आत्मकथा

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आत्मकथा हिन्दी साहित्य में गद्य की एक विधा है। जैसे- लेखक सिद्धलिंगय्या द्वारा रचित आत्मकथा गाँव गली

पहली आत्मकथा

हिन्दी साहित्य में बनारसीदास जैन कृत ‘अर्द्धकथानक’ को पहली आत्मकथा माना जाता है। इसकी रचना सन् 1641 ई. में हुई। सत्रहवीं शताब्दी में रचित जीवन के इस अर्द्धकथानक में घटना, चरित्र-चित्रण, देशकाल, रोचकता, उद्देश्य प्रवृत्ति का सजग निर्वाह आत्मकथात्मक गठाव के साथ है। यह आत्मकथा स्व और अहम् के त्याग की दीनता भरी धारणा और कण-कण में धर्म की छवि देखने वाली भारतीय मानसिकता से अलग अपने बारे में निःसंकोच स्वीकार करती कवि-आत्म-कथाकार की परम्परा विरोधी साहसिकता की परिचायक है और साथ ही भारतीय मानसिकता पर दुराव का आरोप लगाने वालों के लिए एक बड़ा प्रश्न चिह्न भी।

अर्द्धकथानक में दो प्रकार के ऐतिहासिक उल्लेख मिलते हैं- एक वे जिनका सम्बन्ध कवि के जन्मकाल के पूर्व से है और दूसरे वे जिनका सम्बंध उसके जीवनकाल से है। पहले प्रकार के उल्लेखों की एतिहासिकता पर कदाचित हमें विचार करने की आवश्यकता नहीं। दूसरे प्रकार के उल्लेखों को इतिहास की कसौटी पर इतिहासकारों और पाठालोचन के विशेषज्ञों ने परखा है, और कई ऐतिहासिक घटनाओं की प्रामाणिकता पाने पर डॉ. माता प्रसाद गुप्त ने ‘भूमिका’ में ‘अर्द्धकथा’ की ऐतिहासिकता भलीभाँति प्रमाणित है जैसी निश्चित टिप्पणी दी है।

एक असफल व्यापारी की कथा के रूप में कृति ने व्यापारी वर्ग को जिन यातनाओं, संकटों और असुविधाओं को झेलना पड़ा उन परिस्थितियों का व्यापक रूप में चित्रण किया है। डॉ माताप्रसाद गुप्त ने ‘अर्द्धकथा’ का महत्त्व एक अन्य दृष्टि में और भी अधिक पाया है-

‘‘वह मध्यकालीन उत्तरी भारत की सामाजिक अवस्था तथा धनी और निर्धन प्रजा के सुख-दुख का यथार्थ परिचय देती है। बादशाहों की लिखी दिनचर्याओं और मुसलमान इतिहास लेखकों द्वारा लिखित तत्कालीन तारीखों से हमें शासन और युद्ध सम्बन्धी घटनाओं की अटूट श्रृंखलाएँ भले ही मिल जावें, किंतु इतिहास के उस स्वर्ण युग में राजधानियों से दूर हिन्दू जनता-विशेष करके धनी और व्यापारी वर्ग को अहर्निश कितनी यातनाएँ भोगनी पड़ती थी इसका अनुमान उन दिनचर्याओं और तारीखों से नहीं किया जा सकता। उसके लिए हमें ‘अर्द्धकथा’ ऐसी रचनाओं का ही आश्रय लेना पड़ेगा।’’[1] ब्रजभाषा और खड़ी बोली हिन्दी बोलने वाले क्षेत्र को ही कवि ने मध्यदेश के शब्द से सम्बोधित किया है। व्याकरण की दृष्टि से भी कृति में अनेक विशिष्ट प्रयोग मिलते है। इसमें विसर्ग और ल् के अतिरिक्त देवनागरी के समस्त स्वरों और व्यंजनों का प्रयोग हुआ है। उच्चारण सौंदर्य की दृष्टि से कहीं स्वर बढ़ाया गया है तो कहीं किसी अक्षर का लोप ही कर दिया गया है। ‘कर्ता’ और ‘कर्म’ के प्रयोग वर्तमान हिन्दी में अपने चलन के अनुसार है।

आत्मकथा की विकास-यात्रा

उपन्यास, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, यात्रा वृत्तान्त और डायरी की ही भाँति आत्मकथा नामक साहित्यिक विधा का भी आगमन पश्चिम से हुआ है। डॉ. नामवर सिंह ने अपने एक व्याख्यान में कहा था कि ‘अपना लेने पर कोई चीज परायी नहीं रह जाती, बल्कि अपनी हो जाती है।’ इसलिए बहस अपनाव को लेकर नहीं, उसकी चेतना और प्रक्रिया को लेकर हो सकती है। आधुनिक काल में पाश्चात्य संस्कृति से संवाद स्थापित होने पर हिन्दी के रचनाकारों ने इन विधाओं को अपनाया और अपने जातीय संदर्भ से जोड़कर उन्हें विकसित किया। महात्मा गांधी कहते थे कि अपने चिन्तन के दरवाजे और खिड़कियाँ खुली रखनी चाहिए, ताकि विश्व की विभिन्न संस्कृतियों की हवाएँ उसमें बे-रोक-टोक आएँ-जाएँ; मगर यह ध्यान रहे कि उसी समय अपनी सांस्कृतिक परम्परा में हमारी जड़ें बहुत गहरी और मजबूत हो।
प्राचीनकाल से साहित्यिक परम्परा में आत्मकथा की अनुपस्थिति के सांस्कृतिक कारण हैं। दर्शन में वास्तविक महत्ता आत्मा की रही है। जहाँ मनुष्य के अस्तित्व को ही नश्वर माना जाता हो वहां स्वतंत्रता को महत्त्व नहीं मिलना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। चूँकि आत्मा ही वास्तविक है और सारे मनुष्यों में समान है, इसलिए दार्शनिकों का तर्क है कि सभी मनुष्य अन्ततः एक है। वैयक्तिक्ता, आत्मवत्ता या फिर विश्ष्टिता का बोध— इनको एक-दूसरे के पर्याय के रूप में ‘माया’ की माना जाता है। चूँकि आत्मकथा एक स्वतंत्र ‘आत्म’ की कथा है, इसलिए उसे अपने जन्म और विकास के लिए ऐसी संस्कृति की ज़रूरत होती है, जिसमें वैयक्तिकता को महत्त्व और पोषण प्राप्त हो।

