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विजय नगर के राजा संस्कृत साहित्य और विद्या के पोषक थे। [[वेद|वेदों]] के सुप्रसिद्ध भाष्यकार [[सायण]] और उनके भाई [[माधवाचार्य]] विजय नगर के राजाओं के मंत्री थे। विजय नगर के शासक ललित कलाओं के भी महान पोषक थे और उन्होंने अनेक भव्य मन्दिरों तथा भवनों का निर्माण कराया। उनके राज्य काल में विजय नगर में वास्तुकला, चित्रकला तथा तक्षण कला की विशिष्ट शैली का विकास हुआ। (आर0, ए सेवेल कृत फारगाटन इम्पायर तथा बी0 ए0 सालेटोर कृत सोशल एण्ड पोलिटिकल लाइफ इन विजयनगर इम्पायर)
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विजय नगर के राजा संस्कृत साहित्य और विद्या के पोषक थे। [[वेद|वेदों]] के सुप्रसिद्ध भाष्यकार [[सायण]] और उनके भाई [[माधवाचार्य]] विजय नगर के राजाओं के मंत्री थे। विजय नगर के शासक ललित कलाओं के भी महान पोषक थे और उन्होंने अनेक भव्य मन्दिरों तथा भवनों का निर्माण कराया। उनके राज्य काल में विजय नगर में वास्तुकला, चित्रकला तथा तक्षण कला की विशिष्ट शैली का विकास हुआ।<ref>आर0, ए सेवेल कृत फारगाटन इम्पायर तथा बी0 ए0 सालेटोर कृत सोशल एण्ड पोलिटिकल लाइफ इन विजयनगर इम्पायर</ref> कुछ प्राचीन मंदिरों के अवशेषों से विजयनगर की वास्तुकला का थोड़ा बहुत परिचय हो सकता है- इस कला की अभिव्यक्ति यहाँ के मंडपों के अधारभूत स्तंभों में बड़ी सुन्दरता से हुई है। स्तंभों के आधार चौकोन है। शीर्षों पर चारों ओर बारीक और घनी नक्क़ाशी दिखाई पड़ती है जो कलाकर की कोमल कला-भावना और उच्चकल्पना का परिचायक है। इन स्तंभों के पत्थरों को इतना कलापूर्ण बनाया गया है तथा इस प्रकार गढ़ा गया है कि उनको थपथपाने से संगीतमय ध्वनी सुनी जा सकती है।
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12:23, 4 मई 2010 का अवतरण

विजय नगर साम्राज्य / Vijay Nagar Samrajya

स्थापना

विजय नगर दक्षिणी भारत का महान भग्नावेश शहर और साम्राज्य भी था। जिसकी नींव दक्षिणी भारत में तुंगभद्रा नदी के पार लगभग 1336 ई0 में संगम के पुत्र हरिहर और बुक्क ने रखी। इस नगर का निर्माण 1343 ई0 में पूरा हुआ और दस वर्ष में ही राज्य का विस्तार दक्षिण भारत के पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र तक हो गया। 15वीं और 16वीं शतियों में यह नगर समृद्धि तथा ऐश्वर्य की पराकाष्ठा को पहुँचा हुआ था।

इतिहास

हरिहर प्रथम ने अपनी मृत्यु पर्यन्त 1354-55 ई0 तक शासन किया। इसके बाद उसके भाई बुक्क प्रथम ने 22 वर्ष (1355-77 ई0) तक शासन-संचालन किया। इन शासकों में से किसी ने भी राजपदवी धारण नहीं की। बुक्क प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी हरिहर द्वितीय ने 1377 ई0 से महाराजाधिराज की पदवी के साथ 1404 ई0 तक शासन किया। विजयनगर के हिन्दू राजाओं ने यहाँ 150 सुंदर मन्दिर बनवाए थे। फरिश्ता नामक इतिहास लेखक ने लिखा है कि विजयनगर की सेना में नौ लाख पैदल, पैंतालीस सहस्त्र अस्वारोही, दो सहस्त्र गजारोही तथा एक सहस्त्र बंदूकें थी। विजयनगर की लूट प्राय: पाँच मास तक जारी रही जैसा कि पुर्तग़ाली लेखक फरिआएसूजा के लेख से सूचित होता है। इस लूट में मुसलमानों को आधार सम्पत्ति तथा धनराशि मिली। प्रसिद्ध लेखक सिवेल 'ए फ़ारगॉटन एपायर' में लिखता है, 'तालीकोट के युद्ध के पश्चात्त विजेता मुसलमानों ने विजयनगर पहुँच कर पाँच महीने तक लगातार आगजनी, तलवारों, कुल्हाड़ियों और लोहे की शलाकाओं द्वारा इस सुन्दर नगर के विनाश का काम जारी रखा। शायद विश्व के इतिहास में इससे पहले एक शानदार नगर का इतना भयानक विनाश इतनी शीघ्रता से कभी नहीं हुआ था।

