सिनेमा

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सिनेमा, फ़िल्म अथवा चलचित्र में चित्रों को इस तरह एक के बाद एक प्रदर्शित किया जाता है जिससे गति का आभास होता है। फ़िल्में अक्सर विडियो कैमरे से रिकार्ड करके बनाई जाती हैं, या एनिमेशन विधियों या स्पैशल इफैक्ट्स का प्रयोग करके बनाई जाती हैं। वर्तमान युग में सिनेमा मनोरंजन का महत्त्वपूर्ण साधन हैं लेकिन इनका प्रयोग कला-अभिव्यक्ति और शिक्षा के लिए भी होता है।

भारतीय सिनेमा

फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र का एक दृश्य

भारत विश्व में सबसे अधिक फ़िल्में बनाने वाला देश है। फ़िल्म उद्योग का मुख्य केन्द्र मुम्बई है, जिसे 'बॉलीवुड' कहा जाता है। भारतीय फ़िल्में विदेशों में भी देखी जाती हैं। भारतीय सिनेमा ने 20वीं शती के आरम्भिक काल से ही विश्व के सिनेमा जगत पर गहरा प्रभाव छोड़ा है। भारतीय सिनेमा के अन्तर्गत भारत के विभिन्न भागों और विभिन्न भाषाओं में बनने वाली फ़िल्में आतीं हैं। भारतीय फ़िल्मों का अनुकरण पूरे दक्षिण एशिया तथा मध्य पूर्व में हुआ। भारत में सिनेमा की लोकप्रियता का इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यहाँ सभी भाषाओं में मिलाकर प्रतिवर्ष 1,000 तक फ़िल्में बनी हैं। 20वीं शती में हॉलीवुड तथा चीनी फ़िल्म उद्योग के साथ भारतीय सिनेमा भी वैश्विक उद्योग बन गया था।

भारतीय सिनेमा का इतिहास

7 जुलाई 1896 को बंबई का वाटसन थिएटर में 'लुमीयर ब्रदर्स' नामक दो फ्रांसीसी अपनी फ़िल्में लेकर भारत आये। प्रीमियर क़रीब 200 लोगों ने देखा। टिकट दर थी दो रुपये प्रति व्यक्ति। यह उन दिनों एक बड़ी रकम थी। एक सप्ताह बाद इनकी ये फ़िल्में बाकायादा 'नावेल्टी थिएटर' में प्रदर्शित की गयीं। बंबई का यह थिएटर बाद में एक्सेल्सियर सिनेमा के नाम से मशहूर हुआ। रोज इन फ़िल्मों के दो से तीन शो किये जाते थे, टिकट दर थी दो आना से लेकर दो रुपये तक। इनमें 12 लघु फ़िल्में दिखायी जाती थीं। इनमें ‘अराइवल आफ ए ट्रेन’, ‘द सी बाथ’ तथा ‘ले़डीज एंड सोल्जर्स आन ह्वील’ प्रमुख थीं। लुमीयर बंधुओं ने जब भारतीयों को पहली बार सिनेमा से परिचित कराया तो लोग बेजान चित्रों को चलता-फिरता देख हैरान रह गये। हालांकि उन दिनों इन फ़िल्मों के लिए जो टिकट दर रखी गयी थी, वह काफ़ी थी लेकिन फिर भी लोगों ने इस अजूबे को अपार संख्या में देखा। पत्र-पत्रिकाओं ने भी इस नयी चीज की तारीफों के पुल बांध दिये। एक बार इन फ़िल्मों को लोकप्रियता मिली, तो भारत में बाहर से फ़िल्में आने और प्रदर्शित होने लगीं।

