सोमनाथ

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श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग

श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग गुजरात (सौराष्ट्र) के काठियावाड़ क्षेत्र के अन्तर्गत प्रभास में विराजमान हैं। इसी क्षेत्र में लीला पुरूषोत्तम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने यदु वंश का संहार कराने के बाद अपनी नर लीला समाप्त कर ली थीं। ‘जरा’ नामक व्याध (शिकारी) ने अपने बाणों से उनके चरणों (पैर) को बींध डाला था। शिव पुराण में भगवान सोमनाथ का परिचय इस प्रकार दिया है-

शिव पुराण में श्री सोमनाथ

द्वादश ज्योतिर्लिंग में सोमनाथ की गणना प्रथम है। इनके आविर्भाव का प्रकरण प्रजापति दक्ष और चन्द्रमा के साथ जुड़ा है। जब प्रजापति दक्ष ने अपनी अश्विनी आदि सभी सत्ताइस पुत्रियों का विवाह चन्द्रमा के साथ कर दिया, तो वे बहुत प्रसन्न हुए। पत्नी के रूप में दक्ष कन्याओं को प्राप्त कर चन्द्रमा बहुत शोभित हुए और दक्षकन्याएँ भी अपने स्वामी के रूप में चन्द्रमा को प्राप्त कर शोभायमान हो उठी। चन्द्रमा की उन सत्ताइस पत्नियों में रोहिणी उन्हें अतिशय प्रिय थी, जिसको वे विशेष आदर तथा प्रेम करते थे। उनका इतना प्रेम अन्य पत्नियों से नहीं था। चन्द्रमा की उदासीनता और उपेक्षा का देखकर रोहिणी की अपेक्षा शेष स्त्रियाँ बहुत दुःखी हुई। वे सभी स्त्रियाँ अपने पिता दक्ष की शरण में गयीं और उनसे अपने कष्टों का वर्णन किया। अपनी पुत्रियों की व्यथा और चन्द्रमा के दुर्व्यवहार को सुनकर दक्ष भी बड़े दुःखी हुए। उन्होंने चन्द्रमा से भेंट की और शान्तिपूर्वक कहा- ‘कलानिधे! तुमने निर्मल व पवित्र कुल में जन्म लिया है, फिर भी तुम अपनी पत्नियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करते हो। तुम्हारे आश्रय में रहने वाली जितनी भी स्त्रियाँ हैं, उनके प्रति तुम्हारे मन मे कम और अधिक, ऐसा सौतेला व्यवहार क्यों है? तुम किसी को अधिक प्यार करते हो और किसी को कम प्यार देते हो, ऐसा क्यों करते हो? अब तक जो व्यवहार किया है, वह ठीक नहीं है, फिर अब आगे ऐसा दुर्व्ववहार तुम्हें नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति आत्मीयजनों के साथ विषमतापूर्ण व्यवहार करता है, उसे नर्क में जाना पड़ता है।’ इस प्रकार प्रजापति दक्ष ने अपने दामाद चन्द्रमा को प्रेमपूर्वक समझाया और ऐसा सोच लिया कि चन्द्रमा में सुधार हो जाएगा। उसके बाद प्रजापति दक्ष वापस चले गये।

  • शिव महापुराण के कोटिरूद्र संहिता के चौदहवें अध्याय में लिखा है-

विमले च कुले त्वं हि समुत्पन्नः कलानिधे।
आश्रितेषु च सर्वेषु न्यूनाधिक्यं कथं तव।।
कृतं चेतत्कृतं तच्च् न कर्त्तव्यं त्वया पुनः।
वर्तनं विषमत्वेन नरकप्रदमीरितम्।।

