भक्तों के वाराणसी में रहने के कारण लौकिक एवं पारलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।[54] उल्लेखनीय है कि ह्वेनसाँग ने भी यहाँ निवास करने वाले शैव समर्थकों का उल्लेख किया है, जो लंबे केशों को धारण करते थे तथा शरीर पर भस्म लगाते थे।[55]

पुराणों में अनेक स्थलों पर ऐसा वर्णन मिलता है कि वाराणसी में जो निवास करता है उसके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। पद्मपुराण,[56] कूर्मपुराण[57] तथा लिंग पुराण[58] में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख है। वाराणसी में गंगा नदी पश्चिमवाहिनी हो जाती है,[59] संभवत: इसीलिए इस नगर की धार्मिक महत्ता बढ़ जाती है। वाराणसी नगर की सीमाओं के विषय में भी पुराणों में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं।

अग्निपुराण

अग्निपुराण में 'वरणा' और 'असी' नदियों के बीच स्थित वाराणसी का विस्तार पूर्व से पश्चिम दो योजन और दूसरी जगह आधा योजन दिया है।[60]

मत्स्यपुराण

मत्स्यपुराण में इसकी लंबाई-चौड़ाई का स्पष्ट विस्तार[61] में मिलता है, जहाँ इसका विस्तार पूर्व से पश्चिम दो योजन तथा दक्षिण से उत्तर अर्द्धयोजन कहा गया है। यहीं इसका विस्तार वाराणसी नदी से लेकर शुक्ल नदी तक एवं भीष्मचंडी से लेकर पर्वतेश्वर तक विस्तृत था।[62]

  • कृत्यकल्पतरु[63] में वाराणसी को 'वरणा' बताया गया है।
  • पद्मपुराण के एक अन्य स्थल पर वाराणसी के चतुर्दिक सीमाओं का उल्लेख मिलता है।
  • इस नगर की सीमाएँ उत्तर में वरणा नदी, दक्षिण में असी, पूर्व में गंगा तथा पश्चिम में पाशपाणिगणेश निश्चित की गई हैं।[64]

इसके अतिरिक्त पुराणों में उस नगर के शासकों के वंशानुक्रम का भी उल्लेख मिलता है। इस वंश परंपरा में दिवोदास प्रथम, अष्टारथ, हर्यश्व, सुदेव, दिवोदास द्वितीय एवं प्रतर्दन के नाम उल्लेखनीय हैं।[65] लेकिन पुराणों की रचना और संकलन का निश्चित तिथिक्रम नहीं मिलता, जिससे उपयोगी सूचनाएँ भी संदर्भरहित हो जाती हैं। मत्स्यपुराण में अलर्क राजा का उल्लेख मिलता है। इन्हीं के नाम के आधार पर वाराणसी को अलर्कपुरी कहा गया है।[66] वाराणसी का धार्मिक महत्त्व परवर्ती कालों में और बढ़ता गया और यह नगर दान, जप, तप, अध्ययन तथा अध्यापन की धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण समझा जाने लगा।[67] यहाँ पर वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान भी होता था। काशी के एक अभिलेख से विदित होता है कि भारशिव नरेशों ने दस अश्वेमेघ यज्ञों का अनुष्ठान इस नगर में किया था।[68]

जैन साहित्य में वाराणसी

जैन साहित्य में भी वाराणसी के संबंध में प्रचुर विवरण मिलते हैं।

पार्श्वनाथ के जन्म के अनुसार

जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ का जन्म (ईसा पूर्व 8वीं शताब्दी) वाराणसी में महावीर से 250 वर्ष पूर्व हुआ था। जैन अनुश्रुति के अनुसार इनके पिता अश्वसेन बनारस के राजा थे।[69] पार्श्वनाथ को जैन साहित्य में पुरिसादानीय[70] और पालि साहित्य मे पुरिसाजानीय[71] कहा गया है। संभवत: इन शब्दों का प्रयोग असाधारण व्यक्तित्व के निमित्त किया गया है।

महाकवि अश्वघोष के अनुसार

महाकवि अश्वघोष ने बुद्धचरित में ‘वाराणसी’ और ‘काशी’ को एक ही नगर माना है।[72] एक स्थान पर उल्लेखित[73] है कि बुद्ध वणारा के पास एक वृक्ष की छाया में पहुँचे। संभवत: अश्वघोष द्वारा वर्णित वणारा आधुनिक बरना नदी हे। इससे यह विदित होता है कि कम से कम पहली शताब्दी में वाराणसी और काशी समानार्थक थे। जैन साहित्य से हमें पता चलता है कि ई. पू. की शताब्दियों में यहाँ यक्ष पूजा बहुत प्रचलित थी और उत्तर भारत के प्रमुख नगरों में यक्षों के चैत्य होते थे। वाराणसी में गंडि-तिदुंग नाम के यक्ष का उल्लेख मिलता है।[74] ये यक्ष लोगों की रक्षा करते थे।[75] उल्लेखनीय है कि सारनाथ के समीप अकथा नामक पुरास्थल से द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व की एक यक्ष प्रस्तर प्रतिमा मिली थी जो अब सारनाथ संग्रहालय में सुरक्षित है।

भगवतीसूत्र में उल्लेख

  • जैन ग्रंथ भगवतीसूत्र[76] में सोलह जनपदों की सूची में वाराणसी का भी नाम मिलता है। उस समय भारत की मुख्य राजधानियों में वाराणसी एक थी।[77] प्राचीन जैन सूत्रों में काशी और कोशल में अट्ठारह गणराज्यों का उल्लेख है। मोतीचंद्र के अनुसार यह अट्ठारह उपराज्य थे, जो काशी-कोशल के राजा प्रसेनजित के अधीन थे। जब तीर्थंकर महावीर की मृत्यु हुई थी, तब काशी और कोशल के 10 संयुक्त राजाओं ने लिच्छवियों और मल्लों के साथ प्रकाश किया था।[78]

बौद्ध साहित्य में वाराणसी

बौद्ध ग्रंथों में वाराणसी का उल्लेख काशी जनपद की राजधानी के रूप में हुआ है।[79] बुद्ध पूर्व काल में काशी एक समृद्ध एवं स्वतंत्र राज्य था। इसका साक्ष्य देते हुए स्वयं बुद्ध ने इसकी प्रशंसा की है।[80] वाराणसी को वरुणा नदी पर स्थित बतलाया गया है।[81] यह नगर विस्तृत, समृद्ध और जनाकीर्ण था। [82] महापरिनिब्बानसुत्त [83] में तत्कालीन छ: प्रसिद्ध नगरों में वाराणसी का उल्लेख किया गया है। बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि बुद्ध इस नगर में कई बार ठहरे थे।

ऋषिपतन मृगदाव (आधुनिक सारनाथ) का भी उल्लेख बौद्ध साहित्य में आया है। जातकों में इसे मिगाचीर कहा गया है।[84] जिसे मललसेकर ने इसिपतन मिगदाय का प्राचीन नाम माना है।[85] बोध-गया में ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात बुद्ध ने अपना पहला उपदेश इसिपतन मिगदाय (मृगदाव) में ही दिया था। इस स्थान का ऋषिपतन मृगदाव नाम संभवत: ऋषियों के वायु मार्ग से उतरने के कारण पड़ा था और इसीलिए इसे ऋषिपतन भी कहा जाता था।[86] मृगों के स्वच्छंदता से घूमने के कारण इसे मृगदाव कहा जाने लगा।[87]

बुद्ध के काल में वाराणसी उत्तरी भारत में शिक्षा के एक प्रमुख केंद्र के रूप में विख्यात था।[88] बनारस की कुछ शिक्षा संस्थाएँ तक्षशिक्षा से भी पुरानी थीं।[89] तक्षशिक्ष के शंख नामक एक ब्राह्मण ने अपने पुत्र सुसीम को शिक्षा के लिए बनारस भेजा था।[90] यह उत्तर भारत के उन छ: महानगरों में एक था जिन्हें आनंद ने भगवान् बुद्ध की अंतिम यात्रा के योग्य चुना था।[91]

जातकों में वर्णित वाराणसी

जातकों में वाराणसी नगर के संदर्भ में विशद विवरण मिलता है। इस नगर को सुदर्शन,[92] सुरुद्धन,[93] ब्रह्मवर्द्धन,[94] रम्मनगर (रम्यनगर),[95] तथा मोलिनी[96] जैसे अन्य उपनामों से समीकृत किया गया है। वाराणसी के विभिन्न नामों के संबंध में यह कहना कठिन है कि ये इस नगर के अलग-अलग उपनगरों के नाम थे, अथवा पूरे वाराणसी नगर के भिन्न-भिन्न नाम थे। संभव है कि लोग नगरों की सुंदरता तथा आर्थिक समृद्धि से आकर्षिक होकर उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते रहे होंगे। बुद्ध पूर्व महाजनपद युग में वाराणसी काशी की राजधानी थी। काशी जनपद के विस्तार के संदर्भ में जातकों में अनेक स्थलों पर अतिशयोक्तिपूर्ण विवरण मिलते हैं। तंडुनालि जातक के अनुसार वाराणसी का परकोटा 12 योजन लंबा था[97] और उसका आंतरिक और बाह्म विस्तार तीन सौ योजन था। [98] काशी जनपद के उत्तर में कोशल, पूर्व में मगध और पश्चिम में वत्स जनपद था।[99] जातकों के आधार पर अल्तेकर ने काशी जनपद का विस्तार बलिया से कानपुर तक माना है।[100] पर ऐसी संभावना है कि आधुनिक गोरखपुर कमिश्नरी तक ही प्राचीन काशी जनपद सीमित रहा होगा। संभवत: आधुनिक गोरखपुर कमिश्नरी तक ही प्राचीन काशी जनपद सीमित रहा होगा। संभवत: आधुनिक गोरखपुर कमिश्नरी तक ही प्राचीन काशी जनपद सीमित रहा होगा। संभवत: आधुनिक गोरखपुर कमिश्नरी का भी कुछ भाग काशी जनपद में सम्मिलित था। नगर के चतुर्दिक प्राकार[101] एवं परिखा[102] के विवरण भी जातकों में मिलते हैं, जिससे इसके समृद्ध होने तथा सुरक्षा की उत्तम व्यवस्था का ज्ञान होता है।

चीनी यात्रियों का इतिवृत

चीनी यात्री फाह्यान ने एक जनपद के रूप में काशी का उल्लेख किया है, जबकि ह्वेनसाँग ने वाराणसी का उल्लेख किया है। फाह्यान ने इस नगर के संदर्भ में संक्षिप्त विवरण दिया हे। वह स्वयं पाटलिपुत्र में 22 योजन पश्चिम चलकर वाराणसी नगर में पहुँचा था। उसने नगर के उत्तर-पूर्व 10 लीटर् में ऋषियों के ‘मृग-उद्यान’ (सारनाथ) के पास विहारों को देखा था।[103] सातवीं शताब्दी के आरंभ में बनारस की धार्मिक और सामाजिक स्थिति पर चीनी यात्री ह्वेनसाँग के वर्णन से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। कुशीनगर से 500 ली (100 मील) दक्षिण-पश्चिम चलकर यह चीनी यात्री वाराणसी जनपद पहुँचा था।[104] इसके अनुसार बनारस 4000 ली (667 मील) की परिधि में विस्तृत था। नगर (राजधानी) के पश्चिमी किनारे पर गंगा नदी बहती थी। नगर 18 या 19 ली लंबा और 5 या 6 ली चौड़ा था। [105] यहाँ की आबादी घनी थी। लोग हुत धनवान थे और उनके घरों में बहुमूल्य वस्तुओं का संग्रह था। यहाँ की जलवायु सुखकर थी और फसलें अच्छी होती थी। यहाँ 30 संघाराम थे, जिनमें सम्मितिय निकाय के 3000 भिक्षु निवास करते थे। नगर में 100 से अधिक देवमंदिर थे जिनमें इनके धर्मी के अनुयायियों की संख्या 1000 से ऊपर थी। इनमें शैवों की संख्या अधिक थी। मुख्य राजधानी में 20 देव-मंदिर थे। इन मंदिरों में महेश्वरदेव की काँसे की बनी सौ फुट ऊँची एव मूर्ति स्थापित थी, जो अपनी सजीवता और प्रभावपूर्ण कांति से सजीव-सी प्रतीत होती थी।[106] राजधानी के पूर्वोतर बरना नदी के पश्चिमी तट पर अशोक निर्मित 100 फुट ऊँचा स्तूप था। उसके सामने एक पालिसदार स्तंभ था।[107] बरना नदी के 10 ली उत्तरपूर्व संघाराम थे।[108] इसमें आठ भाग थे, जो एक ऊँची चहारदीवारी से आवृत् थे।[109] इस विहार में सम्मितिय निकाय के 1500 भिक्षु रहते थे। इस चहारदीवारी के अंदर 200 फुट ऊँचा एक विहार था। जिसकी छत स्वर्ग मंडित आम्र फलों से ढकी थी। मंदिर की नींव और सीढ़ियाँ पत्थर की बनी थीं। ईंटों के बने गवाक्षों (आलों) में बुद्ध की सुवर्णमंडित प्रतिमाएँ स्थापित थीं। विहार के मध्य में काँसे की धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा में बुद्ध की एक प्रतिमा थी।[110] विहार के दक्षिण-पश्चिम भाग में अशोक निर्मित एक पत्थर का स्तूप था। इस स्तूप के उपर का लगभग सौ फुट ऊँचा भाग, उस समय भी शेष था। इसके सम्मुख ठीक उस जगह, जहाँ बुद्ध ने धर्मचक्र प्रवर्तन किया था, 70 फुट ऊँचा एक प्रस्तर स्तंभ था।[111]

