"श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 1-13" के अवतरणों में अंतर

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[[उद्धव|उद्धवजी]] ने पूछा—[[कृष्ण|श्रीकृष्ण]]! ब्रम्हवादी महात्मा आत्म कल्याण के अनेकों साधन बतलाते हैं। उनमें अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार सभी श्रेष्ठ हैं अथवा किसी एक की प्रधानता है ?  मेरे स्वामी! आपने तो अभी-अभी भक्तियोग को ही निरपेक्ष एवं स्वतन्त्र साधन बतलाया है; क्योंकि इसी से सब ओर से आसक्ति छोड़कर मन आपमें ही तन्मय हो जाता है ।
 
[[उद्धव|उद्धवजी]] ने पूछा—[[कृष्ण|श्रीकृष्ण]]! ब्रम्हवादी महात्मा आत्म कल्याण के अनेकों साधन बतलाते हैं। उनमें अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार सभी श्रेष्ठ हैं अथवा किसी एक की प्रधानता है ?  मेरे स्वामी! आपने तो अभी-अभी भक्तियोग को ही निरपेक्ष एवं स्वतन्त्र साधन बतलाया है; क्योंकि इसी से सब ओर से आसक्ति छोड़कर मन आपमें ही तन्मय हो जाता है ।
भगवान  श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव! यह वेदवाणी समय के फेर से प्रलय के अवसर पर लुप्त हो गयी थी; फिर जब सृष्टि का समय आया, तब मैंने अपने संकल्प से ही इसे ब्रम्हा को उपदेश किया, इसमें मेरे भागवत धर्म का ही वर्णन है । ब्रम्हा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्वायम्भुव मनु को उपदेश किया और उनसे भृगु, अंगिरा, मरीचि, पुलह, अत्रि, पुलस्त्य और क्रतु—इन सात प्रजापति-महर्षियों ने ग्रहण किया । तदनन्तर इन ब्रम्हार्षियों की सन्तान देवता, दानव, गुह्यक, मनुष्य, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, चारण, किन्देव<ref> श्रम और स्वेदादि दुर्गन्ध से रहित होने के कारण जिनके विषय में ‘ये देवता हैं या मनुष्य’ ऐसा सन्देह हो, वे द्वीपान्तर-निवासी मनुष्य।</ref>, किन्नर<ref>मुख तथा शरीर आकृति से कुछ-कुछ मनुष्य के समान प्राणी।</ref>, [[नाग]], राक्षस और किम्पुरुष<ref> कुछ-कुछ पुरुष के समान प्रतीत होने वाले वानरादि।</ref> आदि ने इसे अपने पूर्वज इन्हीं ब्रम्हर्षियों से प्राप्त किया। सभी जातियों और व्यक्तियों के स्वभाव—उनकी वासनाएँ सत्व, रज और तमोगुण के कारण भिन्न-भिन्न हैं; इसिलये उसमें और उनकी बुद्धि-वृत्तियों में भी अनेकों भेद हैं। इसलिये वे सभी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार उस वेदवाणी का भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं। वह वाणी ही ऐसी अलौकिक है कि उससे विभिन्न अर्थ निकलना स्वाभाविक ही है । इसी प्रकार स्वभाव भेद तथा परम्परागत उपदेश के भेद से मनुष्यों की बुद्धि