1904 में मणि सेठना ने भारत का पहला सिनेमाघर बनाया, जो विशेष रूप से फ़िल्मों के प्रदर्शन के लिए ही बनाया गया था। इसमें नियमित फ़िल्मों का प्रदर्शन होने लगा। उसमें सबसे पहले विदेश से आयी दो भागों मे बनी फ़िल्म ‘द लाइफ आफ क्राइस्ट’ प्रदर्शित की गयी। यही वह फ़िल्म थी जिसने भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के को भारत में सिनेमा की नींव रखने को प्रेरित किया। हालांकि स्वर्गीय दादा साहब फाल्के को भारतीय सिनेमा का जनक होने और पूरी लंबाई के कथाचित्र बनाने का गौरव हासिल है लेकिन उनसे पहले भी महाराष्ट्र में फ़िल्म निर्माण के कई प्रयास हुए। लुमीयर बंधुओं की फ़िल्मों के प्रदर्शन के एक वर्ष के भीतर सखाराम भाटवाडेकर उर्फ सवे दादा ने फ़िल्म बनाने की कोशिश की। उन्होंने पुंडलीक और कृष्ण नाहवी के बीच कुश्ती फ़िल्मायी थी। यह कुश्ती इसी उद्देश्य से विशेष रूप से बंबई के हैंगिंग गार्डन में आयोजित की गयी थी। शूटिंग के बाद फ़िल्म को प्रोसेसिंग के लिए इंग्लैंड भेजा गया। वहां से जब वह फ़िल्म प्रोसेस होकर आयी तो सवे दादा अपने काम का नतीजा देख कर बहुत खुश हुए। पहली बार यह फ़िल्म रात के वक्त बंबई के खुले मैदान में दिखायी गयी। उसके बाद उन्होंने अपनी यह फ़िल्म पेरी थिएटर में प्रदर्शित की। टिकट की दर थी आठ आना से लेकर तीन रुपये तक। अक्सर हर शो में उनको 300 रुपये तक मिल जाते थे।[1]

पहली फ़िल्म 'राजा हरिश्चंद्र'

दादा साहेब फाल्के द्वारा 1913 में बनाई गई 'राजा हरिश्चंद्र' हिन्दी सिनेमा की पहली फ़िल्म थी। फ़िल्म काफ़ी जल्द ही भारत में लोकप्रिय हो गई और वर्ष 1930 तक लगभग 200 फ़िल्में प्रतिवर्ष बन रही थीं।

फ़िल्म आलम आरा का पोस्टर

पहली सवाक फ़िल्म 'आलम आरा'

आलम आरा भारत की पहली सवाक (बोलती) फ़िल्म थी जो अर्देशिर ईरानी ने सन 1931 में बनाई। आलम आरा से पहले सभी फ़िल्में अवाक (आवाज़ नहीं) थीं। यह फ़िल्म काफ़ी ज्यादा लोकप्रिय रही। जल्द ही सारी फ़िल्में, बोलती फ़िल्में थी। आने वाले वर्षो में भारत में स्वतंत्रता संग्राम, देश विभाजन जैसी ऐतिहासिक घटना हुई। उन दरमान बनी हिंदी फ़िल्मों में इसका प्रभाव छाया रहा। 1950 के दशक में हिंदी फ़िल्में श्वेत-श्याम (ब्लैक & व्हाइट) से रंगीन हो गई। फ़िल्में के विषय मुख्यतः प्रेम होता था, और संगीत फ़िल्मों का मुख्य अंग होता था। 1960-70 के दशक की फ़िल्मों में हिंसा का प्रभाव रहा। 1980 और 1990 के दशक से प्रेम आधारित फ़िल्में वापस लोकप्रिय होने लगी। 1990-2000 के दशक मे समय की बनी फ़िल्में भारत के बाहर भी काफ़ी लोकप्रिय रही। प्रवासी भारतीयो की बढती संख्या भी इसका प्रमुख कारण थी। हिंदी फ़िल्मों में प्रवासी भारतीयो के विषय लोकप्रिय रहे।

हिन्दी सिनेमा

हिन्दी सिनेमा, जिसे बॉलीवुड के नाम से जाना जाता है, हिन्दी भाषा में फ़िल्म बनाने का फ़िल्म उद्योग है। बॉलीवुड नाम अंग्रेज़ी सिनेमा उद्योग हॉलीवुड के तर्ज़ पर रखा गया। हिन्दी फ़िल्म उद्योग मुख्यतः मुम्बई शहर में बसा है। ये फ़िल्में भारत, पाकिस्तान, और दुनिया के कई देशों के लोगों के दिलों की धड़कन हैं। हर फ़िल्म में कई संगीतमय गाने होते हैं। इन फ़िल्मों में हिन्दी की "हिन्दुस्तानी" शैली का चलन है। हिन्दी, खड़ीबोली और उर्दू के साथ साथ अवधी, मुम्बईया हिन्दी, भोजपुरी, राजस्थानी जैसी बोलियाँ भी संवाद और गानों मे उपयुक्त होते हैं। प्यार, देशभक्ति, परिवार, अपराध, भय, इत्यादि मुख्य विषय होते हैं। ज़्यादातर गाने उर्दू शायरी पर आधारित होते हैं।

