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'''विनायक कृष्ण गोकाक''' (जन्म- [[9 अगस्त]], [[1909]], [[कर्नाटक]]; मृत्यु- [[28 अप्रैल]], [[1992]]) को '[[ज्ञानपीठ पुरस्कार]]' से सम्मानित [[कन्नड़ भाषा]] के प्रमुख साहित्यकारों में गिना जाता है। डॉ. वियानक कृष्ण गोकाक का 'कन्नड़ साहित्य' में नि.संदेह एक विशिष्ट स्थान है। कवि, उपन्यासकार, समालोचक, नाटककार और निबंध लेखक के रूप में आधी से भी अधिक शताब्दी का उनका सक्रिय कार्यकाल [[1934]] में आरम्भ हुआ, जब उनका प्रथम कविता संकलन 'कलोपासक' प्रकाशित हुआ था।
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'''विनायक कृष्ण गोकाक''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Vinayaka Krishna Gokak'', जन्म: [[9 अगस्त]], [[1909]]; मृत्यु: [[28 अप्रैल]], [[1992]]) को '[[ज्ञानपीठ पुरस्कार]]' से सम्मानित [[कन्नड़ भाषा]] के प्रमुख [[साहित्यकार|साहित्यकारों]] में गिना जाता है। डॉ. वियानक कृष्ण गोकाक का '[[कन्नड़ साहित्य]]' में नि.संदेह एक विशिष्ट स्थान है। [[कवि]], [[उपन्यासकार]], समालोचक, नाटककार और निबंध लेखक के रूप में आधी से भी अधिक शताब्दी का उनका सक्रिय कार्यकाल [[1934]] में आरम्भ हुआ, जब उनका प्रथम कविता संकलन 'कलोपासक' प्रकाशित हुआ था।
 
==कन्नड़ कविता में योगदान==
 
==कन्नड़ कविता में योगदान==
गोकाक ने कन्नड़ कविता को स्वतंत्रता का उपहार दिया, जिससे नए क्षितिज खुले और नई संभावनाओं का जन्म हुआ। प्राच्य और पाश्चात्य, अतीत और वर्तमान, वर्तमान और भविष्य, मानवतावाद और अध्यात्म तथा राष्ट्रीय और वैश्विक के मध्य सामंजस्य की स्थापना में जीवन भर क्रियाशील गोकाक समन्वय के सिद्धांत पर आरूढ़ थे। अपने गुरु श्री अरबिंद की भांति उनकी आस्था थी कि आत्मिक विकास करते-करते मनुण्य विश्व-मानव के रूप मे सिद्ध हो सकता है।
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गोकाक ने कन्नड़ कविता को स्वतंत्रता का उपहार दिया, जिससे नए क्षितिज खुले और नई संभावनाओं का जन्म हुआ। प्राच्य और पाश्चात्य, अतीत और वर्तमान, वर्तमान और भविष्य, मानवतावाद और अध्यात्म तथा राष्ट्रीय और वैश्विक के मध्य सामंजस्य की स्थापना में जीवन भर क्रियाशील गोकाक समन्वय के सिद्धांत पर आरूढ़ थे। अपने [[अरबिंद घोष|गुरु श्री अरबिंद]] की भांति उनकी आस्था थी कि आत्मिक विकास करते-करते मनुण्य विश्व-मानव के रूप मे सिद्ध हो सकता है।
 
