अदम्य साहस -अब्दुल कलाम

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अदम्य साहस -अब्दुल कलाम
अदम्य साहस का आवरण पृष्ठ
लेखक अब्दुल कलाम
मूल शीर्षक अदम्य साहस
प्रकाशक राजपाल एंड सन्स
प्रकाशन तिथि 1 जनवरी, 2008
ISBN 81-7028-657-3
देश भारत
पृष्ठ: 254
भाषा हिंदी

अदम्य साहस भारत के ग्याहरवें राष्ट्रपति और 'मिसाइल मैन' के नाम से प्रसिद्ध 'ए.पी.जे. अब्दुल कलाम' की चर्चित पुस्तक है। "किस रूप में याद रखे जाने की आपकी आकांक्षा है? आपको अपने को विकसित करना होगा और जीवन को एक आकार देना होगा। अपनी आकांक्षा को, अपने सपने को, एक पृष्ठ पर शब्दबद्ध कीजिए। यह मानव इतिहास का एक बहुत महत्वपूर्ण पृष्ठ ग्यान-विग्यान का हो, परिवर्तन का, या खोज का हो, या फिर अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का।" ये शब्द हैं भारत के राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम के, अदम्य साहस से उद्धृत, सीधे दिल की गहराई से निकले सादा शब्द, गहन चिंतन की छाप छोड़ते और बुनियादी मुद्दों के बारे में उनके गहरे विचारों की झलक देते। लगभग जादुई असर वाले ये शब्द प्रेरणा जगाते हैं, और एक ऎसे विकसित देश का सपना संजोते हैं जो 'सारे जहाँ से अच्छा' है।

मानवीय, राष्ट्रीय और वैश्विक सरोकारों से जुड़े, चिरयुवा स्वभाव वाले, डॉ॰ कलाम के ये शब्द कर्मपथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा जगाते हैं और ऊर्जा देते हैं।[1] अदम्य साहस राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के जीवन दर्शन और चिन्तन का सारतत्व है। परमेश्वर के सागर तट से राष्ट्रपति भवन तक फैले उनके जीवन और जीवन-दर्शन का आइना.... अदम्य साहस देश के प्रथम नागरिक के दिल से निकली वह आवाज है, जो गहराई के साथ देश और देशवासियों के सुनहरे भविष्य के बारे में सोचती है। अदम्य साहस जीवन के अनुभवों से जुड़े संस्मरणों, रोचक प्रसंगों, मौलिक विचारों और कार्य-योजनाओं का प्रेरणाप्रद चित्रण है। एक चिंतक के रूप में, एक वैज्ञानिक और एक शिक्षक के रूप में तथा राष्ट्रपति के रूप में अब्दुल कलाम के व्यक्तित्व के अनेक प्रेरणादायी पक्ष इस पुस्तक में सजीव हो उठे हैं, जो उनके भाषणों और आलेखों पर आधारित हैं। सामाजिक या राजनीतिक, सभी व्यवस्थाओं की नींव इंसान की भलाई पर पड़ी है। कोई भी देश सिर्फ संसदीय कायदे-कानून से महान् नहीं होता, बल्कि इसलिए होता है कि उसके नागरिक भले और महान् हैं।

माँ के विषय में

उन दिनों की एक घटना मुझे अभी भी याद है। हम सभी भाई-बहन साथ बैठकर खाना खा रहे थे और माँ मुझे रोटी देती जा रही थी (चूँकि हम भात खाने वाले लोग हैं इसलिए चावल तो खुले बाज़ार में उपलब्ध था किंतु गेंहूँ पर राशनिंग थी)। जब मैं खाना खा चुका तो मेरे बड़े भाई ने मुझे एकांत में बुलाकर डाँटा, ‘‘कलाम, जानते हो क्या हुआ ? तुम रोटी देती खाते जा रहे थे और माँ तुम्हें रोटी जा रही थी। उसने अपने हिस्से की भी सारी रोटी तुम्हें दे दीं। अभी घर की परिस्थिति ठीक नहीं है। एक जिम्मेदार बेटा बनो और अपनी माँ को भूखों मत मारो।’’ उस दिन पहली बार मुझे सिहरन की अनुभूति हुई। मैं अपने आपको रोक नहीं सका। दौड़कर अपनी माँ के पास गया और भावावेश में उससे लिपट गया।