प्राचीन साहित्य में आत्मकथा

प्राचीन साहित्य में आत्मकथा की परम्परा भले ही नहीं रही हो लेकिन ऐसा नहीं है कि कथाकारों ने आत्म वचन को नहीं अपनाया हो। एक सूक्ष्म जाँच-पड़ताल के बाद आत्मकथा-सरीखी साहित्यिक अभिव्यक्ति के कुछ टुकड़े ज़रूर मिलते हैं, हालांकि उनसे कोई संतुष्टि नहीं मिल पाती है। हर्षचरित का वह आरम्भिक हिस्सा है, जिसमें रचयिता बाणभट्ट ने अपमान, वंचना और हताशा में भरे अपने बचपन, विद्यार्थी जीवन और शुरूआती युवावस्था की चर्चा की है। इसी तरह कुछ और नाम भी आते हैं जिनमें बिलहण (विक्रमांकदेव चरित), दण्डी (दशकुमारचरित) आदि प्रमुख हैं। प्राप्त सामग्री के आधार पर काल क्रमानुसार इतिहास की दीर्घा में आत्मकथाओं के तीन निश्चित चरण दिखते हैं—

प्रथम चरण (1600-1875)

प्रथम चरण के सुदीर्घ कालखण्ड में तीन महत्वपूर्ण आत्मकथाएँ मिलती हैं। हिन्दी में सत्रहवीं शताब्दी में रचित बनारसीदास ‘जैन’ की ‘अर्द्धकथानक’ (1641ई.) अपनी बेबाकी में चौंकाने वाली आत्मकथा है। बनारसीदास की अर्द्धकथा के बाद एक लम्बा कालखण्ड अभिव्यक्ति की दृष्टि से मौन मिलता है। इस लम्बे मौन को स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सन् 1860 में अपने ‘आत्मचरित’ से तोड़ा है। दयानन्द सरस्वती जी का स्वकथित जीवन वृत्तान्त अत्यन्त संक्षेप में भी अपने वर्तमान तक पहुंचने की कथा का निर्वाह निजी विशिष्ट चेतना के साथ करता है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी आत्मकथा में अपने प्रारम्भिक जीवन के चित्रण के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों को दर्शाया है। घर से भागने, वैरागी के हाथ पड़ने, पिता के द्वारा पकड़े जाने, पुनः भागने, तदनन्तर संन्यास लेने और विभिन्न गुरुओं से सम्बद्ध कथायें ‘जीवन चरित्र’ में आती हैं। अपने द्वारा किए गए शैवमत के खण्डन, भागवत के खण्डन आदि अनेक शास्त्रार्थ की चर्चा, साथ ही आर्य समाज की उन्नति के लिए समर्पित उनका स्वयं का व्यक्तित्व इस संक्षिप्त आत्मकथा को धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाता है। ईश्वर की इस प्रार्थना से लेखक अपनी इस आत्मकथा का समापन करता है— “...ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि सर्वत्र आर्य समाज कायम होकर पूजादि दुराचार दूर हो जावें, वेद शास्त्रों का सच्चा अर्थ सबकी समझ में आवे और उन्हीं के अनुसार लोगों का आचरण होकर देश की उन्नति हो जावे।”[2]

सन् 1909 तथा 1918 ई. में दो खण्डों में सत्यानन्द अग्निहोत्री का आत्मचरित्र ‘मुझमें देव-जीवन का विकास’ प्रकाशित हुआ। इसमें आत्मकथा कम और उपदेशात्मकता अधिक है। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक ने आर्यसमाज के प्रचार की प्रतिस्पर्द्धा में देव-समाज के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने हेतु इस ग्रन्थ को रचा था। आस्तिकता और वैदिक विचारधारा का खण्डन इस आत्मकथा का प्रमुख हिस्सा है।

सीताराम सूबेदार द्वारा रचित ‘सिपाही से सूबेदार तक’ जैसी आत्मकथा अपने अंग्रेज़ी अनुवादों के अनेक संस्करणों में उपलब्ध है। आत्मकथाकार की सैनिक बनने की अपनी महत्त्वाकांक्षा, मामा के द्वारा दिया गया प्रोत्साहन, घर का विरोध और अन्ततः ‘खूब जवान’ हो जाने पर फौज के लिए प्रस्थान जैसी घटनाएँ आत्मकथा को रुचिकर बनाती है। आत्म-कथाकार अपनी अड़तालीस वर्षों की ब्रितानी फौज की सेवा में पाये जंग के घाव, चोट के निशानों और छह मेडलों के प्रति सर्वोत्तम है। बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है इस आत्मकथा का अपने मौलिक रूप हिन्दी में नहीं उपलब्ध होना।

द्वितीय चरण (1876-1946)

भारतेन्दु हरिश्चंद्र के छोटे आत्मकथात्मक लेख ‘एक कहानीः कुछ आप बीती कुछ जग बीती’ से प्रारम्भ हुई द्वितीय चरण में आत्मकथाएँ अनेक छोटे-बड़े प्रयोग करती है। इस छोटे-से लेख में भारतेन्दु ने अपने निज एवं अपने परिवेश को अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि के साथ उकेरा है। दो पृष्ठों में लिखा गया यह लेख आत्मकथा की विधा के भविष्य के लिए पुष्ट बीज है। अपना परिचय देने के क्रम में आत्मकथाकार ने अपनी सहृदयता का यथेष्ट प्रमाण दिया है-

“जमीन चमन गुल खिलाती है क्या-क्या?