प्रसिद्ध बॉलीवुड फ़िल्में
Raja Harishchandra.jpg Alam-Ara-Poster.jpg Kisan-kanya.jpg Pyaasa poster.jpg Devdas.jpg Do-Aankhen-Barah-Haath-2.jpg Do-bigha-zameen.jpg Naya-Daur.jpg Mother-India.jpg Mughal-E-Azam-1.jpg Sholay-Movie.jpg Deevaar.jpg Hunterwali-1935.jpg Garm-Hava.jpg Devdas(1955).jpg सत्यकाम.jpg Andaz (1949 film) poster.jpg Jagte-Raho-1956.jpg Anand (1971).jpg

पारसी और भारतीय सिनेमा

भारतीय सिनेमा की प्रगति में देश में बसे हुए पारसी समुदाय का अप्रतिम योगदान है। हिंदी रंगमंच जिस तरह पारसी रंगमंच का ही विस्तार है, उसी तरह सिनेमा के क्षेत्र में भी पारसी रंगमंच एवं थियेटर का महत्वपूर्ण प्रभाव है। पारसी निर्माताओं ने हिंदी फ़िल्म निर्माण में अभूतपूर्ण योगदान किया है। भारत के विभिन्न प्रान्तों में सिनेमा घरों के निर्माण और उनके संचालन में भी इस समुदाय के धनी और समृद्ध लोगों की भागीदारी सराहनीय है।

