वैदिक धर्म

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वैदिक धर्म कर्म पर आधारित था।वैदिक धर्म पूर्णतः प्रतिमार्गी हैं। वैदिक देवताओं में पुरुष भाव की प्रधानता है। अधिकांश देवताओं की अराधना मानव के रूप में की जाती थी किन्तु कुछ देवताओं की अराधना पशु के रुप में की जाती थी। 'अज एकपाद' और 'अहितर्बुध्न्य' दोनों देवताओं परिकल्पना पशु के रूप में की गई है। मरुतों की माता की परिकल्पना 'चितकबरी गाय' के रूप में की गई है। इन्द्र की गाय खोजने वाला 'सरमा' (कुतिया) श्वान के रूप में है। इसके अतिरिक्त इन्द्र की कल्पना 'वृषभ' (बैल) के रूप में एवं सूर्य की 'अश्व' के रूप में की गई है। ऋग्वेद में पशुओं के पूजा प्रचलन नहीं था। ऋग्वैदिक देवताओं में किसी प्रकार का उँच-नीच का भेदभाव नहीं था। वैदिक ऋषियों ने सभी देवताओं की महिमा गाई है। ऋग्वैदिक लोगों ने प्राकृतिक शक्तियों का 'मानवीकरण' किया है। इस समय 'बहुदेववाद' का प्रचलन था। ऋग्वैदिक आर्यो की देवमण्डली तीन भागों कें विभाजित थी।

  1. आकाश के देवता - सूर्य, द्यौस, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत, आदिंत्यगग, अश्विनद्वय आदि।
  2. अन्तरिक्ष के देवता - इन्द्र, मरुत, रुद्र, वायु, पर्जन्य, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहिर्बुघ्न्य।
  3. पृथ्वी के देवता- अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, तथा नदियां।

इस देव समूह में सर्वप्रधान देवता कौन था, यह निर्धारित करना कठिन है। ऋग्वैदिक ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की स्तुति की उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें सम्पूर्ण गुणों का अरोपण कर दिया। मैक्समूलर ने इस प्रवृति की 'हीनाथीज्म' कहा है। सूक्तों की संख्या की दृष्टि यह मानना न्यायसंगत होगा कि इनका सर्वप्रधान देवता इन्द्र था।

इन्द्र

ऋग्वेद में अन्तरिक्ष स्थानीय 'इन्द्र' का वर्णन सर्वाधिक प्रतापी देवता के रूप में किया गया है, ऋग्वेद के करीब 250 सूक्तों में इनका वर्णन है। इन्हे वर्षा का देवता माना जाता था। उन्होने वृक्ष राक्षस को मारा था इसीलिए उन्हे 'वृत्रहन' कहा जाता है। अनेक किलों को नष्ट कर दिया था, इस रूप में वे 'पुरन्दर' कहे जाते हैं। इन्द्र ने वृत्र की हत्या करके जल का मुक्त करते हैं इसलिए उन्हे 'पुर्मिद' कहा गया। इन्द्र के लिए एक विशेषण 'अन्सुजीत' (पानी को जीतने वाला) भी आता है। इन्द्र के पिता 'द्योंस' हैं, 'अग्नि' उसका यमज भाई है और 'मरुत' उसका सहयोगी है। विष्णु के वृत्र के वध में इन्द्र की सहायता की थी। ऋग्वेद में इन्द्र को समस्त संसार का स्वामी बताया गया है। उसका प्रिय आयुद्ध 'बज्र' है इसलिए उन्हे 'ब्रजबाहू' भी कहा गया है। इन्द्र कुशल रथ-योद्धा (रथेष्ठ), महान विजेता (विजेन्द्र) और सोम का पालन करने वाला (सोमपा) है। इन्द्र तूफान और मेध के भी देवता है । एक शक्तिशाली देवता होने के कारण इन्द्र का 'शतक्रतु' (एक सौ शक्ति धारण करने वाला) कहा गया है वृत्र का वध करने का कारण 'वृत्रहन' और 'मधवन' (दानशील) के रूप मे जाना जाता है। उनकी पत्नी इन्द्राणी अथवा शची (ऊर्जा) हैं प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में इन्द्र के साथ कृष्ण के विरोध का उल्लेख मिलता है।

