शिवाजी के मुग़लों से सम्बंध

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मराठे पहले ही अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के प्रति सचेत होने लगे थे, फिर भी उन्हें संगठित करने और उनमें एक राजनीतिक लक्ष्य के प्रति चेतना जगाने का कार्य शिवाजी ने ही किया। शिवाजी की प्रगति का लेखा मराठों के उत्थान को प्रतिबिंबित करता है। 1645-1647 ई. के बीच 18 वर्ष की अवस्था में उन्होंने पूना के निकट अनेक पहाड़ी क़िलों पर विजय प्राप्त की, जैसे- रायगढ़, कोडंना और तोरना। फिर 1656 ई. में उन्होंने शक्तिशाली मराठा प्रमुख चंद्रराव मोरे पर विजय प्राप्त की और जावली पर अधिकार कर लिया, जिसने उन्हें उस क्षेत्र का निर्विवाद स्वामी बना दिया और सतारा एवं कोंकण की विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

शिवाजी की इन विस्तारवादी गतिविधियों से बीजापुर का सुल्तान शंकित हो उठा, किंतु उसके मंत्रियों ने सलाह दी कि वह फिलहाल चुपचाप स्थिति पर निगाह रखे। किंतु जब शिवाजी ने कल्याण पर अधिकार कर लिया और कोंकण पर धावा बोल दिया तो सुल्तान आपा खो बैठा और उसने शाहजी को क़ैद करके उनकी जागीर छीन ली। इससे शिवाजी झुकने के लिए विवश हो गए और उन्होंने वचन दिया कि वे और हमले नहीं करेंगे। किंतु उन्होंने बड़ी चतुराई से मुग़ल शाहजादा मुराद, जो मुग़ल सूबेदार था, से मित्रता स्थापित की और मुग़लों की सेवा में जाने की बात कही। इससे बीजापुर के सुल्तान की चिंता बढ़ गई और उसने शाहजी को मुक्त कर दिया। शाहजी ने वादा किया कि उसका पुत्र अपनी विस्तारवादी गतिविधियाँ छोड़ देगा। अतः अगले छः वर्षों तक शिवाजी धीरे-धीरे अपनी शक्ति सृदृढ़ करते रहे। इसके अतिरिक्त मुग़लों के भय से मुक्त बीजापुर मराठा गतिविधियों का दमन करने में सक्षम था। इस कारण भी शिवाजी को शांति बनाए रखने के लिए विवश होना पड़ा। किंतु जब औरंगज़ेब उत्तर चला गया तो शिवाजी ने अपनी विजयों का सिलसिला फिर आरंभ कर दिया, जिसकी कीमत बीजापुर को चुकानी पड़ी।

इसमें कोई संदेह नहीं कि शिवाजी की आगरा यात्रा मुग़लों के साथ मराठों के संबंधों की दृष्टि से निर्णायक सिद्ध हुई। औरंगज़ेब शिवाजी को मामूली भूमिस समझता था। बाद की घटनाओं ने सिद्ध किया कि शिवाजी के प्रति औरंगज़ेब का दृष्टिकोण, शिवाजी के महत्त्व को अस्वीकार करना और उनकी मित्रता के मूल्य को न समझना राजनीतिक दृष्टि से उसकी बहुत बड़ी भूल थी। शिवाजी के संघर्ष की तार्किक पूर्णाहूति हुई 1647 ई. में। छत्रपति के रूप में उनका औपचारिक राज्याभिषेक हुआ। स्थानीय ब्राह्मण शिवाजी के राज्यारोहण के उत्सव में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे, क्योंकि उनकी दृष्टि में शिवाजी उच्च कुल क्षत्रिय नहीं थे। अतः उन्होंने वाराणसी के एक ब्राह्मण गंगा भट्ट को इस बात के लिए सहमत किया कि वह उन्हें उच्चकुल क्षत्रिय और राजा घोषित करे। इस एक व्यवस्था से होकर शिवाजी दक्षिणी सुल्तानों के समकक्ष हो गए और उनका दर्जा विद्रोही का न रहकर एक प्रमुख़ का हो गया। अन्य मराठा सरदारों के बीच भी शिवाजी का रुतबा बढ़ गया। उन्हें शिवाजी की स्वाधीनता स्वीकार करनी पड़ी और मीरासपट्टी कर भी चुकाना पड़ा। राज्यारोहण के पश्चात शिवाजी की प्रमुख उपलब्धि थी 1677 में कर्नाटक क्षेत्र पर उनकी विजय, जो उन्होंने कुतुबशाह के साथ मिलकर प्राप्त की थी। जिन्जी, वेल्लेर और अन्य दुर्गों की विजय ने शिवाजी की प्रतिष्ठा में वृद्धि की।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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