इस प्रस्तर स्तंभ के समीप ही एक स्तूप था। जो अज्ञात कौडिंय और उनके चार शिष्यों के तपस्या के उपलक्ष्य में बना था। यह स्तूप उसी जगह निर्मित था, जहाँ 500 प्रत्येक बुद्ध एक ही समय में निर्वाण को प्राप्त हुए थे। इसके अतिरिक्त तीन विगत बुद्धों के बैठने और घूमने के स्थानों पर भी तीन स्तूप बने थे। ह्वेनसाँग ने तीन तालाबों का भी उल्लेख किया है। इसमें एक तो विहार के पश्चिम में, दूसरा उसके पश्चिम में और तीसरा दूसरे के उत्तर में था।[112] मृगदाव स्थित बौद्ध विहार के दक्षिण-पश्चिम दो या तीन ली पर एक स्तूप था जो 300 फुट ऊँचा था इस स्तूप के पास ही एक दूसरा स्तूप था जो उस घटना की याद दिलाता था, जब अज्ञात कौडिन्य ने बुद्ध का अनादर करने का अपना पूर्व निश्चय त्याग दिया था।[113] ह्वेनसाँग ने यह भी लिखा है कि बनारस में देवमंदिर बड़ी संख्या में थे जिनमें शैवों की संख्या अधिक थी।

भौगोलिक स्थिति

स्वरूप

वाराणसी नगर की रचना गंगा के किनारे है, जिसका विस्तार लगभग 5 मील में है। ऊँचाई पर बसे होने के कारण अधिकतर वाराणसी बाढ़ की विभीषिका से सुरक्षित रहता है, परंतु वाराणसी के मध्य तथा दक्षिणी भाग के निचने इलाके प्रभावित होते हैं।

धरातल की संरचना

वाराणसी के धरातल की संरचना ठोस कंकड़ों से हुई हैं। आधुनिक राजघाट का चौरस मैदान जहाँ नदी-नालों के कटाव नहीं मिलते, शहर बसाने के लिए उपयुक्त था। वाराणसी शहर के उत्तर में वरुणा और दक्षिण में अस्सी नाला है, उत्तर-पश्चिम की ओर यद्यपि ऐसा कोई प्राकृतिक साधन (पहाड़ियाँ, झील, नदी इत्यादि) नहीं है जिससे नगर की सुरक्षा हो सके, तथापि यह निश्चित है कि काशी के समीपवर्ती गहन वन, जिनका उल्लेख जातकों, जैन एवं पौराणिक ग्रंथों में आया है, काशी की सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे होंगे।[114]

भू-स्थापना

वाराणसी की स्थापना का आधार सुदूर प्राचीन काल में धार्मिक न होकर आर्थिक या व्यापारिक था। वाराणसी की भू-स्थापना का कारण यहाँ की भौगोलिक स्थिति है। यह शहर अर्धचन्द्राकार में गंगा की रचना किनारे पर अवस्थित है। वाराणसी की रचना एक ऊँचे कंकरीले करारे पर है, जो गंगा के पश्चिमी किनारे पर अवस्थित है, जहाँ बाढ़ का खतरा नहीं रहता है। यह आधुनिक राजघाट का चोरस मैदान है जहाँ नदी-नालों का कटाव नहीं मिलता, यह शहर बसने के लिए उपयुक्त था। एक ओर "बरना" नदी तो दूसरी ओर गंगा नगर की प्राकृति खाई का काम करती है। यहाँ के जंगल भी वाराणसी के बचाव के लिए अपनी भूमिका अदा करते रहे होगें। वाराणसी के बचाव में आधुनिक मिर्जापुर ज़िले की विंध्याचल की पहाड़ियाँ भी महत्वपूर्ण थीं।

वाराणसी के व्यापारी पश्चिम की ओर गंगा और यमुना के रास्ते मथुरा पहुँचते थे तथा पूरब की ओर चंपा होते हुए ताम्रलिप्ति के बन्दरगाह तक जाते थे। वाराणसी उसी महाजनपद पर अवस्थित थी जो तक्षशिला से राजगृह के बाद पाटलिपुत्र को जाता था। यहाँ से अन्य सड़कें देश के भिन्न-भिन्न भागों को जाती थीं, जिनमें होकर काशिक चंदन और वस्र के द्वारा वाराणसी की व्यापारिक महत्ता देश में चारों ओर फैलती थी।

प्राकृतिक बनावट

जब आरंभिक युग में वाराणसी में मनुष्य बसे तो वाराणसी की प्राकृतिक बनावट का क्या रुप था पर कृत्यकल्पतरु, काशीखण्ड और 19वीं सदी के जान प्रिंसेप के नक्शे के आधार पर यह कहना सम्भव है कि गंगा-बरना संगम से लेकर गंगा अस्सी संगम के कुछ उत्तर तक एक कंकरीला करारा है, जो गोदौलिया नाले के पास कट जाती है। जमीन की सतह नदी की सतह से नीची पड़ जाने पर पानी बरना में चला जाता था। गोदौलिया नाले में मिसिर पोखरा, लक्षमीकुण्ड था, बेनिया तालाब का पानी गंगा में बह जाता था। मछोदरी रकबे का पानी बरना में गिरता था। मछोदरी के पूरब में कगार के नीचे एक चौरस मैदान पड़ जाता था जिसके उत्तर में नाले बहते थे।

नदी के रुप में उल्लेख

स्थलपुराणों में मत्स्योदरी का काशी में एक नदी के रुप में उल्लेख एक पहेली है। लक्ष्मीधर 1 ने तीर्थ विवेचन कांड में (पृष्ठ 34, 58, 69) इस नदी का तीन बार उल्लेख किया है। एक स्थान पर (पृष्ठ 34-35) शुष्क नदी यानि अस्सी को पिंगला नाड़ी, वरुणा को इला नाड़ी और इन दोनों के बीच मत्स्योदरी को सुषुम्ना नाड़ी माना है। अन्यत्र (पृष्ठ 58) गंगा और मत्स्योदरी के संगम पर स्नान मोक्षदायक माना गया है। तीसरे स्थान पर (पृष्ठ69) इस नदी के तीर पर देवलोक छोड़कर देवताओं के बसने की बात कही गयी है। मित्र मिश्र द्वारा उद्धृत काशीखण्ड (पृष्ठ 240) में मत्स्योदरी को बहिरन्तश्चर कहा गया है और वह गंगा के प्रतिकूल धारा (संहार मार्ग) से मिलती थी। सोलहवीं सदी में नारायण भ की व्युत्पत्ति के अनुसार मत्स्याकार काशी के गर्भ में अवस्थित होने से इसका नाम मत्स्योदरी पड़ा।

मत्स्योदरी तीर्थ

उपर्युक्त सामग्री के अवलोकन से सभी बातें स्पष्ट हो जाती हैं। काशी खंड के अनुसार शिवगणों ने मत्स्योदरी तीर्थ के सन्निकट शैलों से घिरा हुआ दुर्ग बनाया और उसके पास मत्स्योदरी के जल से भरी परिखा (मोट) थी। अत: एक तो मत्स्योदरी झील थी जिसका जल भीतर ही भीतर प्रवाहित था या अंतश्चर था और दूसरी मत्स्योदरी परिखा थी जिसका जल बहकर वरुणा को पीछे ठेलता था। वर्षा काल में गंगा में बाढ़ आती तो गंगा का पानी वरुणा को पीछे ठेलता मत्स्योदरी परिखा में प्रविष्ट होता और अंतत: मत्स्योदरी तीर्थ में आ पहुँचता। इसी को पुनीत मत्स्योदरी योग कहा जाता है। इस बहते हुए गंगा जल से काशी क्षेत्र पूर्णत: घिर जाता और उसका स्वरुप मछली सा हो जाता।

काव्यमयी भाषा

इसी स्थिति को त्रिस्थली सेतु ने काव्यमयी भाषा में कहा है कि ऐसा प्रतीत होता है कि गंगा ने स्वयं मत्स्योदरी रुपर धारण कर लिया है। इस पुनीत संगम का महात्म्य बताते हुए लिखा है कि समस्त तीर्थ और शिवलिंग यहाँ प्राप्त हो जाते हैं। गंगा-वरुणा और मत्स्योदरी का यह संगम आंकारेश्वर के पास होता था और यहीं भैरवरुप भगवान् शंकर ने स्नान किया था और कपालमोचन तीर्थ की सृष्टि हुई थी। वाराणसी में तीन पुण्यदा नदियों की चर्चा कृत्य-कल्पतरु ने की है- ये हैं- पितामह-स्रोतिका (ब्रह्मनाल), मन्दाकिनी (मध्यमेश्वर के पास) और मत्स्योदरी (ओंकारेश्वर के पास) ये तीनों वर्षा के दिनों में नदी का रुप धारण करती थी। पितामहस्रोतिका नाले से अविमुक्तेश्वर क्षेत्र का जल गंगा में गिरता था। मन्दाकिनी में वर्तमान दारानगर, औसानगंज, काशीपुरा, विश्वेसरगंज का जल एकत्र होता था जो बुलानाला, सप्तसागर भुलेटन, बेनिया, मिसिरपोखरा, गोदावरी तीर्थ (गोदौलिया) होते हुए शीतलाघट के पास गंगा में गिरता था। मत्स्योदरी परिखा का जल ओंकारेश्वर के पास होते हुए वरुणा में गिरता था। बड़ी बाढ़ में मत्स्योदरी के भर जाने पर जल शिवतड़ाग (हालूगड़हा जिस पर विश्वेश्वर गंज का बाजार बसा है) को भरता हुआ मंदाकिनी में मिलता, वहां से दशाश्वमेघ के पास गंगा में मिलता। इस प्रकार राजघाट से दशाश्वमेघ तक का समूचा क्षेत्र पानी से घिर जाता था या वाराणसी क्षेत्र ही मत्स्याकार हो जाता था।

पौराणिक व्युत्पत्ति

वाराणसी की पौराणिक व्युत्पत्ति को स्वीकार करने में बहुत सी कठिनाइयां है। पहली कठिनाई तो यह है कि अस्सी नदी न होकर बहुत ही साधारण नाला है और इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि प्राचीन काल में इसका रुप नदी का था। प्राचीन वाराणसी की स्थिति भी इस मत का समर्थन नहीं करती। प्राय: विद्वान एक मत है कि प्राचीन वाराणसी आधुनिक राजघाट के ऊंचे मैदान पर बसी थी और इसका प्राचीन विस्तार जैसा कि भग्नावशेषों से भी पता चलता है - बरना के उस पार भी था, पर अस्सी की तरफ तो बहुत ही कम प्राचीन अवशेष मिले हैं और जो मिले भी हैं वे परवर्ती अर्थात् मध्यकाल के हैं।[115] अर्थात्- हे प्रिये, सिद्ध गंधर्वों से सेवित वाराणसी में जहां पुण्य नदी त्रिपथगा गंगा आता है वह क्षेत्र मुझे प्रिय है। यहाँ अस्सी का उल्लेख नहीं है। वाराणसी क्षेत्र का विस्तार बताते हुए मत्स्यपुराण में एक और जगह कहा गया है-[116]

वाराणसी के बसने की कल्पना

अस्सी और बरणा के बीच में वाराणसी के बसने की कल्पना उस समय से उदय हुई जब नगर की धार्मिक महिमा बढ़ी और उसके साथ-साथ नगर के दक्षिण में आबादी बढ़ने से दक्षिण का भाग भी उसकी सीमा में आ गया। लेकिन प्राचीन वाराणसी सदैव बरना पर ही स्थित नहीं थी, गंगा तक उसका प्रसार हुआ था। कम-से-कम पंतजलि के समय में अर्थात् ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में तो यह गंगा के किनारे-किनारे बसी थी, जैसी कि अष्टाध्यायी के सूत्र "यस्य आया:' (2/1/16) पर पंतजलि ने भाष्य "अनुगङ्ग' वाराणसी, अनुशोणं पाटलिपुत्रं (कीलहार्न 6,380) से विदित है। मौर्य और शुंगयुग में राजघाट पर गंगा की ओर वाराणसी के बसने का प्रमाण हमें पुरातत्व के साक्ष्य से भी लग चुका है।