अग्नि

ऋग्वेद में दूसरा महत्वपूर्ण देवता 'अग्नि' था, जिसका काम था मनुष्य और देवता के मध्य मध्यस्थ की भूमिका निभाना। अग्नि के द्वारा ही देवताओं आहुतियाँ दी जाती थीं। ऋग्वेद में करीब 200 सूक्तों में अग्नि का जिक्र किया गया है। वे पुरोहितों के भी देवता थे। उनका मूल निवास स्वर्ग है। किन्तु मातरिश्वन (देवता) न उसे पृथ्वी पर लाया। पृथ्वी पर यज्ञ वेदी में अग्नि की स्थापना भृगुओं एवं अंगीरसों ने की। इस कार्य के कारण उन्हे अथर्वन कहा गया है। वह प्रत्येक घर में प्रज्वलित होती थी इस कारण उसे प्रत्येक घर का अतिथि माना गया है। इसकी अन्य उपधियाँ जातदेवस् (चर-अचर का ज्ञात होने के कारण), भुवनचक्षु (सर्वद्रष्टा होने के कारण), हिरन्यदंत (सुरहरे दाँव वाला) अथर्ववेद में इसे प्रातः काल उचित होने वाला मित्र और सांयकाल को वरुण कहा गया है।

वरुण

तीसरा स्थान वरुण का माना जाता है, जिसे समुद्र का देवता, विश्व के नियामक और शासक सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात का कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य का निर्माता के रूप में जाना जाता है। ईरान में इन्हे 'अहुरमज्द' तथा यूनान में 'यूरेनस' के नाम से जाना जाता है। ये ऋतु के संरक्षक थे इसलिए इन्हे ऋतस्यगोप भी कहा जाता था। वरुण के साथ मित्र का भी उल्लेख है इन दोनों को मिलाकर मित्र वरूण कहते हैं। ऋग्वेद के मित्र और वरुण के साथ आप का भी उल्लेख किया गया है। आप का अर्थ जल होता है। ऋग्वेद के मित्र और वरुण का सहस्र स्तम्भों वाले भवन में निवास करने का उल्लेख मिलता है। मित्र के अतिरिक्त वरुण के साथ आप का भी उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद मे वरुण को वायु का सांस कहा गया है। वरुण देव लोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं। इन्हे असुर भी कहा जाता हैं। इनकी स्तुति लगभग 30 सूक्तियों में की गयी है। देवताओं के तीन वर्गो (पृथ्वी स्थान, वायु स्थान और आकाश स्थान) में वरुण का सर्वोच्च स्थान है। वे देवताओं के देवता है। ऋग्वेद का 7 वाँ मण्डल वरुण देवता को समर्पित है। दण्ड के रूप में लोगों को 'जलोदर रोग' से पीड़ित करते थे।

द्यौ

'द्यौ' (आकाश) को ऋग्वैदिककालीन देवों में सबसे प्राचीन माना जाता है। तत्पश्चात पृथ्वी भी दोनों द्यावा-पृथ्वी के नाम से जाने जाते थे। आकाश को सर्वश्रेष्ठ देवता के रूप में तथा सोम को वनस्पति देवता के रूप में माना जाता था।

सोम देवता

ऋग्वेद के नवें मण्डल के सभी 144 सूक्त सोम देवता का समर्पित है। ये चन्द्रमा से सम्बन्धित देवता थे। इनकी तुलना ईरान में होम देवता तथा यूनान में दिआनासिस से की गयी है। 'ऊषा' को प्रगति एवं उत्थान के देवता के रूप में, 'अश्विन' विपत्तियों को हराने वाले देवता के रूप मे उल्लेख किया गया है।

अश्विन

यह एक कल्याणकारी देवता थे। इसका स्वरूप युगल रूप में था। यह पूषन के पिता और ऊषा के भाई थे। इन्हे नासांत्य भी कहा जाता है। ये चिकित्सा के देवता थे। अपंग व्यक्ति को कृत्रिम पैर प्रदान करते थे। दुर्घटनाग्रस्त्र नाव के यात्रियों की रक्षा करते थे। युवतियों के लिए वर की तलाश करते थे। 'पूषन' को पशुओं के देवता के रूप मे संबोधित किया गया है।

पूषण

यह भी सूर्य के सम्बद्ध देवता थे। पूषन के रथ को बकरे खीचतें थे।

विष्णु

ये तीन कदम के देवता थे। इन्हे विश्व के संरक्षक और पालनकर्ता के रूप में माना जाता था।

रूद्र

यह उग्र देवता था। उग्र रूप में रूद्र तथा मंगलकारी रूप में शिव था। अथर्ववेद में इसे 'भूपति' नीलोदर, लोहित पृष्ठ तथा नीलकण्ठ कहा गया है। उसे कृतवास (खाल धारण करने वाला) भी कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि रुद्र की उत्पत्ति सभी देवताओं के उग्र अंशो से हुई है। यजुर्वेद के शतरुद्रिय प्रकारण में इसे पशुपति, शम्भू, शंकर, शिव कहा गया है। ये अनैतिक आचरणों से सम्बद्ध माने जाते थे। ये चिकित्सा से संरक्षण थे।

