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'''मेजर सोमनाथ शर्मा''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Major Somnath Sharma'', जन्म: [[31 जनवरी]], [[1923]]; शहादत: [[3 नवम्बर]], [[1947]]) [[भारतीय सेना]] की कुमाऊँ रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कंपनी-कमांडर थे जिन्होंने [[अक्टूबर]]-[[नवम्बर]], [[1947]] के [[भारत-पाकिस्तान युद्ध (1947)|भारत-पाक संघर्ष]] में अपनी वीरता से शत्रु के छक्के छुड़ा दिये। उन्हें भारत सरकार ने मरणोपरान्त [[परमवीर चक्र]] से सम्मानित किया। परमवीर चक्र पाने वाले ये प्रथम व्यक्ति हैं।
 
==जीवन परिचय==
 
==जीवन परिचय==
 
मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म [[31 जनवरी]], [[1923]] को [[जम्मू]] में हुआ था। इनके पिता मेजर अमरनाथ शर्मा भी सेना में डॉक्टर थे और आर्मी मेडिकल सर्विस के डायरेक्टर जनरल के पद से सेवामुक्त हुए थे। मेजर सोमनाथ की शुरुआती स्कूली शिक्षा अलग-अलग जगह होती रही, जहाँ इनके पिता की पोस्टिंग होती थी। लेकिन बाद में उनकी पढ़ाई शेरवुडा, [[नैनीताल]] में हुई। मेजर सोमनाथ बचपन से ही खेल कूद तथा एथलेटिक्स में रुचि रखते थे।[[चित्र:Major-Somnath-Sharma-PVC.jpg|thumb|left|सम्मान में जारी [[डाक टिकट]]]]
 
मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म [[31 जनवरी]], [[1923]] को [[जम्मू]] में हुआ था। इनके पिता मेजर अमरनाथ शर्मा भी सेना में डॉक्टर थे और आर्मी मेडिकल सर्विस के डायरेक्टर जनरल के पद से सेवामुक्त हुए थे। मेजर सोमनाथ की शुरुआती स्कूली शिक्षा अलग-अलग जगह होती रही, जहाँ इनके पिता की पोस्टिंग होती थी। लेकिन बाद में उनकी पढ़ाई शेरवुडा, [[नैनीताल]] में हुई। मेजर सोमनाथ बचपन से ही खेल कूद तथा एथलेटिक्स में रुचि रखते थे।[[चित्र:Major-Somnath-Sharma-PVC.jpg|thumb|left|सम्मान में जारी [[डाक टिकट]]]]
 
====पिता और मामा का प्रभाव====
 
====पिता और मामा का प्रभाव====
मेजर सोमनाथ का कीर्तिमान एक गौरव की बात भले ही हो, उसे आश्चर्यजनक इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि उनके [[परिवार]] में फौजी संस्कृति एक परम्परा के रूप में चलती रही थी। इनके पिता यदि चाहते तो एक डॉक्टर के रूप में [[लाहौर]] में अपनी प्रैक्टिस जमा सकते थे, किंतु उन्होंने इच्छापूर्वक भारतीय सेनिकों की सेवा करना चुना। पिता के अतिरिक्त मेजर सोमनाथ पर अपने मामा की गहरी छाप पड़ी। उनके मामा लैफ्टिनेंट किशनदत्त वासुदेव 4/19 हैदराबादी बटालियन में थे तथा 1942 में मलाया में जापानियों से लड़ते शहादत हुए थे।  
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मेजर सोमनाथ का कीर्तिमान एक गौरव की बात भले ही हो, उसे आश्चर्यजनक इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि उनके [[परिवार]] में फौजी संस्कृति एक परम्परा के रूप में चलती रही थी। इनके पिता यदि चाहते तो एक डॉक्टर के रूप में [[लाहौर]] में अपनी प्रैक्टिस जमा सकते थे, किंतु उन्होंने इच्छापूर्वक भारतीय सेनिकों की सेवा करना चुना। पिता के अतिरिक्त मेजर सोमनाथ पर अपने मामा की गहरी छाप पड़ी। उनके मामा लैफ्टिनेंट किशनदत्त वासुदेव 4/19 हैदराबादी बटालियन में थे तथा [[1942]] में मलाया में जापानियों से लड़ते शहीद हुए थे।  
 
==सेना में प्रवेश==
 
==सेना में प्रवेश==
 
मेजर सोमनाथ ने अपना सैनिक जीवन [[22 फरवरी]], [[1942]] से शुरू किया जब इन्होंने चौथी कुमायूं रेजिमेंट में बतौर कमीशंड ऑफिसर प्रवेश लिया। उनका फौजी कार्यकाल शुरू ही दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हुआ और वह मलाया के पास के रण में भेज दिये गये। पहले ही दौर में इन्होंने अपने पराक्रम के तेवर दिखाए और वह एक विशिष्ट सैनिक के रूप में पहचाने जाने लगे।
 
