वी. के. मूर्ति

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वी. के. मूर्ति (जन्म- 26 नवम्बर, 1923, मैसूर, कर्नाटक) भारतीय सिने जगत में एक जाना-पहचाना नाम है। वे हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध सिनेमेटोग्राफ़र हैं। एक कैमरामैन के रूप में वी. के. मूर्ति ने बहुत नाम कमाया है। उनके कैमरे का जादू मुस्कुराते होठों की उदासी, आँखों के काले घेरों की स्याह नमी, गुलाबी सर्दियों की गुनगुनाती गर्माहट और किताबों में छुपी चिठ्ठियों से उठती प्रेम की खुशबू आदि सब कुछ कैद कर सकता है। वी. के. मूर्ति कला और तकनीक के अद्भूत सम्मिश्रण तथा हिन्दी सिनेमा में प्रकाश और छाया के अतुलनीय प्रयोगों का नाम है। वे ऐक्टर-डायरेक्टर गुरुदत्त की टीम के साथ जुड़े थे। 'प्यासा', 'काग़ज़ के फूल', 'चौंदहवीं का चांद' और 'साहब बीबी और गुलाम' जैसी गुरुदत्त की ब्लैक ऐंड वाइट फ़िल्मों में उन्होंने लाइट और कैमरे से चमत्कार उत्पन्न करके दर्शकों का मन मोह लिया था। उन्हें देश के सबसे बड़े सम्मान 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' (2008) के लिए भी चुना गया।

जन्म तथा शिक्षा

वी. के. मूर्ति का जन्म 26 नवम्बर, 1923 को मैसूर, कर्नाटक में हुआ था। अपने स्कूली जीवन में ही अभिनेता या फिर एक फ़िल्म तकनीशियन बनने के लिये वह मुंबई आ गए। यहाँ किसी भी तरह का कोई उत्साहवर्धन उन्हें नहीं मिला और वे वापस घर आ गये। बाद में वी. के. मूर्ति मैसूर के दीवान, विश्वेश्वरैया द्वारा स्थापित 'बैंगलोर इंस्टीट्यूट' से जुड़ गये। यहाँ इन्होंने सिनेमाटोग्राफी की शिक्षा ली और डिप्लोमा लिया।

व्यवसाय

इंस्टीट्यूट छोडऩे के बाद भी वायलिन वादक की उनकी ट्रेनिंग ने मूर्ति को फ़िल्मों में काम दिलाने में मदद की। एक कैमरामैन के रूप में उन्हें पहला मौका सिनेमाटोग्राफर द्रोणाचार्य के सहायक की तरह काम करते हुये मिला। पश्चिमी फ़िल्मों में प्रकाश और छाया के कलात्मक प्रयोगों से प्रेरणा लेते हुये वी. के. मूर्ति ने भारतीय फ़िल्मों में भी कई प्रयोग किये। वी. के. मूर्ति फाली मिस्त्री की कला से भी ख़ासे प्रभावित हुए। प्रकाश के स्त्रोतों का निश्चित फ़्रेमों ओर जीवंत प्रारूपों में प्रयोग और इन पर ख़ास फ़ोकस भारतीय सिनेमा को मिस्त्री की अनमोल देन है। इन्होंने 'आरजू' और 'उडऩ खटोला' जैसी फ़िल्मों में मिस्त्री के सहायक की तरह काम किया और प्रकाश-बिंबों के साथ नये प्रयोग करने सीखे।