बदलता है रंग आसमाँ कैसे-कैसे।”[3]

“हम कौन है और किस कुल में उत्पन्न हुए हैं आप लोग पीछे जानेंगे। आप लोगों को क्या, किसी का रोना हो पढ़े चलिए जी बहलाने से काम है। अभी इतना ही कहता हूँ कि मेरा जन्म जिस तिथि को हुआ, यह जैन और वैदिक दोनों में बड़ा पवित्र दिन है।”

इस चरण में कई महत्वपूर्ण आत्मकथाएँ प्रकाशित हुई- राधाचरण गोस्वामी की ‘राधाचरण गोस्वामी का जीवन चरित्र’- इस छोटी सी कृति में वैयक्तिक संदर्भों से ज्यादा तत्कालीन साहित्य और समाज की चर्चा का निर्वाह किया गया है। भाई परमानन्द की ‘आप बीती (मेरी राम कहानी)’ का प्रकाशन वर्ष 1922 ई. है।

स्पष्टवादिता, सच्चाई के लिए प्रसिद्ध, वैदिक धर्म के सच्चे भक्त परमानन्द की आपबीती का अपनी तत्कालीन राजनीतिक स्थिति में एक विशेष राजनीतिक महत्त्व है। गिरफ्तारी का पहला दिन, हवालात की अंधेरी कोठरी के अन्दर, न्याय की निराशा जैसे शीर्षकों में आपबीती विभक्त है जो कहीं न कहीं ‘डायरी’ के समीप लगती है।

जेल की सजाओं, षड्यन्त्रों, अंधेरे में बिताये अकेले घण्टी और वहाँ की गन्दगी के बारे में बताता लेखक जेल के माध्यम से सुधार करने की आशा को एक कल्पित स्थिति घोषित करता है- “यह वह स्थान है, जहाँ मनुष्य समाज के गिरे हुए आदमी इकट्ठे कर दिये जाते हैं, ताकि वे अपने मन के विचारों को एक-दूसरे से बदलते हुए उनके अनुसार अपना काल व्यतीत करें। जब कोई अच्छी प्रकृति का मनुष्य इनमें डाल दिया जाता है, तो कुछ समय तक तो उसे घृणा-सी आती है, परन्तु कुछ समय वहाँ रहने के पश्चात् वह भी वैसा ही हो जाता है, जैसा कि एक मल उठाने वाले भंगी की सन्तान जिनकी नाक में गन्ध सूँघने की शक्ति मर जाती है।”[4]

20वीं शती के चौथे दशक में ही महात्मा गांधी ने ‘आत्म-दर्शन’ की अपनी जीवनव्यापी कोशिशों को आत्मकथा का रूप दिया, जिसे उन्होंने ‘सत्य के प्रयोग’ की संज्ञा दी। मूल रूप से यह आत्मकथा गुजराती में थी जो अनुदित होकर बाद में हिन्दी में भी प्रकाशित होती है। आत्मकथा की प्रस्तावना में अपने उद्देश्यों की घोषणा करते हुए उन्होंने लिखा है-

‘‘मुझे जो करना है, तीस वर्षों से मैं जिसकी आतुर भाव से रट लगाए हुए हूँ, वह तो आत्म-दर्शन है,ईश्वर का साक्षात्कार है, मोक्ष है। मेरे सारे काम इसी दृष्टि से होते हैं। मेरा सब लेखन भी इसी दृष्टि से होता है; और राजनीति के क्षेत्र में मेरा पड़ना भी इसी वस्तु के अधीन है।’’[5]

गांधी इस बात से सहमत थे कि आत्मकथा लिखने का पश्चिमी ढंग अनिवार्यतः आत्म-केन्द्रित और अहम्मन्यतापूर्ण है। परन्तु गांधी ने अपने व्यक्ति या ‘मैं’ के बजाय ‘आत्मा’ को आत्मकथा के केन्द्र में लाकर इन पाश्चात्य विकृतियों का प्रतिकार किया। सही मायने में गाँधीजी ने आत्मकथा का भारतीयकरण किया है।

कृति के शीर्षक ‘सत्य के प्रयोग’ से भी यह प्रतीति स्पष्टतः होती है कि लेखक अपने जीवन को प्रयोग-स्थल बनाकर उस पर अनेक परिस्थितियों में बार-बार नये परीक्षण करके उनके परिणाम संसार के सामने रखने की चेष्टा कर रहा है। इसके अलावा उन्होंने स्पष्ट किया कि भारतीय जनता उनके जीवन-विश्वास और जीवन व्यवहार का अन्धानुकरण न करे, क्योंकि उनकी बातें ‘अन्तिम और सच’ नहीं है। सत्य को उन्होंने पाया नहीं है, बल्कि उसे पाने की निरन्तर अथक कोशिश की है। उनकी इस कोशिश से प्रेरित होकर, उनके जीवन-प्रसंगों के अन्तरंग हिस्सेदार बनकर अन्य लोग अपने-अपने ढंग, क्षमता और विवेक के मुताबिक़ यह कोशिश कर सकते हैं। इस तरह वे ज्यादा से ज्यादा अपने यहाँ एक बड़े पैमाने पर सत्य के प्रयोगों की इस संस्कृति का निर्माण तथा विकास चाहते थे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि इस काम के लिए आत्मकथा से उपयुक्त माध्यम और कुछ हो ही नहीं सकता था।