प्रबल भावी के कारण विवश चन्द्रमा ने अपने ससुर प्रजापति दक्ष की बात नहीं मानी। रोहिणी के प्रति अतिशय आसक्ति के कारण उन्होंने अपने कर्त्तव्य की अवहेलना की तथा अपनी अन्य पत्नियों का कुछ भी ख्याल नहीं रखा और उन सभी से उदासीन रहे। दुबारा समाचार प्राप्त कर प्रजापति दक्ष बड़े दुःखी हुए। वे पुनः चन्द्रमा के पास आकर उन्हें उत्तम नीति के द्वारा समझने लगे। दक्ष ने चन्द्रमा से न्यायोचित (न्यायापूर्वक) बर्ताव करने की प्रार्थना की । बार-बार आग्रह करने पर भी चन्द्रमा ने अवहेलनापूर्वक जब दक्ष की बात नहीं मानी, तब उन्होंने शाप दे दिय। दक्ष ने कहा कि मेंरे आग्रह करने पर भी तुमने मेरी अवज्ञा की है, इसलिए तुम्हें क्षयरोग (टी.बी.) हो जाय- श्रयतां चन्द्र यत्पूर्व प्रार्थितो बहुधा मया।, न मानितं त्वया यस्मात्तस्मात्त्वं च क्षयी भव<balloon title="शिव पुराण कोटि रूद्र संख्या 14-18" style=color:blue>*</balloon>।। दक्ष द्वारा शाप देने के साथ ही क्षणभर में चन्द्रमा क्षयरोग से ग्रसित हो गये। उनके क्षीण होते ही सर्वत्र हाहाकार मच गय। सभी देवगण तथा ऋषिगण भी दिया जाय। परेशान चन्द्रमा ने अपनी असवस्थता तथा उसके कारणों की सूचना इन्द्रादि देवताओं तथा ¬ऋषियों की दी। उसके बाद उनकी सहायता के लिए इन्द्र आदि देवता तथा वसिष्ठ आदि ऋषिगण ब्रह्माजी की शरण में गये। ब्रह्माजी ने उनसे कहा कि जो घटना हो गई है, उसे तो भुगतना ही है, क्योंकि दक्ष क निश्चय का पलटा नहीं जा सकता। उसके बाद ब्रह्माजी ने उन देवताओं को एक उत्तम उपाय बताया। ब्रह्मा ने कहा कि चन्द्रमा देवताओं के साथ कल्याणकारक शुभ प्रभास क्षेत्र में चले जायें। वहाँ पर विधिपूर्वक शुभ मुत्युंजय-मत्रं का अनुष्ठान करते हुए श्रद्धापूर्वक भगवान् शिव की आराधना और तपस्या जब भगवान् भोलेनाथ प्रसन्न् हो जाएँगे, तो वे इन्हें क्षय रोग से मुक्त कर देगें। पितामह ब्रह्माजी की आज्ञा का स्वीकार कर देवताओं और ¬ऋषियों के सरंक्षण मे चन्द्रमा देवमण्डल सहित प्रभास क्षेत्र में पहूँच गये। वहाँ चन्द्रदेव ने मृत्युंजंय भगवान् की अर्चना-वन्दना और अनुष्ठान प्रारम्भ किया। वे मृत्युंजय-मत्र का जप तथा भगवान् शिव की उपासना में तल्लीन हो गये। ब्रह्मा की ही आज्ञा के अनुसार चन्द्रमा ने छः महीने तक निरन्तर तपस्या की ओर वृषभध्वज का पजून किया। दस करोड़ मृत्यंजय-मंत्र का जप तथा ध्यान करते हुए चन्द्रमा स्थिरचित से वहाँ निरन्तर खड़े रहे। उनकी उत्कट तपस्या से भक्तवत्सल भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये। उन्होंने चन्द्रमा से कहा- ‘चन्द्रदेव! तुम्हारा कल्याण हो। तुम जिसके लिए यह कठोर तप कर रहे हो, उस अपनी अभिलाषा को बताओ।