मेजर सोमनाथ ने अपना सैनिक जीवन [[22 फरवरी]], [[1942]] से शुरू किया जब इन्होंने चौथी कुमायूं रेजिमेंट में बतौर कमीशंड ऑफिसर प्रवेश लिया। उनका फौजी कार्यकाल शुरू ही दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हुआ और वह मलाया के पास के रण में भेज दिये गये। पहले ही दौर में इन्होंने अपने पराक्रम के तेवर दिखाए और वह एक विशिष्ट सैनिक के रूप में पहचाने जाने लगे।
 
;माता-पिता के नाम एक खत
 
;माता-पिता के नाम एक खत
 
[[दिसम्बर]] [[1941]] में सोमनाथ ने अपने माता-पिता को एक पत्र लिखा था, जो सबके लिए एक आदर्श की मिसाल बन गया था। इन्होंने लिखा था:-
 
[[दिसम्बर]] [[1941]] में सोमनाथ ने अपने माता-पिता को एक पत्र लिखा था, जो सबके लिए एक आदर्श की मिसाल बन गया था। इन्होंने लिखा था:-
<blockquote>"मैं अपने सामने आए कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ। यहाँ मौत का क्षणिक डर जरूर है, लेकिन जब मैं गीता में भगवान कृष्ण के वचन को याद करता हूँ तो वह डर मिट जाता है। भगवान कृष्ण ने कहा था कि आत्मा अमर है, तो फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि शरीर है या नष्ट हो गया। पिताजी मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ, लेकिन मैं अगर मर गया, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैं एक बहादुर सिपाही की मौत मरूँगा। मरते समय मुझे प्राण देने का कोई दु:ख नहीं होगा। ईश्वर आप सब पर अपनी कृपा बनाए रखे।"</blockquote>  
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<blockquote>"मैं अपने सामने आए कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ। यहाँ मौत का क्षणिक डर ज़रूर है, लेकिन जब मैं गीता में भगवान कृष्ण के वचन को याद करता हूँ तो वह डर मिट जाता है। भगवान कृष्ण ने कहा था कि आत्मा अमर है, तो फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि शरीर है या नष्ट हो गया। पिताजी मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ, लेकिन मैं अगर मर गया, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैं एक बहादुर सिपाही की मौत मरूँगा। मरते समय मुझे प्राण देने का कोई दु:ख नहीं होगा। ईश्वर आप सब पर अपनी कृपा बनाए रखे।"</blockquote>  
 
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[[3 नवम्बर]] [[1947]] को मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी को [[कश्मीर घाटी]] के बदगाम मोर्चे पर जाने का हुकुम दिया गया। 3 नवम्बर को प्रकाश की पहली किरण फूटने से पहले मेजर सोमनाथ बदगाम जा पहुँचे और उत्तरी दिशा में उन्होंने दिन के 11 बजे तक अपनी टुकड़ी तैनात कर दी। तभी दुश्मन की क़रीब 500 लोगों की सेना ने उनकी टुकड़ी को तीन तरफ से घेरकर हमला किया और भारी गोला बारी से सोमनाथ के सैनिक हताहत होने लगे। अपनी दक्षता का परिचय देते हुए सोमनाथ ने अपने सैनिकों के साथ गोलियां बरसाते हुए दुश्मन को बढ़ने से रोके रखा। इस दौरान उन्होंने खुद को दुश्मन की गोली बारी के बीच बराबर खतरे में डाला और कपड़े की पट्टियों की मदद से हवाई जहाज को ठीक लक्ष्य की ओर पहुँचने में मदद की।
 
[[3 नवम्बर]] [[1947]] को मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी को [[कश्मीर घाटी]] के बदगाम मोर्चे पर जाने का हुकुम दिया गया। 3 नवम्बर को प्रकाश की पहली किरण फूटने से पहले मेजर सोमनाथ बदगाम जा पहुँचे और उत्तरी दिशा में उन्होंने दिन के 11 बजे तक अपनी टुकड़ी तैनात कर दी। तभी दुश्मन की क़रीब 500 लोगों की सेना ने उनकी टुकड़ी को तीन तरफ से घेरकर हमला किया और भारी गोला बारी से सोमनाथ के सैनिक हताहत होने लगे। अपनी दक्षता का परिचय देते हुए सोमनाथ ने अपने सैनिकों के साथ गोलियां बरसाते हुए दुश्मन को बढ़ने से रोके रखा। इस दौरान उन्होंने खुद को दुश्मन की गोली बारी के बीच बराबर खतरे में डाला और कपड़े की पट्टियों की मदद से हवाई जहाज को ठीक लक्ष्य की ओर पहुँचने में मदद की।
 
