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अमरीका में हिन्दी -डॉ. केरीन शोमर

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लेखक- डॉ. केरीन शोमर

          अमरीका में हिन्दी की स्थिति का प्रश्न तीन भागों में बांटा जा सकता है।
(1) अमरीका के विश्वविद्यालयों में हिन्दी के विधिवत् अध्ययन की क्या स्थिति है तथा हिन्दी के विद्वान् किस तरह का शोधकार्य कर रहे हैं,
(2) आम जनता में भारतीय संस्कृति तथा भाषाओं के बारे में क्या धारणा है, और
(3) अमरीका में बसे हुए प्रवासी भारतीय लोगों में हिन्दी की क्या स्थिति तथा उसके प्रति क्या दृष्टकोण है।

(1) अमरीकी विश्वविद्यालयों में हिन्दी

          अमरीका में भी यूरोप की तरह भारतीय भाषाओं का अध्ययन संस्कृत से शुरू हुआ। द्वितीय महायुद्ध तक, विश्वविद्यालयों में आधुनिक भारतीय भाषाओं का अध्ययन नहीं होता था। विश्वविद्यालयों के बाहर ईसाई धर्म प्रचारकों का थोड़ा बहुत काम हुआ और उन लोगों ने सब से पहले हिन्दी सीखने की कोशिश की तथा पाठ्य-पुस्तकें तैयार कीं। उसके बाद, द्वित्तीय महायुद्ध में, जब मित्र राष्ट्रों की फौजें सारी दुनिया में फैल गई थीं, अमरीकी सरकार की ओर से भाषावैज्ञानिकों द्वारा विभिन्न भाषाओं के सरल पाठ्यक्रम तैयार किए गए। इस सिलसिले में हिन्दी में भी कुछ काम हुआ।
          हिन्दी का विधिवत् अध्ययन तो भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद शुरू हुआ, जब भारत को दुनिया के स्वाधीन तथा लोकतांत्रिक देशों में महत्वपूर्ण स्थान मिला तथा अमरीका और भारत के बीच हर तरह के नए संबंध स्थापित होने लगे। अमरीका के प्रबुद्ध वर्ग में नव स्वतंत्र भारत के प्रति बहुत सहानुभूति थी और भारत के आर्थिक विकास के लिए बहुत आकांक्षाएं तथा शुभ कामनाएँ।
          इस संदर्भ में विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि के विद्वानों ने अपनी दृष्टि भारत की आधुनिक स्थिति तथा समस्याओं पर रखकर शोध कार्य करना आरंभ किया। इनकी मदद करने के लिए सरकार तथा स्वतंत्र संस्थाओं ने आर्थिक सहायता देना शुरू किया। चुने हुए विश्वविद्यालयों में अध्ययन-केंद्र बना दिए गए, जहां भारत और भारत के पड़ोसी देशों पर शोधकार्य के लिए हर तरह की सुविधाएं प्राप्त की गईं– विशेषकर पुस्तकों तथा अन्य शोध सामग्री के भंडार। आजकल 13 ऐसे केंद्र हैं, जिनमें शिकागो, कैलिफोर्निया, बिस्कान्सिन, कोलंबिया, पेंसिलेवेनिया, वाशिंगटन, टेक्सस तथा विर्जिनिया विश्वविद्यालय मुख्य हैं। इसके अलावा, भारत संबंधी अध्ययन की कुछ न कुछ सुविधाएँ 100 और विश्वविद्यालयों तथा कॉलेजों में मिलती है।
          सब मुख्य केन्द्रों की शिक्षा में, तथा अनेक और जगहों में, भाषाओं का अध्ययन महत्वपूर्ण है। शुरू से ही हिन्दी तथा भारत की अन्य भाषाएँ सिखाई गईं। भारत से आए हुए कुछ विद्वानों ने, जिनकी मातृभाषा हिन्दी थी, तथा अमरीकी भाषावैज्ञानिकों ने मिल कर पाठ्यपुस्तकें तथा पाठ्यक्रम बनाना तथा हिन्दी के अनेक पहलुओं का अध्ययन करना शुरू किया। विद्यार्थियों को प्रोत्साहित कर ने लिए छात्रवृत्तियों का भी आयोजन किया गया, जो कि आजकल भी 13 मुख्य विश्वविद्यालयों में प्राप्य है। राष्ट्रभाषा होने के कारण हिन्दी को सब से अधिक महत्व का स्थान दिया गया, और संख्या पढ़ने वाले तथा पढ़ाने वाले सब से अधिक हैं।