सन् 1932 में मुंशी प्रेमचंद ने ‘हंस’ का एक विशेष आत्मकथा-अंक सम्पादित करके, अपने यहाँ आत्मकथा विधा के विकास की एक बड़ी पहल की थी। तब के एक नए समीक्षक नन्ददुलारे वाजपेयी ने इस अंक में लिखना तो स्वीकार नहीं ही किया, उलटे इस योजना का जबरदस्त सैद्धान्तिक विरोध किया। मसलन वाजपेयी जी आत्मकथा न लिखने को आत्म-त्याग के महान् दर्शन से ‘जोड़’ रहे थे और जो परम्परा में नहीं है, पर जो परम्परा में नहीं है उन्हें आधुनिक विवेक के साथ अपनाया और समृद्ध भी तो किया जा सकता है। इस प्रसंग में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को याद करना ज़रूरी है— ‘‘फिर यूरोपीय प्रभाव होने मात्र से कोई चीज अस्पृश्य नहीं हो जाती। प्रेमचंद की कहानियाँ, बैताल पचीसी के ढंग की न होकर आधुनिक यूरोपीय कहानियों के ढंग की हुई हैं, इतना कह देने से प्रेमचन्द का महत्त्व कम नहीं हो जाता। प्रभाव तो मनुष्य पर तब तक पड़ेगा, जब तक उसमें जीवन है। जहाँ जीवन का वेग अधिक है, प्राण धारा बहाव तेज है, उसी स्थान से उसका ऐश्वर्य छितराएगा ही। आलोक सीमा में बंधना नहीं चाहता उसका धर्म ही प्रकाशित होना और प्रकाशित करना है।’’[6]

1941 में प्रकाशित आत्मकथा ‘मेरी आत्म कहानी’ के आत्मकथाकार प्रसिद्ध साहित्यकार श्यामसुन्दर दास हैं। सम्पूर्ण कृति में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना, विकास, गति, तत्कालीन हिन्दी और हिन्दी की स्थिति की चर्चाएँ हैं। एक उच्चकोटि के भाषाविद् की आत्मकथा होने के बावजूद भी आत्मकथा में भाषा-शैली का या अभिव्यक्ति का माधुर्य नहीं है। पत्रों के उद्धरण, अंग्रेजी दस्तावेज, आँकड़ों का विस्तृत वर्णन लेखक के ऐतिहासिक महत्त्व को प्रमाणित तो करते हैं लेकिन आत्मकथा की सहज निर्बन्ध वैयक्तिक गति को खंडित करते हैं।

सन् 1942 ई. में बाबू गुलाबराय की आत्मकथा ‘मेरी असफलताएँ’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। यह आत्मकथा अत्यन्त ही रोचक एवं व्यंग्य-विनोदपूर्ण है, साथ ही लेखक के व्यक्तित्व, चरित्र, कार्यक्षमता पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रकाश डालती है।

हरिभाऊ उपाध्याय की आत्मकथा ‘साधना के पथ पर’ 1946 ई. में प्रकाशित हुई, जिसमें लेखक ने 1842 से 1945 तक के जीवनानुभवों को लिपिबद्ध किया है। यह कृति अनेक जगहों पर उपदेशात्मक हो गयी है, लेकिन ऐसा सोद्देश्य हुआ है, क्योंकि लेखक ने भूमिका में स्पष्ट कर दिया है कि हो सकता है, ये अनुभव पाठकों के लिए उपयोगी हों।

राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा पांच खण्डों में ‘मेरी जीवन यात्रा’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। इनमें से पहले दो खण्ड उनके जीवनकाल में क्रमशः 1946 तथा 1947 में प्रकाशित हुए तथा शेष तीन खण्डों का प्रकाशन उनकी मृत्यु के बाद सन् 1967 में हुआ था। आत्मकथा में राहुल सांकृत्यायन के जीवन के 62 सालों का चित्रण है। प्रथम खण्ड में वंश-परिचय, जन्म, शैशव, शिला व तारुण्य का वर्णन है। तथा दक्षिण भारत की यात्रा, मठ का आश्रय, आर्य समाज से सम्पर्क, महात्मा गाँधी के प्रभाव आदि का दिग्दर्शन है। द्वितीय खण्ड में लंका, तिब्बत, जापान, रूसयूरोप आदि की यात्रा, किसान सत्याग्रह, जेलयात्रा, बौद्ध धर्म व साम्यवाद से प्रभावित होने की कथा है। तृतीय खण्ड में सोवियत प्रदेश के त्रि-वर्षीय निवास (1944 से 1947 तक) का वर्णन है। चतुर्थ खण्ड में 1947 से 1950 तक की घटनाओं का विवरण है। इस खण्ड का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है उनका हिन्दी के प्रति समर्पण तथा हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में उनका योगदान। अंतिम खण्ड में आत्मकथाकार ने साहित्यिक समस्याओं का उद्घाटन किया है।

इस विशाल और व्यापक आत्मकथा में लेखक की साहित्यिक अभिरुचियों, वैयक्तिक गुण-दोषों, अनुभूतियों, भावनाओं, यात्राओं तथा विशिष्ट उपलब्धियों का विस्तृत वर्णन हुआ है। स्थान-स्थान पर उनकी रचनाधर्मिता, रचना-प्रक्रिया तथा लेखन स्रोतों का भी उल्लेख है। डॉ. हरदयाल के शब्दों में “मुहावरेदार भाषा में लिखी गयी यह आत्मकथा उनकी यायावरी, विद्याव्यसनी एवं विद्रोही वृत्ति से साकार हो उठी है।”[7]

तृतीय चरण (1947- अब तक)

औपनिवेशिक काल के दौरान विपरीत परिस्थितियों में जन्मी देश की जाग्रत व्यक्तिनिष्ठ एवं सामूहिक चेतना अभिव्यक्ति के इस विशिष्ट क्षेत्र की ओर भी गतिमयता के साथ प्रवाहित हुई। तत्कालीन राष्ट्रीयता का प्रभाव आत्मकथाओं के विस्तार में प्रतिच्छायित है।