नदियाँ

गंगा

गंगा का वाराणसी की प्राकृतिक रचना में मुख्य स्थान है। गंगा वाराणसी में गंगापुर के बेतवर गाँव से पहले घुसती है। यहाँ पर इससे सुबहा नाला आ मिला है। वाराणसी को वहाँ से प्राय: सात मील तक गंगा मिर्जापुर जिले से अलग करती है और इसके बाद वाराणसी जिले में वाराणसी और चन्दौली को विभाजित करती है। गंगा की धारा अर्ध-वृत्ताकार रुप में वर्ष भर बहती है। इसके बाहरी भाग के ऊपर करारे पड़ते हैं और भीतरी भाग में बालू अथवा बाढ़ की मिट्टी मिलती है। गंगा का रुख पहले उत्तर की तरफ होता हुआ रामनगर के कुछ आगे तक देहात अमानत को राल्हूपुर से अलग करता है। यहाँ पर करारा कंकरीला है और नदी उसके ठीक नीचे बहती है। यहाँ तूफान में नावों को काफी खतरा रहता है। देहात अमानत में गंगा का बांया किनारा मुंडादेव तक चला गया है। इसके नीचे की ओर वह रेत में परिणत हो जाता है और बाढ़ में पानी से भर जाता है। रामनगर छोड़ने के बाद गंगा की उत्तर-पूर्व की ओर झुकती दूसरी केहुनी शुरु होती है। धारा यहाँ बायें किनारे से लगकर बहती है। अस्सी संगम से लेकर करारे पर बनारस के मंदिर, घाट और मकान बने हैं और दाहिने किनारे पर बलुआ मैदान है। गंगा नदी मालवीय पुल से कैथ तक पूरब की और बहती है। यहाँ धारा बायें किनारे से लगकर बहती है। और यह करारा बरना संगम के कुछ आगे तक चला जाता है। तांतेपुर पर यह धारा दूसरे किनारे की ओर जाने लगती है और किनारा नीचा और बलुआ होने लगता है। दाहिनी ओर मिट्टी के नीचे करारे का बाढ़ से ढूबने का भय रहता है।

गंगा कैथी के पास उत्तर की ओर झुकती है और उसका यह रुख बलुआ तक रहता है। कैथी से कांवर तक दक्षिणी किनारा पहले तो भरभरा रहता है पर बाद में कंकरीले करारे में बदल जाता है लेकिन कांवर से बलुआ तक मिट्टी की एक उपजाऊ पट्टी कुछ भीतर घुसती हुई पड़ती है। इस घुमाव के अंदर जाल्हूपुर परगना है। इस परगन के अन्दर से गंगा की एक उपधारा बलुआ के कुछ ऊपर गंगा से मिल जाती है। बलुआ से गंगा उत्तर-पश्चिम की ओर घूम जाती है। इसका बांयी ओर का किनारा जाल्हूपुर और कटेहर की सीमा तक नीचा और बलुआ है। यहाँ से नदी पहले उत्तर की ओर बाद में उत्तर-पूर्व की ओर बहती है। कटेहर के दक्षिण-पूरब कंकरीला किनारा शुरु हो जाता है और यहाँ-वहाँ खादर के टुकड़े दीख पड़ते हैं। दूसरा किनारा परगना बरह में पड़ता है। बरह के उत्तरी छोर से कुछ दूर गंगा गाजीपुर और वाराणसी की सीमा अलग करती है और वह गाजीपुर जिले में घुस जाती है।

बानगंगा

इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि प्राचीन काल में बरह शाखा के सिवा गंगा की कोई दूसरी धारा थी। लेकिन इस बात का प्रमाण है कि गंगा की धारा प्राचीन काल में दूसरी ही तरह से बहती थी। परगना कटेहर में कैथ के पास की चचरियों से ऐसा लगता है कि इन्हीं कंकरीले करारों की वजह से नदी एक समय दक्षिण की ओर घूम जाती थी। गंगा की इस प्राचीन धारा के बहाव का पता हमें बानगंगा से मिलता है जो बरसात में भर जाती है। बानगंगा टांड़ा से शुरु होकर दक्षिण की ओर छ: मील तक महुवारी की ओर जाती है, फिर पूर्व की ओर रसूलपुर तक, अन्त में उत्तर में रामगढ़ को पार करती हुई वह हसनपुर (सैयदपुर के सामने) तक जाती है। गंगा की धार का यह रुख जिस समय था गंगा की वर्तमान धारा में उस समय गोमती बहती थी जो गंगा में सैयदपुर के पास मिल जाती थी। कैथी और टांड़ा के बीच में कंकरीले करारे को गंगा ने कब तोड़ा इसका पता यहाँ की जमीन की बनावट से लगता है। इस स्थान पर नदी का पाट दूसरी जगहों की उपेक्षा जहां नदी ने अपना पाट नहीं बदला है, बहुत कम चौड़ा है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि किसी समय यह किसी बड़ी नदी का पाट था। इस मत की पुष्टि वैरांट की लोक कथाओं से भी होती है। जनश्रुति यह है कि शान्तनु ने बानगंगा को काशिराज की कन्या के स्वयंवर के अवसर पर पृथ्वी फोड़कर निकाला। उस समय काशिराज की राजधानी रामगढ़ थी। अगर किसी समय राजप्रसाद रामगढ़ में था तो वह गंगा पर रहा होगा और इस तरह इस लोक कथा के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि एक समय गंगा रामगढ़ से होकर बहती थी।

रामगढ़ में बानगंगा के तट पर वैरांट के प्राचीन खंडहरों की स्थिति है, जो महत्वपूर्ण है। लोक कथाओं के अनुसार यहाँ एक समय प्राचीन वाराणसी बसी थी। सबसे पहले बैरांट के खंडहरों की जांच पड़ताल ए.सी.एल. कार्लाईल 2 ने की। वैरांट की स्थिति गंगा के दक्षिण में सैदपुर से दक्षिण-पूर्व में और वाराणसी के उत्तर-पूर्व में करीब 16 मील और गाजीपुर के दक्षिण-पश्चिम करीब 12 मील है। वैरांट के खंडहर बानगंगा के बर्तुलाकार दक्षिण-पूर्वी किनारे पर हैं।

बरना

सुबहा और अस्सी जैसे दो एक मामूली नाले-नालियों को छोड़कर इस जिले में गंगा की मुख्य सहायक नदियां बरना और गोमती है। वाराणसी के इतिहास के लिए तो बरना का काफी महत्व है क्योंकि जैसा हम पहले सिद्ध कर चुके हैं इस नदी के नाम पर ही वाराणसी नगर का नाम पड़ा। अथर्ववेद (5/7/1) में शायद बरना को ही बरणावती नाम से संबोधन किया गया है। उस युग में लोगों का विश्वास था कि इस नदी के पानी में सपं-विष दूर करने का अलौकिक गुण है। इस नदी का नामप्राचीन पौराणिक युग में "वरणासि' था। बरना इलाहाबाद और मिर्जापुर जिलों की सीमा पर फूलपुर के ताल से निकालकर वाराणसी जिले की सीमा में पश्चिमी ओर से घुसती है और यहाँ उसका संगम विसुही नदी से सरवन गांव में होता है। विसुही नाम का संबंध शायद विष्ध्नी से हो। संभवत: बरना नदी के जल में विष हरने की शक्ति के प्राचीन विश्वास का संकेत हमें उसकी एक सहायक नदी के नाम से मिलता है। बिसुही और उसके बाद वरना कुछ दूर तक जौनपुर और वाराणसी की सीमा बनाती है। बल खाती हुई बरना नदी पूरब की ओर जाती है और दक्षिण और कसवार ओर देहात अमानत की ओर उत्तर में पन्द्रहा अठगांवा और शिवपुर की सीमाएं निर्धारित करती है। बनारस छावनी के उत्तर से होती हुई नदी दक्षिण-पूर्व की ओर घूम जाती है और सराय मोहाना पर गंगा से इसका संगम हो जाता है। वाराणसी के ऊपर इस पर दो तीर्थ है, रामेश्वर ओर कालकाबाड़ा। नदी के दोनों किनारे शुरु से आखिर तक साधारणत: हैं और अनगिनत नालों से कटे हैं।

गोमती

गोमती नदी का भी पुराणों में बहुत उल्लेख है। पौराणिक युग में यह विश्वास था कि वाराणसी क्षेत्र की सीमा गोमती से बरना तक थी। इस जिले में पहुंचने के पहले गोमती का पाट सई के मिलने से बढ़ जाती है। नदी जिले के उत्तर में सुल्तानीपुर से घुसती है और वहां से 22 मील तक अर्थात कैथी में गंगा से संगम होने तक यह जिले की उत्तरी सरहद बनाती है। नदी का बहाव टेढ़ा-मेढ़ा है और इसके किनारे कहीं और कहीं ढालुएं हैं।

नंद

नंद ही गोमती की एकमात्र सहायक नदी है। यह नदी जौनपुर की सीमा पर कोल असला में फूलपुर के उत्तर-पूर्व से निकलती है और धौरहरा में गोमती से जा मिलती है। नंद में हाथी नाम की एक छोटी नदी हरिहरपुर के पास मिलती है।

करमनासा

मध्यकाल में हिन्दुओं का यह विश्वास था कि करमनासा के पानी के स्पर्श से पुण्य नष्ट हो जाता है। करमनासा और उसकी सहायक नदियां चंदौली जिले में है। नदी कैभूर पहाड़ियों से निकलकर मिर्जापुर जिले से होती हुई, पहले-पहल बनारस जिले में मझवार परगने से फतहपुर गांव से घूमती है। करमनासा, मझवार के दक्षिण-पूरबी हिस्से में करीब 10 मील चलकर गाजीपुर की सरहद बनाती हुई परगना नरवम को ज़िला शाहाबाद से अलग करती है। जिले को ककरैत में छोड़ती हुई फतेहपुर से 34 मील पर चौंसा में वह गंगा से मिल जाती है। नौबतपुर में इस नदी पर पुल है और यहीं से ग्रैंड ट्रंक रोड और गया को रेलवे लाइन जाती है।

गड़ई

गड़ई करमनासा की मुख्य सहायक नदी है जो मिर्जापुर की पहाड़ियों से निकलकर परगना धूस के दक्षिण में शिवनाथपुर के पास से इस जिले में घुसती है और कुछ दूर तक मझवार और धूस की सीमा बनाती हुई बाद में मझवार होती हुई पूरब की ओर करमनासा में मिल जाती है।

चन्द्रप्रभा

मझवार में गुरारी के पास मिर्जापुर के पहाड़ी इलाके से निकलकर चन्द्रप्रभा वाराणसी जिले को बबुरी पर छूती हुई थोड़ी दूर मिर्जापुर में बहकर उत्तर में करमनासा से मिल जाती है।

वाराणसी जिले की नदियों के उक्त वर्णन से यह ज्ञात होता है कि बनारस में तो प्रस्रावक नदियां है लेकिन चंदौली में नहीं है जिससे उस जिले में झीलें और दलदल हैं, अधिक बरसात होने पर गांव पानी से भर जाते हैं तथा फसल को काफी नुकसान पहुंचता है। नदियों के बहाव और जमीन की की वजह से जो हानि-लाभ होता है इसे प्राचीन आर्य भली-भांति समझते थे और इसलिए सबसे पहले आबादी वाराणसी में हुई।

अर्थव्यव्स्था

उद्योग और व्यापार

वाराणसी के कारीगरों के कला- कौशल की ख्याति सुदूर प्रदेशों तक में रही है। वाराणसी आने वाला कोई भी यात्री यहाँ के रेशमी किमखाब तथा जरी के वस्रों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । यहाँ के बुनकरों की परंपरागत कुशलता और कलात्मकता ने इन वस्तुओं को संसार भर में प्रसिद्धि और मान्यता दिलायी है । विदेश व्यापार में इसकी विशिष्ट भूमिका है । इसके उत्पादन में बढ़ोत्तरी और विशिष्टता से विदेशी मुद्रा अर्जित करने में बड़ी सफलता मिली है । रेशम तथा जरी के उद्योग के अतिरिक्त, यहाँ पीतल के बर्तन तथा उन पर मनोहारी काम और संजरात उद्योग भी अपनी कला और सौंदर्य के लिए विख्यात हैं । इसके अलावा यहाँ के लकड़ी के खिलौने भी दूर- दूर तक प्रसिद्ध हैं, जिन्हें कुटीर उद्योगों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं ।