          जिस समय अध्ययन केंद्र बन रहे थे, उसी समय अच्छे स्तर के भारत-संबंधी ग्रंथागार बनाने के लिए एक और योजना बनाई गई। अमरीकन कांग्रेस के कानून पी.एल. 480 के आधार पर अमरीका ने भारत को कुछ साल तक गेहूँ बेच दिया था। ऋण चुकाने के लिए अनेक योजनाएँ बनाई गईं। इन में से एक यह भी थी जिससे भारत में मुख्य भारतीय भाषाओं में तथा अंग्रेजी में छपी हुई पुस्तकें हर साल अमरीकी विश्वविद्यालयों में पहुँचती हैं। उस योजना की सहायता से कई बहुत अच्छे ग्रंथागार बन गए हैं, जिनमें हिन्दी तथा अन्य विषयों के लिए अध्ययन की बहुत अच्छी सामग्री मिलती है। मुख्य केंद्रों के पुस्तकालयों में हिन्दी का ही 8000 से 24000 पुस्तकें मिलती हैं।
          पी. एल. 480 के रुपयों की सहायता से एक योजना बन गई, जिससे अमरीकी विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को तथा विद्वानों को (चाहे अमरीकी हो या किसी और देश के हों) भारत आने के लिए छात्रवृत्तियाँ मिलती हैं। उस योजना के सहारे पिछले 30 वर्षों में बहुत से विद्वानों ने भारत आकर भाषा सीखी तथा शोधकार्य किया है। इस के कारण अमरीका तथा भारत के विद्वानों में आदान-प्रदान हो पाया और शोध बहुत आगे बढ़ पाया। भारत के विषय में अमरीका में हर साल बहुत से शोध प्रबंध तथा पुस्तकें निकलती हैं, जो वहाँ की जनता तथा सरकार को भारत के बारे में असली जानकारी देने की कोशिश करती हैं।
          हिन्दी के विषय में किस तरह का शोध कार्य अब तक हुआ और अभी हो रहा है? उत्तर देना थोड़ा कठिन है, क्योंकि हरेक व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार अपना शोध कार्य करता है, किसी ख़ास सामूहिक कार्यक्रम को लेकर नहीं। परंतु हम यह देख सकते हैं कि पिछले 25 वर्षों में, हालांकि हर तरह के विषयों पर काम हुआ है, शोध की प्रवृत्तियों के विभिन्न स्तर विद्यमान हैं।
          शुरू में हिन्दी की मुख्यत: बोलचाल की भाषा के तौर पर पढ़ाया जाता था। उसको अन्य विषयों में शोध करने के लिए एक उपाय समझा जाता था। पढ़ाने वालों का काम था कि समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि के विद्यार्थियों को भारत में लोगों से हिन्दी में बात करने के लिए तैयार कर दिया जाए। उस सिलसिले में बहुत सी प्रारंभिक पाठ्य-पुस्तकें तैयार की गईं क्योंकि पढ़ानेवाले मुख्यत: भाषाविज्ञान के विद्वान् थे।
          उसके बाद, जब भाषा की जानकारी की नींव दृढ़ हो गई तो विद्वानों में एक नई रुचि उत्पन्न हुई साहित्य का अध्ययन करने की। शुरू में खड़ी बोली साहित्य का अध्ययन किया गया था। अनुवाद के द्वारा आधुनिक हिन्दी साहित्य की कुछ महत्वपूर्ण कृतियां अमरीकी जनता के सामने लाई गईं। आगे बढ़कर कुछ विद्वानों का ध्यान मध्यकालीन ब्रज, अवधी आदि साहित्य की ओर गया और इस क्षेत्र में भी काफ़ी काम हुआ। पिछले 4-5 सालों में, लोक-साहित्य तथा हिन्दी की लोकप्रिय क्षेत्रीय बोलियों पर भी पर्याप्त काम होने लगा है।
          अत: हम यह देख सकते हैं कि पिछले 25 वर्षों में अमरीकी विश्वविद्यालयों में हिन्दी के अध्ययन का एक विशेष विकास क्रम हुआ। शुरू में हिन्दी को केवल व्यावहारिक रूप से आधुनिक संपर्क भाषा के रूप में देखा जाता था। अब उनकी समृद्ध तथा विविध साहित्य परंपराओं का अध्ययन विधिवत् ढंग से किया जाने लगा है।