1947 में प्रकाशित बाबू राजेन्द्र प्रसाद की ‘आत्मकथा’ में जीवन की दीर्घकालीन घटनाओं का अंकन एवं स्वचित्रण बिना किसी लाग-लपेट के तटस्थता के साथ आत्मकथा में सम्पादित है। लेखक के बचपन के तत्कालीन सामाजिक रीति-रिवाजों का, संकुचित प्रथाओं से होने वाली हानियों का, तत्कालीन गँवई जीवन का, धार्मिक व्रतों, उत्सवों और त्यौहारों का, शिक्षा की स्थितियों का हू-ब-हू चित्र राजेन्द्र प्रसाद की ‘आत्मकथा’ में अंकित है। तत्कालीन हिन्दू-मुसलमानों के बीच की असाम्प्रदायिक सहज सामान्य सामाजिक समन्वय की भावना का चित्र भी आत्मकथा अनायास ही उकेरती है। सरदार बल्लभभाई पटेल ‘आत्मकथा’ को मात्र कृति ही नहीं इतिहास मानते हैं- ‘‘प्रायः पिछले 25 वर्षों से हमारा देश किस स्थिति को पहुँच गया है इसका सजीव और एक पवित्र देशभक्त के हृदय में रंगा हुआ इतिहास पाठकों को इस आत्मकथा में मिलेगा।’’[8]

1951 में प्रकाशित स्वामी सत्यदेव परिव्राजक की ‘स्वतंत्रता की खोज में, अर्थात् मेरी आत्मकथा’ हिन्दी की अत्यन्त महत्वपूर्ण आत्मकथा है। स्वतंत्रता की खोज में भटकते पथिक की यह कथा मानवता से जुड़ी आत्मा की छटपटाहट एवं तत्कालीन भारतीय राजनीतिक स्थितियों से सम्बद्ध है।

यशपाल की आत्मकथा ‘सिंहावलोकन’ का प्रकाशन लखनऊ से तीन खण्डों में हुआ है। प्रथम खण्ड में लेखक के बाल्य, शिक्षा तथा क्रान्तिकारी दल के कार्यों का उल्लेख होने से वैयक्तिक जीवन पर प्रचुर प्रकाश पड़ा है। कृति में आन्दोलन की घटनाओं की रहस्यात्मकता और रोमांचता के साथ-साथ अपनी विशिष्ट क्रान्तिकारी विचारधारा के महत्त्व को लेखक ने निरूपित किया है, व्यक्ति, परिवार और राजनीतिक दासता की स्थितियाँ और उनमें पनपती और विकसित होती क्रान्तिकारी चेतना को एकसाथ अंकित करती यह आत्मकथा (सशस्त्र क्रान्ति की कहानी) की शैली विवेचनात्मक है। जो कहीं न कहीं उनके उपन्यासों की भाँति रोचक और मर्मस्पर्शी है।

पिता की पुण्य स्मृति के साथ इस आत्मकथा का प्रारम्भ होता है। यह कृति तत्कालीन हिन्दू और मुसलमानों के आपसी सद्भाव को अंकित करती युगीन प्रवृत्तियों को चित्रित करती है। राजस्थानी शब्दों का अत्यन्त सहजता के साथ हिन्दी में घुलामिला स्वरूप आत्मकथा को असाधारण बनाता है।

हिन्दी के प्रसिद्ध नाटककार और हिन्दी सेवी सेठ गोविंददास की आत्मकथा के तीन भाग ‘प्रयत्न, प्रत्याशा और नियतारित’ उपशीर्षकों सहित ‘आत्म-निरीक्षण’ शीर्षक से 1957 ई. में प्रकाशित हुए। तथ्यात्मकता, विश्लेषणात्मकता, निर्भीकता एवं स्पष्टवादिता आदि गुणों के कारण यह आत्मकथा और महत्वपूर्ण हो जाती है। लेखक ने अपने किये प्रेम और पिता की वेश्यानुसक्ति तक को नहीं छुपाया है। लेखक का सजग व्यक्तित्व उसकी आत्मकथा में सर्वत्र मुखर है। गांधी तथा नेहरू तक की आलोचना करने में उसने झिझक नहीं दिखाई। साहित्यकार सेठ गोविन्ददास की आत्मकथा की भाषा शैली की सृजनात्मकता इस विशिष्ट विधा को एक और आयाम देती है।

चतुरसेन शास्त्री की दो आत्मकथाएं: ‘यादों की परछाइयां’ (1956), तथा ‘मेरी आत्म कहानी’ (1963) प्राप्त होती है। ‘यादों की परछाइयां’ में लेखक के निजी जीवन के क्रमिक ब्यौरे का अभाव है, जबकि मरणोपरांत प्रकाशित ‘मेरी आत्म कहानी’ में पहले दो अध्यायों को छोड़कर शेष भाग अप्रामाणिकता का प्रश्नचिन्ह लगाये हुए हैं। डॉ. हरदयाल के शब्दों में “इसका कारण यह है कि पहले दो अध्याय तो लेखक ने स्वयं लिखे है तथा शेष अंश लेखक द्वारा छोड़े गये नोट्स के आधार पर उसके अनुज चंद्रसेन ने लिखा है। चूंकि इस बात का कहीं कोई संकेत नहीं है कि शेष अंश में से कितना चतुरसेन का है तथा कितना चंद्रसेन का। फलतः इस कृति को आत्मकथा की परिधि में रखना न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता।”[9]

छठे दशक के प्रारम्भ में ही पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की आत्मकथा ‘अपनी खबर’ प्रकाशित हुई। दुषित एवं गर्हित परिवेश, पितृ-प्रेम का अभाव तथा उन्मत्त एवं क्रोधी भाई साहब का नियन्त्रण, ‘उग्र’ की नियति थी। ‘अपनी खबर’ में पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने मुक्तिबोध के से आत्मीय और आकुल आवेग के साथ अपनी ‘अजीब जिंदगी में आए कुछ प्रमुख व्यक्तियों के चरित्र की गहरी छानबीन की है।

उग्र के सम्बंध में पंकज चतुर्वेदी का यह कथन सशक्त मालूम होता है, ‘‘जिस समाज के साहित्य में जीवन के गर्हित सच से मुँह चुराने की नैतिक दुर्बलता के कारण न तो आत्मकथाओं की समृद्ध परम्परा बन पायी हो और न सशक्त वर्तमान; उसी हिन्दी समाज में रहते हुए उग्र ने उस दुनिया के वीभत्स अंधेरों को उजागर किया, जिसके वे मूक दर्शक नहीं रह पाए बल्कि विवश हिस्सेदार हुए।’’[10]