मैं अब भी पूनम की रात में अपनी माँ को याद करता हूँ। उस स्मृति की छवियाँ मेरी पुस्तक ‘अग्नि की उड़ान’ में संग्रहीत ‘माँ’ कविता में उभरी हैं:

मेरी यादों में वे क्षण
हैं जीवंत अभी भी !
दस बरस का बालक मैं-
पूरनमासी की निशि-वेला में
नींद के आगोश में

बड़े भाई-बहनों की इर्ष्या का पात्र बना
सोया हुआ था तुम्हारी गोद में।
तुममें ही सिमटा था
मेरा पूरा जहान।
माँ, ओ माँ, तू महान् !

जाग कर आधी रात में लगता मैं बिलखने
उनींदी आँखों से आँसू लगते झरने
और भीग जाते मेरे घुटने।
भाँप लेती थी तब तू मेरे दर्द को, और
तेरी स्नेहिल पुचकार से

हो जाता दर्द सहज ही छूमंतर।
तेरे वत्सल स्नेह से
मिली अपार शक्ति मुझे-
कि बेख़ौफ़ निकल पड़ा
उसी एक आस-विश्वास के सहारे-

ज़िंदगी की डगर पर
जीतने जहान को।
है मुझको विश्वास-पूरा है विश्वास
कि हम फिर मिलेंगे कयामत के दिन
रहूँगा नहीं मैं, माँ,
तब भी अकेला-तुम्हारे बिन।

यह मेरी माँ की कहानी है। वह तिरानवे साल की उम्र तक जीवित रहीं। वह एक स्नेहशील, दयालु और धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। मेरी माँ रोज पाँच बार नमाज अदा करती थीं। मैंने जब भी उन्हें नामज़ अदा करते हुए देखा तब तब मैं प्रेरित हुआ और मैंने अपने अंदर परिवर्तन महसूस किया।

  • नारी ईश्वर की एक सुंदर रचना है। मैं दो महान् महिलाओं की स्मृति से सदैव प्रेरित एवं उत्साहित होता रहा हूँ। इसमें से एक मेरी माँ है तथा दूसरी भारतरत्न एम.एस.सुब्बुलक्ष्मी
भारतरत्न एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी

भक्ति हमारे अपने हृदय में विराजमान ईश्वर के प्रति व्यक्त की गई हमारी निष्ठा के सिवा कुछ नहीं है दूसरी महान् माँ कर्णाटक संगीत की जननी एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी थीं। मैंने पहली बार उन्हें सन् 1950 में तंजौर में आयोजित त्यागराज समारोह में सुना था। प्रत्येक वर्ष जनवरी मास में इस समारोह का आयोजन किया जाता हैं। मैं उस समय 'त्रिची' में कॉलेज में पढ़ता था। इस समारोह में मैं अपने संगीतप्रेमी मित्र संथानम् के साथ गया था। पंचरत्नकृति के पश्चात् एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी ने महानुभवालू अंधरिग्गी वंदामुलु’ वाला प्रसिद्ध त्यागराज कीर्तन गया। ऐसा लगा कि यह गीत मेरे अंदर समा गया है तथा आनंद एवं प्रसन्नता से मेरा तन-मन ऊर्जावान हो उठा। इस गीत का भाव अत्यंत सशक्त था। और फिर वह अदाकारी ! मैं जीवन भर के लिए एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी का प्रशंसक बन गया।

एम.एस. से विभिन्न संगीत समारोहों में मिलने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। सन् 1988 में जब राष्ट्रपति भवन के 'अशोक हॉल' में भारतरत्न से उन्हें सम्मानित किया गया तो वह मेरे लिए अपार प्रसन्नता का क्षण था। मैं उनकी बगल में बैठा हुआ था। उन्होंने मेरे जीवन के महानतम क्षणों में से एक था। उनकी मान्यता थी कि किसी भी राग का उद्देश्य श्रोता के मन को ईश्वर एवं उसकी समस्त सृष्टि की ओर उन्मुख करना है।

