सोनगिरि

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सोनगिरि मध्य प्रदेश के दतिया से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। झाँसी-दतिया मुख्य रेलवे लाइन पर स्थित सोनगिरि एक मुख्य तीर्थ स्थान है। यह स्थान और यहाँ के मन्दिर जैन धर्म के 'दिगम्बर सम्प्रदाय' के पवित्रतम स्थान है। इतिहास में सोनगिरि क्षेत्र पर भट्टारकों की चार गट्टियाँ रही थीं, जो ग्वालियर के भट्टारकों की शाखा के रूप में स्थापित हुई थीं। इस तीर्थ स्थल को प्रकृति ने अपनी भरपूर छटा से संवारा, इतिहास ने स्तुत्य गौरव प्रदान किया और अधयात्म ने इसे तपोभूमि बनाकर निर्वाण के कारण सिद्ध क्षेत्र बनाया है।

सोनगिरी के मंदिर जैन धर्म के दिगंबर सम्प्रदाय का पवित्र तीर्थस्थल है। इसी स्थान पर राजा नंगनाग ने अपने 15 मिलियन अनुयायियों के साथ मोक्ष प्राप्त किया था। भक्तगणों और संतों के बीच यहां के मंदिर बहुत लोकप्रिय है। वे यहां आकर मोक्ष प्राप्ति और आत्मानुशासन का अभ्यास करते हैं। सोनगिरी के पहाड़ी पर 77 मंदिर और पास के गांव में 26 जैन मंदिर हैं। पहाड़ी पर बना 57 नंबर का मंदिर यहां का मुख्य मंदिर है। इस मंदिर में भगवान चन्द्रप्रभु की 11 फीट ऊंची आकर्षक प्रतिमा स्थापित है। यहां भगवान शीलतनाथ और पार्श्‍वनाथ की भी सुंदर प्रतिमाएं स्थापित हैं। सोनगिरी दतिया से 15 किमी. की दूरी पर है।

वर्तमान मध्यप्रदेश के दतिया जिले में झांसी-दतिया मुख्य रेल लाइन पर सोनगिरि नाम से ही रेलवे स्टेशन है। स्टेशन से लगभग 4-5 किलोमीटर की दूरी पर यह जैन तीर्थ अवस्थित है । सोनगिरि में प्राकृतिक रमणीयता से परिपूर्ण पहाड़ पर प्राचीन 77 शिखर युक्त जैन मंदिर है, तलहटी में आबादी भी है। जिसे ’’सनावल’’ गांव के नाम से जानते हैं । पर्वत के अतिरिक्त तलहटी में अठारह जैन मंदिर और पन्द्रह धर्मशालायें भी तीर्थ यात्रियों की सुविधा हेतु निर्मित हैं। आधुनिक निर्माण जारी है। इतिहास

सोनागिरि का प्राचीन नाम श्रमणांचल,श्रमणगिरि और स्वर्णगिरि रहा है। जैन परंपरा के अनुसार सोनगिरि से करोडों साधुओं ने निर्वाण की प्राप्ति की और अष्टम तीर्थंकर श्री चन्दप्रभु के समवरण का भी यहाँ अनेक बार आगमन हुआ था।