मै तुम्हारी इच्छा के अनुसार तुम्हें उत्तम वर प्रदान करूँगा।’ चन्द्रमा ने प्रार्थना करते हुए विनयपूर्वक कहा- ‘देवेश्वर! आप मेरे सब अपराधों को क्षमा करें और मेरे शरीर के इस क्षयरोग को दूर कर दें।’ भगवान् शिव ने कहा–‘चन्द्रदेव! तुम्हारी कल प्रतिदिन एक पक्ष में क्षीण हुआ करेगी, जबकि दूसरे पक्ष में प्रतिदिन वह निरन्तर बढ़ती रहेगी। इस प्रकार तुम स्वस्थ और लोक-सम्मान के योग्य ही जाओगे। भगवान् शिव का कृपा-प्रसाद प्राप्त क चन्द्रदेव बहुत प्रसन्न् हुए। उन्होंने भक्तिभाव पूर्वक शंकर की स्तुति की। ऐसी स्थिति में निराकार शिव उनकी दृढ़ भक्ति को देखकर साकार लिंग रूप में प्रकट हो गये तथा प्रभास क्षेत्र के महत्व का बढाने हेतू देवताओं के सम्मान तथा चन्द्रमा के यश कि विस्तार करने के लिए स्वयं ‘सोमेश्वर’ कहलने लगे। चन्द्रमा के नाम पर सोमनाथ बने भगवान् शिव संसार में ‘सोमनाथ’ के नाम से भी प्रसि) हुए। सोमनाथ भगवान् की पूजा और उपासना करने से उपासक भक्त के क्षय तथा कोढ़ आदि रोग सर्वथा नष्ट हो जाते हैं और वह स्वस्थ हो जाता है। यशस्वी चन्द्रमा के कारण ही सोमेश्वर भगवान् शिव इस भूल भूतल को परम पवित्र करते हुए प्रभास क्षेत्र मे विराजते हैं। उस प्रभास क्षेत्र में सभी देवताओं ने मिलकर एक सोमकुण्ड की भी स्थापना की है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस कुण्ड में शिव तथा ब्रह्मा का सदा निवास रहता है। इस पृथ्वी पर यह चन्द्रकुण्ड मनुष्यों के पाप नाश करने वाले के रूप में प्रसिद्ध है। इसे ‘पापनाशक’-तीर्थ’ भी कहते हैं। जो मनुष्य इस चन्द्रकुण्ड में स्नान करता है, वह सब प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है। इस कुण्ड में बिना नागा किये छः माह तक स्नान करने से क्षय आदि दुःसाध्य और असाध्य रोग भी नष्ट हो जाते हैं। मुनष्य जिस किसी भी भावना या इच्छा से इस परम पवित्र और उत्तम तीर्थ का सेवन करता है, तो वह बिना संशय ही उसे प्राप्त कर लेता है। शिव महापुराण की कोटिरूद्र संहिता के चौदहवें अध्याय में उपर्युक्त आशय वर्णित है-