(2) अमरीकी जनता में हिन्दी के प्रति जागरूकता

          लगभग 1965 तक, अमरीकी जनता में हिन्दी भाषा के बारे में बहुत कम जानकारी थी। क्योंकि भारत में अंग्रेजी चलती है तथा जो थोड़े-बहुत भारतीय लोग अमरीका आते थे सब अंग्रेजी जानते थे। इसलिए यह भ्रम फैल गया था कि अंग्रेजी ही भारत की राष्ट्रभाषा है। अभी भी अधिकांश लोगों की यही धारणा है।
          पिछले 20 वर्षों में तो स्थिति थोड़ी-सी बदल गई है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि भारत से बहुत अधिक लोग अमरीका पहुंच गए हैं, और संख्या की वजह से उनकी अपनी भाषाओं का अधिक प्रयोग है। इसके बारे में बागे चलकर चर्चा की जाएगी। दूसरा कारण यह है कि अमरीकी लोगों की ओर से भारत की संस्कृति के अनेक पहलुओं के प्रति आकर्षण होने लगा है। कुछ लोगों में इस समय आध्यात्मिकता के प्रति झुकाव है। भौतिक विकास तथा व्यक्तिगत सफलता के उद्देश्यों से परे हटकर वे जीवन का मूल अर्थ जानना चाहते हैं और दार्शनिकों की तरह प्रश्न पूछते हैं। इस सिलसिले में भारत की अध्यात्म-परंपरा की ओर से आकर्षित होना स्वाभाविक है। बहुत-से लोग, विशेषकर युवा लोग, भारत के अध्यात्म-गुरुओं के चरणों में बैठने के लिए भारत आते हैं, और भारत के गुरु-संत-स्वामी अमरीका में भी पहुँचते हैं। क्योंकि अमरीका में, जैसे कि भारत में, धर्म के पालन तथा प्रचार के पूर्ण स्वतंत्रता है, उन गुरु-संत-स्वामियों का संदेश बहुत दूर तक फैल गया है। आजकल ऐसे बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने भारत के अध्यात्म-गुरुओं के बारे में नहीं सुना हो और कुछ ऐसे शब्द भी हैं (जैसे गुरु, योग, आश्रम, धर्म, कर्म) जो वहां की बोलचाल की भाषा में प्रचलित हो गए हैं।
          उस आध्यात्मिक झुकाव के कारण भारत की ओर प्रवृत्त होकर बहुत-से लोग यह भी चाहते हैं कि जिस देश की आध्यात्मिक परंपराओं को वे सीख रहे हैं, उसकी भाषाएँ भी सीख लें। इस तरह हिन्दी, संस्कृत आदि की कक्षाओं में विद्यार्थियों का एक नया वर्ग पहुँच गया है।
          अध्यात्म के अलावा, भारतीय शास्त्रीय संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला इत्यादि सांस्कृतिक परंपराओं में भी कुछ लोगों का झुकाव है। भारतीय डिजाइन लोगों को पसन्द है। चित्रकला तथा मूर्तिकाल भी वहाँ बहुत बिकती है, और हस्तकला का भी काफ़ी निर्यात होता है। कुछ अमरीकान चित्रकार भारतीय बिंबों तथा प्रतीकों से भी प्रभावित हैं और इनका प्रयोग अपनी कला में करते हैं। भारतीय संस्कृति में तो आजकल अमरीका में सबसे अधिक रुचि है। भारत के संगीतकाल बड़ी संख्या में अमरीका पहुँचते हैं और श्रोतागण उनको बड़ी रुचि से सुनते हैं। वहाँ के बहुत से संगीतकार भारतीय शास्त्रीय संगीत का अध्ययन भी करते हैं तथा भारत में अध्ययन के लिए पहुँचते हैं। उन लोगों में भी भाषा सीखने की इच्छा स्वाभाविक है, और ऐसे लोग भी हिन्दी की कक्षाओं में पहुँचते हैं।
          इन सब परिस्थितियों के कारण हिन्दी के बारे में जो ज्ञान पहले था, वो अब कम होने लगा है।