णंगाणंग कुमारा कोटी पंचद्व मुणिवरे सहिता। सोनगिरिवरसिहरे णिव्वणगया णमों तेसिं ।। अर्थात श्रीपुर के महाराजा श्री अरिंजय, मालव देश के महामण्डलिक सम्राट धनंजय और तिलिंग देश के महाबली नरेश अमृत विजय और 1500 अन्य राजा महाराजाओं ने इस तीथृ से चन्द्रप्रभु भगवान के समवरण में दीक्षा ली। महाराज असिंजय के विलक्षण पुत्र नंग और अनंग दोनों राजकुमारों ने उत्तम राजभोग त्यागकर भरी जवानी में चन्द्रप्रभु की देशना से प्रभावित होकर जिन दीक्षा ली और उज्जैन के महाराज श्रीदत्त इन्हीं मुनिवरों के प्रभाव से 2000 राजाओं के साथ दिगम्बर मुनि हुये थे । सोनगिरि क्षेत्र पर भट्टारकों की चार गट्टियाँ रही थीं जो ग्वालियर के भट्टारकों की शाखा के रूप में स्थापित हुई थीं। इस तीर्थ स्थल को प्रकृति ने अपनी भरपूर छटा से संवारा, इतिहास ने स्तुत्य गौरव प्रदान किया और अधयात्म ने इसे तपोभूमि बनाकर निर्वाण के कारण सिद्व क्षेत्र बनाया। भव्य जिनालयों के अतिरिक्त इस पर्वत के चमत्कारी स्थल भी चर्चित हैं। एक तो नारियल कुण्ड जो एक शिला में नारियल के आकार का कटा हुआ है। दूसरा बाजनी शिला एक विशेष शिलाखंड जिसे बजाने से धातुई प्रतिध्वनि मिलती है। अधिकांश जिनालय प्राचीन मंदिर निर्माण शैली पर निर्मित हैं। इनमें मंदिर संख्या 52 प्राचीन शैली का विशाल जिनालय,मंदिर संख्या 59 गुम्बज वाला मदिर और मंदिर संख्या 6 की रचना मेरू शैली पर आधारित है। चक्कीनुमा होने के कारण इसे पिसनहारी का मंदिर भी कहा जाता है। सोनागिरि का 57 मुख्य जिनालय तीर्थंकर चन्दप्रभु का है जो प्रकृति के क्रीड़ंाकन में अपनी विशालता,रमणीयता सिद्धता के लिये विख्यात है। इस जिनाय में मूलनायक तीर्थंकर चन्द्रप्रभु की 12 फुट उŸाुंग कायोत्यर्ग प्रतिमा है। शिल्पकार ने इस मूर्ति में देशी पाषाण पर सर्वांग शौष्ठव का इतना सजीव उत्कीर्णन किया है कि चन्द्रप्रभु की विहंसित और ध्यानस्थ मूर्ति के सामने जाते ही दर्शक भाव विभोर हो नतमस्तक हो जाता है। इसके गर्भगृह में दो लेख देवनागरी लिपि में हैं। एक शिलालेख में 1233 वि.स. अंकित है। चन्द्रप्रभु प्रतिमा के एक शिलालेख में संवत् 335 मात्र पढने आता है। विद्वानें का मत है कि यह 1335 संवत् रहा होगा। प्रथम अंक 1 दब या मिट गया प्रतीत होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रतिमा पर्वत में ही उकेरी गई है। आगे इसी जिनालय में 6.50 फुट ऊँची पाशर्वनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा है। आगे की वेदिका पर तीर्थंकर नेमीनाथ,पाश्र्वनाथ,चंद्रप्रभु और शांतिनाथ के श्वेतवर्ण प्रतिमायें है। अंत में 9 फणों वाली पद्यमासन मुद्रा में सुपाश्र्वनाथ की मूर्ति है जिसका चिन्ह स्वास्तिक नीचे अंकित है। चंद्राप्रभु भगवान के विशाल मंदिर के आगे उŸाुंग मानस्तम्भ है। पर्वत पर प्रकृति नटी की क्रीडा, मंदिर की सतत् भक्ति, मानस्तंभ और सरोवर आदि इस तीर्थ में अत्यंत शोभायमान और मनोहारी दृश्य प्रस्तुत करते है। वर्षा ऋतु में तो यह तीर्थ और भी रमणीक हो उठता है। कल-कल करते झरने,कलरव करते पक्षी और धवल आकाश के नीचे हरियाली के गलीचों पर नाचते मोर मदमस्त हो गंजारते हैं। इस कृति लेखक के शब्दों में - चाँदी जहाँ धरा पर बिछती,नभ सोना बरसाये चंद्रप्रभु के मंदिर में जहाँ चंदा दूध नहाये सूरज से सँवरे सोनागिरि, बंदों रे तीरथ श्रमणगिरि। प्रतिवर्ष होली के अवसर पर यहाँ विशाल जन पदीय मेला आयोजित होता हैं। वर्तमान प्रबंधकारिणी समिति की ओर से तीर्थ पर नवनिर्माण और सज्जा की उत्तम व्यवस्था की गई है। यात्रियों के विश्राम आदि की अच्छी सुविधायें भी लगभग निशुल्क उपलब्ध हैं। देश के केन्द्र में होने और प्राकृतिक पावन परिवेश इत्यादि अनेक कारणों से यहाँ महावीर स्वामी के सिद्धांतों पर आधरित एक जैन विश्वविद्यालय स्थापित करने का प्रयास विचाराधीन है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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