चन्द्रकुण्डं प्रसिद्ध च पृथिव्यां पापनाशनम्।
तत्र स्नाति नरो यः स सर्वेः पापैः प्रमुच्यते।।
रोगाः सर्वे क्षयाद्याश्च ह्वासाध्या ये भवन्ति वै।
ते सर्वे च क्षयं यान्ति षण्मासं स्नानमात्रतः।।
प्रभासं च परिक्रम्य पृथिवीक्रमसं भवम्।
फलं प्राप्नोति शुद्धात्मा मृतः स्वर्गे महीयते।।
सोमलिंग नरो दृष्टा सर्वपापात्प्रमुच्यते ।
लब्धवा फलं मनोभीष्टं मृतः स्वर्गं समीहते।।

इस प्रकार सोमनाथ के नाम से प्रसिद्ध भगवान् शिव देवताओं की प्रार्थना पर लोक कल्याण करने हेतू प्रभास क्षेत्र में हमेशा-हमेशा के लिए विराजमान हो गये। इस प्रकार शिव-महापुराण में सोमेश्वर महादेव अथवा सोमनाथ ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति का वर्णन है। इसके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में लिखी कथा भी इसी से मिलती-जुलती है। प्राचीन भारतीय इतिहास और आधुनिक भारत के इतिहास में भी सोमनाथ-मन्दिर को सन् 1024 में महमूद गजनवी ने भ्रष्ट कर दिया था। मूर्ति भंजक (मूर्ति का तोड़ने वाला व मूर्तिपूजा विरोधी) होने के कारण तथा सोना-चाँदी को लूटने के लिए उसने मन्दिर में तोड़-फोड़ की थी। मन्दिर के हीरे-जवाहरातो को लूट कर वह अपने देश गजनवी लेकर चला गया। उक्त सोमनाथ-मन्दिर का भग्नावशेष आज भी समुद्र के किनारे विद्यमान है। इतिहास के अनुसार बताया जाता है कि जब महमूद गजनवी उस शिवलिंग को नहीं तोड़ पाया, तब उसने उसके अगल-बगल मे भीषण आग लगवा दी। सोमनाथ मन्दिर में नीलमणि के छप्प्न खम्भे लगे हुए थे। उन खम्भों में हीरे-मोती तथा विविध प्रकार के रत्न जड़े हुए थे। उन बहुमूल्य रत्नों को लुटेरों ने लूट लिया और मन्दिर को भी नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। महमूद के मन्दिर लूटने के बाद राजा भीमदेव ने पुनः उसकी प्रतिष्ठा कीं। सन् 1093. में सिद्धराज जयसिंह ने भी मन्दिर की प्रतिष्ठा और उसके पवित्रीकरण में भरपूर सहयोग किया। 1168 में विजयेश्वर कुमारपाल ने जैनाचार्य हेमचन्द्र सरि के साथ सोमनाथ की यात्रा की थी। उन्होंने भी मन्दिर का बहुत कुछ सुधार करवाया था। इसी प्रकार सौराष्ट्र के राजा खंगार ने भी सोमनाथ-मन्दिर का सौन्द्रयीकरण कराया था। उसके बाद भी मुसलमानों ने बहुत दुराचार किया और मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट करते रहे। अलाऊद्दीन खिलजी ने सन् 1297 ई0 में पुनः सोमनाथ-मन्दिर का ध्वंस किया। उसके सेनापति नुसरत खाँ ने जी-भर मन्दिर को लूटा। सन् 1395 ई0 में गुजरात का सुल्तान मुजफ्फरशाह भी मन्दिर का विध्वंस करने में जुट गयां अपने पितामह के पदचिन्ह्वों पर चलते हुए अहमदशाह ने पुनः सन् 1413 ई0 में सोमनाथ-मन्दिर को तोड़ डाला। प्राचीन स्थापत्यकला जा उस मन्दिर में दृष्टिगत होती थी, उन सबको उसने तहस-नहस कर डाला। भारतीय स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद राष्ट्र के प्रथम राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद ने देश के स्वाभिमान को जाग्रत करते हुए पुनः सोमनाथ मन्दिर क भव्य निर्माण कराया आज पुनः भारतीय-संस्कृति और सनातन-धर्म की ध्वजा के रूप में सोमेश्वर ज्योतिर्लिंग ‘सोमनाथ मन्दिर’ के रूप में शोभायमान है। सोमनाथ का मन्दिर जिस स्थान पर स्थित है, उसे वेरावल, सोमनाथपाटण, प्रभास और प्रभासपाटण आदि नामों से जाना जाता है। सौराष्ट्र के पश्चिमी रेलवे की राजकोट-वेरीवल तथा खिजडिया वेरावल लाइनें हैं। इन दोनों ओर से वेरावल पहूँज जाता है। वेरावल रेलवे स्टेशन से प्रभास पाटल पाँच किलोमीटर की दूरी पर है। स्टेशन से बस, टैक्सी आदि के द्वारा प्रभासपाटाण पहूँचा जा सकता है। सोमनाथ में धर्मयात्रियों के लिए अनेक पवित्र और दर्शनीय स्थान विद्यमान हैं। प्रभासपाटाण नगर के बाहर ही एक ‘समुद्रका’ नामक अग्निकुण्ड हैं सर्वप्रथम यात्रीगण इसी कुण्ड में स्नान करते हैं, उसके बाद वे प्राची त्रिवेणी में स्नान करने के लिए जाते हैं। सोमनाथ का मूल मन्दिर जो आततायियों द्वारा बार-बार नष्ट किया गया था, वह