स्मरणीय तथ्य

भारतीय सिनेमा जगत से जुड़ी ढ़ेरों दिलचस्प बातें रहीं। कुछ निम्नलिखित हैं-

भारतीय सिनेमा जगत से जुड़ी ढ़ेरों दिलचस्प बातें[2]
पहला भारतीय सीरियल और सेंसरशिप श्रीराम पाटनकर ने पहले भारतीय सीरियल ‘राम वनवास’ (एक्जाइल ऑफ श्रीराम) का निर्माण किया। यह सीरियल चार अलग-अलग भागों में बनाया गया था। 1918 में भारत में ब्रितानी एक्ट की तर्ज पर सेंसरशिप लागू की गयी। इसके द्वारा फ़िल्मों की सेंसरशिप और लाइसेंसिंग की व्यवस्था की गयी।
सामाजिक हास्य फ़िल्म समाज में पाश्चात्य रहन-सहन और पाश्चात्य मूल्यों का पोषण करने वाले लोगों पर व्यंग्य करने वाली फ़िल्म ‘द इंग्लैंड रिटर्न’ का निर्माण धीरेन गांगुली ने किया। इसे पहली सामाजिक उपहास फ़िल्म का दर्जा दिया जाता है। फ़िल्म की कहानी विदेश से लंबे समय बाद लौटे भारतीय की कहानी थी, जो अपने ही देश में खुद को अजनबी महसूस करता है।
समाज सुधार वाली फ़िल्म मराठी फ़िल्मकार बाबूराव पेंटर की फ़िल्म ‘सवकारी पाश’ में एक लालची ज़मींदार एक किसान को उसकी जमीन से बेदख़ल कर देता है। ग़रीबी से लड़ता यह परिवार शहर आकर मज़दूरी करके अपना जीवन यापन करने की कोशिश करता है। इस फ़िल्म में मशहूर फ़िल्म निर्माता निर्देशक वी. शांताराम ने युवा किसान की भूमिका की थी।
देशी फ़िल्म कंपनियों और टॉकी फ़िल्म का आगमन वी. शांताराम ने 1929 में कोल्हापुर में प्रभात कंपनी और चन्दूलाल शाह ने बम्बई में द रंजीत फ़िल्म कंपनी की स्थापना की। प्रभात फ़िल्म कंपनी ने अपने 27 बरसों के सफर में 45 फ़िल्मों का निर्माण किया। रंजीत स्टूडियो में सत्तर के दशक तक फ़िल्मों का निर्माण होता रहा। इसी साल हॉलीवुड से आयातित बोलती फ़िल्म ‘मेलोडी ऑफ लव’ का प्रदर्शन हुआ।
अंग्रेज़ी में बनी चुंबन दृश्य वाली फ़िल्म हिमांशु राय की इंग्लैंड में पिक्चराइज ‘कर्मा’ में हिमांशु राय और देविका रानी मुख्य भूमिका में थे। राजकुमार और राजकुमारी की इस प्रेमगाथा में जबर्दस्त चुंबन और आलिंगन के दृश्य थे। हिमांशु राय और देविका रानी के बीच चला चार मिनट लंबा चुम्बन आज भी कीर्तिमान है। यह चुंबन विनोद खन्ना और माधुरी दीक्षित पर फ़िल्म ‘दयावान’ में पिक्चराइज चुंबन से चार गुना ज्यादा लंबा है। चूंकि, तत्कालीन ब्रिटिश शासन में चुंबन, सेक्स, हिंसा आदि टैबू नहीं थे, इसलिए इसे सेंसर की रोक का सामना तो नहीं करना पड़ा। इसके बावजूद ‘कर्मा’ सबसे असफल फ़िल्मों में शुमार की जाती है।
पार्श्व गायन की शुरुआत प्रारंभ में परदे पर नायक-नायिका अपने गीत खुद ही गाते थे। 1935 में नितिन बोस ने अपनी फ़िल्म ‘धूप छांव’ में पार्श्व गायन की तकनीक से परिचय कराया। इस तकनीक ने परदे पर कभी नजर ना आने वाले पार्श्व गायकों-गायिकाओं को भी स्टार बना दिया। ध्वनि तकनीक के विस्तार के साथ ही इन्द्रसभा और देवी देवयानी जैसे गीत संगीत से भरपूर फ़िल्मों का निर्माण हुआ।
रंगीन हुई फ़िल्में और मिले अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार फ़िल्मों के गूंगे चरित्रों को आवाज दिलाने वाले आर्देशिर ईरानी ने ही ‘किसान कन्या’ के तमाम किरदारों में रंग भरे। ‘किसान कन्या’ भारत में ही प्रोसेस की गयी पहली फ़िल्म थी। एक ग़रीब किसान और ज़मींदार की बेटी की इस रंगीन प्रेम कहानी को ख़ास सफलता नहीं मिली। वास्तविकता तो यह थी कि उस दौर में रंगीन चित्रों को दर्शकों ने मान्यता नहीं दी। सोहराब मोदी की 1953 में रिलीज फ़िल्म ‘झांसी की रानी’ टेक्नीकलर में बनायी गयी पहली फ़िल्म थी। विष्णु गोविन्द दामले और शेख फत्तेलाल की फ़िल्म ‘संत तुकाराम’ ने वेनिस फ़िल्म महोत्सव में इंटरनेशनल एग्जिबिशन ऑफ सिनेमैटोग्राफिक आर्ट की श्रेणी में चुनी गयी तीन फ़िल्मों में स्थान पाया।