में भिन्नता आ जाती है और कुछ लोग तो बिना किसी विचार के वेद विरुद्ध पाखण्ड मतावलम्बी हो जाते हैं । प्रिय [[उद्धव]]! सभी की बुद्धि मेरी माया से मोहित हो रही है; इसी से वे अपने-अपने कर्म-संस्कार और अपनी-अपनी रूचि के अनुसार आत्म कल्याण के साधन भी एक नहीं, अनेकों बतलाते हैं । पूर्वमीमांसक धर्म को, साहित्याचार्य वश को, कामशास्त्री काम को, योग वेत्ता सत्य और शमदमादि को, दण्डनीतिकार ऐश्वर्य को, त्यागी त्याग को और लोकायतिक भोग को ही मनुष्य-जीवन का स्वार्थ—परम लाभ बतलाते हैं । कर्मयोगी लोग यज्ञ, तप, दान, व्रत तथा यम-नियम आदि को पुरुषार्थ बतलाते हैं। परन्तु ये सभी कर्म हैं; इनके फलस्वरुप जो लोक मिलते हैं, वे उत्पत्ति और नाश वाले हैं। कर्मों का फल समाप्त हो जाने पर उनसे दुःख ही मिलता है और सच पूछो, तो उनकी अन्तिम गति घोर अज्ञान ही है। उनसे जो सुख मिलता है, वह तुच्छ हैं—नगण्य है और वे लोग भोग के समय भी असूया आदि दोषों के कारण शोक से परिपूर्ण हैं। (इसलिये इन विभिन्न साधनों के फेर में न पड़ना चाहिये) ।
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भगवान  श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव! यह वेदवाणी समय के फेर से प्रलय के अवसर पर लुप्त हो गयी थी; फिर जब सृष्टि का समय आया, तब मैंने अपने संकल्प से ही इसे ब्रम्हा को उपदेश किया, इसमें मेरे भागवत धर्म का ही वर्णन है । ब्रम्हा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्वायम्भुव मनु को उपदेश किया और उनसे भृगु, अंगिरा, मरीचि, पुलह, अत्रि, पुलस्त्य और क्रतु—इन सात प्रजापति-महर्षियों ने ग्रहण किया । तदनन्तर इन ब्रम्हार्षियों की सन्तान देवता, दानव, गुह्यक, मनुष्य, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, चारण, किन्देव<ref> श्रम और स्वेदादि दुर्गन्ध से रहित होने के कारण जिनके विषय में ‘ये देवता हैं या मनुष्य’ ऐसा सन्देह हो, वे द्वीपान्तर-निवासी मनुष्य।</ref>, किन्नर<ref>मुख तथा शरीर आकृति से कुछ-कुछ मनुष्य के समान प्राणी।</ref>, [[नाग]], राक्षस और किम्पुरुष<ref> कुछ-कुछ पुरुष के समान प्रतीत होने वाले वानरादि।</ref> आदि ने इसे अपने पूर्वज इन्हीं ब्रम्हर्षियों से प्राप्त किया। सभी जातियों और व्यक्तियों के स्वभाव—उनकी वासनाएँ सत्व, रज और तमोगुण के कारण भिन्न-भिन्न हैं; इसिलये उसमें और उनकी बुद्धि-वृत्तियों में भी अनेकों भेद हैं। इसलिये वे सभी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार उस वेदवाणी का भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं। वह वाणी ही ऐसी अलौकिक है कि उससे विभिन्न अर्थ निकलना स्वाभाविक