सैयद बन्धु

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सैय्यद बन्धु ('हुसैन अली' और उसका भाई 'अब्दुल्ला') 'भारतीय इतिहास' में 'राजा बनाने वाले' के नाम से प्रसिद्ध थे। तत्कालीन मुग़ल साम्राज्य में इन दोनों भाइयों की ख़ास भूमिका थी। सैय्यद बन्धुओं का राज्य में काफ़ी प्रभाव था। राज्य में अपने प्रभाव के कारण वे किसी को भी बादशाह बनाने की क्षमता रखते थे। वे अवध के एक उच्च परिवार में उत्पन्न हुए और सम्राट बहादुर शाह प्रथम के राज्यकाल के अन्तिम वर्षों में उच्च पदाधिकारी हो गए। ये लोग हिन्दुस्तानी दल के नेता थे।

भारत आगमन

अब्दुल्ला ख़ाँ और हुसैन अली मुग़ल दरबार में सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बन चुके थे। इन्होंने चार मुग़ल बादशाहों-फ़र्रुख़सियर, रफ़ीउद्दाराजात, रफ़ीउद्दौलत और मुहम्मद शाह को सत्तारूढ़ करने में उनकी सहायता की। बारा (सम्भवत: बारह गाँव जो इनके थे, उनसे बिगड़कर बना शब्द) के अब्दुल्ला ख़ाँ और हुसैन अली अबुल फ़रह के वंशज थे। ये मोसोपोटामिया से आए थे और पटियाला के समीप के क्षेत्रों में बस गए थे। उत्तराधिकार के युद्ध में दोनों भाईयों (अब्दुल्ला ख़ाँ और हुसैन अली) ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1708 ई. में राजकुमार अजीम-उस-शान ने हुसैन अली को बिहार में एक महत्त्वपूर्ण पद प्रदान किया। 1711 ई. में उसने अब्दुल्ला ख़ाँ को इलाहाबाद में अपना नायब नियुक्त किया।

पद और उपाधि

इस अहसान के बदले में सैयद बन्धुओं ने 1713 ई. में दिल्ली की गद्दी के लिए हुए युद्ध में अजीम-उस-शान के पुत्र फ़र्रुख़सियर का साथ दिया। सैयद बन्धुओं के इस कार्य से प्रसन्न होकर फ़र्रुख़सियर ने अब्दुल्ला ख़ाँ को अपना वज़ीर अथवा प्रधानमंत्री नियुक्त किया और उसे कुतुबुलमुल्क़, यामीनउद्दौला, जफ़रजंग आदि उपाधियों से विभूषित किया तथा हुसैन अली को मीर बख़्शी के पद पर नियुक्त किया तथा इमादुलमुल्क़ आदि की उपाधि से विभूषित किया। प्रसिद्ध लेखक ख़फ़ी ख़ाँ के अनुसार फ़र्रुख़सियर की यह प्रथम भूल थी, कि उसने अब्दुल्ला ख़ाँ को अपना वज़ीर बनाया। सैयद बन्धुओं को इतने महत्त्वपूर्ण पद देने से ईरानी तथा तुरानी सरदारों की ईर्ष्या भड़क उठी और उन्होंने इन दोनों बन्धुओं के बीच षड्यंत्र करना शुरू कर दिया।

फ़र्रुख़सियर का वध

इन षड्यंत्रकारियों में सबसे प्रमुख मीर जुमला था, जो सम्राट का कृपापात्र था, जिसे सम्राट ने राजाज्ञा पर हस्ताक्षर करने का अधिकार दे दिया था। मीर जुमला के इस अधिकार ने सैयद बन्धुओं के विरुद्ध एक के बाद कई षड्यंत्र रचे, किन्तु सफलता नहीं मिली। इसी समय वह एक निम्न कुल के कश्मीरी मुहम्मद मुराद अथवा इत्काद ख़ाँ के प्रभाव में आ गया। सम्राट अब्दुल्ला ख़ाँ के स्थान पर इत्काद ख़ाँ को वज़ीर बनाना चाहता था। फ़र्रुख़सियर ने ईद-उल-फ़ितर के अवसर पर लगभग 70,000 सैनिक एकत्रित कर लिए। उधर अब्दुल्ला ख़ाँ ने भी एक विशाल सेना एकत्रित कर ली थी। हुसैन अली को जब अपने भाई और सम्राट के सम्बन्धों का पता चला तो वह मराठों की सहायता से दिल्ली पर चढ़ आया। उधर अब्दुल्ला ख़ाँ ने भी महत्त्वपूर्ण सरदारों को लालच देकर अपने साथ मिला लिया था, जिसमें सरबुलन्द ख़ाँ निज़ामुलमुल्क़ और अजीत सिंह जैसे प्रमुख व्यक्ति सम्मिलित थे। सैयद बन्धुओं ने सम्राट के सामने अपनी माँगें रखीं, जिसे सम्राट को स्वीकार करना पड़ा। अन्त में सैयद बन्धुओं ने 28 अप्रैल, 1719 ई. को सम्राट फ़र्रुख़सियर का वध कर डाला।

षड्यंत्र की रचना

फ़र्रुख़सियर की हत्या के बाद सैयद बन्धुओं का प्रभुत्व पूरी तरह स्थापित हो गया। वे ईरानी और तूरानी सरदारों को लगभग शून्य के बराबर समझते थे। सैयद बन्धुओं के प्रभाव को ख़त्म करने के लिए उनके विरुद्ध षड्यंत्र किया गया, जिसके नेता निज़ामुलमुल्क़ (चिनकिलिच ख़ाँ) थे। सैयद बन्धु निज़ामुलमुल्क़ की योग्यता से परिचित थे। अत: उन्होंने उसे मालवा का सूबेदार बनाकर दिल्ली से बाहर भेज दिया। निज़ामुलमुल्क़ को इस बात का एहसास हो गया था कि बल प्रयोग से राज्य परिर्वतन सम्भव नहीं है। अत: उसने दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में उसने असीरगढ़ का दुर्ग जीत लिया तथा दक्षिण भारत के नायब सूबेदार आलम अली ख़ाँ, जो हुसैन अली का दत्तक पुत्र था, को मार डाला।

सैयद बन्धुओं की हत्या

उधर दिल्ली में एतमादुद्दौला, सआदत अली ख़ाँ और हैदर ख़ाँ द्वारा सैयद बन्धुओं के विरुद्ध एक षड्यंत्र रचा गया। इस षड्यंत्र में राजमाता भी शामिल थी। हैदर ख़ाँ ने हुसैन अली को मारने का बीड़ा उठाया। दरबार में याचिका पढ़ते समय हैदर ख़ाँ द्वारा हुसैन अली की छुरा मारकर हत्या कर दी गई। अर्विन ने इस पर कहा है, “भारतीय कर्बला में दूसरे याज़ीद ने दूसरे हुसैन को शहीद कर दिया”।

अब्दुल्ला ख़ाँ ने अपने भाई का बदला लेने के लिए एक विशाल सेना एकत्रित की। उसने मुहम्मद शाह के स्थान पर रफ़ी-उस-शान के पुत्र मुहम्मद इब्राहीम को सम्राट घोषित करने का प्रयास किया। किन्तु 13 नवम्बर, 1720 को हसनपुर के स्थान पर अब्दुल्ला ख़ाँ हार गया तथा उसे बन्दी बना लिया गया। 2 वर्ष के बाद 11 अक्टूबर, 1722 ई. को उसे विष देकर मार दिया गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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