12 दिसम्बर, 2004 को जब उनकी मृत्यु हुई तो उस समय मैं उनके घर पर मौजूद था। उन्हें चिरंतन आध्यात्मिक शांति में लीन देखकर मैंने उन्हें इस प्रकार अपने श्रद्धासुमन अर्पित किए:

आपने श्रीरागम् के गायन में उत्कृष्टता के कीर्तिमान कायम किये भक्ति संगीत में छुईं महान् ऊँचाइयाँ, पारंगत थीं आप अण्णमाचार्य, पुरंदरदास के कीर्तनों में कर्णाटक संगीत की त्रिमूर्ति के गायन में। काल में समाहित भले हो गई हैं आप सम्मोहक सुंदर संगीत किंतु आपका आगे युग-युगों तक रहेगा कानों में गूँजता। संगीत में जनमीं, जी, साँस-दर-साँस संगीत में जा मिलीं अंत में अनातीत दिव्य संगीत में।

  • पाँच महान् आत्माएँ अपने माता-पिता एवं शिक्षकों के अतिरिक्त पाँच वैज्ञानिकों ने मुझे प्रेरित एवं प्रभावित किया। इन वैज्ञानिकों को मैं महान् आत्मा मानता हूँ।
प्रो. विक्रम साराभाई

जब भी मैं डॉ. साराभाई के एक पृष्ठ के प्रकल्पना-प्रारूप एवं उसके परिणामों पर विचार करता हूँ तो अभिभूत हो उठता हूँ मुझे प्रो. विक्रम साराभाई के साथ सात वर्षों तक कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त है। उनके सान्निध्य में काम करते हुए मैंने भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की कल्पना को सच में रुपांतरित होते देखा था। सन् 1970 में तैयार किये गये एक पृष्ठ के एक वक्तव्य में उल्लेख हुआ था ‘‘भारत को अपने प्रबल वैज्ञानिक ज्ञान एवं युवाशक्ति के बल पर उपग्रह संचार, दूरसंवेदी एवं मौसम विज्ञान संबंधी अंतरिक्ष यान का निर्माण एवं अपनी धरती से प्रक्षेपण करना चाहिए ताकि इन क्षेत्रों में भारतीय जीवन समृद्ध हो सके।’’ प्रो. साराभाई जैसे कास्मिक-रे(cosmic-ray) भौतिकवेता एवं महान् वैज्ञानिक के वर्षों के अथक परिश्रम के फल स्वरूप इस एक पृष्ठ के प्रकल्पना-प्रारुप को साकार होते देखना मेरे लिए ज्ञान का एक बहुत-बड़ा स्त्रोत था। जब भी मैं इस एक पृष्ठ की प्रकल्पना, वक्तव्य एवं इसके परिणामों पर विचार करता हूँ तो अभिभूत हो उठता हूँ। आज हम किसी भी प्रकार के उपग्रह प्रक्षेपण यान तथा अंतरिक्ष यान निर्मित करने एवं भारतीय धरती से उनका प्रक्षेपण करने में सक्षम हैं। इसके लिए भारत के पास व्यापक सुविधा एवं विपुल मानव संसाधन सहित सभी प्रकार की क्षमताएँ हैं।

प्रो. सतीश धवन

भारतीय विज्ञान संस्थान के शिक्षक एवं भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के भूतपूर्व अध्यक्ष प्रो. सतीश धवन से भी मैंने बहुत कुछ सीखा। प्रथम उपग्रह प्रक्षेपण यान कार्यक्रम के विकास के लिए मैंने एक दशक तक प्रो. सतीश धवन के साथ काम किया। मेरा सौभाग्य है कि इस कार्यक्रम के लिए मुझे परियोजना निदेशक का दायित्व सौंपा गया। प्रो. सतीश धवन ने देश के, विशेषकर युवकों के, सामने नेतृत्व की ऐसी मिसाल रखी जो हमें प्रबंधन विषयक किसी पुस्तक में नहीं मिल सकती। उन्होंने अपने स्वयं के उदाहरण से हमें बहुत कुछ सिखाया। जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात मैंने सीखी वह यह थी कि जब कोईमिशन प्रगति पर हो तो हमेशा कुछ न कुछ समस्याएँ अथवा असफलताएँ सामने आएँगी ही, किंतु असफलताओं के कारण कार्यक्रम बाधित नहीं होना चाहिए। नेता को उस समस्या पर नियंत्रण रखना होता है, उसका अंत करना होता है तथा सफलता की दिशा में टीम का नेतृत्व करना पड़ता है। यह अभिज्ञान तभी से मेरे अंदर जगह बनाए हुए हैं और कभी मैं उसे भूल नहीं पाता।