====नए युग का सूत्रपात====
 
====नए युग का सूत्रपात====
चौथे दशक के आरंभ मे काव्य की ओर उन्मुख युवक गोकाक द.रा. बेंद्रे के प्रभाव में आए और उनके नेतृत्व में काव्य के एक नए युग का सूत्रपात करने में संलग्न कवि मंडली के एक सदस्य के रूप मे गोकाक ने स्वप्नों और आदर्शों, आध्यात्यिक अभिलाषाओं और काव्यगत प्रेरणाओं की स्वच्छंदवादी कविता का सृजन किया, 'कलोपासक' (1934) में नई पंरपराओं के गीत संकलित हैं। 'समुद्र गीतेगळु' (1940) की कविताएँ एक नई ताज़गी देती हैं और उनमें गोकाक की वह वाणी मुखर हुई है, जिसमें सहज अभिव्यंजना और फक्कड़पन के साथ गीतात्मकता है। स्वातंत्र्योत्तर [[भारत]] की नई प्रवृतियों की पूर्ति उन्होंने एक अभिनव काव्य-शैली के सूत्रपात द्वारा की, इस कविता को उन्होंने इलियट,पाउंड और [[फ़्राँसीसी]] प्रतीकवादियों के अनुसरण में 'नव्य' कविता कहा। नए विषयों, नई कल्पनाओं, नई कल्पनाओं, नई लयों, नई वक्रोक्तियों और व्यंग्यों के प्रयोगों से भरपूर 'नव्य कवितेगळु' ([[1950]]) ने कन्नड़ कविता में एक 'नव्य युग' का सूत्रपात किया।
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चौथे दशक के आरंभ मे काव्य की ओर उन्मुख युवक गोकाक [[दत्तात्रेय रामचन्द्र बेंद्रे]] के प्रभाव में आए और उनके नेतृत्व में काव्य के एक नए युग का सूत्रपात करने में संलग्न कवि मंडली के एक सदस्य के रूप मे गोकाक ने स्वप्नों और आदर्शों, आध्यात्यिक अभिलाषाओं और काव्यगत प्रेरणाओं की स्वच्छंदवादी कविता का सृजन किया, 'कलोपासक' ([[1934]]) में नई पंरपराओं के गीत संकलित हैं। 'समुद्र गीतेगळु' ([[1940]]) की कविताएँ एक नई ताज़गी देती हैं और उनमें गोकाक की वह वाणी मुखर हुई है, जिसमें सहज अभिव्यंजना और फक्कड़पन के साथ गीतात्मकता है। स्वातंत्र्योत्तर [[भारत]] की नई प्रवृतियों की पूर्ति उन्होंने एक अभिनव काव्य-शैली के सूत्रपात द्वारा की, इस कविता को उन्होंने इलियट,पाउंड और [[फ़्राँसीसी]] प्रतीकवादियों के अनुसरण में 'नव्य' कविता कहा। नए विषयों, नई कल्पनाओं, नई कल्पनाओं, नई लयों, नई वक्रोक्तियों और व्यंग्यों के प्रयोगों से भरपूर 'नव्य कवितेगळु' ([[1950]]) ने कन्नड़ कविता में एक 'नव्य युग' का सूत्रपात किया।
 