मित्र

ये वरुण देवता से सम्बन्धित है। यह शपथ एवं प्रतिज्ञा के देवता हैं।

त्वष्द्रा

धातुओं के देवता, आर्य-सन्धि और विवाह के देवता,

विवस्तान

ऋग्वेद में इसे देवताओं के जनक कहा जाता गया। ऋग्वेद में ऊषा, अदिति, सूर्या जैसे देवियों का उल्लेख है।

पृथ्वी

यह देवी थी। इसे तीन वर्गोंे में रखा गया था।

आप

अप्सराओं के रुप में देवी थी। अदिति पृथ्वी के विशाल स्वरूप का दैवीकरण थी।

अरण्यानी

यह वन देवी थी। इसका प्रथम उल्लेख ऋक् संहिताओं में मिलता है।

इसके अतिरिक्त अन्य ऋग्वैदिक देवियों में वाक्, इला, सरस्वती, मही, पुरन्धि, धिषणा, निषा, इन्द्राणी, कुहू, प्रष्नि आदि थी। ऋग्वेद में कुछ अन्य देवता भी थे। जैसे - विश्वदेव, आर्यमन, तथा 'ऋत' की संकल्पना में विश्वास है। ऋत् एक प्रकार की नैतिक व्यवस्था थी जिससे विश्व में सुव्यवस्था तथा प्रतिष्ठा स्थापित होती है। 'वरुण' को 'ऋत्' का संरक्षक बताया गया है। ऋत् का पालन पुण्य था, उसके पालन न न करने पर वरुण देवता द्वारा दण्डित किये जाने का उल्लेख मिलता है।

इस समय देवों का पूजा की प्रधान विधि थी- स्तुति पाठ करना एवं यज्ञ में बलि चढ़ाना। बलि या यज्ञाहुति में जौ एवं शाक का प्रयोग किया जाता था। ऋग्वेद में बहुदेववाद, एकात्मावाद एव एकेश्वरवाद का उल्लेख मिलता है। देवताओं की बहुलता एवं कर्मकांडों की जटिलता से थककर कुछ समय बाद ऋग्वैदिक लोगों ने देवताओं की संख्या कम करने के लिए उनका संयुक्तीकरण करने लगे। जैसे द्यावा-पृथ्वी, ऊषा-रात्रि, मित्रा-वरुण आदि। यही भावना एकेश्वरवाद की ओर अग्रसर हुई। इस समय मंदिर या मूर्ति पूजा का कोई प्रमाण नहीं मिला है। ऋग्वेद के नारदीय सूक्त में निर्मणु ब्रह्म का वर्णन प्राप्त होता है।

वैदिक धर्म की विशेषतायें

  • चार आश्रमों का समाज था,
  • चार आश्रमों का व्यक्तिगत जीवन था,
  • यम और नियमों का पालन किया जाता था,
  • यज्ञ की प्रधानता थी, इन्द्र, वरुण, अग्नि, सोम, सूर्य, चंद्र, अश्विन, उषा, रुद्र, मरूत, पृथ्वी, समुद्र, सरस्वती और वाग्देवी की उपसना-ये वैदिक धर्म के प्रमुख स्तंभ हैं।
  • धर्म को अभ्युदय और नि:श्रेयस का साधन माना जाता था।
  • वैदिक धर्म सांप्रदायिक संकीर्णता से ग्रस्त न होकर सार्वभौम धर्म रहा है।
  • कालांतर में उपनिषद-काल में यज्ञ और कर्मकांड में कमी आ गई और तप और ज्ञान का महत्व बढ़ गया। फिर भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को वैदिक धर्म में सदा जीवन का लक्ष्य माना गया।
  • ऋग्वैदिक आर्य पुनर्जन्म को मानते थे, इस काल में देव पूजा के साथ पितृपूजा का भी उल्लेख मिलता है।
  • ऋग्वेद में कही भी यज्ञ कार्य सम्पन्न करने के लिए के मनुष्य की बलि का जिक्र नहीं है।
  • ऋग्वेद के नारदीय सूक्त में निर्गुण ब्रह्म का वर्णन प्राप्त होता है स्वर्ग की मनोरम कल्पना मिलती है। नरक की कल्पना दुष्किर्मियों के लिए दण्डस्थान के रूप में की गयी है।
  • ऋग्वैदिक ऋषियों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण पूर्णतया आशावादी था।
  • देवताओं की स्तुति का उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति था न कि मोक्ष की प्राप्ति।
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