कैमरामैन

एक स्वतंत्र कैमरामैन के रूप में वी. के. मूर्ति की पहली फ़िल्म 1952 में गुरुदत्त के साथ 'जाल' रही। गुरुदत्त बतौर निर्देशक पहली फ़िल्म 'बाजी' बना रहे थे और वी. के. मूर्ति मुंबई के प्रसिद्ध स्टूडियो में सहयोगी थे। वी. के. मूर्ति ने उन्हें कई शॉट्स के दौरान सुझाव दिए तो गुरुदत्त ने उनसे शॉट लेने के लिए कहा। इस तरह मूर्ति को गुरुदत्त की पहली फ़िल्म में मौका मिला। उनकी कलात्मकता, तकनीकी गुणवत्ता और प्रभावी प्रयोगों की क्षमता ने गुरुदत्त का दिल जीत लिया। इसके बाद मूर्ति ने गुरुदत्त की लगभग सभी फ़िल्मों में काम किया। अंत तक दोनों लोगो का साथ बना रहा। 'काग़ज़ के फूल' और 'साहिब, बीबी और गुलाम' सरीखी फ़िल्में विस्तृत फ़्रेमों और प्रकाश के बहुप्रयोगों के साथ अद्वितीय सिद्ध हुईं, जिनमें प्रकाश और छाया के प्रयोग कहानी का हिस्सा प्रतीत होते हैं। इन दोनों फ़िल्मों ने 1959 और 1962 में मूर्ति को 'सर्वश्रेष्ठ सिनेमाटोग्राफ़र' का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' दिलवाया।

नये प्रयोग करने वाले

हमेशा नये प्रयोग करने वाले मूर्ति ने भारत की पहली सिनेमास्कोप फ़िल्म 'काग़ज़ के फूल' में काम किया। अपनी एक योजना के तहत उन्होंने स्टूडियो की छत के एक हिस्से को हटा दिया, ताकि प्राकृतिक प्रकाश अंदर आ सके। इस तरह फ़िल्म का गाना 'वक्त ने किया क्या हंसी सितम....' शूट हुआ। 'चौहदवी का चांद' में रंगों के विभिन्न प्रयोगों का सफल प्रयास वी. के. मूर्ति ने किया। यहाँ भी मूर्ति ने प्रकाश और रंगों का विभिन्न तापक्रम पर उपयोग किया। इनकी अन्य ध्यान आकर्षण करने वाली फ़िल्मों में शामिल हैं- राज खोसला की थ्रीलर फ़िल्म 'सीआईडी' और श्याम बेनेगल की फ़िल्में 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' तथा 'तमस'। फ़िल्म इंडस्ट्री के पहले ऐसे कैमरामैन, जिन्हें 2008 में पहली बार जब 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' देने की घोषणा की गई तो वी. के. मूर्ति की आँखें भीगी हुई थीं, क्योंकि पहली बार किसी कैमरामैन के रचनात्मक योगदान का सही अर्थों में मूल्यांकन किया गया था। सिनेमा सृजन में निर्माण, लेखन, निर्देशन, अभिनय, संपादन और संगीत आदि को ही शायद असल माना जाता रहा। लेकिन सिनेमेटोग्राफ़ी की अद्भुत कला को वी. के. मूर्ति के माध्यम से सम्मान दिया गया।

पुरस्कार

वी. के. मूर्ति को सन 2005 के लिए 'आईआईएफ़ए लाइफ़ टाइम एचीवमेंट अवार्ड' से सम्मानित किया गया था। देश के सबसे प्रतिष्ठित सम्मान 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' (2008) के लिए भी उन्हें चुना गया।

फ़िल्में

एक कैमरामैन के रूप में वी. के. मूर्ति की कुछ मुख्य फ़िल्में निम्नलिखित हैं-

  1. जाल - 1952
  2. प्यासा - 1957
  3. काग़ज़ के फूल - 1959
  4. साहिब, बीबी और गुलाम - 1962
  5. डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया
  6. तमस
  7. सीआईडी

कथन

छह दशक तक अपनी कलात्मक तकनीकी प्रतिभा से हिन्दी सिनेमा को उर्वर बनाने वाले वी. के. मूर्ति के अनुसार- "समय के साथ लोगों की पसंद और सिनेमा का स्तर भी बदल गया है। भारतीय सिनेमा के सौ बरस के सुनहरे सफर में तकनीशियनों की भूमिका धीरे-धीरे कम से कमतर होती जा रही है। अब फ़िल्मों में मेरे जैसे तकनीशियनों की जगह आधुनिक मशीनों ने ले ली है। जनरुचि बदल गई है और इसी के हिसाब से सिनेमा का सृजन हो रहा है।"


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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