प्रो. ब्रह्म प्रकाश

जब कोई अभियान प्रगति पर हो तो हमेशा कुछ-न-कुछ समस्याएँ या असफलताएँ सामने आती ही हैं, किंतु असफलताओं के कारण कार्यक्रम बाधित नहीं होना चाहिए एक अन्य महान् शिक्षक जिन्होंने मुझे प्रेरित किया वे प्रो. ब्रह्म प्रकाश थे। जब मैं एस.एल.वी.-3 कार्यक्रम का परियोजना निदेशक था तो उस समय वे विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र के निदेशक थे। निदेशक के रूप में अंतरिक्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास के लिए प्रो. ब्रहन प्रकाश ने सैकड़ों निर्णय लिए। उनके जिस एक निर्णय की मैं सदैव प्रशंसा करता रहूँगा वह यह था कि एक बार जब एस.एल.वी.-3 जैसे किसी कार्यक्रम को मंजूरी मिल जाती है तो अंतरिक्ष विभाग सहित विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र एवं भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) जैसे विभिन्न संगठनों की प्रयोगशालाओं एवं केंद्रों को कार्यक्रम के निर्धारित लक्ष्य को पूरा करने के लिए टीम के रूप में साथ-साथ काम करना होगा। सन् 1973 एवं 1980 के बीच वित्तीय संकट काफ़ी थे और विभिन्न लघु परियोजनाओं की ओर से माँग की होड़ लगी थी। किंतु उन्होंने अपनी संपूर्ण वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी सक्रियता को एस.एल.वी.-3 एवं इसके उपग्रह के विकास पर केंद्रित कर दिया।

जब मैं यह करता हूँ कि प्रो. ब्रह्म प्रकाश शालीनतापूर्ण प्रबंधन के विकास के लिए प्रसिद्ध हैं, तो मै इस संबंध में कुछ उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूँ। पहली बार उन्होंने ही रोहिणी उपग्रह को कक्षा में स्थापित करने के मिशन को पूरा करने की दिशा में एस.एल.वी.-3 कार्यक्रम के लिए व्यापक प्रबंधन योजना विकसित की थी। जब मेरे कार्यदल ने एस.एल.वी.-3 की प्रबंधन योजना तैयार कर ली तो तीन माह की अवधि के अंदर उन्होंने अंतरिक्ष वैज्ञानिक कमिटी की लगभग पन्द्रह व्यापक परिचर्चा वाली बैठकें आयोजित कीं। चर्चा और अनुमोदन के बाद ही इस प्रबंधन योजना पर प्रो. ब्रह्म प्रकाश ने हस्ताक्षर किये। इस प्रकार यह योजना पूरे संगठन के मार्गदर्शन एवं कार्य को दिशा देने वाली योजना बन गई।

यह अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में राष्ट्रीय प्रकल्पना को मिशनस्तरीय कार्यक्रम में बदलने की शुरूआत थी। प्रबंधन-योजना के विकास के दौरान मैंने देखा कि किस प्रकार विभिन्न के विचार उभरकर सामने आए और मुख्य मिशन के कारण कुछ लोग अपनी निजता खोने से सशंकित थे। इसीलिए वे क्रुद्ध एवं नाराज थे। विभिन्न प्रबंधन बैठकों के दौरान लगातार सुलगती सिगरेटों के धुएँ के बीच भी प्रो. ब्रह्म प्रकाश मुस्कुराते रहते थे और उनकी विनम्र उपस्थिति से लोगों के क्रोध, भय एवं पूर्वाग्रह धुआँ हो जाते थे।