वाणिज्य और व्यापार का प्रमुख केंद्र

वाराणसी नगर वाणिज्य और व्यापार का एक प्रमुख केंद्र था। स्थल तथा जल मार्गों द्वारा यह नगर भारत के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ था। काशी से एक मार्ग राजगृह को जाता था।[117] काशी से वेरंजा जाने के लिए दो रास्ते थे-

  1. सोरेय्य होकर
  2. प्रयाग में गंगा पार करके।

दूसरा मार्ग बनारस से वैशाली को चला जाता था।[118] वाराणसी का एक सार्थवाह पाँच सौ गाड़ियों के साथ प्रत्यंत देश गया था और वहाँ से चंदन लाया था।[119]

समुद्री व्यापार

वाराणसी के व्यापारी समुद्री व्यापार भी करते थे। काशी से समुद्र यात्रा के लिए नावें छूटती थीं।[120] इस नगर के धनी व्यापारियों को व्यापार के उद्देश्य से समुद्र पार जाने का उल्लेख है।[121] जातकों में भी व्यापार के उद्देश्य से बाहर जाने का उल्लेख मिलता है। एक जातक में उल्लेख है कि बनारस के व्यापारी दिशाकाक लेकर समुद्र यात्रा को गए थे।[122] एक अन्य व्यापारी मित्रविदंक जहाज लेकर समुद्र यात्रा पर गया था, जहाँ उसे अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा।[123]

  • महावग्ग[124] में काशिराज ब्रह्मदत्त को विपुल धन का स्वामी, भोग-विलास की सामग्री से परिपूर्ण कहा गया है। इससे यह विदित होता है कि अन्य नगरों या जनपदों की तुलना में काशी की आर्थिक स्थिति अच्छी थी।
  • दीघनिकाय में संख नामक राजा के राजत्व में सातरत्नों- चक्करतन, हस्तिरत्नं, मणिरत्नं, हत्थिरत्नं, गृहपतिरत्नं एवं परिणायक रत्न- से युक्त वाराणसी नगरी को केतुमती नामक समृद्ध एवं बहुजना तथा आकिष्णनुमा होने की भविष्यवाणी की गई है।[125] यह विवरण इसकी समृद्धि का सूचक है।

काष्ठ व्यवसाय

जातकों के अनुसार वाराणसी काष्ठ व्यवसाय का भी एक प्रमुख केंद्र था। इन नगर के पास एक बड्ढकि ग्राम था, जहाँ बढ्इयों की बस्ती थी। इस बस्ती में 5 सौ बढ़ई रहते थे।[126] वे जंगलों में जाकर गृहनिर्माण में प्रयुक्त होने वाली लकड़ियों को काट लेते थे। ये बढ़ई एक, दो अथवा कई मंजिलों वाले मकान बनाने में दक्ष थे।[127]

गजदंत-व्यवसाय

वाराणसी में गजदंत-व्यवसाय का भी विस्तृत प्रचार था। जातकों में यहाँ एक दंतकार वीथि (गली) का उल्लेख आया है, यहाँ हाथीदाँत की वस्तुयें बनती थी।[128] वाराणसी के व्यापारी विक्रय की अनेक वस्तुओं के अतिरिक्त हाथी दाँत के बने हुए सामान भी देश के अन्य भागों में पहुँचाते थे। इसके अतिरिक्त यहाँ मिट्टी के बर्तन एवं खिलौने आदि भी बनाए जाते थे, जिनका समर्थन पुरातात्विक उत्खनन से भी प्राप्त प्रमाणों से निश्चित होता है।

कासिक चंदन

इसके अतिरिक्त ‘कासिक चंदन’ भी वाराणसी का एक प्रमुख उद्योग था जातकों में ‘कासिक चंदन’ का उल्लेख कई स्थलों पर आया है।[129] पंडर जातक[130] में ‘कासिक चन्दनन्च’ शब्द मिलता है। इन उल्लेखों से यह विदित होता है कि बौद्ध काल में वाराणसी चंदन के उद्योग एवं व्यापार के लिए सुविख्यात था।

घोड़ों का व्यापार

वाराणसी में उत्तरापथ के घोड़ों का व्यापार होता था। यहाँ के बाजार में सुंदर एवम् अच्छे सैंधव घोड़े उपलब्ध थे, जिनकी माँग अधिक रहती थी। अनेकश: घोड़े के व्यापारियों को उत्तरापथ (गांधार-तक्षशिला) से घोड़े लेकर वाराणसी में बेचने आने का उल्लेख है। उत्तरापथ में पाँच सौ अश्वों को लेकर व्यापारार्थ व्यापारियों का वाराणसी में आने का प्रमाण मिलता है।[131]

वाराणसी से व्यापार के लिए देश के अन्य भागों में वस्त्र, चंदन, हाथीदाँत के सामान, मिट्टी के बर्तन एवं खिलौने तथा काष्ठ के बने हुए सामान भेजे जाते थे, जिनका उल्लेख जातकों में विस्तार से आया है।

बहुमूल्य वस्त्रों के लिए विख्यात

बुद्ध काल में वाराणसी नगरी सुंदर, बहुमूल्य वस्त्रों के लिए भी विख्यात थी जिसका उल्लेख बौद्ध ग्रंथों में अनेक स्थलों पर मिलता है। संयुक्त निकाय के वत्थिसुत्त में काशी का बना कपड़ा अन्य समस्त जगहों से बने हुए कपड़ों में अग्र (श्रेष्ठ) बताया गया है।[132]

  • माज्झिमनिकाय की अट्ठकथा में यहाँ के वस्त्रों की प्रभूत प्रशंसा की गई है।[133] एक स्थल पर एक धूर्त ने जीवकाम्रवन को जाती हुई शुभा भिक्षुणी को काशी के सूक्ष्म वस्त्रों का लोभ दिलाकर भुलाने की चेष्टा में उससे कहा था कि ‘‘काशी के उत्तम वस्त्रों को धारण करने वाली मुझ रूपवती को छोड़कर तुम कहाँ जाओगे।’’[134]
  • मिलिंदपन्हों में उल्लेखित है कि यवन शासक मिलिंद की राजधानी सागल (स्यालकोट) में भी काशी के वस्त्र विक्रय के लिए जाते थे।[135]

इस प्रकार यह सुविदित है कि बुद्ध काल में काशी के वस्त्र महत्त्वपूर्ण थे।

चंदन के लिए प्रसिद्ध

बहुमूल्य वस्त्रों के अतिरिक्त काशी जनपद चंदन के लिए भी प्रसिद्ध था। जातकों और अंगुत्तरनिकाय[136] में ‘कासि विलेपन’ और ‘कासि चंदन’ का उल्लेख मिलता है। काशी में चंदन की लकड़ी का उद्योग मिलिंदपन्हों में भी मिलता है।[137] इस प्रकार यह निश्चित है कि बौद्ध साहित्य में वाराणसी व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्र में समृद्धिप्राप्त थी जिसका विवरण बौद्ध ग्रंथों में अनेकश: मिलता है।

व्यापारिक मार्ग

वाराणसी तत्कालीन व्यापारिक मार्गों का एक प्रमुख केंद्र था। देश के विभिन्न भागों में यह व्यापारिक मार्गों से जुड़ा हुआ था। स्थल मार्ग से व्यापार के लिए जाते हुए वाराणसी के व्यापारियों को भयावह जंगलों के कारण होने वाले कष्टों का सामना करना पड़ता था।[138] जातकों से ज्ञात होता है कि बनारस से एक रास्ता तक्षशिला को जाता था। तक्षशिला उस युग में भारतीय और विदेशी व्यापारियों का मिलन केंद्र था।[139] एक जातक में वाराणसी से शिल्प विद्या सीखने के लिए तक्षशिला जाने का उल्लेख मिलता है।[140]

कृषि और खनिज

कपास की खेती

वाराणसी नगर वाणिज्य के क्षेत्र में भी ख्याति प्राप्त था। जातकों से भी विदित होता है कि वाराणसी के बहुमूल्य, रंगीन, सुगंधित, सुवासित, पतले एवं चिकने कपड़े विक्रय के लिए सुदूर देशों में भेजे जाते थे। काशी में बने वस्त्रों को ‘काशी कुत्तम,[141] और ‘कासीय’[142] भी कहते थे। संभवत: इन शब्दों का प्रयोग गुणवाचक संदर्भ में किया गया है। ऐसा समझा जाता है कि एक समय वाराणसी के आसपास कपास की अच्छी खेती होती थी। तुंडिल जातक में[143] वाराणसी के आसपास कपास के खेतों का वर्णन मिलता है। एक जातक में वैराग्य लेने वाले पति के मन को आकर्षित करने के लिए उसकी पत्नी चंदन से सुवासित बनारसी रेशमी साड़ी पहनने की प्रतिज्ञा करती है।[144] महाहंस जातक में काशिराज के घर में विद्यमान बहुमूल्य सामग्रियों में रत्न, सोना, चाँदी, मोती, बिल्लौर, मणि, शंख, वस्त्र, हाथीदाँत, बर्तन और ताँबा इत्यादि प्रमुख थे।

यातायात और परिवहन

किसी नगर के विकास का एक मुख्य कारण यातायात के साधन हैं। बहुत प्राचीन काल से वाराणसी में यातायात की अच्छी सुविधा रही है। यात्रियों के आराम पर बनारसवासियों का काफी ध्यान था। बनारसवासी सड़कों पर जानवरों के लिए पानी का भी प्रबंध करते थे। जातकों में (जा. 175) एक जगह कहा गया है कि काशी जनपद के राजमार्ग पर एक गहरा कुआं था जिसके पानी तक पहुंचने के लिए कोई साधन न था। उस रास्ते से जो लोग जाते थे वे पुण्य के लिए पानी खींचकर एक द्रोणी भर देते थे जिससे जानवर पानी पी सकें। वाराणसी हवाई, रेल तथा सड़क मार्ग द्वारा देश के अन्‍य भागों से जुड़ा हुआ है।

हवाई मार्ग

वाराणसी का सबसे नजदीकी हवाई अड्डा बाबतपुर में है। यह वाराणसी से 22 किलोमीटर तथा सारनाथ से 30 किलोमीटर दूर है। दिल्‍ली, आगरा, खजुराहो, कोलकत्ता, मुंबई, लखनऊ, भुवनेश्‍वर तथा काठमांडू से यहाँ के लिए सीधी हवाई सेवा है।

रेल मार्ग

वाराणसी कैंट तथा मुगल सराय (वाराणसी के मुख्‍य रेलवे स्‍टेशन से 16 किलोमीटर दूर) यहाँ का मुख्‍य रेल जंक्‍शन है। ये दोनों जंक्‍शन वाराणसी को देश के अन्‍य प्रमुख शहरों से जोड़ते हैं।

सड़क मार्ग

वाराणसी सड़क मार्ग द्वारा देश के अन्‍य शहरों से जुड़ा हूआ है। दिल्‍ली से वाराणसी के लिए सीधी बस सेवा है। यहाँ के आईएसबीटी तथा आनन्‍द विहार बस अड्डा से वाराणसी के लिए बसें खुलती हैं। लखनऊ तथा इलाहाबाद से भी वाराणसी के लिए सीधी बस सेवा है।

सार्वजनिक यातायात

वाराणसी शहर के स्थानीय प्रचलित यातायात साधन ऑटो रिक्शा एवं साइकिल रिक्शा हैं। बाहरी क्षेत्रों में नगर-बस सेवा में मिनी-बसें चलती हैं। छोटी नावें और छोटे स्टीमर गंगा नदी पार करने हेतु उपलब्ध रहते हैं।

जल मार्ग

वाराणसी के धार्मिक और व्यापारिक प्रभाव का मुख्य कारण इसकी गंगा पर स्थिति होना है। गंगा में बहुत प्राचीन काल से नावें चलती थीं जिनसे काफी व्यापार होता था। वाराणसी से कौशांबी तक जलमार्ग से दूरी 3० योजन दी हुई है। 5 वाराणसी से समुद्र यात्रा भी होती थी। एक जातक (3८4) में कहा गया है कि वाराणसी के कुछ व्यापारियों ने दिसाकाक लेकर समुद्र यात्रा की। यह दिशाकाक समुद्र यात्रा के समय किनारे का पता लगाने के लिए छोड़ा जाता था। कभी-कभी काशी के राजा भी नावों के बेड़ों में (बहुनावासंघाटे) सफर करते थे (जा. 3/326)। अलबरुनी के समय में (11वीं सदी का आरंभ) बारी (आगरा की एक तहसील) से एक सड़क गंगा के पूर्वी किनारे अयोध्या पहुंचती थी। बारी से अयोध्या 25 फरसंग तथा वहां से वाराणसी 2० फरसंग था। यहाँ से गोरखपुर, पटना, मुंगेर होती हुई यह सड़क गंगासागर को चली जाती थी। 1 यही वैशाली वाली प्राचीन सड़क है और इसका उपयोग सल्तनत युग में बहुत होता था।