==नाटक==
 
==नाटक==
विनायक कृष्ण गोकाक के नाटकों में 'जननायक' ([[1939]]) और 'युगांतर' ([[1947]]) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उन्हें [[कन्नड़ भाषा]] में आधुनिक समालोचना का जनक कहा जाता है। उनकी आरंभिक आलोचनात्मक रचनाओं पर पश्चिम की गहरी छाप है, किंतु उन्होंने शीघ्र ही कॉलरिज, अरबिंद और भारतीय काव्यशास्त्र को मिला कर अपना-अपना अलग सिद्धांत ढाल लिया, जिसे वह साहित्य का समन्वयकारी रूप कहते थे।
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विनायक कृष्ण गोकाक के नाटकों में 'जननायक' ([[1939]]) और 'युगांतर' ([[1947]]) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उन्हें "कन्नड़ भाषा में 'आधुनिक समालोचना का जनक' कहा जाता है। उनकी आरंभिक आलोचनात्मक रचनाओं पर पश्चिम की गहरी छाप है, किंतु उन्होंने शीघ्र ही कॉलरिज, अरबिंद और भारतीय काव्यशास्त्र को मिला कर अपना-अपना अलग सिद्धांत ढाल लिया, जिसे वह साहित्य का समन्वयकारी रूप कहते थे।
====महाकाव्य====
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==महाकाव्य==
गोकाक की सर्वोत्कृष्ट रचना उनका [[महाकाव्य]] 'भारत सिधुं रशिम' है, जो उनकी [[1972]] से [[1978]] तक की निरंतर साहित्य साधना का प्रतिफल है। एक ओर इस महाकाव्य में [[विश्वामित्र]] का आख्यान है, जो [[क्षत्रिय]] राजकुमार होकर भी [[ऋषि]] बन गए। दूसरी ओर इसमें [[आर्य]] और [[द्रविड़]] समस्याओं के सामरस्य और 'भारतवर्ष' के आविर्भाव की कथा है। इसका दूसरा सूत्रधार राजा [[सुदास]] जातियों की समरसता का प्रतीक है, और विश्वामित्र वर्णों की समरसता का। अध्यात्म के उदात्त स्तर पर विश्वामित्र का आख्यान जिस बात का प्रतीक है, उसे अरविंद ने 'ईश्वरत्व की ओर मनुष्य का सफल अभियन' कहा है। [[त्रिशंकु]] आज के आदमी का प्रतीक है, जिसने स्मृति, मति और कल्पना पर तो विजय प्राप्त कर ली है, किंतु अभी उसे यह जानना है, कि अंत.प्रज्ञा ही सिद्धि का एकमात्र साधन है। विश्वामित्र के अतिमानवीय प्रयन्नों के बावजूद त्रिशंकु स्वर्ग में प्रवेश नही कर पाता, तो अंत में यह अनुभव करके कि मुक्ति केवल अंत:प्रज्ञा से ही संभव है, वह एक [[नक्षत्र]] बन जाता है। इस महाकाव्य में वैदिक संस्कृति और उसके परिवर्तनशील मूल्यों की ऐसी पुन.प्रस्तुति है, कि वे वर्तमान और भविष्य के लिए प्रांसगिंक बन गए है।
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==प्रमुख कृतियाँ==
 
==प्रमुख कृतियाँ==
:*'''काव्य''' - 'कलोपासक' ([[1934]]), 'समुद्र-गीतेतळु' ([[1940]]), 'त्रिविक्रमर आकाशगंगे' ([[1945]]), 'अभ्युदय' ([[1946]]), 'द्यावा पृथिवी' ([[1957]]), 'कोनेय दिन' ([[1970]]), 'भारत सिंधु रश्मि' ([[1982]])
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:*'''कथा साहित्य''' - 'समरसवे जीवन' ([[1956]]), 'नव्य भारत प्रवादि नरहरि' ([[1976]])
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:*'''नाटक''' - 'जन-नायक' ([[1939]]), 'युगांतर' ([[1947]]), 'मूनिदुर मारि' ([[1970]])
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:*'''समालोचना''' - 'कवि काव्य महोंनति' ([[1935]]), 'नव्यते' ([[1975]]), 'कलेय नेले' ([[1978]])
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; काव्य
:*'''यात्रा वृतांत''' - 'समुद्रदीचेयिंद पोयम्स' ([[1960]]), 'इंदिल्ल नाले' ([[1965]])
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* कलोपासक ([[1934]])
:*'''अंग्रेज़ी काव्य''' - 'द सॉन्ग ऑफ़ लाइफ़ ऐंड अदर पोयम्स' ([[1947]]), 'इन लाइफ्स टेंपल' ([[1965]]), 'कश्मीर ऐंड द ब्लाइंड मैन ([[1977]])
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* समुद्र-गीतेतळु ([[1940]])
:*'''समालोचना''' - 'द पोएटिक अप्रोच टु लैग्वेज' ([[1952]])
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* त्रिविक्रमर आकाशगंगे ([[1945]])
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* अभ्युदय ([[1946]])
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* द्यावा पृथिवी ([[1957]])
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* कोनेय दिन ([[1970]])
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==बाहरी कड़ियाँ==
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*[http://www.kalonkarnataka.com/poets/title/Vinayaka+Krishna+Gokak/5 VK Gokak]
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*[http://ekavi.org/jnanpeeth.htm The Jnanpeeth Awards]
 