====अंतिम शब्द====
 
====अंतिम शब्द====
इस दौरान, सोमनाथ के बहुत से सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और सैनिकों की कमी महसूस की जा रही थी। सोमनाथ बायाँ हाथ चोट खाया हुआ था और उस पर प्लास्टर बंधा था। इसके बावजूद सोमनाथ खुद मैग्जीन में गोलियां भरकर बंदूक धारी सैनिकों को देते जा रहे थे। तभी एक मोर्टार का निशाना ठीक वहीं पर लगा, जहाँ सोमनाथ मौजूद थे और इस विस्फोट में ही वो शहादत हो गये। सोमनाथ की प्राण त्यागने से बस कुछ ही पहले, अपने सैनिकों के लिए ललकार थी:-  
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इस दौरान, सोमनाथ के बहुत से सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और सैनिकों की कमी महसूस की जा रही थी। सोमनाथ बायाँ हाथ चोट खाया हुआ था और उस पर प्लास्टर बंधा था। इसके बावजूद सोमनाथ खुद मैग्जीन में गोलियां भरकर बंदूक धारी सैनिकों को देते जा रहे थे। तभी एक मोर्टार का निशाना ठीक वहीं पर लगा, जहाँ सोमनाथ मौजूद थे और इस विस्फोट में ही वो शहीद हो गये। सोमनाथ की प्राण त्यागने से बस कुछ ही पहले, अपने सैनिकों के लिए ललकार थी:-  
 
<blockquote>"दुश्मन  हमसे केवल पचास गज की दूरी पर है। हमारी गिनती बहुत कम रह गई है। हम भयंकर गोली बारी का सामना कर रहे हैं फिर भी, मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा और अपनी आखिरी गोली और आखिरी सैनिक तक डटा रहूँगा।"</blockquote>
 
<blockquote>"दुश्मन  हमसे केवल पचास गज की दूरी पर है। हमारी गिनती बहुत कम रह गई है। हम भयंकर गोली बारी का सामना कर रहे हैं फिर भी, मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा और अपनी आखिरी गोली और आखिरी सैनिक तक डटा रहूँगा।"</blockquote>
  
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==संबंधित लेख==
 
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सोमनाथ शर्मा
मेजर सोमनाथ शर्मा
पूरा नाम मेजर सोमनाथ शर्मा
जन्म 31 जनवरी, 1923
जन्म भूमि जम्मू
स्थान बदगाम, जम्मू और कश्मीर
अभिभावक पिता- मेजर अमरनाथ शर्मा
सेना भारतीय थल सेना
रैंक मेजर
यूनिट कुमाऊँ रेजिमेंट की चौथी बटालियन
सेवा काल 1942–1947
युद्ध द्वितीय विश्व युद्ध, भारत-पाकिस्तान युद्ध (1947)
सम्मान परमवीर चक्र
प्रसिद्धि 'परमवीर चक्र' पाने वाले मेजर सोमनाथ शर्मा प्रथम व्यक्ति थे।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी सोमनाथ शर्मा के पिता मेजर अमरनाथ शर्मा भी भारतीय सेना में डॉक्टर थे और इनके मामा लैफ्टिनेंट किशनदत्त वासुदेव 4/19 हैदराबादी बटालियन में थे, जो 1942 में मलाया में जापानियों से लड़ते शहीद हुए थे।

मेजर सोमनाथ शर्मा (अंग्रेज़ी: Major Somnath Sharma, जन्म: 31 जनवरी, 1923; शहादत: 3 नवम्बर, 1947) भारतीय सेना की कुमाऊँ रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कंपनी-कमांडर थे जिन्होंने अक्टूबर-नवम्बर, 1947 के भारत-पाक संघर्ष में अपनी वीरता से शत्रु के छक्के छुड़ा दिये। उन्हें भारत सरकार ने मरणोपरान्त परमवीर चक्र से सम्मानित किया। परमवीर चक्र पाने वाले ये प्रथम व्यक्ति हैं।

जीवन परिचय

मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी, 1923 को जम्मू में हुआ था। इनके पिता मेजर अमरनाथ शर्मा भी सेना में डॉक्टर थे और आर्मी मेडिकल सर्विस के डायरेक्टर जनरल के पद से सेवामुक्त हुए थे। मेजर सोमनाथ की शुरुआती स्कूली शिक्षा अलग-अलग जगह होती रही, जहाँ इनके पिता की पोस्टिंग होती थी। लेकिन बाद में उनकी पढ़ाई शेरवुडा, नैनीताल में हुई। मेजर सोमनाथ बचपन से ही खेल कूद तथा एथलेटिक्स में रुचि रखते थे।