सबसे ज्यादा गीतों वाली फ़िल्में मदन थियेटर द्वारा निर्मित भारत की दूसरी सवाक् फ़िल्म ‘शीरी फरहाद’ 30 मई 1931 को रिलीज हुई थी। इस फ़िल्म का निर्देशन जे. जे. मदन ने किया था। इस फ़िल्म में 18 गीत थे। सबसे ज्यादा 69 गीतों वाली फ़िल्म ‘इन्द्रसभा’ थी। इस फ़िल्म में मास्टर निसार, जहांआरा और कज्जन मुख्य भूमिका में थे।
पहला स्वप्न दृश्य और गीत राजकपूर की 1951 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘आवारा’ में नर्गिस और राजकपूर पर स्वप्न दृश्य और गीत ‘घर आया मेरा परदेसी’ फ़िल्माया गया था। इस गीत के बाद राजकपूर इंडस्ट्री के शोमैन मान लिए गये।
फ़िल्म में पहला फ्लैशबैक 1934 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘रूपलेखा’ में पहली बार फ्लैशबैक तकनीक का उपयोग किया गया था। पीसी बरुआ और जमुना मुख्य भूमिका में थे। बाद में बरुआ ने जमुना से शादी भी की थी। वह बरुआ की ‘देवदास’ में पारो भी बनीं।
पहली महिलाएं दुर्गा बाई और उनकी बेटी कमलाबाई गोखले फ़िल्मों में कदम रखने वाली पहली महिलाएं थीं। उन्होंने दादा साहेब फाल्के की 1913 में रिलीज दूसरी फ़िल्म ‘मोहिनी भस्मासुर’ में एक साथ अभिनय किया था। सवाक् फ़िल्मों की पहली महिला रानी जुबैदा थीं। उन्होंने ‘आलम आरा’ से पहले 36 मूक फ़िल्मों में अभिनय किया था।
पहली सेंसर्ड फ़िल्म 1920 में रिलीज फ़िल्म ‘ऑर्फन्स ऑफ द स्टॉर्म’ भारत में सेंसरशिप लागू होने के बाद सेंसर होने वाली पहली फ़िल्म थी। इस फ़िल्म में गिश बहनें मुख्य भूमिका में थीं।
सत्तर एमएम की फ़िल्म पाछी की 1967 में रिलीज फ़िल्म ‘एराउंड द र्वल्ड’ को सत्तर एमएम यानी 70 मिलीमीटर में बनी पहली फ़िल्म कहा जाता है परन्तु वास्तव में इस फ़िल्म को 35 एमएम में पिक्चराइज करने के बाद ब्लोअप तकनीक के जरिये 70 एमएम में बदला गया था। जैसा कि आजकल 2डी फ़िल्मों को 3डी में कन्वर्ट किया जा रहा है। भारत की 70 एमएम फॉम्रेट में बनी पहली फ़िल्म ‘शोले’ थी, जो 1975 में रिलीज हुई थी तथा इसे फोर-ट्रैक स्टीरियोफोनिक साउंड तकनीक में प्रदर्शित किया गया था।
लगातार तीन जुबली फ़िल्में देने वाला अभिनेता अमोल पालेकर भारत के पहले ऐसे अभिनेता थे जिनकी डेब्यू फ़िल्म ने सिल्वर जुबली तो मनायी ही, उसके बाद उनकी प्रदर्शित दोनों फ़िल्मों ने भी जुबलियां मनायीं। अमोल पालेकर ने 1974 में ‘रजनीगंधा’ फ़िल्म से डेब्यू किया था। इसके बाद उनकी दो फ़िल्में 1975 में छोटी सी बात और 1976 में ‘चितचोर’ रिलीज हुई थी। इन तीनों फ़िल्मों ने मुंबई में सिल्वर जुबली मनायी।
प्रमुख स्टूडियो फ़िल्म निर्माण से लेकर अब तक के कुछ प्रमुख स्टूडियो में बॉम्बे टाकीज, एवीएम प्रोडक्शन्स, जैमिनी स्टूडियोज, गुरुदत्त मूवीज प्रा. लि., मिनर्वा थियेटर, मॉडर्न थियेटर्स, बीएन सरकार न्यू थियेटर्स, प्रभात फ़िल्म कंपनी, प्रसाद स्टूडियोज, मदन थियेटर, फ़िल्मिस्तान, फेमस स्टूडियोज, आर. के स्टूडियोज तथा वर्तमान में चल रहे वॉय फ़िल्म्स, यूटीवी मोशन पिक्चर्स, रामोजी फ़िल्म सिटी, फ़िल्मसिटी मुंबई, महबूब स्टूडियो, बी4यू फ़िल्म्स, रंजित स्टूडियोज आदि उल्लेखनीय हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. त्रिपाठी, राजेश। हिंदी सिनेमा का इतिहास (हिन्दी) सिनेमा जगत (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 10 नवम्बर, 2012।
  2. भारतीय सिनेमा के सौ साल: कुछ दिलचस्प पहलू (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) समय लाइव। अभिगमन तिथि: 24 दिसम्बर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

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