लोकप्रियता के क्रम में महात्मा गांधी और पण्डित नेहरू के बाद हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा आती है जिसने गद्य की इस विधा के लेखन में नवीन कीर्तिमान स्थापित किए हैं। आत्मकथा का प्रथम खण्ड ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ 1969 ई. में प्रकाशित हुआ। द्वितीय खण्ड 1970 ई. में ‘नीड़ का निर्माण फिर’ नाम से प्रकाशित। प्रथम खण्ड में जहाँ बच्चन ने अपने भाव-जगत् और यौवनारम्भ के प्रथम अभिसारों का चित्रण किया है, वहाँ अपने कुल, परिवेश तथा पूर्व पुरूषों का भी अत्यन्त रोचक तथा सरस शैली में वर्णन किया है। द्वितीय खण्ड अपेक्षाकृत अधिक अन्तर्मुखी और आत्म विश्लेषणात्मक प्रवृत्ति से युक्त है। तृतीय खण्ड ‘बसेरे से दूर’ में प्रयाग विश्वविद्यालय में अंग्रेजी का अध्यापक बनने और सह अध्यापक लोगों से द्वेष का चित्रण है। कृति की दृष्टि से रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने इसे अनमोल एवं अत्यन्त महत्त्व की रचना’ घोषित किया है। बच्चन जी की आत्म-कथा के अंतिम खण्ड का शीर्षक ‘दशद्वार से सोपान तक’ है।

1970 में प्रकाशित ‘निराला की आत्मकथा’ सूर्यप्रसाद दीक्षित द्वारा संकलित संयोजित एवं सम्पादित है। इस आत्मकथा में निराला के बाल्यकाल की स्मृतियाँ, विवाह, दाम्पत्यभाव, राजा की नौकरी, हिन्दी पढ़ना एवं वंश क्षति आदि से सम्बन्धित घटनाओं के साथ रचना-प्रक्रिया तथा साहित्यिक जीवन का भी विस्तृत विवेचन है। कवि कथाकार रामदरश मिश्र की तीन भागों में प्रकाश्य आत्मकथा का केवल एक खण्ड ‘जहाँ मैं खड़ा हूँ’ (1984) ही प्रकाशित हुआ। इस आत्मकथा की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के ऊबड़-खाबड़ गाँवों की ज़िंदगी ज्यों की त्यों साकार हो उठी है।

भवानी दयाल संन्यासी की ‘प्रवासी की आत्मकथा’ (1947), गणेशप्रसाद वर्णी की ‘मेरी जीवनगाथा’, अजितप्रसाद जैन की ‘अज्ञात जीवन’ (1951), अलगूराय शास्त्री कृत ‘मेरा जीवन’ (1951), नरदेव शास्त्री कृत ‘आपबीत जगबीत’ (1957), पृथ्वी सिंह आज़ाद कृत ‘क्रांतिपथ का पथिक’ (1964), आबिदअली द्वारा हिन्दुस्तानी में कृत ‘मजदूर से मिनिस्टर’ (1968), चतुभुर्ज शर्मा कृत ‘विद्रोही की आत्मकथा’ (1970), मूलचंद अग्रवाल कृत ‘एक पत्रकार की आत्मकथा’ (1944), गणेश वासुदेव मावलंकर कृत ‘मेरा वकालती जीवन’ (1964), विश्वनाथ लाहिरी द्वारा लिखित ‘एक पुलिस अधिकारी की आत्मकथा’ (1984) जैसी आत्मकथाएं प्रेरणा की अक्षय स्रोत हैं, जिनका आत्मकथा की विकास यात्रा में महत्वपूर्ण योगदान है।

अस्मितावादी आत्मकथाएँ

सदियों से पुरुषवादी और सवर्ण-वर्चस्ववादी संस्कृति की सबसे ज्यादा प्रताड़ना स्त्रियाँ और दलित जन सहते आ रहे हैं। यही लोग आत्मकथा के जरिए अपने दारूण अनुभवों का मार्मिक संसार उद्घाटित करेंगे, तो हमारा भाव-लोक भी बदलेगा और वस्तु-जगत भी। मोहनदास नैमिशराय की ‘अपने-अपने पिंजरे’, ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’, मैत्रेयी पुष्पा की ‘कस्तूरी कुण्डल बसै’, तुलसीराम की ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’, श्यौराज सिंह ‘बैचेन’ की ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ आत्मकथाएँ इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण पहल है जो कहीं-न-कहीं इसके उज्ज्वल भविष्य की ओर इशारा करती है। दलित आत्मकथाओं के बारे में ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं, “किसी भी दलित द्वारा लिखी आत्मकथा सिर्फ उसकी जीवनगाथा नहीं होती, बल्कि उसके समाज की जीवनगाथा भी होती है। लेखक की आत्म अभिव्यक्ति होती है। उसके जीवन के दुःख, दर्द, अपमान, उपेक्षा, आत्मकथा उसकी जाति एवं समाज के दुःख-दर्द और अपमान-उपेक्षा इत्यादि को भी स्वर देता है।”[11]

हिन्दी की पहली दलित आत्मकथा 1995 में प्रकाशित मोहनदास नैमिशराय कृत ‘अपने-अपने पिंजरे’ को माना जाता है। भारतीय समाज की वर्ण-व्यवस्था तले हजारों वर्षों से उपेक्षित जीवन जी रहे समाज का चित्रण इस आत्मकथा में मुख्य विषय के रूप में उभर कर आया है। मनुवादी व्यवस्था ने जिनके जीवन को अज्ञान, अंधकार, विषमता तथा गुलामी में ढकेल दिया था और उनका जीवन नरकमय बना दिया। ऐसे समाज में शिक्षा की रोशनी का आगमन हुआ और उस रोशनी को अपनाकर अपने दाहक अनुभवों की अभिव्यकित आत्मकथाओं में आने लगी। आत्मकथा का एक अंश, “... कुछ दूरी पर दो बैल-गाड़ियां और मिली। गाड़ीवान ने केवल दो सवाल तड़ में कर दिए थे। कहं से आरे हो? हममें से इतने उसका जवाब कोई देता, दूसरा सवाल साथ-साथ कर दिया था— कौन जात हो?