(3) अमरीका के भारतीय और हिन्दी

          आजकल अमरीका में प्रवासी भारतीयों की संख्या बहुत बढ़ गई है। यहाँ तक की सरकार उनको अब एक सरकारी अल्प-संख्यक समुदाय मानने लगी है। 1965 से पहले, भारतीय अमरीका में बहुत कम थे तथा इधर-उधर बिखरे हुए थे, जिसके कारण उनकी संस्कृति कम विद्यमान थी। अब भारतीय सब क्षेत्रों में उपस्थित हैं और वे अमरीकन समाज का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। संख्या अधिक होने के कारण, भारतीय लोग स्वयं अपनी संस्कृति सुरक्षित करने तथा बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं।
          आजकल, विशेषकर न्यूयार्क या लॉस ऐंजल्स जैसे बड़े शहरों में, साड़ियों या पगड़ियों को देख कर किसी को आश्चर्य नहीं है, और भारतीय नाम-उपनाम भी कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। विभिन्न शहरों में कुछ ऐसे पड़ोस होने लगे हैं जिनमें बहुत-से भारतीय रहते हैं और हर तरह के रेस्टोराँ तथा दुकानें हैं। कुछ जगहों में हिन्दी फिल्में दिखाई जाती हैं तथा रेडियो के दो-एक हिन्दी प्रोग्राम भी होते हैं। बहुत-से सांस्कृतिक कार्यक्रम, धार्मिक उत्सव आदि होने लगे हैं। मुख्य त्यौहार बड़े धूम-धाम से मनाए जाते हैं। मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा भी इधर-उधर बनने लगे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर अनेक बड़े-बड़े कार्यक्रम भी हुए हैं।
          प्रवासी भारतीय लोगों में इस नए सांस्कृतिक उमंग के दो रूप हैं। एक तो ऐसी संस्थाएँ तथा कार्यक्रम जिनमें भारत के सब प्रदेशों के लोग किसी उद्देश्य से मिलते हैं (जैसे 15 अगस्त को मनाने के लिए या सामसायिक समस्याओं पर विचार-विमर्श करने के लिए) ऐसे अवसरों पर ज्यादातर अंग्रेजी बोली जाती है। दूसरी ओर, ऐसी संस्थाएँ या सांस्कृतिक कार्य हैं जिनका आधार भारत के विभिन्न प्रादेशिक, या क्षेत्रीय संस्कृतियाँ हैं। उन्हीं में मातृभाषा का प्रयोग (चाहे हिन्दी हो या कोई अन्य भाषा) अधिक किया जाता है, और क्षेत्रीय परंपराओं (जैसे लोकगीत, कविता आदि) का पालन किया जाता है।
          परिवारों में मातृभाषा का पालन तब किया जाता है जब बूढ़े लोग भी हैं, जिनकों अंग्रेजी कम आती है। अन्यथा, भारतीय बच्चे अंग्रेजी ही बोलते है। लेकिन पिछले 5-6 वर्षों से, ये लड़के-लड़कियाँ विश्वविद्यालयों में पहुँचने लगे हैं। वहाँ हर विद्यार्थी को अकसर अपनी रुचि के अनुसार विदेशी भाषा का दो वर्ष तक अध्ययन करना पड़ता है। जहाँ हिन्दी या कोई और भारतीय भाषा सिखाई जाती है, भारतीय लड़के-लड़कियाँ उसी को सीखना पसंद करते हैं।