सम्मान में जारी डाक टिकट

पिता और मामा का प्रभाव

मेजर सोमनाथ का कीर्तिमान एक गौरव की बात भले ही हो, उसे आश्चर्यजनक इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि उनके परिवार में फौजी संस्कृति एक परम्परा के रूप में चलती रही थी। इनके पिता यदि चाहते तो एक डॉक्टर के रूप में लाहौर में अपनी प्रैक्टिस जमा सकते थे, किंतु उन्होंने इच्छापूर्वक भारतीय सेनिकों की सेवा करना चुना। पिता के अतिरिक्त मेजर सोमनाथ पर अपने मामा की गहरी छाप पड़ी। उनके मामा लैफ्टिनेंट किशनदत्त वासुदेव 4/19 हैदराबादी बटालियन में थे तथा 1942 में मलाया में जापानियों से लड़ते शहीद हुए थे।

सेना में प्रवेश

मेजर सोमनाथ ने अपना सैनिक जीवन 22 फरवरी, 1942 से शुरू किया जब इन्होंने चौथी कुमायूं रेजिमेंट में बतौर कमीशंड ऑफिसर प्रवेश लिया। उनका फौजी कार्यकाल शुरू ही दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हुआ और वह मलाया के पास के रण में भेज दिये गये। पहले ही दौर में इन्होंने अपने पराक्रम के तेवर दिखाए और वह एक विशिष्ट सैनिक के रूप में पहचाने जाने लगे।

माता-पिता के नाम एक खत

दिसम्बर 1941 में सोमनाथ ने अपने माता-पिता को एक पत्र लिखा था, जो सबके लिए एक आदर्श की मिसाल बन गया था। इन्होंने लिखा था:-

"मैं अपने सामने आए कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ। यहाँ मौत का क्षणिक डर ज़रूर है, लेकिन जब मैं गीता में भगवान कृष्ण के वचन को याद करता हूँ तो वह डर मिट जाता है। भगवान कृष्ण ने कहा था कि आत्मा अमर है, तो फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि शरीर है या नष्ट हो गया। पिताजी मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ, लेकिन मैं अगर मर गया, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैं एक बहादुर सिपाही की मौत मरूँगा। मरते समय मुझे प्राण देने का कोई दु:ख नहीं होगा। ईश्वर आप सब पर अपनी कृपा बनाए रखे।"

भारत-पाकिस्तान युद्ध (1947)

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3 नवम्बर 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी को कश्मीर घाटी के बदगाम मोर्चे पर जाने का हुकुम दिया गया। 3 नवम्बर को प्रकाश की पहली किरण फूटने से पहले मेजर सोमनाथ बदगाम जा पहुँचे और उत्तरी दिशा में उन्होंने दिन के 11 बजे तक अपनी टुकड़ी तैनात कर दी। तभी दुश्मन की क़रीब 500 लोगों की सेना ने उनकी टुकड़ी को तीन तरफ से घेरकर हमला किया और भारी गोला बारी से सोमनाथ के सैनिक हताहत होने लगे। अपनी दक्षता का परिचय देते हुए सोमनाथ ने अपने सैनिकों के साथ गोलियां बरसाते हुए दुश्मन को बढ़ने से रोके रखा। इस दौरान उन्होंने खुद को दुश्मन की गोली बारी के बीच बराबर खतरे में डाला और कपड़े की पट्टियों की मदद से हवाई जहाज को ठीक लक्ष्य की ओर पहुँचने में मदद की।

अंतिम शब्द

इस दौरान, सोमनाथ के बहुत से सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और सैनिकों की कमी महसूस की जा रही थी। सोमनाथ बायाँ हाथ चोट खाया हुआ था और उस पर प्लास्टर बंधा था। इसके बावजूद सोमनाथ खुद मैग्जीन में गोलियां भरकर बंदूक धारी सैनिकों को देते जा रहे थे। तभी एक मोर्टार का निशाना ठीक वहीं पर लगा, जहाँ सोमनाथ मौजूद थे और इस विस्फोट में ही वो शहीद हो गये। सोमनाथ की प्राण त्यागने से बस कुछ ही पहले, अपने सैनिकों के लिए ललकार थी:-

"दुश्मन हमसे केवल पचास गज की दूरी पर है। हमारी गिनती बहुत कम रह गई है। हम भयंकर गोली बारी का सामना कर रहे हैं फिर भी, मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा और अपनी आखिरी गोली और आखिरी सैनिक तक डटा रहूँगा।"


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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