==संबंधित लेख==
 
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12:20, 18 अक्टूबर 2022 के समय का अवतरण

विनायक कृष्ण गोकाक
विनायक कृष्ण गोकाक
पूरा नाम विनायक कृष्ण गोकाक
अन्य नाम वी.के. गोकाक
जन्म 9 अगस्त, 1909
जन्म भूमि हावेरी ज़िला, कर्नाटक
मृत्यु 28 अप्रैल, 1992
मृत्यु स्थान बेंगळूरू
कर्म भूमि कर्नाटक, भारत
कर्म-क्षेत्र कवि, उपन्यासकार, समालोचक, नाटककार और निबंध लेखक
मुख्य रचनाएँ 'भारत सिंधु रश्मि' (1982), 'कलोपासक' (1934), 'समुद्र गीतेगळु' (1940), 'जन-नायक' (1939), 'युगांतर' (1947) आदि।
भाषा कन्नड़ भाषा
पुरस्कार-उपाधि ज्ञानपीठ पुरस्कार, 1990

पद्म श्री, 1961
साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1961

नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी विनायक कृष्ण गोकाक के नाटकों में 'जननायक' (1939) और 'युगांतर' (1947) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उन्हें "कन्नड़ भाषा में 'आधुनिक समालोचना का जनक' कहा जाता है।
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इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

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विनायक कृष्ण गोकाक (अंग्रेज़ी: Vinayaka Krishna Gokak, जन्म: 9 अगस्त, 1909; मृत्यु: 28 अप्रैल, 1992) को 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित कन्नड़ भाषा के प्रमुख साहित्यकारों में गिना जाता है। डॉ. वियानक कृष्ण गोकाक का 'कन्नड़ साहित्य' में नि.संदेह एक विशिष्ट स्थान है। कवि, उपन्यासकार, समालोचक, नाटककार और निबंध लेखक के रूप में आधी से भी अधिक शताब्दी का उनका सक्रिय कार्यकाल 1934 में आरम्भ हुआ, जब उनका प्रथम कविता संकलन 'कलोपासक' प्रकाशित हुआ था।

कन्नड़ कविता में योगदान

गोकाक ने कन्नड़ कविता को स्वतंत्रता का उपहार दिया, जिससे नए क्षितिज खुले और नई संभावनाओं का जन्म हुआ। प्राच्य और पाश्चात्य, अतीत और वर्तमान, वर्तमान और भविष्य, मानवतावाद और अध्यात्म तथा राष्ट्रीय और वैश्विक के मध्य सामंजस्य की स्थापना में जीवन भर क्रियाशील गोकाक समन्वय के सिद्धांत पर आरूढ़ थे। अपने गुरु श्री अरबिंद की भांति उनकी आस्था थी कि आत्मिक विकास करते-करते मनुण्य विश्व-मानव के रूप मे सिद्ध हो सकता है।

नए युग का सूत्रपात

चौथे दशक के आरंभ मे काव्य की ओर उन्मुख युवक गोकाक दत्तात्रेय रामचन्द्र बेंद्रे के प्रभाव में आए और उनके नेतृत्व में काव्य के एक नए युग का सूत्रपात करने में संलग्न कवि मंडली के एक सदस्य के रूप मे गोकाक ने स्वप्नों और आदर्शों, आध्यात्यिक अभिलाषाओं और काव्यगत प्रेरणाओं की स्वच्छंदवादी कविता का सृजन किया, 'कलोपासक' (1934) में नई पंरपराओं के गीत संकलित हैं। 'समुद्र गीतेगळु' (1940) की कविताएँ एक नई ताज़गी देती हैं और उनमें गोकाक की वह वाणी मुखर हुई है, जिसमें सहज अभिव्यंजना और फक्कड़पन के साथ गीतात्मकता है। स्वातंत्र्योत्तर भारत की नई प्रवृतियों की पूर्ति उन्होंने एक अभिनव काव्य-शैली के सूत्रपात द्वारा की, इस कविता को उन्होंने इलियट,पाउंड और फ़्राँसीसी प्रतीकवादियों के अनुसरण में 'नव्य' कविता कहा। नए विषयों, नई कल्पनाओं, नई कल्पनाओं, नई लयों, नई वक्रोक्तियों और व्यंग्यों के प्रयोगों से भरपूर 'नव्य कवितेगळु' (1950) ने कन्नड़ कविता में एक 'नव्य युग' का सूत्रपात किया।