ग्रैण्ड ट्रंक रोड़

सड़क-ए-आजम जिसे हम ग्रैण्ड ट्रंक रोड़ कहते हैं, बहुत प्राचीन सड़क है जो मौर्य काल में पुष्पकलावती से पाटलिपुत्र होती हुई ताम्रलिप्ति तक जाती थी। शेरशाह ने इस सड़क का पुन: उद्धार किया, इस पर सरायां बनवाई और डाक का प्रबंध किया। कहते हैं कि यह सड़क-ए-आजम बंगाल में सोनारगांव से सिंध तक जाती थी और इसकी लम्बाई 15०० कोस थी। यह सड़क वाराणसी से होकर जाती थी। 2 इस सड़क की अकबर के समय में काफी उन्नति हुई और शायद उसी काल में मिर्जामुरात और सैयदराज में सराएं बनी। आगरा से पटना तक इस सड़क का वर्णन पीटर मंटी ने 1632 ईं. में किया है। 3 चहार गुलशन 4 में भी वाराणसी से होकर जाने वाली सड़कों का वर्णन है। एक सड़क दिल्ली-मुरादाबाद बनारस होकर पटना जाती थी और दूसरी आगरा-इलाहाबाद होकर वाराणसी आती थी। इन बड़ी सड़कों के अतिरिक्त बहुत से छोटे-मोटे रास्ते वाराणसी को जौनपुर, गाजीपुर और मिर्जापुर से मिलाते थे।

चौराहों पर सभाएं

यात्रियों के विश्राम के लिये अक्सर चौराहों पर सभाएं बनवायी जाती थीं। इनमें सोने के लिए आसंदी और पानी के घड़े रखे होते थे। इनके चारों ओर दीवारें होती थी और एक ओर फाटक। भीतर जमीन पर बालू बिछी होती थी और ताड़ वृक्षों की कतारें लगी होती थी (जा. 1/7९)।

कला

संगीत

वाराणसी गायन एवं वाद्य दोनों ही विद्याओं का केंद्र रहा है । सुमधुर ठुमरी भारतीय कंठ संगीत को वाराणसी की विशेष देन है । इसमें धीरेंद्र बाबू, बड़ी मोती, छोती मोती, सिध्देश्वर देवी, रसूलन बाई, काशी बाई, अनवरी बेगम, शांता देवी तथा इस समय गिरिजा देवी आदि का नाम समस्त भारत में बड़े गौरव एवं सम्मान के साथ लिया जाता है । इनके अतिरिक्त बड़े रामदास तथा श्रीचंद्र मिश्र, गायन कला में अपनी सानी नहीं रखते । तबला वादकों में कंठे महाराज, अनोखे लाल, गुदई महाराज, कृष्णा महाराज देश- विदेश में अपना नाम कर चुके हैं । शहनाई वादन एवं नृत्य में भी काशी में नंद लाल, उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ तथा सितारा देवी जैसी प्रतिभाएँ पैदा हुई हैं ।

गंगा नदी, वाराणसी
Ganga River, Varanasi

साहित्य

वाराणसी संस्कृत साहित्य का केंद्र तो रही ही है, लेकिन इसके साथ ही इस नगर ने हिन्दी तथा उर्दू में अनेक साहित्यकारों को भी जन्म दिया है, जिन्होंने साहित्य सेवा की तथा देश में गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त किया । इनमें भारतेंदु हरिश्चंद्र, अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध', जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, श्याम सुंदर दास, राय कृष्ण दास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रामचंद्र वर्मा, बेचन शर्मा "उग्र", विनोदशंकर व्यास, कृष्णदेव प्रसाद गौड़ तथा डॉ. संपूर्णानंद उल्लेखनीय हैं । इनके अतिरिक्त उर्दू साहित्य में भी यहाँ अनेक जाने- माने लेखक एवं शायर हुए हैं । जिनमें मुख्यतः श्री विश्वनाथ प्रसाद शाद, मौलवी महेश प्रसाद, महाराज चेतसिंह, शेखअली हाजी, आगा हश्र कश्मीरी, हुकुम चंद्र नैयर, प्रो. हफीज बनारसी, श्री हक़ बनारसी तथा नजीर बनारसी का नाम आता है।

वाराणसी में गंगा नदी के घाट
Ghats of Ganga River in Varanasi

उत्सवप्रियता

वाराणसी के निवासियों की उत्सवप्रियता का उल्लेख जातकों में सविस्तार मिलता है। महाजनपद युग में दीपावली का उल्लेख मुख्य त्यौहारों में हुआ है। एक जातक में उल्लेखित है कि काशी की दीपमालिका कार्तिक मास में मनायी जाती थी। इस अवसर पर स्थियाँ केशरिया रंग के वस्त्र पहनकर निकलती थीं।[146]

हस्तिमंगलोत्सव

हस्तिमंगलोत्सव भी वाराणसी का एक प्रमुख उत्सव था,[147] जिसका उल्लेख जातकों एवं बौद्ध साहित्य में मिलता है। इसके अतिरिक्त मंदिरोत्सव भी मनाया जाता था, जिसमें सुरापान किया जाता था।[148] एक जातक में उल्लेख आया है कि काशिराज ने एक बार इस अवसर पर तपस्वियों को खूब सुरापान कराया था।[149]

पर्यटन

वाराणसी, पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। यहाँ अनेक धार्मिक, ऐतिहासिक एवं सुंदर दर्शनीय स्थल है, जिन्हें देखने के लिए देश के ही नहीं, संसार भर से पर्यटक आते हैं और इस नगरी तथा यहाँ की संस्कृति की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं । कला, संस्कृति, साहित्य और राजनीति के विविध क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान बनाये रखने के कारण वाराणसी अन्य शहरों की अपेक्षा अपना विशिष्ट स्थान रखती है । देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी की जननी संस्कृत की उद्भव स्थली काशी सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है।

घाट

वाराणसी में 100 से अधिक घाट हैं। वाराणसी के कई घाट मराठा साम्राज्य के अधीनस्थ काल में बनवाये गए थे। वाराणसी के संरक्षकों में मराठा, शिंदे (सिंधिया), होल्कर, भोंसले और पेशवा परिवार रहे हैं। वाराणसी में अधिकतर घाट स्नान-घाट हैं, कुछ घाट अन्त्येष्टि घाट हैं। कुछ घाट जैसे मणिकर्णिका घाट किसी कथा आदि से जुड़े हुए हैं, जबकि कुछ घाट निजी स्वामित्व के भी हैं। पूर्व काशी नरेश का शिवाला घाट और काली घाट निजी संपदा हैं।

राजधाट-उत्खनन

राजघाट की प्राचीनता और उसका सतत इतिहास किसी पुरातात्विक उत्खनन से 1940 ई0 तक निश्चित नहीं था। इसकी प्राचीन स्थिति वर्तमान काशी स्टेशन के उत्तर-पूर्वी में गंगा और वरुणा के मध्य थी, जिसे राजघाट टीले के नाम से जाना जाता है। इसकी आकस्मिक खोज 1939 ई0 में वर्तमान काशी स्टेशन के विस्तार के समय रेलवे ठीकेदारों द्वारा खुदाई कराते समय हुई।[150] खुदाई में इन ठेकेदारों को बहुत-सी प्राचीन वस्तुएँ मिलीं जिनमें मिट्टी की मुहरें एवं मुद्रायें भी थीं। इन वस्तुओं को अब भारत कला भवन और इलाहाबाद म्यूनिसिपल म्यूजियम में रखा गया है। इन मुद्राओं में मुख्यत: यूनानी देवी-देवताओं की आकृतियाँ तथा कुछ यूनानी राजाओं के सिर का अंकन है। यहाँ से मिली वस्तुओं से आकृष्ट होकर श्री कृष्णदेव के नेतृत्व में भारतीय पुरातत्व विभाग के एक दल ने यहाँ उत्खनन प्रारंभ किया। इस दल ने ऊपरी जमाव से 20 फुट नीचे तक खुदाई की। उत्खनन में 12 खंभों से युक्त एक मंदिर तथा ईंटों की कुछ अन्य संरचनाएँ, उत्तरी काली चमकीले मृण्भांड के टुकड़े तथा कुछ अन्य वस्तुएँ मिलीं।[151] इसके अतिरिक्त उत्खनन में चौथे स्तर (दूसरी-तीसरी शताब्दी ई.) से अनेक यूनानी देवी-देवताओं की आकृतियों से युक्त मुद्राएँ भी मिली हैं। यहाँ बड़ी मात्रा में मुद्राओं के मिलने के कारण श्री कृष्णदेव इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ये मुद्राएँ वाराणसी व पश्चिमी देशों (यूनान एवं रोम) के बीच व्यापारिक संबंध की द्योतक हैं।[152] परंतु मोतीचंद्र वाराणसी और पश्चिम के देशों (यूनानी एवं रोम) के बीच व्यापारिक संबंध होने की बात को अस्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि उस समय पश्चिम देशों से व्यापार मुख्यत: जलमार्ग से ही होता था, जो कि अरब सागर व बंगाल की खाड़ी के बंदरगाहों तक ही सीमित था और वहाँ से भारतीय व्यापारियों द्वारा यह सामान देश के अन्य भागों में पहुँचाया जाता था, जबकि स्थलमार्ग से इन विदेशी व्यापारियों के मध्य देश तक पहुँचने के भी प्रमाण नहीं मिलते।[153] यदि इन व्यापारियों का व्यापारिक संबंध मध्य देश से मान भी लिया जाय तो इसका प्रमाण मध्यदेश के अन्य व्यापारिक नगरों (कौशांबी, सहजाति (आधुनिक भीटा) और श्रीवस्ती में क्यों नहीं मिलता? यह एक विचारणीय प्रश्न है। अत: यह तो निश्चित है कि ये मुद्रायँ व्यापारिक उद्देश्य से यहाँ नहीं आईं। संभव है कि ये मुद्राएँ हिंद-यवन शासक ड्रेमेट्रियस या मिलिंद (मिनांडर) के पाटलिपुत्र विजय अभियान के दौरान बनारस में पड़ाव के समय छूट गई हों। यह प्राचीन स्थल चारों ओर से सुरक्षित था। दक्षिण-पूर्व की ओर से गंगा, उत्तर और उत्तर-पूर्व में वरुणा नदी तथा पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम की ओर से यह एक परिखा द्वारा परिवेष्टित था। ग्रीब[154] और शेरिंग[155] ने भी प्राचीन वाराणसी की स्थिति नगर के उत्तर में वरुणा और गंगा के मिलन-बिंदु पर मानी है। अत: यह तो निश्चित है कि यह स्थल वाराणसी की प्राचीनतम बस्ती को निश्चित करता है। समर्थन के लिए उत्खनन में 1940 में यहीं से प्राप्त एक गुप्तकालीन मुहर पर उल्लेखित लेख ‘वाराणस्याधिष्ठानिधकरणस्य’ का भी उल्लेख समीचीन होगा। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम वैज्ञानिक उत्खनन काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रो. अवध किशोर नारायण ने 1957 में प्रारंभ किया। इस कार्य का पुन: आरंभ 1960-61 और बाद के वर्षों में भी चलता रहा।[156] उत्खनन से निम्नलिखित चरण प्रकाश में आए हैं।

उत्खनन के विभिन्न चरण

प्रथम काल

राजघाट की खुदाई से प्राप्त अवशेषों से यह सिद्ध होता है कि मानव ने सर्वप्रथम 8वीं शती ई.पू. के आसपास इस दलदल वाले क्षेत्र को साफ करके निवास प्रारंभ किया। उस समय यहाँ के निवासियों का मुख्य पेशा कृषि था। यहाँ के निवासी मिट्टी के मकानों एवं फूस की झोपड़ियों में रहते थे। सीमित उत्खनन के कारण इस काल के आवासीय भवनों के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं मिल सकी, परंतु ऐसा आभास होता है कि इस काल में यह क्षेत्र नगरीकरण की प्रक्रिया से बिल्कुल अनभिज्ञा रहा होगा। इस काल के तीन चरण दृष्टिगत होते हैं-