ही है । इसी प्रकार स्वभाव भेद तथा परम्परागत उपदेश के भेद से मनुष्यों की बुद्धि में भिन्नता आ जाती है और कुछ लोग तो बिना किसी विचार के वेद विरुद्ध पाखण्ड मतावलम्बी हो जाते हैं । प्रिय [[उद्धव]]! सभी की बुद्धि मेरी माया से मोहित हो रही है; इसी से वे अपने-अपने कर्म-संस्कार और अपनी-अपनी रुचि के अनुसार आत्म कल्याण के साधन भी एक नहीं, अनेकों बतलाते हैं । पूर्वमीमांसक धर्म को, साहित्याचार्य वश को, कामशास्त्री काम को, योग वेत्ता सत्य और शमदमादि को, दण्डनीतिकार ऐश्वर्य को, त्यागी त्याग को और लोकायतिक भोग को ही मनुष्य-जीवन का स्वार्थ—परम लाभ बतलाते हैं । कर्मयोगी लोग यज्ञ, तप, दान, व्रत तथा यम-नियम आदि को पुरुषार्थ बतलाते हैं। परन्तु ये सभी कर्म हैं; इनके फलस्वरूप जो लोक मिलते हैं, वे उत्पत्ति और नाश वाले हैं। कर्मों का फल समाप्त हो जाने पर उनसे दुःख ही मिलता है और सच पूछो, तो उनकी अन्तिम गति घोर अज्ञान ही है। उनसे जो सुख मिलता है, वह तुच्छ हैं—नगण्य है और वे लोग भोग के समय भी असूया आदि दोषों के कारण शोक से परिपूर्ण हैं। (इसलिये इन विभिन्न साधनों के फेर में न पड़ना चाहिये) ।
प्रिय [[उद्धव]]! जो सब ओर से निपेक्ष—बेपरवाह हो गया है, किसी भी कर्म या फल आदि की आवश्यकता नहीं रखता और अपने अन्तःकरण को सब प्रकार से मुझे ही समर्पित कर चुका है, परमानन्दस्वरुप मैं उसकी आत्मा के रूप में स्फुरित होने लगता हूँ। इससे वह जिस सुख का अनुभव करता है, वह विषय—लोलुप प्राणियों को किसी प्रकार मिल नहीं सकता । जो सब प्रकार के संग्रह-परिग्रह से रहित—अकिंचन है, जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके शान्त और समदर्शी हो गया है, जो मेरी प्राप्ति से ही मेरे सान्निध्य का अनुभव करके ही सदा-सर्वदा पूर्ण सन्तोष का अनुभव करता है, उसके लिये आकाश का एक-एक कोना आनन्द से भरा हुआ है ।
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प्रिय [[उद्धव]]! जो सब ओर से निपेक्ष—बेपरवाह हो गया है, किसी भी कर्म या फल आदि की आवश्यकता नहीं रखता और अपने अन्तःकरण को सब प्रकार से मुझे ही समर्पित कर चुका है, परमानन्दस्वरूप मैं उसकी आत्मा के रूप में स्फुरित होने लगता हूँ। इससे वह जिस सुख का अनुभव करता है, वह विषय—लोलुप प्राणियों को किसी प्रकार मिल नहीं सकता । जो सब प्रकार के संग्रह-परिग्रह से रहित—अकिंचन है, जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके शान्त और समदर्शी हो गया है, जो मेरी प्राप्ति से ही मेरे सान्निध्य का अनुभव करके ही सदा-सर्वदा पूर्ण सन्तोष का अनुभव करता है, उसके लिये आकाश का एक-एक कोना आनन्द से भरा हुआ है ।
  