आज भी अपने मूलस्थान समुद्र के किनारे ही है। स्वाधीन भारत के प्रथ गृहमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने यहाँ भव्यमन्दिर का निर्माण कराया था। सोमना के मूल मन्दिर से कुछ ही दूरी पर अहल्याबाई द्वारा बनवाया गया सोमनाथ का मन्दिर है। यहाँ भू-गर्भ में (भूमि के नीचे) सोमनाथलिंग की स्थापना की गई है। भू-गर्भ में होने के कारण यहाँ प्रकाश का अभाव रहता है। इस मन्दिर में पार्वती, सरस्वती, लक्ष्मी, गंगा और नन्दी की भी मूर्तियाँ स्थापित हैं। भूमि के ऊपरी भाग में शिवलिंग से ऊपर अहल्येश्वर मूर्ति है। मन्दिर के परिसर में गणेशजी का मन्दिर है और उत्तर द्वार के बाहर अघोरलिंग की मूर्ति स्थापित की गई है। प्रभावनगर में अहल्याबाई मन्दिर के पास ही महाकाली का मन्दिर है। इसी प्रकार गणेशजी, भद्रकाली तथा भगवान् विष्णु का मन्दिर नगर में विद्यमान् है। नगर के द्वार के पास गौरीकुण्ड नामक सरोवर है। सरोवर के पास ही एक प्राचीन शिवलिंग है। नगर के द्वार से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर प्राची त्रिवेणी है। उससे पहले ही रास्ते में ब्रह्माकुण्ड नामक बावली मिलती है। वहीं पर ब्रह्माकण्डलु नामक तीर्थ और ब्रह्मेश्वर शिवमन्दिर भी स्थित है। इससे आग्र चलने पर ‘आदिप्रभास’ तथा ‘जलप्रभास’ नामक दो कुण्डों का दर्शन होता है। हिरण्या, सरस्वती और कपिला नाम वाली तीन नदियों नगर से पूरब की दिशा में समुद्र में जाकर मिलती है। नगर से पूरब में इन तीनों नदियों का संगम होने के कारण ही इसे ‘प्राची त्रिवेणी’ कहा जाता है। सबसे पहले ‘कपिला’ सरस्वती में मिलती है, उसके बाद ‘सरस्वती’ हिरण्या में मिलती है, फिर ‘हिरण्या’ समुद्र मे जा मिलती है। प्राचीन त्रिवेणी संगम से कुछ ही दूर पर सूर्य भगवान् का मन्दिर है। उससे आग चलने पर हिंगलाज भवानी और महादेव सिद्धनाथ का मन्दिर एक गुफा के भीतर प्राप्त होता है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ से बलदेव जी शेषरूप धारण करके पाताल में गये थे। वहीं समीप में ही श्री बल्लभाचार्यजी की बैठक है, जहाँ त्रिवेणी माता, मन्दिर हैं। इस स्थान को ‘देहोत्सर्ग-तीर्थ में बाण लगा था, उसके बाद वे यहाँ पर आगये थे और फिर अन्तर्धान हो गये थे। कल्पभेद की कथा के अनुसार श्रीकृष्णचन्द्र के शरीर का यहीं अग्नि-संस्कार किया गया था। देहोत्सर्ग तीर्थ से कुछ आगे चलकर हिरण्यानदी के किनारे यादवस्थली मिलती है। ऐसी लोकमान्यता है कि इस यादवस्थली पर ही आपस में लड़ते हुए यादवगण नष्ट हो गये थे। वेरोवल रेलवे स्टेशन से सोमनाथ आते समय रास्ते में समुद्र के किनारे बाणतीर्थ अवस्थित है। इस तीर्थ में शशिभूषण महादेव का प्राचीन मन्दिर है। समुद्र के किनारे बाणतीर्थ से पश्चिम की ओर चन्द्रभाग तीर्थ है। इस तीर्थ में बालू (रेत) के ऊपर ही कलिलेश्वर महादेव का स्थान है। बाणतीर्थ से लगभग पाँच किलोमीटर पर भालुपुर गाँव के पास भालक-तीर्थ है। यहाँ पर पास-पास मे ही भालकुण्ड और पद्मकुण्ड नामक सरोवर हैं। यहीं पर एक पीपल-वृक्ष के नीचे भालेश्वर शिव का स्थान है। इस पेड़ को मोक्ष-पीपल भी कहा जाता है। ऐसी प्रसिद्धि है कि इसी वृक्ष के (पीपल) नीचे बैठे श्रीकृष्णचन्द्र को उनके चरण में ‘जरा’ नामक व्याध ने बाण मारा था। कहा जाता है कि उनके चरणो से बाण निकाल कर इसी भालकुण्ड में फैंक दिया था। भालकुण्ड के पास दुर्गकूट गणेशजी का भी मन्दिर है। यहाँ एक कर्दमकुण्ड भी है, जहाँ पर कर्देश्वर-महादेव का मन्दिर है। कुछ लोग बाण तीर्थ को ही भालक तीर्थ भी कहते है। पुराण की एक विशेष कथा के अनुसार भगवान ब्रह्मा ने पृथ्वी को खोदकर प्रभासक्षेत्र में मुर्गी के अण्डे बराबर स्वयम्भू स्पर्शलिंग सोमनाथ के दर्शन किये उसके बाद उन्होंने उस लिगं को कुशा तथा मधु से ढँककर उस पर ब्रह्मशिला रख दी। उसी ब्रह्मशिला के उपर ब्रह्मा ने सोमनाथ के बृहद्लिंग (बड़ा-लिंग) की प्रतिष्ठा की। चन्द्रमा इसी बृहद्लिंग की अर्चना-वन्दना करने के बाद प्रजापति दक्ष के शाप से मुक्त हुऐ थे।