विजय नगर के राजा

विजय नगर के राजा 'राय' कहलाते थे, जिन्होंने कई क्षेत्रों में सफलता और गौरव के साथ 1565 ई0 तक शासन किया। विजय नगर में तीन राजवंशों के राजा हुए, यथा, संगम राजवंश के अंतर्गत हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई0), उसका पुत्र बुक्क द्वितीय (1404-06 ई0), रामचन्द्र (1422 ई0), वीर विजय (1422-25 ई0), देवराज द्वितीय (1425-47 ई0), मल्लिकार्जुन (1447-65 ई0), विरूपाक्ष (1465-85 ई0) और प्रौढ़देव राय (1485 ई0) राजाओं ने राज्य किया।

अन्तिम राजा

सालुव राजवंश की स्थापना सालुव नरसिंह द्वारा संगम वंश के विध्वंस के बाद की गयी। यह संगम राजवंश के अन्तिम राजाओं का मंत्रि था। नरसिंह ने 1486-1492 ई0 तक शासन किया और उसका पुत्र इम्मादी नरसिंह (1492-1503 ई0) उत्तराधिकारी बना, जो सालुव या द्वितीय राजवंश का दूसरा और अन्तिम राजा था।

तुलुव राजवंश

इम्मादी नरसिंह को तत्कालीन मंत्री नरसिंह नायक ने पद्च्युत कर एक नये राजवंश की स्थापना की, जो तुलुव राजवंश कहा जाता है। इसके अंतर्गत छः राजा हुए, यथा नरेश नायक (1503 ई0), उसका पुत्र वीर नरसिंह (1503-1509 ई0), कृष्ण देव राय (1509-29 ई0), अच्युत (1529-42 ई0), व्यंकट (1542 ई0) और सदाशिव (1542-65 ई0)।

तालीकोट का युद्ध

तालीकोट के युद्ध के उपरान्त इस वंश का भी उच्छेद हो गया। इस वंश के विनाश के साथ ही विजय नगर राजधीनी भी विनष्ट हो गयी और सदाशिव वेनुगोंडा भाग गया, जहाँ 1570 ई0 में तिरुमल्ल द्वारा वह पद्च्युत कर दिया गया।

चौथा राजवंश

तिरुमल्ल से चौथा राजवंश का आरम्भ हुआ। इसने 1570 से 1642 ई0 तक शासन किया। पहले इन लोगों की राजधानी पेनुगोण्डा थी, उसके बाद चंद्रगिरी हो गयी।

राज्य का पतन

व्यावहारिक रूप से 'विजयनगर' राज्य का इतिहास विजय नगर के विनाश के साथ ही समाप्त हो जाता है। राज्य के पतन का कारण, सीमा के मुसलमान बहमनी राज्य से निरन्तर युद्ध था। धार्मिक विरोध के कारण उत्पन्न द्वैषभाव के अतिरिक्त रायचूर दोआव भी दोनों राज्यों के बीच संघर्ष का कारण बना रहा और साधारणतया बहमनी सुल्तान ही इसका लाभ उठाते रहे। केवल कृष्णदेव राय के शासनकाल (1509-29 ई0) में, जो सबसे प्रतापी राजा था, विजयनगर राज्य में रहा। उसने मुसलमान पड़ोसियों से रायचूर छीनकर बीदर तथा बीजापुर के सुल्तान को भी परास्त किया। उसने अपने प्रभुत्व का विस्तार मद्रास राज्य तक ही नहीं, अपितु मैसूर तक कर लिया। किन्तु ये उपलब्धियाँ स्थायी न रह सकीं। बीजापुर, गोलकुण्डा, अहमद नगर और बीदर के सुल्तानों के संयुक्त प्रयास से विजयनगर 1565 ई0 में तालीकोट के युद्ध के पश्चात् विनष्ट हो गया। सदाशिव को दूरस्थ राज्य पेनूगोण्डा भाग कर अपने प्राण बचाने पड़े।