 
{{लेख क्रम|पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 34-42|अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 14-24}}
 
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13:19, 29 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

एकादश स्कन्ध :चतुर्दशोऽध्यायः (14)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

भक्तियोग की महिमा तथा ध्यानविधि का वर्णन

उद्धवजी ने पूछा—श्रीकृष्ण! ब्रम्हवादी महात्मा आत्म कल्याण के अनेकों साधन बतलाते हैं। उनमें अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार सभी श्रेष्ठ हैं अथवा किसी एक की प्रधानता है ? मेरे स्वामी! आपने तो अभी-अभी भक्तियोग को ही निरपेक्ष एवं स्वतन्त्र साधन बतलाया है; क्योंकि इसी से सब ओर से आसक्ति छोड़कर मन आपमें ही तन्मय हो जाता है । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव! यह वेदवाणी समय के फेर से प्रलय के अवसर पर लुप्त हो गयी थी; फिर जब सृष्टि का समय आया, तब मैंने अपने संकल्प से ही इसे ब्रम्हा को उपदेश किया, इसमें मेरे भागवत धर्म का ही वर्णन है । ब्रम्हा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्वायम्भुव मनु को उपदेश किया और उनसे भृगु, अंगिरा, मरीचि, पुलह, अत्रि, पुलस्त्य और क्रतु—इन सात प्रजापति-महर्षियों ने ग्रहण किया । तदनन्तर इन ब्रम्हार्षियों की सन्तान देवता, दानव, गुह्यक, मनुष्य, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, चारण, किन्देव[1], किन्नर[2], नाग, राक्षस और किम्पुरुष[3] आदि ने इसे अपने पूर्वज इन्हीं ब्रम्हर्षियों से प्राप्त किया। सभी जातियों और व्यक्तियों के स्वभाव—उनकी वासनाएँ सत्व, रज और तमोगुण के कारण भिन्न-भिन्न हैं; इसिलये उसमें और उनकी बुद्धि-वृत्तियों में भी अनेकों भेद हैं। इसलिये वे सभी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार उस वेदवाणी का भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं। वह वाणी ही ऐसी अलौकिक है कि उससे विभिन्न अर्थ निकलना स्वाभाविक ही है । इसी प्रकार स्वभाव भेद तथा परम्परागत उपदेश के भेद से मनुष्यों की बुद्धि में भिन्नता आ जाती है और कुछ लोग तो बिना किसी विचार के वेद विरुद्ध पाखण्ड मतावलम्बी हो जाते हैं । प्रिय उद्धव! सभी की बुद्धि मेरी माया से मोहित हो रही है; इसी से वे अपने-अपने कर्म-संस्कार और अपनी-अपनी रुचि के अनुसार आत्म कल्याण के साधन भी एक नहीं, अनेकों बतलाते हैं । पूर्वमीमांसक धर्म को, साहित्याचार्य वश को, कामशास्त्री काम को, योग वेत्ता सत्य और शमदमादि को, दण्डनीतिकार ऐश्वर्य को, त्यागी त्याग को और लोकायतिक भोग को ही मनुष्य-जीवन का स्वार्थ—परम लाभ बतलाते हैं । कर्मयोगी लोग यज्ञ, तप, दान, व्रत तथा यम-नियम आदि को पुरुषार्थ बतलाते हैं। परन्तु ये सभी कर्म हैं; इनके फलस्वरूप जो लोक मिलते हैं, वे उत्पत्ति और नाश वाले हैं। कर्मों का फल समाप्त हो जाने पर उनसे दुःख ही मिलता है और सच पूछो, तो उनकी अन्तिम गति घोर अज्ञान ही है। उनसे जो सुख मिलता है, वह तुच्छ हैं—नगण्य है और वे लोग भोग के समय भी असूया आदि दोषों के कारण शोक से परिपूर्ण हैं। (इसलिये इन विभिन्न साधनों के फेर में न पड़ना चाहिये) । प्रिय उद्धव! जो सब ओर से निपेक्ष—बेपरवाह हो गया है, किसी भी कर्म या फल आदि की आवश्यकता नहीं रखता और अपने अन्तःकरण को सब प्रकार से मुझे ही समर्पित कर चुका है, परमानन्दस्वरूप मैं उसकी आत्मा के रूप में स्फुरित होने लगता हूँ। इससे वह जिस सुख का अनुभव करता है, वह विषय—लोलुप प्राणियों को किसी प्रकार मिल नहीं सकता । जो सब प्रकार के संग्रह-परिग्रह से रहित—अकिंचन है, जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके शान्त और समदर्शी हो गया है, जो मेरी प्राप्ति से ही मेरे सान्निध्य का अनुभव करके ही सदा-सर्वदा पूर्ण सन्तोष का अनुभव करता है, उसके लिये आकाश का एक-एक कोना आनन्द से भरा हुआ है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रम और स्वेदादि दुर्गन्ध से रहित होने के कारण जिनके विषय में ‘ये देवता हैं या मनुष्य’ ऐसा सन्देह हो, वे द्वीपान्तर-निवासी मनुष्य।
  2. मुख तथा शरीर आकृति से कुछ-कुछ मनुष्य के समान प्राणी।
  3. कुछ-कुछ पुरुष के समान प्रतीत होने वाले वानरादि।

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