आगे पूरन की गाड़ी खड़ी थी। वह कुछ देर चुप रहा। बा ने झटाक से उत्तर दे दिया था- चमार दरवज्जे से!

बा का ज़वाब सुनते ही गाड़ीवान ने तिक-तिक-तिक करते हुए गाड़ी आगे बढ़ा ली थी। जैसे उससे हमारी गाड़ी छू न जाए।”[12]

1997 में प्रकाशित हुई ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ सामाजिक सड़ाँध को उजागर करने वाली महत्त्वपूर्ण आत्मकथा है। बकौल लेखक “दलित जीवन की पीड़ाएँ असहनीय अनुभव है। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। एक ऐसी समाज व्यवस्था में हमने साँसें ली हैं, जो बेहद क्रूर और असमानवीय है।”[13] ‘जूठन’ के माध्यम से लेखक ने भारतीय समाज, संस्कृति, धर्म और इतिहास में पवित्र तथा उत्कृष्ट समझे जाने वाले तीन प्रतीकों क्रमशः शिक्षक संस्थान, गुरु यानि शिक्षक एवं प्रेम पर कड़ा प्रहार किया है तथा यह दिखाने की कोशिश की है कि दलित समाज को अपने व्यक्तित्व निर्माण और सामाजिक विकास की प्रक्रिया में इन तीनों प्रतीकों की नकारात्मक भूमिकाओं का सामना करना पड़ता है। आत्मकथा में उल्लेखित एक अंश, “अध्यापकों का आदर्श रूप जो मैंने देखा, वह अभी तक मेरी स्मृति से मिटा नहीं है। जब भी कोई आदर्श गुरु की बात करता है, तो मुझे वे तमाम शिक्षक याद आ जाते हैं, जो माँ-बहन की गालियाँ देते थे।”[14] इस तरह यह आत्मकथा पददलित, हाशिए पर बैठे लोगों के लिए मुख्यधारा में आने का मार्गदर्शन करती है।

‘दोहरा अभिशाप’ (1999) कौशल्या वैसन्त्री की यह आत्मकथा हिन्दी दलित साहित्य की पहली आत्मकथा है। एक दलित स्त्री को दोहरे अभिशाप से गुज़रना पड़ता है- एक उसका स्त्री होना और दूसरा दलित होना। कौशल्या वैसन्त्री इन दोनों अभिशापों को एक साथ जीती हैं जो उनके अनुभव जगत् को एक गहनता प्रदान करते हैं। इस आत्मकथा में तीन पीढ़ी की कथा है, जिसमें लेखिका की माँ भागिरथी, नानी, आजी और स्वयं लेखिका के जीवन का मार्मिक एवं विशद चित्रण हुआ है। लेखिका पुस्तक की भूमिका में घोषणा करती है, “पुत्र, भाई, पति सब मुझ पर नाराज हो सकते हैं, परन्तु मुझे भी तो स्वतंत्रता चाहिए कि मैं अपनी बात समाज के सामने रख सकूँ। मेरे जैसे अनुभव और भी महिलाओं के सामने आए होंगे परन्तु समाज और परिवार के भय से अपने अनुभव समाज के सामने उजागर करने से डरती और जीवन भर घुटन में जीती है। समाज की आँखें खोलने के लिए ऐसे अनुभव सामने आने की ज़रूरत है।”[15] लेखिका ने दलित समाज की अच्छाई-बुराई सभी का विवरण अपनी आत्मकथा में दिया है। जहाँ सवर्णों में विधवा-विवाह को मान्यता नहीं दी जाती है, वहीं दलित समाज में कोई रोक-टोक नहीं है अगर विधवा दुबारा शादी (पाट) करना चाहे।

‘दोहरा अभिशाप’ आत्मकथा के माध्यम से 20वीं सदी के आरम्भिक दशक से लेकर अब तक के दलित समाज की यथार्थवादी व बदलती हुई तस्वीर देखी जा सकती है। लेखिका ने आत्मकथा में ग़रीबी, अभाव, अशिक्षा, अज्ञान, अंधविश्वास, सामाजिक असमानता और जातिगत नफरत के कारण दलित बच्चों, स्त्रियों व पूरे दलित समाज की दुर्दशा का हृदय विदारक चित्रण किया है।

‘शिकंजे का दर्द’ सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा नारी के शोषण के विरुद्ध संघर्ष की गाथा है। लेखिका ने इस आत्मकथा के माध्यम से यह महत्त्वपूर्ण संदेश दिया है कि समाज के शोषित शिकंजे से मुक्ति पानी है तो सबसे पहले शिक्षित होना ही पड़ेगा। लेखिका के शब्दों में “सच यह था- कब आया यौवन, जान न पाया मन! शिकंजे में जकड़ा जीवन कभी मुक्त भाव का अनुभव ही नहीं कर पाया। जिंदगी एक निश्चित की गई लकीर पर चलती रही वह उमंग कभी मिली ही नहीं जो यौवन का अहसास कराती। उम्र के साथ कटु अनुभूतियों के दंश महसूस होते रहे। पीड़ा से छटपटाता मन मुक्ति का ध्येय लेकर आगे बढ़ता रहा। तब मुक्ति का मार्ग मैंने शिक्षा प्राप्ति को ही माना था।”[16]

हिन्दी में देर से ही सही पर सार्थक और आत्मपरीक्षण के साथ दलितों के संघर्ष का चित्रण होना एक तरह से क्रान्ति की तरह है। तुलसीराम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ पूरे दलित समाज के अदम्य जीवन संदर्भ के साथ आगे बढ़ने का संदेश देती है तथा यह भी बताती है कि जो नारकीय या दासतापूर्ण जीवन दलितों को मिला है उसमें व्यक्ति विशेष का नहीं बल्कि व्यवस्था का अपराध है।