निष्कर्ष

          अमरीका में हिन्दी का अध्ययन निजी रुचि की बात है। सरकार तथा स्वतंत्र संस्थाएं अध्यापन कार्यक्रमों में कुछ मदद करती हैं, परंतु अध्यापन की दिशा असंख्य पढ़ने-पढ़ाने वालों को व्यक्तिगत प्रेरणा तथा उद्देश्यों से विकसित हुई है। अत: हिन्दी साहित्य में विशेष रुचि लेने वाले साहित्य के विद्वान, भाषाविज्ञान के विद्वान, सामाजशास्त्र आदि के विद्वान् आधुनिक भारत की प्रगति तथा समस्याओं पर शोध कार्य कर रहें हैं। भारतीय संगीत तथा अन्य कलाओं में रुचि लेने वाले साधारण लोग तथा कलाकार, अध्यात्म की ओर प्रवृत्त लोग जो किसी भारतीय धर्म-साधना के अनुयायी हैं, पर्यटक लोग जो भारत में घूमना चाहते हैं और ऐसे व्यक्ति जिन में किसी भारतीय के व्यक्तिगत संपर्क में आने के बाद भाषा सीखने की इच्छा उत्पन्न हुई, तथा प्रवासी भारतीय लड़के-लड़कियाँ जो अमरीका में पैदा होने के कारण अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा अच्छी तरह से नहीं जानते, हिन्दी का अध्ययन करने लगे हैं। अमरीकी विद्वानों में हिन्दी का अध्ययन व्यापक होता जा रहा है, जिससे वे भारतीय विद्वानों के साथ स्थायी संबंध बनाए रख सकें। आम जनता में भारतीय लोगों तथा भारतीय संस्कृति के बारे में अधिक जानकारी होने के कारण हिन्दी के बारे में भी कुछ जानकारी होने लगी है। अंत में प्रवासी भारतीयों में अपनी संस्कृति तथा भाषा के पालने के लिए भी एक नया उत्साह उत्पन्न हो रहा है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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2. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति प्रो. केसरीकुमार
3. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर
4. हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता डॉ. जगदीश गुप्त
5. राजभाषा: कार्याचरण और सामासिक संस्कृति डॉ. एन.एस. दक्षिणामूर्ति
6. हिन्दी की अखिल भारतीयता का इतिहास प्रो. दिनेश्वर प्रसाद
7. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति डॉ. मुंशीराम शर्मा
8. भारतीय व्यक्तित्व के संश्लेष की भाषा डॉ. रघुवंश
9. देश की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति में हिन्दी का योगदान डॉ. राजकिशोर पांडेय
10. सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया और हिन्दी साहित्य श्री राजेश्वर गंगवार
11. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति के तत्त्व डॉ. शिवनंदन प्रसाद
12. हिन्दी:सामासिक संस्कृति की संवाहिका श्री शिवसागर मिश्र
13. भारत की सामासिक संस्कृृति और हिन्दी का विकास डॉ. हरदेव बाहरी
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15. हिन्दी के विकास में भोजपुरी का योगदान डॉ. उदयनारायण तिवारी
16. हिन्दी का विकासशील स्वरूप (शब्दावली के संदर्भ में) डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया
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19. सांस्कृतिक भाषा के रूप में हिन्दी का विकास डॉ. त्रिलोचन पांडेय
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21. प्रशासनिक हिन्दी का विकास डॉ. नारायणदत्त पालीवाल
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विदेशी संदर्भ
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55. अमरीका में हिन्दी -डॉ. केरीन शोमर
56. लीपज़िंग विश्वविद्यालय में हिन्दी डॉ. (श्रीमती) मार्गेट गात्स्लाफ़
57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे

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