प्रथम चरण के निचले स्तरों की सीमित खुदाई से आवासीय भवनों एव स्मारकों के अवशेष नहीं मिले हैं। यहाँ से प्राप्त वस्तुओं में लोहे के उपकरण, अस्थिनिर्मित औजार, बड़ी संख्या में मृण्मूर्तियाँ, मिट्टी की तश्तरियाँ तथा आभूषण आदि मिले हैं। द्वितीय चरण से सरकण्डे (नरकुल) के टुकड़े तथा कमरों के फर्शों के उत्खनित अंश प्रकाश में आए हैं। इस चरण से एक प्रकार के अवशेष भी मिले है।[157] जिसे बाद के उत्खननों में तटबंध से समीकृत किया गया है। संभवत: गंगा की बाढ़ से नगर की रक्षा के लिए उक्त तटबंध का निर्माण किया गया था।[158]नगरीकरण के प्रारंभ में तटबंध के निर्माण का यह प्रथम प्रयास था। इस चरण से किसी प्रकार की संरचना के अवशेष नहीं मिले है। फिर भी फर्श के उत्खनित अंश के मिलने से इस काल में भवनों के होने की पुष्टि होती है। इसके अतिरिक्त लाला एवं भूरे रंग की मृण्मूर्तियाँ भी मिली हैं जिनमें हाथी और साँड़ की आकृतियाँ मुख्य है। इस चरण की समाप्ति तीसरी-चौथी शती ई.पू. के लगभग हुई। तृतीय चरण में कच्ची मिट्टी की दीवाल तथा कच्चे फर्श के अवशेष मिले हैं।[159] इसके अतिरिक्त कुछ मृण्मूर्तियाँ, ताँबे के सिक्के तथा मृतिका वलय कूप भी मिले हैं।

द्वितीय काल

द्वितीय काल का प्रारंभ तीसरी शती ई. पू. से प्रारंभ होता है। यह युग वाराणसी के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। नगरीय सभ्यता के इतिहास में विकास का यह प्रथम काल था। इस काल में कृष्ण-लेपित परंपरा, कृष्ण लोहित पात्र एवं उत्तरी काले चमकीले मृण्भाण्डों का प्रयोग बहुतायत में मिलता है,[160] जो इस काल के आर्थिक और तकनीकी विकास के स्पष्ट प्रमाण है। इस काल की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि भवनों के निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग था। यदा-कदा मकानों में कच्ची ईंटों का प्रयोग भी मिलता है। भवनों में पकी ईंटों के प्रयोग से जहाँ एक ओर इनकी तकनीकी प्रगति की जानकारी मिलती है, वहीं दूसरी ओर जनता की सुख-समृद्धि का भी ज्ञान होता है। भवनों की नींव में कंकड़ पत्थर एवं ईंटों के टुकड़ों को डाला जाता था। उत्खनन से एक स्थान पर कंकड़-पत्थर से युक्त कंकरीट की नींव भी मिली है।[161]

भवनों की छत के निर्माण में खपरैल (रुफटाइल्स) का प्रयोग मिलता है। इनको लोहे के कीलों से बाँधा जाता था। दीवालों में स्तंभ-गर्त (पोस्ट-होल्स) के अवशेष भी मिले हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि छत को टिकाने के लिए लकड़ी या बाँस के खंभों का प्रयोग किया जाता था।[162] मकान एक सीध में बनाए जाते थे और दो मकानों के मध्य कुछ स्थान छोड़ दिया जाता था। स्पष्टत: शुद्ध वायु और नगर की स्वच्छता के लिए ही ऐसा किया जाता था। इन मकानों के मध्य गोलाकार कुएँ भी मिलें हैं। कभी-कभी ये कुएँ मकानों के अंदर भी स्थित होते थे। पूर्ण खुदाई के अभाव में कुछ निश्चित कहना कठिन है लेकिन कमरे के अंदर ऐसे कुओं के मिलने से ऐसा प्रतीत होता है कि इनका उपयोग शौच आदि के लिए किया जाता रहा होगा।[163] उत्खनन से पता चलता है कि प्रावस्था 1 में कमरों का औसत आकार 2.56 मीX2.26 तथा प्रावस्था 2 में 1.90 मीX2.92 मी. था। प्रत्येक परिवार के रहने के लिए दो कमरे थे। इन कमरों में दो दरवाजे, एक दालान (प्रकोष्ठ), एक कुआँ, स्नानार्थ चबूतरा तथा नाली सम्मिलित थी। यहाँ से सोख्ता घड़े और मृतिकावलय कूप के भी अवशेष मिले हैं। इसके अतिरिक्त पकी ईंटों से निर्मित एक नाली के अवशेष भी मिले हैं। यह नाली उत्तर से दक्षिण 2.75 मीटर लंबाई में विस्तृत थी, जो बड़े आकार की ईंटों से आवृत थी। सफाई की सुविधा के लिए नाली में लंबवत् ईंटों का प्रयोग मिलता है। इस काल में कच्ची ईंटों का प्रयोग भी मिलता है। उत्खनन से चार रद्दों वाले एक भवन का भी पता चला है। इस भवन में प्रयुक्त ईंटों 39X30X7 सें.मी. आकार की है। पकी ईंटों की माप दो वर्गों में दृष्टिगत होती है। एक वर्ग में प्रयुक्त ईंटों 50X31X5 सें.मी. आकार की है। तथा दूसरे वर्ग में 48X28X5 सें.मी. आकार की है। इस काल का अंत ईसवी सन् के प्रारंभ में हुआ होगा।

तृतीय काल

इस काल का प्रारंभ ईसवी शती से लेकर तीसरी शताब्दी ई. के मध्य माना जाता है। आवासीय संरचना की दृष्टि से यह काल सर्वाधिक समृद्ध था। इस काल के सभी भवन पकी ईंटों से निर्मित हैं। इनमें प्रयुक्त ईंटें मुख्यत: दो आकार की हैं- इस प्रकार की ईंटें जिनकी माप 40 से.मी. X 25 से.मी. X5से.मी. है तथा दूसरे प्रकार की ईंटें 39 से.मी. X29से.मी. X5 से.मी. माप की है।[164] इस काल की उत्खनित संरचना को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उत्खननकर्ताओं ने तीन संरचनात्मक प्रावस्थाओं में विभक्त किया है।

संरचनात्मक प्रावस्था 1 में ऐसे भवनों की नींव मिलती है जिनमें कमरे का आकार 4 मी. X 4.21 मी. लंबा है और एक-दूसरे को पूर्व के छोर पर काटते हैं। इसकी नींव की मोटाई 20 सें. मी. चौड़ी थी। इसके साथ दो मुड़ी हुई दीवालें भी थीं। इस संरचना से बड़े आकार के कमरे का पता चलता है, जिसका एक पार्श्व 6.06 मीटर लंबा था। यहीं से ईंटों के प्लेटफार्मयुक्त एक कुआँ भी मिला था। फर्श के कोने में वृत्ताकार धँसा हुआ एक स्थान था। संभवत: यहाँ सोख्ता घड़े (सोकेज जार्स) या कोई उपकरण रखा गया होगा।[165]

संरचनात्मक प्रावस्था 3 में कंकरीट की एक 24 सेंटीमीटर मोटी फर्श और कुछ दीवालों के अवशेष मिलें हैं इसमें एक दीवाल 2.27 मीटर थी, जिसमें प्रयुक्त ईटों की 11 परतें हैं। इसके अतिरुक्त कई अन्य दीवालों के अवशेषों का भी पता चला है, लेकिन भग्नावस्था में होने के कारण इनसे किसी निश्चित योजना की जानकारी नहीं हो पाती। भवनों की निर्माण योजना से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि उनकी रचना दिशाओं को ध्यान में रखकर की जाती थी।[166]

इस काल के उत्खनित सभी मृदभांड लाल रंग के हैं। रोचक है कि द्वितीय काल में इस प्रकार के मृदभांडों का प्रयोग अपेक्षाकृत कम मिलता है, जबकि इस काल में इनका प्रयोग आकार और पकाने की नई प्रक्रिया के रूप में दृष्टिगत होता है। अन्य महत्त्वपूर्ण वस्तुओं में सिक्कों एवं मुहरों का प्रयोग मुख्य है। यहाँ से 400 मुहरें एवं राजमुद्रांक (सीलिंग्स) परिष्कृत एवं अपरिष्कृत रूप में मिली हैं। उल्लेख्य है कि इसी प्रकार के राज्यमुद्रांक (सीलिंग्स) अगियाबीर से भी मिली हैं जिनका विवरण अध्याय 9 में दिया गया है। पुरालिपि संबंधी चिन्हों से ये मुहरें पहली शताब्दी और तीसरी शताब्दी के मध्य की प्रतीत होती हैं। इस काल में पहली बार डाईस्ट्रक सिक्कों का प्रयोग मिलता है। यहाँ से कौशांबी और अयोध्या के दो सिक्के भी मिले हैं, जिन पर लेख क्रमश: ‘नवस्’ और ‘शिवदत्तस’ अंकित हैं। इस काल से बड़ी संख्या में मुहरों एवं राजमुद्रांकों का मिलना तथा समर्थनस्वरूप सिक्कों का प्राप्त होना, इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण् है कि इस काल में व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई।[167]

चतुर्थ काल

यह काल 300 से 700 ई. के बीच विकसित था। इस काल के निर्मित भवन पूर्व-युग के भवनों से भिन्न थे। इस काल के सभी अवशेष गुप्तयुगीन हैं। इस काल के मकान सभी सुविधाओं से युक्त थे। इन मकानों में स्नानगृह, पाकशाला एवं भंडारकक्ष इत्यादि मिलते हैं। इस काल की प्राप्त वस्तुओं में दो कुंड, बर्तन रखने के मर्तबान, एक कंकरीट की जाली मुख्य हैं कमरों में प्रयुक्त इटें 41.5 से.मी. X 26.5 से.मी. X 5 से.मी. आकार की हैं।

उपर्युक्त तथ्यों के विवेचन से यह स्पष्ट है कि विभिन्न युगों में भवन-निर्माण की प्रक्रिया में पर्याप्त अंतर मिलता है। निर्माण की प्रथम प्रक्रिया के पश्चात् उत्तरोत्तर परिवर्द्धन का क्रम परिलक्षित होता है। सर्वप्रथम 8वीं शती ईसवी पूर्व में मानव मुख्यत: कच्ची मिट्टी के मकानों एवं झोपड़ियों में निवास करता था। परंतु नगरीकरण की प्रक्रिया के प्रांरभ के फलस्वरूप दूसरी-तीसरी सदी ई.पू. में भवनों के निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग होने लगा। इस काल में कच्ची ईंटों का प्रयोग भी मिलता है। लोगों को लोहे का ज्ञान हो चुका था, इसलिए भवनों में लोहे की कीलों का उपयोग आवश्यकतानुसार होने लगा।[168] ईसवी सन् के प्रारंभ से तीसरी शताब्दी तक इन भवनों में पकी ईंटों का प्रयोग बहुलता से मिलता है। इस काल के कमरे पूर्ववर्ती कमरों से बड़ें होते थे। भवनों की नींव कंकरीट एवं ईंटों के टुकड़ों से भरी जाती थी। तीसरी शताब्दी से सातवीं शताब्दी के भवनों में भी पकी ईंटों का प्रयोग मिलता है।

विभूतियाँ

वाराणसी में प्राचीन काल से समय-समय पर अनेक महान विभूतियों का प्रादुर्भाव या वास होता रहा हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

महर्षि अगस्त्य
  • ब्रह्मतेज के मूर्तिमान स्वरूप महामुनि अगस्त्य जी का पावन चरित्र अत्यन्त उदात्त तथा दिव्य है। वेदों में इनका वर्णन आया है।
  • ॠग्वेद का कथन है कि मित्र तथा वरुण नामक वेदताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुंजीभूत हुआ और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्य तेज:सम्पन्न महर्षि अगस्त्य का प्रादुर्भाव हुआ। [1]
धन्वन्तरि
  • देवता एवं दैत्यों के सम्मिलित प्रयास के श्रान्त हो जाने पर क्षीरोदधि का मन्थन स्वयं क्षीर-सागरशायी कर रहे थे। हलाहल, गौ, ऐरावत, उच्चै:श्रवा अश्व, अप्सराएँ, कौस्तुभमणि, वारूणी, महाशंख, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, लक्ष्मी जी और कदली वृक्ष उससे प्रकट हो चुके थे। अन्त में हाथ में अमृतपूर्ण स्वर्ण कलश लिये श्याम वर्ण, चतुर्भुज भगवान धन्वन्तरि प्रकट हुए।
  • अमृत-वितरण के पश्चात देवराज इन्द्र की प्रार्थना पर भगवान धन्वन्तरि ने देव-वैद्य का पद स्वीकार कर लिया।
गौतम बुद्ध
  • गौतम बुद्ध का नाम सिद्धार्थ था। सिंहली, अनुश्रुति, खारवेल के अभिलेख, अशोक के सिंहासनारोहण की तिथि, कैण्टन के अभिलेख आदि के आधार पर महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि 563 ई.पूर्व स्वीकार की गयी है।
  • इनका जन्म शाक्यवंश के राजा शुद्धोदन की रानी महामाया के गर्भ से लुम्बिनी में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था।
संत कबीर
  • महात्मा कबीरदास के जन्म के समय में भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक दशा शोचनीय थी।
  • एक तरफ मुसलमान शासकों की धर्मांन्धता से जनता परेशान थी और दूसरी तरफ हिन्दू धर्म के कर्मकांड, विधान और पाखंड से धर्म का ह्रास हो रहा था। जनता में भक्ति- भावनाओं का सर्वथा अभाव था।
  • पंडितों के पाखंडपूर्ण वचन समाज में फैले थे। ऐसे संघर्ष के समय में, कबीरदास का प्रार्दुभाव हुआ।
रानी लक्ष्मीबाई
  • बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने रक्त से देशप्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहाँ की ललनाएं भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम है-झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई।
  • उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की महिलाओं को गौरवान्वित किया।
पतञ्जलि

पतञ्जलि योगसूत्र के रचनाकार है जो हिन्दुओं के छः दर्शनों ( न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त) में से एक है। भारतीय साहित्य में पतञ्जलि के लिखे हुए 3 मुख्य ग्रन्थ मिलते हैः

  • योगसूत्र,
  • अष्टाध्यायी पर भाष्य, और
  • आयुर्वेद पर ग्रन्थ।
संत रैदास
  • मध्ययुगीन संतों में प्रसिद्ध रैदास के जन्म के संबंध में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
  • कुछ विद्वान काशी में जन्मे रैदास का समय 1482-1527 ई. के बीच मानते हैं।
स्वामी रामानन्दाचार्य
शंकराचार्य
  • ईसा की सातवी शताब्दी में शंकर के रूप में स्वयं भगवान शिव का अवतार हुआ था।
  • आदि शंकराचार्य जिन्हें 'शंकर भगवद्पादाचार्य' के नाम से भी जाना जाता है, वेदांत के अद्वैत मत के प्रणेता थे।
गोस्वामी तुलसीदास
  • तुलसीदासजी को महर्षि वाल्मीकि का भी अवतार माना जाता है जो मूल आदिकाव्य रामायण के रचयिता थे।
  • श्रीराम जी को समर्पित ग्रन्थ श्री रामचरितमानस वाल्मीकि रामायण का प्रकारांतर से अवधी भाषांतर था जिसे समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है।
महर्षि वेदव्यास
वल्लभाचार्य
  • भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधारस्तंभ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता श्री वल्लभाचार्य जी का प्रादुर्भाव ई. सन 1479, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मणभट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से काशी के समीप हुआ।
  • उन्हें 'वैश्वानरावतार अग्नि का अवतार' कहा गया है।