अपने उत्कर्ष काल में विजय नगर समृद्ध और धन-धान्य संपूर्ण नगर था। उसकी किलेबंदी अत्यन्त मजबूत थी। निकोलो काण्टी (1420 ई0), अब्दुरज्जाक (1443 ई0), पैस (1522 ई0) और नूनिज जैसे विदेशी यात्रियों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। अब्दुरज्जाक ने यहाँ तक लिखा है कि यह नगर ऐसा है, जिसके समान धरती पर दूसरा नगर न तो आँखों से देखा गया है और न कानों से सुना गया है। यह एक एक-दूसरे के भीतर सात परकोटों से घिरा था। नगर की आबादी अत्यन्त धनी थी और यह सब प्रकार के धन-धान्य से पूर्ण था। फिर भी यह दुर्देव ही कहा जायगा कि जब मुसलमान आक्रमणकारियों ने तालीकोट की विजय के बाद नगर को ध्वस्त करना शुरू किया, तब यहाँ के नागरिकों ने न तो किसी प्रकार का प्रतिरोध किया और न संगठित होकर उसका सामना ही किया। इससे संकेत मिलता है कि राज्य के धन-वैभव संपन्न होने के बावजूद जनता में शासक वर्ग के प्रति किसी प्रकार का प्रेम या अपनत्व नहीं था।

इस विनाशकारी युद्ध के पश्चात्त विजयनगर की, जो अपने समय में संसार का सबसे अनोखा और अभूतपूर्व नगर था, जो दशा हुई वह वर्णनातीत है। विजयनगर की उत्कृष्ट कला के वैभव से भरे-पूरे देव मंदिर, सुन्दर और सुखी नर-नारियों के कोलाहल से गूंजते भवन, जनाकीर्ण सड़कें, हीरे-जवाहरातों की दूकानों से जगमगाते बाजार तथा उत्तुंग अट्टालिकाओं की निरन्तर पंक्तियाँ, ये सभी बर्बर आक्रमणकारियों की प्रतीकारभावना की आग में जलकर राख का ढेर बन गए।

साहित्य और कला

विजय नगर के राजा संस्कृत साहित्य और विद्या के पोषक थे। वेदों के सुप्रसिद्ध भाष्यकार सायण और उनके भाई माधवाचार्य विजय नगर के राजाओं के मंत्री थे। विजय नगर के शासक ललित कलाओं के भी महान पोषक थे और उन्होंने अनेक भव्य मन्दिरों तथा भवनों का निर्माण कराया। उनके राज्य काल में विजय नगर में वास्तुकला, चित्रकला तथा तक्षण कला की विशिष्ट शैली का विकास हुआ।[1] कुछ प्राचीन मंदिरों के अवशेषों से विजयनगर की वास्तुकला का थोड़ा बहुत परिचय हो सकता है- इस कला की अभिव्यक्ति यहाँ के मंडपों के अधारभूत स्तंभों में बड़ी सुन्दरता से हुई है। स्तंभों के आधार चौकोन है। शीर्षों पर चारों ओर बारीक और घनी नक्क़ाशी दिखाई पड़ती है जो कलाकर की कोमल कला-भावना और उच्चकल्पना का परिचायक है। इन स्तंभों के पत्थरों को इतना कलापूर्ण बनाया गया है तथा इस प्रकार गढ़ा गया है कि उनको थपथपाने से संगीतमय ध्वनी सुनी जा सकती है।

टीका-टिप्पणी

  1. आर0, ए सेवेल कृत फारगाटन इम्पायर तथा बी0 ए0 सालेटोर कृत सोशल एण्ड पोलिटिकल लाइफ इन विजयनगर इम्पायर