आज ‘इसरो’ के विभिन्न केंद्रों में अंतरिक्ष-कार्यक्रम, उपग्रह प्रक्षेपण यान, वैज्ञानिक प्रयोग तथा प्रक्षेपण-मिशन सहयोग एवं समन्वय की भावना से संचालित हो रहे हैं। मैं इस महान् पराक्रमी आत्मा को धन्यवाद देता हूँ जो भारतीय विज्ञान संस्थान में धातुकर्म विज्ञान (मेटलर्जी) के प्रसिद्ध प्रोफेसर थे तथा जिन्होंने शालीनतापूर्ण प्रबंधन की अवधारणा को विकसित किया।

प्रो. एम. जी. के. मेनन

मेरे जीवन में कुछ अचानक दिखने वाली अथवा नियोजित लगने वाली अनुपम घटनाएँ घटीं। ऐसी घटनाओं को साकार करने में दो महान् वैज्ञानिकों का योगदान रहा है। सन् 1962 में मैं रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत एरोनॉटिकल डेवलपमेंट इस्टेब्लिशमेंट (ए.डी.ई.) में वरिष्ठ वैज्ञानिक सहायक के रूप में कार्यरत था। मेरा कार्य हूवरक्राफ्ट विकास कार्यक्रम को नेतृत्व प्रदान करना था। इस कार्यक्रम की जिम्मेदारी हूवरक्राफ्ट का डिजाइन, विकास एवं पाइलटिंग करना है। एक दिन मेरे निदेशक ने कहा कि एक बड़े वैज्ञानिक आ रहे हैं और मुझे उनके समक्ष हूवरक्राफ्ट के डिजाइन का वर्णन करना है तथा एक उड़ान भी प्रदर्शित करनी है। मैंने अपने सामने दाढ़ी वाले एक दार्शनिक जैसे युवक को देखा। वे प्रो.एम.जी.के मेनन, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टी.आई.एफ.आर.) के निदेशक थे। महज बीस मिनट में मैं उन्हें हूवरक्राफ्ट में सहयात्री के रूप में ले गया और पक्की सड़क पर आकर्षक एवं युक्तिपूर्ण उड़ान भरकर दिखायी। उन्हें उड़ान पसंद आयी तथा उन्होंने मुझे बधाई दी। मैंने सोचा कि जिस प्रकार अन्य महत्त्वपूर्ण व्यक्ति आते हैं उसी प्रकार ये भी आए और चले गए।

किंतु एक सप्ताह के बाद मुझे एक तार मिला। (उन दिनों ई-मेल की सुविधा नहीं थी), जिसमें मुझे टी.आई.एफ.आर. मुंबई, में रॉकेट इंजीनियर पद के लिए साक्षात्कार में उपस्थित होने को कहा गया था। ए.डी.ई.के निदेशक ने मुख्यालय से विशेष अनुमति लेकर मेरे लिए एक ओर से विमानयात्रा की व्यवस्था करवा दी और मैं साक्षात्कार के लिए चला गया। साक्षात्कार समिति में वहाँ तीन व्यक्ति थे प्रो. विक्रम साराभाई जिनसे मैंने पहली बार मिल रहा था, दूसरे प्रो. एम.जी.के मेनन तथा प्रशासन की ओर से श्री साफ। साक्षात्कार भी बड़ा दिलचस्प था। प्रो. साराभाई ने मुझसे वे प्रश्न पूछे जिनके उत्तर मैं जानता था न कि वे जिनके उत्तर मैं नहीं जानता था। मेरे लिए यह नए प्रकार का साक्षात्कार था। साक्षात्कार के एक घंटे के अंदर मुझे सूचित किया गया कि इस पद के लिए मुझे चुन लिया गया है और इस तरह मेरे जीवन की दिशा रक्षा से अंतरिक्ष कार्यक्रम की ओर मुड़ गयी। [2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अदम्य साहस (हिंदी) Orient Publishing। अभिगमन तिथि: 14 दिसम्बर, 2013।
  2. अदम्य साहस (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 14 दिसम्बर, 2013।

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