अर्द्ध कुम्भ

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अर्द्ध कुम्भ मेले के दौरान स्नान करते लोग

अर्द्ध कुम्भ हरिद्वार और प्रयाग में दो कुम्भ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में होता है। 'अर्द्ध' या 'आधा कुम्भ' हर छह वर्षों में संगम के तट पर आयोजित किया जाता है। पवित्रता के लिए अर्द्ध कुम्भ भी पूरी दुनिया में लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। 'माघ मेला' संगम पर आयोजित एक वार्षिक समारोह है।

योग विवरण

वृश्चिक राशि के बृहस्पति और मकर राशि के सूर्यचन्द्र माघ मास में अमावस्या के दिन जब आयें, तब 'अर्ध कुम्भ' योग होता है। अर्ध कुम्भ केवल प्रयाग में ही होता है, ऐसा योग प्रयाग में अति दुर्लभ है।

कुम्भ स्वरूप

'कुम्भ' का शाब्दिक अर्थ कलश होता है। इसका पर्याय पवित्र कलश से होता है। इस कलश का हिन्दू सभ्यता में विशेष महत्व है। कलश के मुख को भगवान विष्णु, गर्दन को रुद्र, आधार को ब्रह्मा, बीच के भाग को समस्त देवियों और अंदर के जल को संपूर्ण सागर का प्रतीक माना जाता है। यह चारों वेदों का संगम है। इस तरह कुम्भ का अर्थ पूर्णतः औचित्य पूर्ण है। वास्तव में कुम्भ हमारी सभ्यता का संगम है। यह आत्म जाग्रति का प्रतीक है। यह मानवता का अनंत प्रवाह है। यह प्रकृति और मानवता का संगम है। कुम्भ ऊर्जा का स्त्रोत है। कुम्भ मानव-जाति को पाप, पुण्य और प्रकाश, अंधकार का एहसास कराता है। नदी जीवन रूपी जल के अनंत प्रवाह को दर्शाती है। मानव शरीर पंचतत्वों से निर्मित है। यह तत्व हैं- अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाश

कलशस्य मुखे: विष्णु कण्ठे रूद्र: समाश्रित।
मूले तंत्र स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणा स्मृता:।।1।।
कुक्षौ तु सागरा: सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदो सामवेदोऽथर्वण:।
अंगैश्च सहिता: सर्वे कलशं तु सामाश्रिता:।।2।।

प्रार्थना मन्त्र

पूजा के समय दोनों हाथों के अंगूठों को मिला कर खुली मुट्ठी बांधनी चाहिए। त्रिवेणी जी में स्नान करने से पूर्व कलश मुद्रा दिखाकर उसमें अमृत की भावना करके निम्न प्रार्थना मन्त्र को पढ़ते हुए स्नान चाहिए-

देवदानव संवादे मध्यमाने महोदधौ।
उत्पन्नोऽसि तदा कुम्भ, विधृतो विष्णुना स्वयम्।
त्वत्तोये सर्व तीर्थानि, देवा: सर्वे त्वयि स्थिता:।
त्वयि तिष्ठन्तिभूतानि, त्वयि प्राणा: प्रतिष्ठिता:।
शिव: स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्बं च प्रजापति:।
आदित्या वसवोरूद्रा विश्वेदेवा: सपैतृका:।
त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यत: कामफलप्रदा:।
त्वत्प्रसादादिमं स्नानं कर्तुमीहे जलोन्द्रव।
सान्निध्यं कुरू में देव प्रसन्नोभव सर्वदा।।


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