डॉ. तुलसीराम द्वारा लिखित ‘मुर्दहिया’ आत्मकथा अपशकुन से शुभशकुन तक के सफर को वर्णित करती है। शिक्षा से कौन-सा परिवर्तन हो सकता है, इसका आदर्श उदाहरण मुर्दहिया प्रस्तुत करता है। दलित होने के नाते सामाजिक बहिष्कार और एक आँख से अंधा होने के कारण पारिवारिक बहिष्कार-उपेक्षा के शिकार तुलसीराम दोहरी मार झेलते हैं। ज्ञान और शिक्षा की आँख पाकर वे जिस मुकाम पर पहुँच चुके हैं उससे उनकी एक आँख अलंकार बनकर आती है, जो उनके लिए बहुमूल्य है। हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था निजीकरण के दौर से गुजर रही है और सरकारी नीतियाँ प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक नकारात्मक बनती जा रही है। ‘मुर्दहिया’ को पढ़ते हुए इसका एहसास हो जाता है कि हमारे देश में प्रतिभा की कमी नहीं है परंतु उस प्रतिभा को निखारने के लिए उचित शिक्षा तंत्र की आवश्यकता है।

डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा का दूसरा भाग ‘मणिकर्णिका’ 2014 में प्रकाशित हुआ। मणिकर्णिका यद्यपि तुलसीराम की आत्मकथा है, परन्तु इसमें उनके द्वारा प्रयुक्त ‘मैं’ एक व्यक्ति नहीं बल्कि हर पल बुद्ध के दर्शन से पूर्णतः प्रभावित एक अम्बेडकरवादी है, जिसके हर निर्णय और कार्य की पृष्ठभूमि इसी दर्शन से प्रभावित है, यह पुस्तक अन्य आत्मकथाओं की भाँति व्यक्तिगत पीड़ा नहीं बल्कि तत्कालीन समाज का सम्पूर्ण विवरण है। इस पुस्तक में तुलसीराम के मुर्दहिया के आगे का जीवन यानी अपने बचपन के ‘मुर्दहिया’ का साथ छोड़ ‘बनारस’ का हाथ पकड़ने ओर उनके बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में 10 साल का जीवन संघर्ष है। आत्मकथा में तुलसीराम ने बनारस के प्रसिद्ध घाटों और मंदिरों का चित्रण करते हुए यहाँ के ‘पंडों’ के पाखंड और कारोबार का वर्णन करते हुए बताया कि वे कैसे कृष्ण भक्ति का बखान करते हुए तथा भूत उतारने के बहाने महिलाओं को शोषण का शिकार बनाया करते हैं।

इसमें 70 के दशक की विभिन्न राजनीतिक धाराओं यथा मार्क्सवाद, समाजवाद, नक्सलवाद का दर्शन और खासकर उनके समकालीन इतिहास का ऐसा रोचक और सजीव चित्रण है, जो वर्तमान पीढ़ी के लिए और महत्वपूर्ण हो जाता है। आत्मकथा में राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, राज नारायण और इंदिरा गाँधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं का छात्र राजनीति पर असर का भी विवरण है। पुस्तक के अंत में आत्मकथाकार ने ‘प्रीति करे ना कोई’ नामक शीर्षक में अपने जीवन के प्रेम-प्रसंगों का सहज वर्णन किया है।

श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ 2009 में प्रकाशित हुई। लेखक ने दलित जीवन की वास्तविकता को इसमें निष्पक्ष भाव से तो व्यक्त किया ही है, साथ ही दलितों में व्याप्त जातिवाद, दलित पुरुषों द्वारा दलित स्त्रियों के उत्पीड़न के हृदयविदारक दृश्य भी हमें इस आत्मकथा में दिखाई पड़ते हैं। पिता की मौत की त्रासदी से लेकर हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण होने तक की बाल व युवा जिंदगी की जद्दोजहद उनसे अधिक कौन जान सकता है। कमोबेश लेखक ने अपने जीवन के हर पहलू की चर्चा इस पुस्तक में की है, जो अक्सर उन्हें अपने अतीत के सामने खड़ा करता है, चाहे भूख में मरे हुए जानवरों का माँस खाना हो, पढ़ाई के लिए मास्टर की मधुरवाणी में फंस कर बेगारी करना, यहाँ तक कि सुंदरियों का प्रसंग।[17]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्द्धकथा- भूमिका से, पृष्ठ 15
  2. स्वरचित जन्मचरित्र (ऋषि दयानन्द) संपादक भगवद्यत
  3. भारतेन्दु ग्रन्थावली, काशी नागरी प्रचारिणी सभा पृ. 813
  4. आप बीती, भाई परमानन्द, पृ. 185
  5. ‘सत्य के प्रयोग’ आत्मकथा भूमिका से
  6. आत्मकथा की संस्कृति- पंकज चतुर्वेदी, पृष्ठ 33-34
  7. हिन्दी साहित्य का इतिहास, सम्पादक- डॉ. नगेन्द्र, सह-सम्पादक- डॉ. हरदयाल, पृ. 815
  8. आत्मकथा के प्राक्कथन से (राजेन्द्र बाबू), पृष्ठ 172
  9. हिन्दी साहित्य का इतिहास, सम्पादक- डॉ. नगेन्द्र, सह-सम्पादक- डॉ. हरदयाल, पृ. 816
  10. आत्मकथा की संस्कृति, पंकज चतुर्वेदी, पृष्ठ 110
  11. दलित साहित्य समसामयिक संदर्भ, डॉ. श्रवण कुमार
  12. अपने-अपने पिंजरे, मोहनदास नैमिशराय, पृ. 63
  13. जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकि
  14. जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ. 14
  15. दोहरा अभिशाप, कौशल्या वैसंत्री भूमिका से
  16. शिकंजे का दर्द, सुशीला टाकभोरे, पृ. 114
  17. आत्मकथा की विकास-यात्रा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 3 नवंबर, 2016।

बाहरी कड़ियाँ

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