नाटक

विनायक कृष्ण गोकाक के नाटकों में 'जननायक' (1939) और 'युगांतर' (1947) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उन्हें "कन्नड़ भाषा में 'आधुनिक समालोचना का जनक' कहा जाता है। उनकी आरंभिक आलोचनात्मक रचनाओं पर पश्चिम की गहरी छाप है, किंतु उन्होंने शीघ्र ही कॉलरिज, अरबिंद और भारतीय काव्यशास्त्र को मिला कर अपना-अपना अलग सिद्धांत ढाल लिया, जिसे वह साहित्य का समन्वयकारी रूप कहते थे।

महाकाव्य

गोकाक की सर्वोत्कृष्ट रचना उनका महाकाव्य 'भारत सिधुं रशिम' है, जो उनकी 1972 से 1978 तक की निरंतर साहित्य साधना का प्रतिफल है। एक ओर इस महाकाव्य में विश्वामित्र का आख्यान है, जो क्षत्रिय राजकुमार होकर भी ऋषि बन गए। दूसरी ओर इसमें आर्य और द्रविड़ समस्याओं के सामरस्य और 'भारतवर्ष' के आविर्भाव की कथा है। इसका दूसरा सूत्रधार राजा सुदास जातियों की समरसता का प्रतीक है, और विश्वामित्र वर्णों की समरसता का। अध्यात्म के उदात्त स्तर पर विश्वामित्र का आख्यान जिस बात का प्रतीक है, उसे अरविंद ने 'ईश्वरत्व की ओर मनुष्य का सफल अभियन' कहा है। त्रिशंकु आज के आदमी का प्रतीक है, जिसने स्मृति, मति और कल्पना पर तो विजय प्राप्त कर ली है, किंतु अभी उसे यह जानना है, कि अंत.प्रज्ञा ही सिद्धि का एकमात्र साधन है। विश्वामित्र के अतिमानवीय प्रयन्नों के बावजूद त्रिशंकु स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर पाता, तो अंत में यह अनुभव करके कि मुक्ति केवल अंत:प्रज्ञा से ही संभव है, वह एक नक्षत्र बन जाता है। इस महाकाव्य में वैदिक संस्कृति और उसके परिवर्तनशील मूल्यों की ऐसी पुन.प्रस्तुति है, कि वे वर्तमान और भविष्य के लिए प्रांसगिंक बन गए है।

प्रमुख कृतियाँ

काव्य
  • कलोपासक (1934)
  • समुद्र-गीतेतळु (1940)
  • त्रिविक्रमर आकाशगंगे (1945)
  • अभ्युदय (1946)
  • द्यावा पृथिवी (1957)
  • कोनेय दिन (1970)
  • भारत सिंधु रश्मि (1982)
कथा साहित्य
  • समरसवे जीवन (1956)
  • नव्य भारत प्रवादि नरहरि (1976)
नाटक
  • जन-नायक (1939)
  • युगांतर (1947)
  • मूनिदुर मारि (1970)
समालोचना
  • कवि काव्य महोंनति (1935)
  • नव्यते (1975)
  • कलेय नेले (1978)
यात्रा वृतांत
  • समुद्रदीचेयिंद पोयम्स (1960)
  • इंदिल्ल नाले (1965)
अंग्रेज़ी काव्य
  • द सॉन्ग ऑफ़ लाइफ़ ऐंड अदर पोयम्स (1947)
  • इन लाइफ़्स टेंपल (1965)
  • कश्मीर ऐंड द ब्लाइंड मैन (1977)
समालोचना
  • द पोएटिक अप्रोच टु लैग्वेज (1952)


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माध्यमिक
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शोध

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख