The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
वा पटपीत[1] की फहरानि।
कर धरि[2] चक्र चरन की धावनि, नहिं बिसरति वह बानि॥[3]
रथ तें उतरि अवनि[4] आतुर ह्वै,[5] कच[6] रज[7] की लपटानि।
मानौं सिंह सैल[8] तें निकस्यौ महामत्त गज जानि॥
जिन गुपाल मेरा प्रन राख्यौ मेटि वेद की कानि।[9]
सोई सूर सहाय हमारे निकट भये हैं आनि॥
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पीताम्बर।
- ↑ हाथ में लेकर।
- ↑ बानिक, रूप।
- ↑ भूमि।
- ↑ जल्दी में घबरा-कर।
- ↑ बाल।
- ↑ धूल
- ↑ पर्वत।
- ↑ मर्यादा।
संबंधित लेख
|