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वीथिका

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. डायना एल इक, बनारस सिटी ऑफ़ लाइट (न्यूयार्क, 1982), प्रथम संस्करण, पृष्ठ 4
  2. एम. ए. शेरिंग, दि सेक्रेड सिटीज ऑफ़ दि हिंदूज, (लंदन, 1968) पृष्ठ 19-34
  3. जे. मरडाक, काशी और बनारस (1894) पृष्ठ 5
  4. ई. ग्रीब्ज, काशी, इलाहाबाद, 1909, पृष्ठ 3-4
  5. ए. पारकर, ए हैंडबुक ऑफ़ बनारस, पृष्ठ 2
  6. ई.वी. हैवेल, बनारस दि सेक्रेड सिटी पृष्ठ 41-50
  7. रामलोचन सिंह, बनारस, एक सिटी इन अर्बन ज्योग्राफी, पृष्ठ 31
  8. वाराणसीति यत् ख्यातं तम्मानं निगदामिव। दक्षिणातरयौ नयौ परणासिश्चपूर्णत:॥- पद्मपुराण, काशी माहात्म्य 5/58
  9. अथर्ववेद, 4/7/1
  10. ऐंश्येंट ज्योग्राफी ऑफ़ इंडिया, (वाराणसी, 1963), पृष्ठ 367
  11. एम. जूलियन, लाइफ एंड पिलग्रिमेज ऑफ़ युवॉन्-च्वाङ्ग, 1/133,2/354
  12. महाभारत, 6/10/30
  13. शेरिंग, दि सेक्रेड सिटी ऑफ़ बनारस, (लंदन, 1968), पृष्ठ 19
  14. मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, (बंबई, प्रथम संस्करण, 1962 ई.) पृष्ठ 4
  15. यस्य आयाम:। 2/1/16, अष्टाध्यायी पाणिनि
  16. ‘‘अनुगंगं वाराणसी अनुशोणं पाटलिपुत्रं’’ कीलहार्न, 1/380
  17. जेम्स लेग्गे, ट्रेवेल्स ऑफ़ फाह्यान, (दिल्ली, 1972, द्वितीय संस्करण), पृष्ठ 94
  18. ‘‘काशस्य काशयो राजन् पुत्रोदीर्घतपस्तथा।’’ – हरिवंशपुराण, अध्याय 29
  19. ‘‘काशते त्रयतो ज्योतिस्तदनख्येमपोश्वर:। अतोनापरं चास्तुकाशीति प्रथितांविभो।’ ॥68॥ काशी खंड, अध्याय 26
  20. शतपथ ब्राह्मण, 1/4/1/10-17: मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 19
  21. ई.बी.हैवेल, बनारस, दि सेक्रेड सिटी, (कलकत्ता पुनर्मुदित, 1968 ई.),पृष्ठ 2
  22. शतपथ ब्राह्मण, 5/12/14
  23. शतानीक: समत्तासु, मेध्यं सात्राजितो हयम्। आयत यज्ञं काशीनां, भरत: सत्वतामिव॥ - शतपथ ब्राह्मण, 13/5/4/21
  24. सात्राजित ईजे काश्यस्याश्वमादाय ततो हैतदर्वाक् काशयोऽग्नीन्नादधात्। आत्सोमपोथा: स्म इति वदंत:। देखें, शतपथ ब्राह्मण, 13/5/4/19
  25. काशी का इतिहास, पृष्ठ 20
  26. कौषीतकी उपनिषद, 4/1
  27. वृहदारण्यक उपनिषद, 3/8/2: मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 21
  28. उल्लेखनीय है कि यह अजातशत्रु सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक मगध नरेश नहीं था।
  29. शांखायन श्रोतसूत्र 16/9/5
  30. बौधायन श्रोतसूत्र 21/13
  31. गोपथ ब्राह्मण (पूर्व भाग), 1, 29
  32. अष्टाध्यायी, 4/8/45: कीलहार्न, 2/280
  33. अथर्ववेद, 4/7/71
  34. महाभारत, 6/10/30
  35. तत्रेव, आदिपर्व, अध्याय 95
  36. तत्रेव, उद्योगपर्व, 72/74
  37. तत्रैव, 12/99/1-2
  38. अविमुक्तं समासाद्य, तीर्थसेवी कुरुदह। दर्शानात् देवदेवस्यमुच्यते अह्महत्यया।
    ततो वाराणसी गत्वा देवकर्यय वृषध्वजम्। कपिला-हृदमुपस्पृश्य, राजसूय फलं लाभेत्॥
  39. महाभारत, द्रोणपर्व, 22/38
  40. तत्रैव, भीष्मपर्व, अध्याय 50
  41. तत्रैव, उद्योगपर्व, 47/40
  42. विष्णुपुराण, 5/34: देखें, मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 25
  43. वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड 56/25
  44. तत्रैव, 59/19
  45. महीकाल मही चापि शैल कानन शोभिताम्। ब्रह्ममालांविदेहाश्च मालवान काशि कोशलान्॥ बाल्मीकिरामायण, किष्किंधाकांड, 20,22
  46. तत्रैव, बालकांड, 2/13/23
  47. तत्रैव, 2/10/37-38
  48. तत्रैव, किष्किंधाकांड, 40/22
  49. वद् भवान च काशेय। पुरी वाराणसी व्रज रमणीया त्वया गुप्त, सुप्रकारां सुतोरणाम्॥
    राधवेण कृतानुज्ञ: काशेयो हयकुतोभय:। वाराणसी यर्या तूर्ण राधवेण विसर्जित:॥ वाल्मीकि रामायण, 7/38/17, 29
  50. ‘‘यत्र नारायणो देवो महादेवी दिवीश्वर:।’’ वायुपुराण, अध्याय 34, पंक्ति 100
  51. ‘‘अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका। पुरी द्वारावती चैव सपैते मोक्षदायिका:।’’ पद्मपुराण, अध्याय 33, पंक्ति 102
  52. ‘‘सौराष्ट्रे सोमनाथ च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
    उज्जयिन्याँ महाकालमोकारे परमेश्वरम्॥
    केदार हिमवत्पृष्ठे डाकिन्या भीमशंकरम्।
    वाराणस्या च विश्वेशं त्रम्व्यकं गौतमीतटे॥
    वैद्यनाथ चिताभूमौ नागेशं दारुकावने।
    सेतुबंधे च रामेशं घुश्मेशं तु शिवालये॥
    द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थान य: पठेत्।
    सर्वपापैविनिर्युक्त: सर्वसिद्धिफलं लभेत्। शिवपुराण, कोटि रुद्रसंहिता, संख्या 1/21-24
  53. मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 5
  54. ‘‘मद्भक्तास्तत्र गच्छन्ति मामेब प्रविशन्ति च’’ पद्मपुराण, अध्याय 33, पंक्ति 102
  55. वाटर्स, भाग 2, पृष्ठ 47
  56. यदि पापी यदि शठो यदि वाधार्मिणो नर:। वाराणसीं समासाद्य पुनाति सकलं भुवम्॥ - अध्याय 33, पृष्ठ 38
  57. कूर्मपुराण, अध्याय 31, पृष्ठ 321
  58. कुत्वा पापसहस्त्राणि पिशाचत्वं वरं नृणाम्। जैगीषव्य: परां सिद्धिं गतो यत्र महातपा:॥ लिंगपुराण, अध्याय 92, पृष्ठ 53
  59. ‘‘वाराणस्यां विशेषेण गंगाविपथगामिनी’’ पद्मपुराण, अध्याय 33, पंक्ति 69
  60. द्वियोजन तु पर्व स्याद्योजनार्द्ध तदन्यथा। वरुणा च नदी चासी मध्ये वाराणसी तयो॥ अग्निपुराण, अध्याय 11, पृष्ठ 6
  61. मत्स्यपुराणद्वियोजनम् तु तत्क्षेत्रं पूर्वपश्चिमत: स्मृतम:।
    अर्द्धयोजन विस्तीर्ण तत्क्षेत्रं दक्षिणोत्तरम्॥
    वाराणसी तदीया च यावतछुल्कनदीतु वै॥
    भीष्मचण्डीकमारभ्य पर्वतेश्वर मत्रिके॥ मत्स्यपुराण, 183/61-62
  62. संभवत: वाराणसी नदी आधुनिक वरणा है। शुक्ल नदी गंगा है और भीष्मचंडी आधुनिक भीमचंडी है जो पंचक्रोशी के रास्ते पर पड़ता है। पर्वतेश्वर की निश्चित जानकारी नहीं हो पाई है लेकिन यह संभवत: राजघाट के आसपास कहीं रहा होगा।
  63. कृत्यकल्पतरु, पृष्ठ 39
  64. दक्षिणोत्त रर्योन धौ वरणासिश्च पूर्वत:। जाह्नवी पश्चिमे चापि पाशपाणिर्गणेश्वर:॥ पद्मपुराण उद्धृत, त्रिस्थली सेतु, पृष्ठ 100
  65. एफ. ई. पार्जिटर, ऐंश्येंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन, पृष्ठ 155
  66. मत्स्यपुराण 180/68
  67. दप्तं जप्तं हुतं चेष्टं तपस्तप्तं कृतं च यत्। ध्यानमध्ययनं ज्ञासं सर्वत्राक्षयं भवेत्॥ पद्मपुराण, अध्याय 26, पृष्ठ 16
  68. ‘दशाश्वमेघावभृथस्नातकानां भी गीरथ्याममलजभूर्द्धाभिषिक्तानां भारशिवानाम्। (संभवत: दश अश्वमेध यज्ञ होने के कारण यहाँ के एक घाट दशाश्वमेध का नाम पड़ा।) एपिग्राफिया इंडिका 8, 269
  69. कल्पसूत्र, 6/149-169: मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 38
  70. कल्पसूत्र, 6/149
  71. अंगुत्तरनिकाय, जिल्द 1, पृष्ठ 290
  72. वाराणसी प्रविश्याथ भासा संभासयन्जिन:। चकार काशिदेशीयान् कौतुकाक्रांतचेतस:। बुद्धचरित, 15/101
  73. हरमन जैकोबी, सेक्रेड बुक ऑफ़ दि ईस्ट, जिल्द 49, भाग 1, पृष्ठ 169
  74. उत्तराध्ययन, 16/16
  75. जगदीशचंद्र जैन, लाइफ इन ऐंश्येंट इंडिया, पृष्ठ 220-221
  76. भगवती सूत्र, पृष्ठ 15
  77. स्थानांगसूत्र 10, 717 निशीरथ सूत्र 9, 19
  78. हरमन जैकोबी, सेक्रेड बुक ऑफ़ दि ईस्ट, जिल्द 22, पृष्ठ 266 और 271
  79. सुमंगलविलासिनी, जिल्द 2, पृष्ठ 383
  80. ‘‘भूतपुब्बं भिक्खवे ब्रह्मदत्ते नाम काशिराजा अहोसि अड्ढो महद्धनो महब्बलो, महाबाहनो, महाविजितो, परिपुण्णकोसकोट्ठामारो।’’
    महाबग्गो (विनयपिटक), दुतियो भागो, पृष्ठ 262
  81. महावस्तु, भाग 3, पृष्ठ 402
  82. दिव्यावदान, पृष्ठ 73 : देखें, विमलचरण लाहा, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल
  83. दीघनिकाय, भाग। (सलक्खंधसुत्त), पृष्ठ 84 (हिंदी)
  84. जातक, जिल्द पाँचवीं पृष्ठ 64, 476, 536
  85. मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग दो, पृष्ठ 626
  86. पपंचसूदनी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ 188
  87. तत्रैव, पृष्ठ 65: देखें, ललितविस्तर, पृष्ठ 19
  88. ए.एस. अल्तेकर, एजूकेशन इन ऐंश्येंट इंडिया, (1934), पृष्ठ 257
  89. खुद्दकपाठ, अट्ठकथा, पृष्ठ 198
  90. धम्मपद अट्ठकथा, 3/445
  91. दीघनिकाय, भाग दो, पृष्ठ 146
  92. जातक, (भदंत आनंद कौसल्यायन संस्करण), जिल्द पाँचवीं, पृष्ठ 177 (सुतसोम जातक )
  93. 111- तत्रैव, जिल्द चौथी, पृष्ठ 104 (उदय जातक)
  94. 112- तत्रैव, जिल्द चौथी, पृष्ठ 119 (सोणदंड जातक)
  95. तत्रैव, जिल्द चौथी, पृष्ठ 119 (युवंजय जातक)
  96. तत्रैव, जिल्द चौथी, पृष्ठ 15 (शंख जातक)
  97. द्वादशयोजनिकं सकल वाराणसी नगरं। तत्रैव, खंड 5, पृष्ठ 209
  98. जातक, भाग 1, (तंडुनालि जातक), पृष्ठ 208 (यह विवरण अतिशयोक्तिपूर्ण लगता है। जातक, खंड 3, पृष्ठ 454 (भदंत आनंद कौसल्यायन संस्करण)
  99. कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 14
  100. ए. एव. अल्तेकर, हिस्ट्री ऑफ़ बनारस (बनारस, 19337), पृष्ठ 12
  101. जातक, भाग 1, संख्या 5, पृष्ठ 162
  102. जातक, भाग 4, संख्या 458, पृष्ठ 308: उल्लेखनीय है कि राजघाट के उत्खनन से प्राचीरों, प्राकारों, एवं परिखाओं के अवशेषों का पता चला है, जो साहित्य की सूचना के स्पष्ट प्रमाण हैं।
  103. जेम्स लेग्गे, दि ट्रेवेल्स ऑफ़ फाह्यान् (ओरियंटल पब्लिशर्स, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1972 ई.) पृष्ठ 94-96
  104. थामस वार्ट्स, आन युवॉन च्वांग्स ट्रेवेल्स इन इंडिया, (लंदन, रायल एशियाटिक सोसायटी, 1905 ई.), भाग 2, पृष्ठ 46
  105. ए. कनिंघम, दि ऐंश्येंट् ज्योग्राफी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1963), पृष्ठ 367
  106. यात्रा विवरण के मूल को इकट्ठा करने वाले फाङ्चि का कहना है कि इस देव मंदिर में 100 फीट ऊंचे शिवलिंग की पूजा की जाती थी।
  107. उल्लेखनीय है इस स्तंभ पर संघ में भेद पैदा करने वालों के विरुद्ध राजाज्ञा का उल्लेख था।
  108. यह प्राचीन काल में ‘मृगदाव-विहार’ के नाम से जाता था। उत्खननों से आधुनिक सारनाथ से इसकी समता में अब कोई संदेह नहीं रह जाता।
  109. संभवत: यह आवृत्ति-स्थल अष्टकोणीय था। जैसा कि धमेक स्तूप था। देखें- आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 111
  110. थामस वाटर्स, आन, युवान-च्वांग्स ट्रेवेल्स इन इंडिया, भाग दो, पृष्ठ 48 उल्लेखनीय है उत्खनन से भी विहार एवं धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा में मूर्ति मिली है। देखें, आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 107 और आगे।
  111. सेमुअल बील, चाइनीज एकाउंट्स ऑफ़ इंडिया, भाग 3, पृष्ठ 297 थामस वाटर्स, आन् युवॉन्-च्वांग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 2, पृष्ठ 50
  112. थामस वाटर्स, आन् युवॉन्-च्वांग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 2, पृष्ठ 53
  113. सेमुअल बील, चाइनीज एकाउंट्स ऑफ़ इंडिया, भाग 2 पृष्ठ 297
  114. मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 2
  115. वाराणस्यां नदी पु सिद्धगन्धर्वसेविता। प्रविष्टा त्रिपथा गंगा तस्मिन् क्षेत्रे मम प्रिये।।
  116. वरणा च नदी यावद्यावच्छुष्कनदी तथा। भीष्मयंडीकमारम्भ पर्वतेश्वरमन्ति के।।
  117. विनयपिटक, जिल्द 1, पृष्ठ 262
  118. मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 49
  119. सुत्तनिपात, अध्याय 2, पृष्ठ 523
  120. कैंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 213
  121. महावस्तु, 3, 286
  122. जातक, खंड 3, पृष्ठ 384
  123. जातक, खंड 4, पृष्ठ 2, काशी का इतिहास, पृष्ठ 49
  124. महावग्ग, 10/2/3
  125. दीघनिकाय, भाग 3, 60। 1-10 (नालंदा)
  126. जातक, भाग 2, संख्या 156, पृष्ठ 183 (भदंत आनंद कौसल्यायन संस्करण)
  127. ‘‘एक भूमिद्विभूमिकादि भेदे गेहे सज्जेत्वा’’ मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 48
  128. 129- जातक, भाग 3 संख्या 221, पृष्ठ 395
  129. ‘‘कासिकवत्थं निवासेन्ति, काशिकाविलेपन’’ जातक, भाग 1, संख्या 20, पृष्ठ505
  130. अन्न पानं काशिकं चंदनन्च। मनापिट्ठियो मालमुच्छादनन्च॥ जातक, भाग 5, संख्या 518, पृष्ठ 166
  131. जातक, भाग 2, पृष्ठ 287 जातक, भाग 1, (तंडनालि जातक, पृष्ठ 208)
  132. संयुक्तनिकाय (हिंदी अनुवाद), दूसरा भाग, पृष्ठ 641
  133. ‘‘वाराणसियं किर कप्पासो पि मृदु, सुत्तकत्तिकायो पि तत्तवायो पि छेका। उदकंपि सुचिसिनिद्धं, तस्मां वत्थं उभतो भावविमट्ठं होति। द्वीस पस्सेसु मट्ठं मृदुसिनिद्धं खार्याते।’’ मज्झिमनिकाय, 2/3/7: देखें, भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 368
  134. ‘‘...कासिकुत्तमधारिनि.... कस्सोहाय गच्छसि’’ -थेरीगाथा, पृष्ठ 298
  135. 107- मिलिंदपन्हो, पृष्ठ 222
  136. 108- अंगुत्तरनिकाय, जिल्द तीसरी, पृष्ठ 391
  137. मिलिंदपन्हों, पृष्ठ 243-48
  138. जातक, भाग 3 सं. 243, पृष्ठ 356 जातक, भाग 5 संख्या 256, पृष्ठ 61
  139. मोतीचंद्र सार्थवाह, पृष्ठ 12
  140. जातक, भाग 3, पृष्ठ 348
  141. जातक, खंड 6 सं. 539 (महाजनक जातक)
  142. तत्रैव, खंड 6, संख्या 547 (महावेसत्त जातक)
  143. तत्रैव भाग 3 पृष्ठ 286 मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 47
  144. जातक संख्या 457 देखें, उदयनारायण राय, प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन, पृष्ठ 126
  145. यं किंविरतनं अत्थि कासिराज निवेसने।
    रजतं जातरूपन्चं मुक्ता बेलुरिया बहु।
    मणयो संखमुत्तन्य वत्थकं हरिचंदनं।
    अजिनं दत्त भंडन्य लोहं, कालायनं बहु॥ जातक, भाग 5 (सं. 534) पृष्ठ 462
  146. जातक, भाग 2, पृष्ठ 145 (संख्या 147) मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 45
  147. जातक, भाग 2, संख्या 163, पृष्ठ 215
  148. जातक, भाग 2, संख्या 163, पृष्ठ 132
  149. 139- जातक, भाग 1, पृष्ठ 208
  150. विद्या प्रकाश एवं टी.एन. राय, बुलेटिन ऑफ़ द यू.पी. हिस्टारिकल सोसाइटी, संख्या 4 (साइट्स एंड मानुमेंट्स ऑफ़ यू.पी.) लखनऊ, 1965 पृष्ठ 33
  151. कृष्णदेव, एनुअल बिबलियोग्राफी ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री एंड इंडोलाजी (1947), पृष्ठ 49-51
  152. कृष्णदेव, क्वायंस डिवाइसेस फ्राम राजघाट सील्स, जर्नल ऑफ़ दि न्यूमिसमैटिक्स सोसायटी ऑफ़ इंडिया 3, (दिसंबर 1941), पृष्ठ 77
  153. मोतीचंद्र काशी का इतिहास, पृष्ठ 56
  154. ई. ग्रीब्ज, काशी, पृष्ठ 3-4
  155. एम.ए. शेरिंग, दि सेक्रेड सिटी ऑफ़ हिंदूज, पृष्ठ 291
  156. इंडियन आर्कियोलाजी, ए रिव्यू, 1957-58, पृष्ठ 64
  157. ई. ग्रीब्ज, काशी, पृष्ठ 3-4
  158. ए.के. नारायण एवं पुरुषोत्तम सिंह, एक्सकेवेशंस एट राजघाट, खंड 3, पृष्ठ 6। वीरेन्द्र प्रताप सिंह ने उपर्युक्त मत का खंडन करते हुए यह प्रमाणित किया है कि यह प्राकार ही रहे होंगे। अपने मत के समर्थन में उन्होंने उन खातों का उल्लेख किया है जहाँ प्राकार के अवशेष मिले हैं, जिसका उल्लेख उत्खननकर्ताओं ने भूलवशं नहीं किया है। देखें, वीरेन्द्र प्रताप सिंह, सम आसपेक्ट्स ऑफ़ लाइफ इन ऐंश्येंट वाराणसी एज रिविल्ड थ्रो दि आर्कियोलाजिकल सोर्सेज 1980, अध्याय 2
  159. ए.के. नारायण और टी.एन.राय, एक्सकेवेशंस ऐट राजघाट, भाग 1, पृष्ठ 22-25
  160. तत्रैव, भाग 2, पृष्ठ 10
  161. तत्रैव, भाग 1, पृष्ठ 26
  162. ए.के. नारायण और टी.एन. राय, एक्सकेवेशंस ऐट राजघाट, भाग 1, पृष्ठ 26, चित्र 5, प्लेट 4, 5
  163. वीरेन्द्र प्रताप सिंह, सम आसपेक्ट्स ऑफ़ लाइफ इन ऐंश्येंट वाराणसी एज रिविल्ड थ्रो दि आर्कियोलाजिकल सोर्सेज, पृष्ठ 88 और चित्र संख्या-2
  164. अवधकिशोर नारायण और टी.एन. राय. एक्सकेवेशंस ऐट राजघाट, भाग 1, पृष्ठ 28, प्लेट 10 ।, 18
  165. उल्लेखनीय है घरों में सोख्ता घड़ों को गढ्ढा खोदकर रखा जाता था। जिसमें घर की गंदगी आदि इकट्ठा की जाती थी।
  166. ए.के. नारायण एवं टी.एन. राय, एक्सकवेशंस ऐट राजाघाट, पृष्ठ 28
  167. तत्रैव भाग 3, पृष्ठ 14
  168. उल्लेखनीय है कि लोहे की कीलों का प्रयोग खपरैलों को बाँधने के लिए किया जाता था।


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